मिल जुलकै नया हरयाणा हम घना आलिशान बनावांगे||
ना बराबरी खत्म करकै नै हरयाणा आसमान पहोंचावांगे ||
बासमती चावल हरयाने का दुनिया के देशां मैं जावै आज
चार पहियें की मोटर गाड़ी यो सबतें फालतू बनावै आज
खेल कूद मैं हम आगै बढ़गे एसिया मैं सम्मान बधावांगे ||
चोरी जारी थाग्गी नहीं रहवैन्गी भ्रष्टाचार नहीं टोह्या पावै
मैरिट तैं मिलैं दाखिले सबनै शिक्षा माफिया खड्या लखावै
मिल सारे हरयाणा वासी इन बाताँ नै परवान चढ़ावांगे ||
ठेकेदारां की ठेकेदारी ख़त्म होज्या ख़त्म थानेदारी होज्या
बदमाशों की बदमाशी ख़त्म होज्या ख़त्म फेर ताबेदारी होज्या
निर्माण और संघर्ष का नारा यो लगाके नै जी ज्यान उठावांगे||
दहेज़ खातिर दुखी होकै औरत नहीं फांसी खा हरयाणा मैं
कदम बढ़ाये एक बै आगै हटके ना पाछै जाँ हरयाणा मैं
बराबर का दर्जा देकै नै बंद कलियाँ के अरमान खिलावांगे ||
छुआ छूत का नहीं नाम रहै सब रल मिलकै रहै गामाँ मैं
प्यार मोहब्बत त्याग तपस्या सब कुछ झलकै कहैं गामाँ मैं
दिखा नया रास्ता समाज नै बिना बात का घमासान मिटावांगे||
हरयाणा के लड़के और लड़की कन्धे तै कन्धा मिला चालैंगे
देकै क़ुरबानी ये छोरी छोरे नए हरयाणा की नींव डालैंगे
गीत रणबीर सिंह नै बनाया मिलके मजदूर किसान गावांगे ||
Saturday, November 6, 2010
जुलूस ----अश्वनी चौधरी
सुनो
कितना शोर उठता है
उस शहर से
जहाँ बसा करते थे ऐसे लोग
जो गूंगे समझे जाते थे
देखो
कितनी आसानी से नापते हैं
राह को कदम उनके
जिनकी आँखों पार पड़े थे परदे
देखो
कितने जोशीले हैं लोग
उठो--- देखो
आ गया है जुलूस
तुम्हारे घर के सामने
उठो
और शामिल हो जाओ
इस जुलूस में
कहीं ऐसा न हो
कि जुलूस निकलने के बाद तुम
दब कर रह जाओ
उसी गर्द के नीचे
जिसे तुम झाड़ नहीं पा रहे हो
उस डर के कारण जिसे बसा दिया है
तुम्हारे दिल में
उन मुठी भर लोगों ने
जिनके खिलाफ
काले झंडे लिए
जा रहे हैं
ये लोग
प्रयास पत्रिका
जन -फरवरी १९८३ अंक
--
सुनो
कितना शोर उठता है
उस शहर से
जहाँ बसा करते थे ऐसे लोग
जो गूंगे समझे जाते थे
देखो
कितनी आसानी से नापते हैं
राह को कदम उनके
जिनकी आँखों पार पड़े थे परदे
देखो
कितने जोशीले हैं लोग
उठो--- देखो
आ गया है जुलूस
तुम्हारे घर के सामने
उठो
और शामिल हो जाओ
इस जुलूस में
कहीं ऐसा न हो
कि जुलूस निकलने के बाद तुम
दब कर रह जाओ
उसी गर्द के नीचे
जिसे तुम झाड़ नहीं पा रहे हो
उस डर के कारण जिसे बसा दिया है
तुम्हारे दिल में
उन मुठी भर लोगों ने
जिनके खिलाफ
काले झंडे लिए
जा रहे हैं
ये लोग
प्रयास पत्रिका
जन -फरवरी १९८३ अंक
--
MUSTANDA
अवसरवादी मुस्टंडा
एक नन्हा सा अवसरवादी मुस्टंडा
जो मेरे जन्म के वक्त
किसी काली सुरंग से
भित्तर घुस आया था
जवान हो गया है
एक जहरीले नाग की तरह |
जब वह मचलता है
तो फुंफकारता है
उस की चिरी हुयी जीभ
मेरे नथुनों में लपलपाती है
मेरा साँस लेना दूभर हो जाता है
और एक कंपकंपी दौड़ जाती है
मेरे जिस्म के रोयें रोयें में |
जब वह सड़क पर आते हुए
आदमीनुमा हड्डियों के ढांचे को देखता है
जिसे लीर लीर हुए कपड़ों ने
कुछ छिपा रखा है , कुछ दिखा रखा है
तब इस मुस्टंडे के माथे पर
बाल पड़ जाते हैं
और वह दनदना उठता है
किसी बावर्दी थानेदार की भांति
जिसे मुफ्त की शराब ने गरमा रखा हो
उसे सख्त नफरत है छोटे छोटे लोगों से
क्योंकि इन लोगों को
सिवाय भीड़ बनने के
और कोई काम नहीं
कभी बन जाते हैं ये खाली बोतलें
कहीं हो जाते हैं ये खालीं कनस्तर
राशन की बोरियों के आगे
कभी उबलने लगते हैं नारे बनकर
फैकटरी के गाते के सामने |
कभी लम्बी लाईन बन जाते हैं बीमारी की या बेकारी की
अब तो ये दिल्ली के बोट कलब पे भी मंडराने लागे हैं
कभी मजदूर बनकर
कभी किसान होकर
और आपस में
मांगों के बोझ से झुके कन्धे अड़ा कर
ट्रेफिक ब्लाक कर देते हैं
वहां उनकी जीभें उग आती हैं
पेड़ों की टहनियों की तरह
और नारे पक्षी बनकर
सभी और फडफड़ाने लगते हैं
लेकिन कितना खुशकिस्मत है वह गोल गुम्बद
जो इस भीड़ से कम से कम
एक किलोमीटर दूर रहता है
मेरी आँखों में
हालाँकि मैंने उन पर
इम्पोरटिड अमरीकन रंगीन चश्मा भी चढ़ा रखा है
भीड़ का कोई न कोई टुकड़ा
फंसा ही रहता है |
इच्छा रहती है इस मुस्टंडे की
गहरी छन् जाये किसी आला अफसर से
रिश्ता जुड़ जाये किसी बड़े दफ्तर से
या चिपक जाये फिर
किसी चलते पूर्जे मिनिस्टर से
जो उसके बेटे को
किसी ओहदे पर बिठा सकते हैं
या लगा सकते हैं किसी अच्छे विभाग में इंस्पैक्टर
यहाँ तनखा मामूली होते हुए भी
कोठियां खड़ी होती हैं
और बैंक बैलैंस बढ़ता है
लेकिन अब यह मुस्टंडा
कुछ डरने लगा है
क्योंकि उसकी नस्ल के
और बहुत मुस्टंडे चक्कर लगाने लागे हैं
कोठियों दफ्तरों और रेस्ट हाउसों के |
उनकी पतंगें आपस ही में
उलझने लगी हैं
हर एक ने अपनी अपनी डोरी को
तेज शीशे वाला माँझा बना लिया है
ये डोरें आपस में ही कटती हैं |
एक पतंग सरसराती है
तो दूसरी दर्जनों गिरती हैं |
इसीलिए यह मुस्टंडा
भीड़ की तरफ भी देखता है
डरा डरा सा
क़ि क्या होगा तब
जब बड़ों ने धक्का दे दिया
और भीड़ ने भी पनाह न दी |
महावीर शर्मा
प्रयास पत्रिका
जन --- फरवरी 1983
एक नन्हा सा अवसरवादी मुस्टंडा
जो मेरे जन्म के वक्त
किसी काली सुरंग से
भित्तर घुस आया था
जवान हो गया है
एक जहरीले नाग की तरह |
जब वह मचलता है
तो फुंफकारता है
उस की चिरी हुयी जीभ
मेरे नथुनों में लपलपाती है
मेरा साँस लेना दूभर हो जाता है
और एक कंपकंपी दौड़ जाती है
मेरे जिस्म के रोयें रोयें में |
जब वह सड़क पर आते हुए
आदमीनुमा हड्डियों के ढांचे को देखता है
जिसे लीर लीर हुए कपड़ों ने
कुछ छिपा रखा है , कुछ दिखा रखा है
तब इस मुस्टंडे के माथे पर
बाल पड़ जाते हैं
और वह दनदना उठता है
किसी बावर्दी थानेदार की भांति
जिसे मुफ्त की शराब ने गरमा रखा हो
उसे सख्त नफरत है छोटे छोटे लोगों से
क्योंकि इन लोगों को
सिवाय भीड़ बनने के
और कोई काम नहीं
कभी बन जाते हैं ये खाली बोतलें
कहीं हो जाते हैं ये खालीं कनस्तर
राशन की बोरियों के आगे
कभी उबलने लगते हैं नारे बनकर
फैकटरी के गाते के सामने |
कभी लम्बी लाईन बन जाते हैं बीमारी की या बेकारी की
अब तो ये दिल्ली के बोट कलब पे भी मंडराने लागे हैं
कभी मजदूर बनकर
कभी किसान होकर
और आपस में
मांगों के बोझ से झुके कन्धे अड़ा कर
ट्रेफिक ब्लाक कर देते हैं
वहां उनकी जीभें उग आती हैं
पेड़ों की टहनियों की तरह
और नारे पक्षी बनकर
सभी और फडफड़ाने लगते हैं
लेकिन कितना खुशकिस्मत है वह गोल गुम्बद
जो इस भीड़ से कम से कम
एक किलोमीटर दूर रहता है
मेरी आँखों में
हालाँकि मैंने उन पर
इम्पोरटिड अमरीकन रंगीन चश्मा भी चढ़ा रखा है
भीड़ का कोई न कोई टुकड़ा
फंसा ही रहता है |
इच्छा रहती है इस मुस्टंडे की
गहरी छन् जाये किसी आला अफसर से
रिश्ता जुड़ जाये किसी बड़े दफ्तर से
या चिपक जाये फिर
किसी चलते पूर्जे मिनिस्टर से
जो उसके बेटे को
किसी ओहदे पर बिठा सकते हैं
या लगा सकते हैं किसी अच्छे विभाग में इंस्पैक्टर
यहाँ तनखा मामूली होते हुए भी
कोठियां खड़ी होती हैं
और बैंक बैलैंस बढ़ता है
लेकिन अब यह मुस्टंडा
कुछ डरने लगा है
क्योंकि उसकी नस्ल के
और बहुत मुस्टंडे चक्कर लगाने लागे हैं
कोठियों दफ्तरों और रेस्ट हाउसों के |
उनकी पतंगें आपस ही में
उलझने लगी हैं
हर एक ने अपनी अपनी डोरी को
तेज शीशे वाला माँझा बना लिया है
ये डोरें आपस में ही कटती हैं |
एक पतंग सरसराती है
तो दूसरी दर्जनों गिरती हैं |
इसीलिए यह मुस्टंडा
भीड़ की तरफ भी देखता है
डरा डरा सा
क़ि क्या होगा तब
जब बड़ों ने धक्का दे दिया
और भीड़ ने भी पनाह न दी |
महावीर शर्मा
प्रयास पत्रिका
जन --- फरवरी 1983
एक की उमर लाम्बी होज्या ,दूजा बिन मौत मरैगा
एक पड्या कीचड के मैं दूजा चाँद की सैर करैगा
एक हाँडै बिना पढ़ाई, दूजा घनी पढ़ाई पढ़ ज्या
एक सोवै फूटपाथ पै दूजा असमाना पै चढ़ ज्या
एक मांगे एक एक आन्ना दूजे पै पीसा बेउनमाना
एक तो रहवै भूखे पेट दूजा जावै रोज जिमखाना
एक पै तिन तिन रानी दूजा ओवर ऐज होवैगा
एक कै मने रोज दिवाली दूजा अँधेरे मैं सोवैगा
एक के बालक राज करै दूजे के बर्तन मान्जैंगे
एक मरै बिना दवाई दूजे कै पाछै डाक्टर भाजैंगे
एक तो गरीब कुहावैगा दूजा अमीर घना ए होज्यावै
एक नै अर्थी ना मिलै दूजा चन्दन मैं फून्क्या जावै
एक पड्या कीचड के मैं दूजा चाँद की सैर करैगा
एक हाँडै बिना पढ़ाई, दूजा घनी पढ़ाई पढ़ ज्या
एक सोवै फूटपाथ पै दूजा असमाना पै चढ़ ज्या
एक मांगे एक एक आन्ना दूजे पै पीसा बेउनमाना
एक तो रहवै भूखे पेट दूजा जावै रोज जिमखाना
एक पै तिन तिन रानी दूजा ओवर ऐज होवैगा
एक कै मने रोज दिवाली दूजा अँधेरे मैं सोवैगा
एक के बालक राज करै दूजे के बर्तन मान्जैंगे
एक मरै बिना दवाई दूजे कै पाछै डाक्टर भाजैंगे
एक तो गरीब कुहावैगा दूजा अमीर घना ए होज्यावै
एक नै अर्थी ना मिलै दूजा चन्दन मैं फून्क्या जावै
CAPABILITY OF OINDIA
भारत की क्षमता पर मुझको नहीं शक यारो
किसान मेहनती यहाँ मिले ना चाहे हक़ यारो
भारत की क्षमता पर मुझको नहीं शक यारो
किसान मेहनती यहाँ मिले ना चाहे हक़ यारो
कितना अच्छा हो सबगर शामिल हों विकास में
किसान भी बना पायें जगह अपनी इतिहास में
मेहनत करके देखो भारत आगे हाँ ले जायेंगे
यह बात अलग फायदा मुठ्ठी भर ही उठाएंगे
अम्बानी प्रेमजी सोचो फल सबमें बँट पायें
हमारी मेहनत का फल वाजिब सा मिल जाये
किसान मेहनती यहाँ मिले ना चाहे हक़ यारो
भारत की क्षमता पर मुझको नहीं शक यारो
किसान मेहनती यहाँ मिले ना चाहे हक़ यारो
कितना अच्छा हो सबगर शामिल हों विकास में
किसान भी बना पायें जगह अपनी इतिहास में
मेहनत करके देखो भारत आगे हाँ ले जायेंगे
यह बात अलग फायदा मुठ्ठी भर ही उठाएंगे
अम्बानी प्रेमजी सोचो फल सबमें बँट पायें
हमारी मेहनत का फल वाजिब सा मिल जाये
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