पहनावा – व्यक्तिगत स्वतंत्रता या वैचारिक जकड़न?
अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस के अवसर पर निकाले
गये एक पर्चे में एक महिला संगठन द्वारा अखबारों, टीवी, फ़िल्मों इत्यादि में प्रस्तुत
‘अश्लीलता और कामुकता फ़ैलाने वाली सामग्री’ का विरोध किया गया था. स्थानीय स्तर पर
भी महिला संगठन फिल्मों में प्रस्तुत अश्लीलता के विरूद्ध कार्यवाही की मांग करते
रहे हैं और कई बार ऐसे फिल्मी पोस्टरों को फाड़ने का अभियान चलाते रहे हैं. दूसरी
ओर, जब अश्लील पहनावे पर रोक लगाने की बात आती है तो आम तौर पर महिला संगठन इसके
विरोध में आ खड़े होते हैं. प्रस्तुत लेख में इस परस्पर विरोधी विचार की पड़ताल की
गई है..
प्रचार
माध्यमों में महिलाओं की जो छवि प्रस्तुत की जाती है, उस के कई आयामों की आलोचना
की जाती है. यहाँ हम यहाँ उस के केवल एक पक्ष की ही चर्चा करेंगे. प्रचार माध्यमों
द्वारा महिला देह का रेखांकन. यहाँ तक की शेव जैसे पुरुषों के प्रसाधनों के विज्ञापन
में भी महिलाएँ दिखाई देती हैं. महिला देह को रेखांकित भी कई तरीके से किया जाता
है परंतु देह को रेखांकित करने में सब से बड़ी भूमिका महिला पात्रों के पहनावे की
होती है. जो लोग महिला को मुख्य तौर पर देह के तौर पर देखते हैं, वे इस देह को, इस
की बुनावट को, पहनावे (बहुत तंग ड्रैस या बहुत कम ड्रैस इत्यादि) के माध्यम से भी
रेखांकित करते हैं. ज़ब देह को, ख़ास अंगों को रेखांकित करने वाली, उन की ओर ध्यान
आकर्षित करने वाली वही ड्रैस आम महिला पहनती है, तो जाने-अनजाने वह भी महिला को
मुख्यतौर पर देह के तौर पर देखने की रवायत में शामिल हो जाती है.
अश्लील फिल्मी पोस्टरों पर महिला
संगठनों द्वारा आन्दोलन किये जाते हैं, उन पर कालिख पोती जाती है. परंतु लगभग वैसा
ही पहनावा जब सामन्य महिला पहनती है, तब इसे क्यों व्यक्तिगत स्वतंत्रता का मसला
मान लिया जाता है? अगर पर्दे पर यह ‘अश्लीलता और कामुकता फ़ैलाने वाली सामग्री’ है
तो वास्तविक जीवन में भी इन के प्रयोग का निषेध होना चाहिये.
सवाल केवल वस्त्रों की बनावट का नहीं है. महिलाओं
द्वारा सजने-संवरने को, मेकअप को, पुरुषों के मुकाबले कहीं अधिक महत्व दिया जाना,
उत्तरी भारत के घोर सर्दी के मौसम में भी शादी-ब्याह के मौके पर जब पुरूष गर्म कपड़ों
की कई परत पहन कर भी ठिठुर रहे हों, वहाँ महिलाओं द्वारा गर्म कपड़े न पहन कर गर्मी
की पोशाक पहनना, क्या उनकी सुन्दर दिखने की नैसर्गिक इच्छा मात्र माना जा सकता है?
क्या इस व्यवहार का कोई सम्बन्ध उनकी सामाजिक तौर पर गढ़ी गई देह-केन्द्रित छवि से
है या नहीं? इस का यह अर्थ कदापि नहीं है कि हर बार पहनावे का चुनाव करते
हुये हर महिला सचेत रूप से देह दिखाऊ ड्रैस का चुनाव करती है. असल
में हर पददलित समुदाय की तरह महिलाओं ने भी पुरुषवादी समाज द्वारा गढ़ी गई उनकी
कमतर, देह केन्द्रित छवि को आत्मसात कर लिया है. प्रचलित या मुख्य धारा की
विचारधारा की यही ख़ासियत होती है कि यह विचारधारा के तौर पर दिखाई न दे कर
सामान्य, सर्वमान्य विचार जैसी लगती है, जीवन शैली का सामन्य अंग बन जाती है. हमारा
यह मानना है कि दिखने-दिखाने पर महिलाओं द्वारा दिया जाने वाला महत्व, पहनावे का
उन का चुनाव, नैसर्गिक चुनाव न हो कर महिलाओं को देह तक सीमित करने वाली विचारधारा
के वर्चस्व का परिणाम है.
इस सन्दर्भ
में कुछ घटनाओं का ज़िक्र करना ज़रूरी लगता है. एक बुटीक पर एक महिला अपनी
युवा बेटी के साथ कपड़े सिलवाने आई हुई थी. लड़के वाले उन के यहाँ आने वाले थे.
युवती ने जो कपड़े पहने थे, वे भी आधुनिक ही थे. उसी माप के और कपड़े सिलवाने थे.
केवल एक बदलाव था. माँ ने (बेटी ने नहीं) कमीज़ का गला एक इंच और नीचे तक
काटने को कहा. मैं इस का कारण तो पूछना चाहता था परंतु पूछने की हिम्मत नहीं कर
पाया. अब सार्वजनिक प्रश्न के रूप में पूछना चाहता हूं.
कई साल पहले की एक और घटना है. एक लड़के के प्रेम
विवाह का विरोध उस की माँ ने कई कारणों से किया, जिनमें से एक कारण यह भी था कि
लड़की सुन्दर नहीं थी। मुझे यह समझ नहीं आया कि लड़की के सुन्दर होने या न होने से
मां को क्या लेना? कम से कम यह बात तो लड़के पर ही छोड़ी जानी चाहिये. जो बात तब समझ
नहीं आयी, अब आ गई है. आम महिला भी आमतौर पर अपने आप को पुरूष वादी चश्मे से देखती
है और इस के चलते अपने दैहिक रूप को बहुत अधिक महत्व देती है. ऐसा नहीं है कि यह
हमेशा सचेत और सजग रूप से होता हो. यह हमारी संस्क़ृति, जिसे ज़्यादातर समय बिना
सोच-विचार के स्वीकार कर लिया जाता है, और हमारी सामान्य जीवनशैली में शामिल हो
चुका है. यहाँ तक कि अगर कोई महिला सजती-संवरती नहीं है तो उसे असामान्य, यहाँ तक
की विधवा तक मान लिया जाता है.
क्या इस सब से यह निष्कर्ष निकलता है कि पुरूष
प्रधानपंचायतों या पुरूष प्रधानाचार्यों द्वारा महिलाओं के पहनावे पर लगाई गई रोक,
जो आमतौर पर पश्चिमि पहनावे पर रोक का रूप लेती है, सही है? हमारा कहना मात्र इतना
है कि पहनावे के नियम-कायदे बनाये जा सकते हैं और ऐसे नियम-कायदे बनाने को अपने आप
में व्यक्तिगत स्वतंत्रता का हनन नहीं माना जाना चाहिये. परन्तु स्वीकार्य नियम-कायदे
पुरुषों और महिलाओं दोनों के लिये होने चाहियें. इस के साथ-साथ महिलाओं के
लिये बने नियम-कायदों के निर्धारण में महिलाओं की ही मुख्य भूमिका होनी चाहिये, उनकी
सुविधा-असुविधा का ध्यान रखा जाना चाहिये. तीसरी बात, अश्लील पहनावे में केवल
पश्चिमि परिधान नहीं आते, परम्परागत पहनावे भी अगर देह की बुनावट को रेखांकित करने
पर केन्द्रित हों तो अश्लील ही कहे जाएँगे.
यह बात सही है कि हर संस्क़ृति और समाज के शालीनता
और अश्लीलता के अपने पैमाने होंगे और इन में समय के साथ बदलाव भी आते हैं. परन्तु
इन मापदण्डों का वस्तुनिष्ठ या सार्वभौमिक न होना ही इन्हें स्वत: अनुचित नहीं बना देता. हर समाज के अपने मूल्य होते हैं और इसमें
कुछ ग़लत भी नहीं है, बशर्ते कि ये मूल्य जनतांत्रिक भागेदारी से तय हों और
(वैचारिक) अल्पसंख्यकों के मूलभूत अधिकारों का केवल बहुमत के आधार पर हनन न हो.
(हम आमतौर पर भूल जाते हैं कि संविधान के अनुसार भी सब काम केवल बहुमत के आधार पर
नहीं होते. कहीं दो-तिहाई बहुमत चाहिये होता है और कहीं इस से भी ज्यादा.) अगर
महिला संगठन और अन्य जनतांत्रिक ताकतें इन प्रश्नों को सार्वजनिक विमर्श में नहीं
लांयेगी, तो मैदान केवल प्रतिगामी ताकतों या केवल पुरूषों तक सीमित हो जायेगा.
इस सब का यह मतलब भी नहीं लिया जाना चाहिये कि
दैहिक आकर्षण अपने आप में ग़लत है या कामेच्छा पाप है. ये स्वाभाविक मानवीय
वृत्तियां हैं. परन्तु हर मानवीय वृत्ति सामाजिक दायरे में ही प्रतिबिम्बित होती
है और होनी भी चाहिये. आकर्षक़ दिखना, अपने दैहिक आकर्षण को बढ़ाना/प्रदर्शित करना
भी स्वाभाविक है परन्तु किसी भी चीज़ की अति अनुचित है. अगर अपने दैहिक आकर्षण का
प्रदर्शन स्वाभाविक है तो इतना ही स्वाभाविक यह भी है कि हमारा अपने
प्रेमी/प्रेमिका/पति/पत्नी के साथ व्यवहार और अपने भाई/बहन/माता/पिता के साथ
व्यवहार अलग अलग होता है. अब क्योंकि पहनावा तो सामने वाले व्यक्ति के अनुसार बदला
नहीं जा सकता, इस लिये वह शरीर, इस की बुनावट को रेखांकित करने वाला नहीं होना
चाहिये. हो सकता है कुछ लोग यह कहें कि यह सब देखने वाले की नज़र पर निर्भर करता
है. जो तंग या छोटे कपड़े किसी एक को शरीर की बुनावट की ओर ध्यान आकर्षित करने वाले
लगते हैं, तो कोई और कह सकता है कि ऐसे कपड़े इस लिए पहने हैं कि वे ज्यादा
सुविधाजनक हैं. इस का निर्णय तो जनतांत्रिक तरीके से ही हो सकता है. न ही रोक
लगाने वालों को और न ऐसे कपड़े पहनने वालों को वीटो का अधिकार दिया जा सकता है
इन तंग और छोटे कपड़ों के
सुविधाजनक होने के संदर्भ में दिल्ली का एक वाक्या याद आ रहा है. हमारे आगे-आगे
भीड़ भरी सड़क पर धीमी गति से चलते ट्रैफ़िक में मोटरसाईकल पर पीछे बैठी एक युवती बार
बार अपनी छोटी सी कमीज़ को नीचे खींच कर पैंट से बाहर झलकते अपने अधोवस्त्रों को
ढकने का लगातार प्रयास कर रही थी.
एक ओर बुरका और
पर्दा, ज़नाना रिहायश अलग और मर्दाना अलग, और दूसरी ओर व्यक्ति जो चाहे पहने, इसमें
किसी और को क्या कहना - ये दोनों धुर विरोधी छोर हैं. इन दोनों के बीच का रास्ता ही बेहतर विकल्प है.
व्यक्तिगत स्वतंत्रता की अवधारणा समाज-निरपेक्ष नहीं होती. एक बाज़ार केन्द्रित और
मुनाफ़े से संचालित समाज, और समतामूलक समाज की व्यक्तिगत स्वतंत्रता की अवधारणा एक
जैसी कैसे हो सकती है? एक समाज जिसमें महिला को मुख्य तौर पर देह माना जाता हो और
एक समाज जिसमें उसे मुकम्मल इंसान माना जाता हो, क्या दोनों समाजों में एक जैसा
पहनावा होगा? ज़ाहिर है कि ये अवधारणाएँ समाज-सापेक्ष होती हैं परन्तु कई बार
महिलाओं के प्रश्नों पर (और अन्य प्रश्नों पर भी) हम पाते हैं कि जागरूक/परिवर्तन
कामी लोग भी पूंजीवादी समाज की अवधारणाएँ बिना जांच-पड़ताल के, ज्यों की त्यों अपना
लेते हैं. जहाँ एक ओर केवल स्थानीयता तक सीमित होना ठीक नहीं है, वहीं अपनी
परिस्थितियों को नज़रअंदाज़ करना भी ठीक नहीं है.
भले ही बलात्कार या छेड़-छाड़ की घटनाओं पर पहनावे में बदलाव का कुछ खास असर
न पड़े, तो भी पहनावे में इस लिये शालीनता होनी चाहिये की महिलाएँ तो कम से कम अपने
आप को मुकम्मल इन्सान समझें न कि देह मात्र. पहनावे के अलावा भी ओर कई आयाम हैं महिलाओं
की देह केन्द्रित छवि के परंतु पहनावा दूर से, हर किसी को नज़र आने वाला और
प्रभावित करने वाला आयाम है. इस लिये यह महत्वपूर्ण है. हालाँकि पहनावे के इस
वैचारिक पक्ष के चलते ही हमें ‘अश्लील और कामुकता फ़ैलाने’ वाले पहनावे का विरोध
करना चाहिये परंतु यह केवल वैचारिक महत्व का प्रश्न ही नहीं है. महिलाओं की देह
केन्द्रित छवि पर टिका हुआ अरबों खरबों का प्रसाधन सामग्री का गैर-ज़रूरी बाज़ार के चलते भी यह प्रश्न महत्वपूर्ण हो जाता
है (हालाँकि अब देह प्रदर्शन और मेकअप केवल महिलाओं तक सीमित नहीं रह गये हैं कुछ
अभिनेताओं के कमीज़ उतारने के दृश्य उनकी फ़िल्मों का अभिन्न अंग बन गये हैं और
पुरुषों के सौन्दर्य प्रसाधन का बाज़ार भी बढ़ता जा रहा है). कम से कम विकास के
वर्तमान रास्ते की आलोचना करने वालों को, महिला आन्दोलन और सामाजिक परिवर्तनकामी
ताकतों को तो व्यक्तिगत स्वतंत्रता के नाम पर इस वैचारिक और बाज़ारी जकड़न को
नज़रअंदाज़ नहीं करना चाहिये
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