विवेक
सूरज
साहमी
कोहरा
टिकै
ना
अज्ञान
विवेक
मयी
वाणी
कै।
अज्ञानता
छिन्न-भिन्न
होण
लगै
हो
पैदा
चिन्तन
न्या
प्राणी
कै।।
ढोंग
अर
अन्धविश्वास पै टिक्या चिन्तन फेर बचै कोण्या
यज्ञ
हवन
वेद
शास्त्र फेर
पत्थर
पूजा
प्रपंच
रचै
कोण्या
पुरोहित
की
मिथ्या
बात
का
दुनिया
मैं
घमशान
मचै
कोण्या
मन्द
बुद्धि लालची माणस कै विवेकमय दया पचै कोण्या
शिक्षित
अनपढ़ धनी
निर्धन बीच मैं आवैं फेर कहाणी कै।।
आत्मा
परमात्मा
सब
गौण
होज्यां
सामाजिक
दृष्टि
छाज्या
फेर
समानता
एक
आधार बणै औरत सम्मान पूरा पाज्या फेर
मानवता
पूरी
निखर
कै
आवै
दुनिया
कै
जीसा
आज्या
फेर
कार्य
काररणता
नै
समझकै
माणस
कैसे
गच्चा
खाज्या
फेर
माणस
माणस
का
दुख
समझै
ना
गुलाम
बणै
राजराणी
कै।।
संवेदनशील
समाज
होवै
र्इश्वर
केंद्र
मैं
रहवै
नहीं
मानव
केन्द्रित
संस्कृति
हो
पराधीनता कोए सहवै नहीं
स्वतंत्रता बढ़ै
व्यक्ति
की
परजीवी
कोए कहवै
नहीं
खत्म
हां
युद्ध के
हथियार
माणस
आपस
मैं
फहवै
नहीं
विवेक
न्याय
करूणा
समानता
खरोंच
मारैं
सोच
पुराणा
कै।।
अदृश्य
सत्ता
का बोझ
आड़ै
फेर
कति
ना
टोहया
पावै
सोच
बिचार
के
तरीके
बदलैं
जन
चेतना
बढ़ती
जावै
मनुष्य
खुद
का
सृष्टा
बणै
कुदरत
गैल
मेल
बिठावै
कर्म
बिना
बेकार
आदमी
जो
परजीवी
का
जीवन
बितावै
रणबीर
बरोने
आला
ना
लावै
हाथ
चीज
बिराणी
कै।।
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