Saturday, July 12, 2014

हरयाणा ज्ञान विज्ञानं समिति स्टेट कोर की मीटिंग

हरयाणा ज्ञान विज्ञानं समिति स्टेट कोर की मीटिंग
डाक्टर आर एस दहिया , सोहन दास , नरेश प्रेरणा , प्रमोद गौरी , भीम सिंह
एजेंडा --1 . रिव्यु रिपोर्टिंग
2. आगे की गतिविधियाँ
3 . अन्य एजेंडा

सोहन दास जी ने रिपोर्ट रखी । नरवाना खण्ड का सम्मलेन हुआ । इसमें 51 डेलीगेट्स थे ।  होंसले में थे । राजवीर को सेक्रेटरी बनाया गया है । जींद शहर की कमेटी का भी पुनर्गठन किया गया । 26 में से 18 सदस्य आये । 7 लोगों की शहर कमेटी बनाई गयी है । यशपाल सोफट वेयर इंजीनियर को सेक्रेटरी और देवेंदर को ट्रैजरार बनाया गया है । 6 जुलाई को जिला सम्मलेन हरयाणा ज्ञान विज्ञानं समिति जींद का किया गया । 65 डेलीगेट्स की लिस्ट बनाई गयी थी ।  54 आये । उचाना से हाजरी कम रही । जिले भर में 21 मीटिंगें तय की गयी । गाओं में भी मीटिंगें की और वहां के अजेंडे भी डिस्कस करके जिले के सम्मलेन में शामिल किये गए । सोहन दास जी प्रधान सुरेश कुमार सेक्रेटरी राम चन्दर वाईस प्रेजिडेंट राजेश जॉइंट सेक्रेटरी कर्मवीर को ट्रैजरार चुना गया । ज्ञान विज्ञानं समिति की नाटक मंडली का भी पुनर्गठन किया गया है।  3 -5 बजे तक रिहर्सल की योजना बनाई गयी है । जींद शहर की दो कॉलोनियों का सर्वे करने की योजना है । जहाँ प्रवासी लोग रहते हैं ।
हिसार --मीटिंग की गयी है 27 जुलाई के प्रोग्राम की तैयारियों को लेकर ।
रोहतक -- पठाणीया  स्कूल में कार्यक्रम किया गया है 8 -9 जुलाई को । वेदप्रिया और रोमेश जी रिसोर्स पर्सन रहे । असेम्बली में चमत्कारों का पर्दाफाश का आयोजन किया गया । इसके इलावा एक मीटिंग की भी योजना है  27 के प्रोग्राम  के लिए । 25 लोग हो सकते हैं । ऑनर किलिंग पर एक फिल्म में मदद राजू और दीप्ती की । अपनी भी कुछ सूट की है ।
पानीपत ---स्कूलों के कार्यक्रम सी आर पी प्रोग्राम के साथ जोड़कर किये गए । काफी सफल अनुभव रहा । 12 स्कूलों और 1 कॉलेज में यह कार्यक्रम आयोजित किया गया । 14 दिन का कुल मिलाकर यह कार्यक्रम रहा । स्टाफ का अलग । कॉलेज का अलग और स्कूल के बच्चों का अलग कार्यक्रम रहा । इसमें 17 रिसोर्स पर्सन की भागीदारी रही । 1600 विद्यार्थी ,80 अध्यापक और 17 रिसोर्स पर्सन की हिस्सेदारी रही । तय किया है कि इसकी निरंतरता बनी रहे । छुटियों के बाद दो तीन स्कूलों की फरमाइस आई है । राजेंदर 15  दिन की अल्मोड़ा में एक वर्कशॉप में शामिल हुआ । विषय था " ड्रामा इन एजुकेशन "।  पर्चों पर विचार विमर्श , खेल की भूमिका , कहानी की भूमिका , कहानी से नाटक की भूमिका , नाटक की प्रोसेस आदि पर अच्छा काम हुआ । स्कूलों के साथ जोड़कर नाटक की भूमिका की अहमियत पर चर्चा । 5 -6 गांव जैसे टिवाना, हथवाला, रकसखेड़ा ,में मेम्बरशिप की है । न्याय  का मसला  --कई केस मारपीट के ।
साक्षर भारत जथा -- इस आर प्रमोद जी ने रिपोर्ट रखी  । 80 गांव तय किये तो दो चार गांव बदले मगर कार्यक्रम 80 में हुआ । रिसोर्स पर्सन भी गए हैं प्रोग्रामों में । करनाल में राजेंदर और अबरोल राममेहर , हिसार में धरम सिंह कैथल कमजोर रहा मगर एच जी  वी एस के संज्ञान में था , जींद राम चन्दर । एक नयी शुरुआत नाटक । ज्यादातर कलाकार नए थे । कंटेंट मेन्टेन रहा । एक जगह सामूहिक रेप का मामला था । वहां का सरपंच  दोषियों को पकड़वाना चाहता था । थुरळक गांव । नाटक का फैसला ।  सी आई डी वहां पहुंची । जथ्थे  को थानेदार ने एक कप चाय पर बुलाया है ।  लीडरशिप गयी । डी एस पी की इंटरवेंसन से निपटारा हुआ । कैथल में एक पंडितों के गांव  में भ्रूण हत्या पर चर्चा और चमत्कारों के पर्दा फर्श का विरोध हुआ । नास्तिक उग्र भी है । आर एस एस के लोग भी थे । सुलटा गया मामले को । 22000 के लगभग दर्शक एड्रेस हुए। 40000 के लगभग चंदा भी हुआ । कुछ खर्च भी हुआ । कलाकारों का खाना --गांव वालों ने अरेंज किया --1 . 5 लाख के लगभग । स्कूलों ने बस दी --ड्राइवर 300 और इतना ही तेल का खर्चा । राममेहर के गांव में सत्य मेव जयते की शूटिंग भी हुई । फूटेज बाद में देंगे । सरपंच ने 5100 रूपये दिए । तैयारी में 7 दिन की कार्यशाला बहबलपुर के स्कूल में की गयी । एक मीटिंग कलाकारों की  गयी । इंटैक्ट रहना चाहते हैं । गायन के हुनर और वाद्य के हुनर की 7 दिन की कार्यशाला सोच रहे हैं । गायन मंडलियां तयार हो जाएँ । चौपाल कार्यक्रम की तयारी। किताबें कम  बिकी । 30 गांव में चौपाल कार्यक्रम की योजना । जिलों के साथ भी इसका रिव्यु किया जाये । हिसार में एक बैठक बुलाई और जथ्थे पर चर्चा हुई है । जींद में भी मीटिंग हुई है । 80 गांव में प्रेम चंद जयंती पर एक जान वचन का कार्यक्रम प्लान किया है । स्कूल में दिन में और चौपाल में श्याम को ।


डीप वेन थ्रोम्बोसिस

डीप वेन थ्रोम्बोसिस

        1.  किसे कहते हैं?

जब खून के नसों में खून का थक्का जम जाता है, उसेथ्रोम्बोसिस कहते हैं| 
अगर यह शरीर के भीतरी नसों में होता है, तो उसे डीप वेन थ्रोम्बोसिस कहते हैं| 
यह अकसर पैर के नसों में होता है|
         2.  क्या महत्व है?
अगर यह जमा हुआ खून का थक्का, पैर से निकल कर फेफड़ों तक पहुंच जाता तो यह
 भयानक बीमारी कर सकता है या फिर जानलेवा भी हो सकता है|
          3.  क्यों होता है?
डी वी टी खून के जमने से होता है| इसके विभिन्न कारण हैं, लेकिन मुख्य रूप से दो प्रकार के कारण हो सकते हैं|
  • 1 पहला, की खून का बहाव धीरे है या रुक गया है| उदाहरण के लिए नीचे अनेक स्थिती दिए गए हैं, जिसमें कि पैर का उपयोग कम होता है -
    • किसी बीमारी या गर्भ में बिस्तर पर लेटे रहना पड़ रहा है|
    • आप अधिकतर खड़े होकर काम करते हैं, जैसे कि अध्यापक, नर्स, सर्जन या अन्य|
    • आप लंबे समय तक पैर नहीं चलाते हैं, जैसे कि बहुत देर का विमान यात्रा|
  • 2 दूसरा कि खून में जमने का प्रवृती बढ़ गया है
  • खून में अनेक प्रकार के चीज होते हैं, कुछ का काम होता है किसी शरीर के हिस्से के  कटने पर खून को जमाना और कुछ का काम होता है कि खून के नसों के अंदर खून को बहने देना| सामान्य स्थिती में, ये दोनों तरह के पदार्थ संतुलित मात्रा में रहते हैं| अगर किसी कारण से यह संतुलन बिगड़ता है, तो नसों के अंदर खून जम सकता है|यह कोएगुलेसन सिस्टम और नेचुरल कोएगुलेंट फैक्टर्ज के तथा कोएगुलेसन और फिब्रिनोलीटिक सिस्टम के  बड़े ही नाजुक संतुलन पर निर्भर करता है । बहुत से कारकों में से कोई भी कारक अकेले या मिलकर इस संतुलन को बिगाड़ सकते हैं और खून जमने की शुरुआत कर सकते हैं \ इसका कोई टाइम फ्रेम नहीं निकाला जा सका है । 
     उदाहरण के लिए नीचे अनेक स्थिती दिए गए हैं -
    • किसी भी प्रकार का सर्जरी, जो कि पैर, जांघ, कमर या पेल्विस पर किया गया हो|
    • कैंसर होने से डी वी टी का खतरा बढ़ जाता है|
    • धूम्रपान करने से डी वी टी का खतरा बढ़ जाता है|
    • दिल का बीमारी जिसमें दिल कमजोर हो जाता है | इसे कंजेस्टिव  हार्ट फैलिअर (congestive heart failure) कहते हैं| इस स्थिती में दिल पूरे तरह से खून को पम्प करने में सक्षम नहीं होता है, और खून पैरों में जमा होने लगता है|
    • पैर के नसों के कमजोरी से जिसमें भी खून पैरों में जमा होने लगता है| सामान्य स्थिती में खून को पैर से दिल की  तरफ लौटना चाहिए| इसमें पैर में एक तरफ जाने के लिए वाल्व होता है, जो खून के  बहाव को दिल के तरफ रखता है| अगर नसों के वाल्व में कमजोरी आ जाती  है, तो खून के बहाव में रुकावट आ जाती  है, और फिर पैर में खून जमा होने लगता है|
    • अगर आप गर्भ निरोधक गोली (oral contraceptive pills) लेते हैं तो भी यह बीमारी हो सकती है 
    • अगर आपको मोटापा है
    • अगर आपको मीनोपॉज  (menopause) हो चुका है

4.  लक्षण

आधिकांश समय इसका कोई लक्षण नहीं होता है| लेकिन जब खून का थक्का जमा होने लगता है, तब इसके लक्षण प्रकट हो जाते हैं| कुछ लक्षण नीचे दिए गए हैं, जो कि पैर में होते हैं| यहां पैर से मतलब है तलवा से लेकर जांघ तक कोई भी जगह|
  • पैर का फूलना
  • पैर में दर्द होना
  • पैर लहर्ना
  • पैर में अत्यन्त खुजली होना
  • पैर का रंग बदलना - लाल या नीला पड़ जाना

5.  जांच

  • सोनोग्राम (sonogram) - मशीन द्वारा बाहर से नसों का फोटो खींचना
  • वेनोग्राफी (contrast venography) - नसों में सुई द्वारा एक तरह रंग दिया जाता, और फिर उसका फोटो खीचा जाता है
  •  कलर डॉप्लर स्टडी की जाती है जिससे नाड़ी  में खून कहाँ जमा हुआ है और कहाँ तक जमा हुआ है इसका पता चल जाता है और इलाज शुरू कर दिया जाता है । 
  • इसके साथ ही खून के टेस्ट भी करवाये जाते हैं --बी टी सी टी ब्लीडिंग टाइम और क्लॉटिंग टाइम । प्रोथ्रॉम्बिन टाइम 10 to 14 सेकिण्ड , पार्सिअल प्रोथ्रॉम्बोप्लास्टिन  टाइम--25-35  सेकिण्ड और आई अन आर ( INR) नार्मल स्तर 0.9 to --- 1.1.होता है । जब दवाई दी जाती है तो यह INR 2 -3. 5  के बीच रहना चाहिए । 

6.  इलाज

इसमें खून के थक्का को गलाने के लिए दवा लिया जाता है| यह दवा अस्पताल में शुरू किया जाता है| ये दवाईयां  खून को पतला करती  हैं, इसीलिये  अनेक बार खून की  जांच की  जायेगी | ये दवा करीब 6 महीनों तक लेनी  पड़ सकती  हैं| साथ ही उन कारणों को पहचानना होगा जिससे आपको यह बीमारी हुआ, और उसे हटाने के लिए आपको उपाय करना होगा|

  • हैपेरिन -तुरंत असर करती है इसलिए पहले इसके टीके से  इलाज  किया जाता है और 4 या 5 दिन के बाद गोली सिंटरओम (वारफैरिनसे इलाज आगे बढ़ाया जाता है और टीम महीने से छह महीने तक इलाज किया जाता है । 

फर्स्ट ड्राफ्ट 









पहनावा



पहनावा – व्यक्तिगत स्वतंत्रता या वैचारिक जकड़न?

      अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस के अवसर पर निकाले गये एक पर्चे में एक महिला संगठन द्वारा अखबारों, टीवी, फ़िल्मों इत्यादि में प्रस्तुत ‘अश्लीलता और कामुकता फ़ैलाने वाली सामग्री’ का विरोध किया गया था. स्थानीय स्तर पर भी महिला संगठन फिल्मों में प्रस्तुत अश्लीलता के विरूद्ध कार्यवाही की मांग करते रहे हैं और कई बार ऐसे फिल्मी पोस्टरों को फाड़ने का अभियान चलाते रहे हैं. दूसरी ओर, जब अश्लील पहनावे पर रोक लगाने की बात आती है तो आम तौर पर महिला संगठन इसके विरोध में आ खड़े होते हैं. प्रस्तुत लेख में इस परस्पर विरोधी विचार की पड़ताल की गई है..
प्रचार माध्यमों में महिलाओं की जो छवि प्रस्तुत की जाती है, उस के कई आयामों की आलोचना की जाती है. यहाँ हम यहाँ उस के केवल एक पक्ष की ही चर्चा करेंगे. प्रचार माध्यमों द्वारा महिला देह का रेखांकन. यहाँ तक की शेव जैसे पुरुषों के प्रसाधनों के विज्ञापन में भी महिलाएँ दिखाई देती हैं. महिला देह को रेखांकित भी कई तरीके से किया जाता है परंतु देह को रेखांकित करने में सब से बड़ी भूमिका महिला पात्रों के पहनावे की होती है. जो लोग महिला को मुख्य तौर पर देह के तौर पर देखते हैं, वे इस देह को, इस की बुनावट को, पहनावे (बहुत तंग ड्रैस या बहुत कम ड्रैस इत्यादि) के माध्यम से भी रेखांकित करते हैं. ज़ब देह को, ख़ास अंगों को रेखांकित करने वाली, उन की ओर ध्यान आकर्षित करने वाली वही ड्रैस आम महिला पहनती है, तो जाने-अनजाने वह भी महिला को मुख्यतौर पर देह के तौर पर देखने की रवायत में शामिल हो जाती है.
     अश्लील फिल्मी पोस्टरों पर महिला संगठनों द्वारा आन्दोलन किये जाते हैं, उन पर कालिख पोती जाती है. परंतु लगभग वैसा ही पहनावा जब सामन्य महिला पहनती है, तब इसे क्यों व्यक्तिगत स्वतंत्रता का मसला मान लिया जाता है? अगर पर्दे पर यह ‘अश्लीलता और कामुकता फ़ैलाने वाली सामग्री’ है तो वास्तविक वास्तविक दे पर यहाँ लगभग ऐसे ही जीवन में भी इन के प्रयोग का निषेध होना चाहिये.
सवाल केवल वस्त्रों की बनावट का नहीं है. महिलाओं द्वारा सजने-संवरने को, मेकअप को, पुरुषों के मुकाबले कहीं अधिक महत्व दिया जाना, उत्तरी भारत के घोर सर्दी के मौसम में भी शादी-ब्याह के मौके पर जब पुरूष गर्म कपड़ों की कई परत पहन कर भी ठिठुर रहे हों, वहाँ महिलाओं द्वारा गर्म कपड़े न पहन कर गर्मी की पोशाक पहनना, क्या उनकी सुन्दर दिखने की नैसर्गिक इच्छा मात्र माना जा सकता है? क्या इस व्यवहार का कोई सम्बन्ध उनकी सामाजिक तौर पर गढ़ी गई देह-केन्द्रित छवि से है या नहीं? इस का यह अर्थ कदापि नहीं है कि हर बार पहनावे का चुनाव करते हुये हर महिला सचेत रूप से देह दिखाऊ ड्रैस का चुनाव करती है. असल में हर पददलित समुदाय की तरह महिलाओं ने भी पुरुषवादी समाज द्वारा गढ़ी गई उनकी कमतर, देह केन्द्रित छवि को आत्मसात कर लिया है. प्रचलित या मुख्य धारा की विचारधारा की यही ख़ासियत होती है कि यह विचारधारा के तौर पर दिखाई न दे कर सामान्य, सर्वमान्य विचार जैसी लगती है, जीवन शैली का सामन्य अंग बन जाती है. हमारा यह मानना है कि दिखने-दिखाने पर महिलाओं द्वारा दिया जाने वाला महत्व, पहनावे का उन का चुनाव, नैसर्गिक चुनाव न हो कर महिलाओं को देह तक सीमित करने वाली विचारधारा के वर्चस्व का परिणाम है.
इस सन्दर्भ  में कुछ घटनाओं का ज़िक्र करना ज़रूरी लगता है. एक बुटीक पर एक महिला अपनी युवा बेटी के साथ कपड़े सिलवाने आई हुई थी. लड़के वाले उन के यहाँ आने वाले थे. युवती ने जो कपड़े पहने थे, वे भी आधुनिक ही थे. उसी माप के और कपड़े सिलवाने थे. केवल एक बदलाव था. माँ ने (बेटी ने नहीं) कमीज़ का गला एक इंच और नीचे तक काटने को कहा. मैं इस का कारण तो पूछना चाहता था परंतु पूछने की हिम्मत नहीं कर पाया. अब सार्वजनिक प्रश्न के रूप में पूछना चाहता हूं.
कई साल पहले की एक और घटना है. एक लड़के के प्रेम विवाह का विरोध उस की माँ ने कई कारणों से किया, जिनमें से एक कारण यह भी था कि लड़की सुन्दर नहीं थी। मुझे यह समझ नहीं आया कि लड़की के सुन्दर होने या न होने से मां को क्या लेना? कम से कम यह बात तो लड़के पर ही छोड़ी जानी चाहिये. जो बात तब समझ नहीं आयी, अब आ गई है. आम महिला भी आमतौर पर अपने आप को पुरूष वादी चश्मे से देखती है और इस के चलते अपने दैहिक रूप को बहुत अधिक महत्व देती है. ऐसा नहीं है कि यह हमेशा सचेत और सजग रूप से होता हो. यह हमारी संस्क़ृति, जिसे ज़्यादातर समय बिना सोच-विचार के स्वीकार कर लिया जाता है, और हमारी सामान्य जीवनशैली में शामिल हो चुका है. यहाँ तक कि अगर कोई महिला सजती-संवरती नहीं है तो उसे असामान्य, यहाँ तक की विधवा तक मान लिया जाता है.
क्या इस सब से यह निष्कर्ष निकलता है कि पुरूष प्रधानपंचायतों या पुरूष प्रधानाचार्यों द्वारा महिलाओं के पहनावे पर लगाई गई रोक, जो आमतौर पर पश्चिमि पहनावे पर रोक का रूप लेती है, सही है? हमारा कहना मात्र इतना है कि पहनावे के नियम-कायदे बनाये जा सकते हैं और ऐसे नियम-कायदे बनाने को अपने आप में व्यक्तिगत स्वतंत्रता का हनन नहीं माना जाना चाहिये. परन्तु स्वीकार्य नियम-कायदे पुरुषों और महिलाओं दोनों के लिये होने चाहियें. इस के साथ-साथ महिलाओं के लिये बने नियम-कायदों के निर्धारण में महिलाओं की ही मुख्य भूमिका होनी चाहिये, उनकी सुविधा-असुविधा का ध्यान रखा जाना चाहिये. तीसरी बात, अश्लील पहनावे में केवल पश्चिमि परिधान नहीं आते, परम्परागत पहनावे भी अगर देह की बुनावट को रेखांकित करने पर केन्द्रित हों तो अश्लील ही कहे जाएँगे. 
यह बात सही है कि हर संस्क़ृति और समाज के शालीनता और अश्लीलता के अपने पैमाने होंगे और इन में समय के साथ बदलाव भी आते हैं. परन्तु इन मापदण्डों का वस्तुनिष्ठ या सार्वभौमिक न होना ही इन्हें स्वत: अनुचित नहीं बना  देता. हर समाज के अपने मूल्य होते हैं और इसमें कुछ ग़लत भी नहीं है, बशर्ते कि ये मूल्य जनतांत्रिक भागेदारी से तय हों और (वैचारिक) अल्पसंख्यकों के मूलभूत अधिकारों का केवल बहुमत के आधार पर हनन न हो. (हम आमतौर पर भूल जाते हैं कि संविधान के अनुसार भी सब काम केवल बहुमत के आधार पर नहीं होते. कहीं दो-तिहाई बहुमत चाहिये होता है और कहीं इस से भी ज्यादा.) अगर महिला संगठन और अन्य जनतांत्रिक ताकतें इन प्रश्नों को सार्वजनिक विमर्श में नहीं लांयेगी, तो मैदान केवल प्रतिगामी ताकतों या केवल पुरूषों तक सीमित हो जायेगा.
इस सब का यह मतलब भी नहीं लिया जाना चाहिये कि दैहिक आकर्षण अपने आप में ग़लत है या कामेच्छा पाप है. ये स्वाभाविक मानवीय वृत्तियां हैं. परन्तु हर मानवीय वृत्ति सामाजिक दायरे में ही प्रतिबिम्बित होती है और होनी भी चाहिये. आकर्षक़ दिखना, अपने दैहिक आकर्षण को बढ़ाना/प्रदर्शित करना भी स्वाभाविक है परन्तु किसी भी चीज़ की अति अनुचित है. अगर अपने दैहिक आकर्षण का प्रदर्शन स्वाभाविक है तो इतना ही स्वाभाविक यह भी है कि हमारा अपने प्रेमी/प्रेमिका/पति/पत्नी के साथ व्यवहार और अपने भाई/बहन/माता/पिता के साथ व्यवहार अलग अलग होता है. अब क्योंकि पहनावा तो सामने वाले व्यक्ति के अनुसार बदला नहीं जा सकता, इस लिये वह शरीर, इस की बुनावट को रेखांकित करने वाला नहीं होना चाहिये. हो सकता है कुछ लोग यह कहें कि यह सब देखने वाले की नज़र पर निर्भर करता है. जो तंग या छोटे कपड़े किसी एक को शरीर की बुनावट की ओर ध्यान आकर्षित करने वाले लगते हैं, तो कोई और कह सकता है कि ऐसे कपड़े इस लिए पहने हैं कि वे ज्यादा सुविधाजनक हैं. इस का निर्णय तो जनतांत्रिक तरीके से ही हो सकता है. न ही रोक लगाने वालों को और न ऐसे कपड़े पहनने वालों को वीटो का अधिकार दिया जा सकता है   इन तंग और छोटे कपड़ों के सुविधाजनक होने के संदर्भ में दिल्ली का एक वाक्या याद आ रहा है. हमारे आगे-आगे भीड़ भरी सड़क पर धीमी गति से चलते ट्रैफ़िक में मोटरसाईकल पर पीछे बैठी एक युवती बार बार अपनी छोटी सी कमीज़ को नीचे खींच कर पैंट से बाहर झलकते अपने अधोवस्त्रों को ढकने का लगातार प्रयास कर रही थी.
एक ओर बुरका और पर्दा, ज़नाना रिहायश अलग और मर्दाना अलग, और दूसरी ओर व्यक्ति जो चाहे पहने, इसमें किसी और को क्या कहना - ये दोनों धुर विरोधी छोर हैं.  इन दोनों के बीच का रास्ता ही बेहतर विकल्प है. व्यक्तिगत स्वतंत्रता की अवधारणा समाज-निरपेक्ष नहीं होती. एक बाज़ार केन्द्रित और मुनाफ़े से संचालित समाज, और समतामूलक समाज की व्यक्तिगत स्वतंत्रता की अवधारणा एक जैसी कैसे हो सकती है? एक समाज जिसमें महिला को मुख्य तौर पर देह माना जाता हो और एक समाज जिसमें उसे मुकम्मल इंसान माना जाता हो, क्या दोनों समाजों में एक जैसा पहनावा होगा? ज़ाहिर है कि ये अवधारणाएँ समाज-सापेक्ष होती हैं परन्तु कई बार महिलाओं के प्रश्नों पर (और अन्य प्रश्नों पर भी) हम पाते हैं कि जागरूक/परिवर्तन कामी लोग भी पूंजीवादी समाज की अवधारणाएँ बिना जांच-पड़ताल के, ज्यों की त्यों अपना लेते हैं. जहाँ एक ओर केवल स्थानीयता तक सीमित होना ठीक नहीं है, वहीं अपनी परिस्थितियों को नज़रअंदाज़ करना भी ठीक नहीं है.

भले ही बलात्कार या छेड़-छाड़ की घटनाओं पर पहनावे में बदलाव का कुछ खास असर न पड़े, तो भी पहनावे में इस लिये शालीनता होनी चाहिये की महिलाएँ तो कम से कम अपने आप को मुकम्मल इन्सान समझें न कि देह मात्र. पहनावे के अलावा भी ओर कई आयाम हैं महिलाओं की देह केन्द्रित छवि के परंतु पहनावा दूर से, हर किसी को नज़र आने वाला और प्रभावित करने वाला आयाम है. इस लिये यह महत्वपूर्ण है. हालाँकि पहनावे के इस वैचारिक पक्ष के चलते ही हमें ‘अश्लील और कामुकता फ़ैलाने’ वाले पहनावे का विरोध करना चाहिये परंतु यह केवल वैचारिक महत्व का प्रश्न ही नहीं है. महिलाओं की देह केन्द्रित छवि पर टिका हुआ अरबों खरबों का प्रसाधन सामग्री का गैर-ज़रूरी  बाज़ार के चलते भी यह प्रश्न महत्वपूर्ण हो जाता है (हालाँकि अब देह प्रदर्शन और मेकअप केवल महिलाओं तक सीमित नहीं रह गये हैं कुछ अभिनेताओं के कमीज़ उतारने के दृश्य उनकी फ़िल्मों का अभिन्न अंग बन गये हैं और पुरुषों के सौन्दर्य प्रसाधन का बाज़ार भी बढ़ता जा रहा है). कम से कम विकास के वर्तमान रास्ते की आलोचना करने वालों को, महिला आन्दोलन और सामाजिक परिवर्तनकामी ताकतों को तो व्यक्तिगत स्वतंत्रता के नाम पर इस वैचारिक और बाज़ारी जकड़न को नज़रअंदाज़ नहीं करना चाहिये 

डीप वेन थ्रोम्बोसिस

स्वास्थ्य : एक और छुपा हुआ खतरा
डीप वेन थ्रोम्बोसिस  यानि दिल को खून वापिस ले जाने वाली गहरी नाड़ियों में रूकावट

साफ खून की नाड़ियों में रूकावट के बारे में तो बहुत से लोग जानते हैं परंतु इसी तरह दिल को वापिस खून ले जाने वाली नाड़ियों, खास तौर से टांग की नाड़ियों, में भी रूकावट भी उतनी ही खतरनाक साबित हो सकती है. आंकड़े बताते हैं कि इस से होने वाली सालाना मौतों की संख्या छाती के कैंसर, सड़क दुर्घटनाओं और एड्स से होने वाली मौतों से ज्यादा है. बिमारी होने के बाद पूरा इलाज हालांकि मुश्किल हैं परंतु कुछ सावाधानियां रखने से इस बिमारी से आसानी से बचा जा सकता है.
अंग्रेज़ी में इसे डीप वेन थ्रोम्बोसिस  कहा जाता है. दिल को वापिस खून ले जाने वाली दो तरह की नाड़ियां  होती हैं. एक जो चमड़ी की उपरी स्तह पर होती हैं और कभी कभी दिखाई भी देती हैं. दूसरी नाड़ियां गहरी होती हैं और उपर से दिखाई नहीं देती. दिल को खून वापिस ले जाने वाली इन गहरी नाड़ियों में (खास तौर पर पांवों  की नाड़ियों में) होने वाली रूकावट को ही डीप वैन थ्रोंबोसिस  कहते हैं.
      ये क्या है और क्यों होता है? 
टांग के अन्दर की इन नाड़ियों को हम दूसरा दिल भी कह सकते हैं. जैसे दिल साफ खून को सारे शरीर में मोटर की तरह पंप करता है उसी तरह टांग के अन्दर की ये नाड़ियां भी वापिस गंदे  खून को दिल में भेजने का काम करती हैं. इस के लिये इन में जगह जगह वाल्व होते हैं ताकि खून आगे ही आगे जाये और वापिस धरती की ओर न जाये. इस के लिये टांग की पिंडलियों में लगातार हरकत होना और उनका स्वस्थ्य होना जरूरी है. अगर किसी कारण से इन में हरकत होनी कम हो जाये तो खून की दिल को वापसी बाधित होती है और इस के चलते खून टांगो में ही इकट्ठा होने लग जाता है. और जब एक बार थोड़ा खून नाड़ी की दीवार पर जम जाता है तो उसके इर्दगिर्द और खून जमने की सम्भावना बढ़  जाती है. कई बार खून के इस थक्के (क्लोट )का एक हिस्सा टूट कर खून में बहने लग जाता है. जमे हुये खून के ये थक्के फेफड़े , दिल या गुर्दे में जा कर खतरनाक रूकावट पैदा कर सकते हैं.
लक्षण : नाड़ियों में होने वाली इस रूकावट के कोई बाहरी प्रारम्भिक लक्ष्ण नहीं होते. अगर कुछ घण्टों के लिये (कितने घंटो के लिये?) ही टांग/पिण्डलियों में हरकत न हो और खून का दौरा कम हो जाये तो ये बीमारी शुरू हो सकती है.तुरंत इस का कोई लक्ष्ण न भी दिखाई दे परंतु गम्भीर होने पर इस के निम्नलिखित लक्ष्ण हो सकते हैं.
1.               टांग मे दर्द रहना (regular or continuous ? acute or mild?
2.               टांग में सोजिश रहना.
3.               टांग का गर्म रहना.
4.               टांग के रंग में बदलाव
कारण
क.                    मां बनने के बाद जच्चा का चलना फिरना कम हो जाता है. दूसरी और इस दौरान शरीर में खून जमने की प्रक्रिया स्वाभाविक रूप से तेज होती है. इस लिये माँ बनने के बाद इस बिमारी का खतरा बढ़ जाता है.
ख.                    बुढ़ापा
ग.                    मोटापा
घ.                    धूम्रपान
ङ.                    वैरिकॉज  वेन्स  (विवरण आवश्यक है)
च.                    लम्बे समय तक बैठे या लेटे रहने के कारण (पलास्टर लगने के कारण, आप्रेशन होने के कारण, लम्बे सफर में, इत्यादि)
छ.                    हारमोन के कारण (विवरण आवश्यक है)
बचाव के तरीके
अ.                    लम्बे समय तक बैठे न रहें (कितने समय तक?). बीच बीच में उठ कर चहलकदमी करें (कितनी?)
आ.                    टांग के ऊपर टांग चढ़ा कर न बैठें.
इ.                    टांगों की मालिश??
ई.                    किसी भी कारण से अगर चलना फिरना सम्भव नहीं है तो टांगो या कम से कम टखनों को हिलाते रहें.
उ.                    माँ बनने के बाद शीघ्र ही (कितनी शीध्र?) चहल कदमी शुरू कर देनी चाहिये.
ऊ.                    स्वस्थ जीवन शैली अपनायें. वजन नियंत्रित रखें, नियमित व्यायाम करें और पौष्टिक (डिब्बा बन्द/फक्टरी उत्पादित के विपरीत) ताजा खाना लें जिसमें चिकनाई और मीठे की मात्रा कम हो.

ऋ.                    प्रयाप्त पानी पियें. महिलायें 2 से 2.5 लीटर और पुरूषों के लियी 3 से 3.5 लीटर प्रतिदिन तरल पदार्थ. प्यास न लगने पर भी पानी या तरल पदार्थ लें.