अवैज्ञानिक सरकार के दंभ का परिणाम झेलती आम जनता
वर्तमान कोविड-19 की दूसरी लहर पिछले वर्ष की तुलना में कहीं अधिक खतरनाक है। इसलिए देश के
विभिन्न हिस्सों में मृतकों की संख्या में काफी बढोत्तरी देखने को मिल रही है। उदाहरण के तौर पर हम
दिल्ली को लेते हैं। क्योंकि दिल्ली राष्ट्रीय राजधानी है। इसलिए यहां निवास कर रहे सभी नागरिकों को बेहतर
स्वास्थ्य सुविधा एवं शासन व्यवस्था मिलने की उम्मीद की जाती है। बावजूद इसके 14 अप्रैल को दिल्ली में नये
कोविड संक्रमितों की संख्या बढ़कर 17,000 हो गई। उसके छह दिन बाद 20 अप्रैल, 2021 को यह संख्या 28,000
से अधिक हो गई। इस दौरान लगभग 20 प्रतिशत संक्रमित मामलों को अस्पताल में भर्ती कराया गया। इनमें से
करीब 25 फीसदी मरीज आईसीयू में थे।
वहीं भारतीय संविधान का अनुच्छेद-21 भारत के प्रत्येक नागरिक को जीवन जीने का अधिकार प्रदान करता
है। लेकिन महामारी के इस दौर में केंद्र एवं राज्य सरकारों ने इस अधिकार को कूड़े की तरह दरकिनार कर
दिया। यह कहना सही होगा कि हैराल्ड लास्की के सभ्यता संबंधी अर्थ को ही खत्म कर दिया। उन्होंने अपने
सिद्धांत के माध्यम से परिभाषित किया था कि ‘सभ्यता का अर्थ है, सबसे आगे बढ़कर, अनावश्यक दर्द देने की
अनिच्छा...! भारत के ऐसे नागरिक जो विशेष अधिकार एवं आज्ञाओं को स्वीकार करते हैं, वे अभी भी सभ्य होने
का दावा नहीं कर सकते हैं’ इस विशेष अधिकार के तहत हमारे राजनेता और मंत्रीगण आते हैं। क्योंकि वर्तमान
व्यवस्था ने सभ्यता के लोकाचार को कम कर दिया है।
क्योंकि वर्तमान तथाकथित राष्ट्रीय मीडिया इन सारी नाकामियों के लिए सिस्टम को दोषी मान रहा है।
इसलिए जो लोग इस सिस्टम में हैं वे इस बात को भूलने के लिए सावधान रहे कि राजनीति केवल चुनाव लड़ने
और जीतने के बारे में नहीं है, बल्कि महत्वपूर्ण प्रश्न पूछने के बारे में भी है कि किसे क्या, कहां, कब और कैसे
मिलता है। इस प्रकार चयनात्मक भूलने की बीमारी का उपयोग करना कल्पना का एक बफर बनाने के लिए
किया जा सकता है, लेकिन यह शक्ति वास्तविक चेहरों और प्रणाली के मुखौटे के बीच स्थित होता है। कोविड
की दूसरी लहर के दौरान पांच राज्यों में विधान सभा चुनाव हुए। चुनाव रैली के दौरान शायद ही कोई राजनेता मास्क का उपयोग नहीं कर रहे थे न ही नागरिक शारीरिक दूरी का पालन कर रहे थे, जिसके कारण लोगों के बीच
संक्रमण की संख्या काफी तेजी से बढ़ी।
भारत सरकार के रिपोर्टों के अनुसार, भारत में प्रति 1,000 जनसंख्या पर 1.7 नर्स हैं। वहीं 404 रोगियों पर
डॉक्टर का अनुपात 1ः1 है। यह रिपोर्ट डब्ल्यूएचओ के प्रति 1,000 जनसंख्या पर तीन नर्सों के मानदंड से काफी
नीचे है। वहीं 100 रोगी पर डॉक्टरों का अनुपात 1ः1 है। बावजूद इसके यह अनुपात भारत की पूरी समस्या को
व्यक्त नहीं करता है। क्योंकि कुछ क्षेत्रों में डॉक्टरों और नर्सों का वितरण काफी विषम है। इसके अलावा, कुछ
शहरी इलाकों में इसकी अधिकता है। यदि हम उन देशों के आंकड़ों को देखें जहां हम अपने स्वास्थ्य कर्मियों
का निर्यात करते हैं, वहां यह अंतर स्पष्ट दिखाई देता है।
इस महामारी के दौरान भारत में स्वास्थ्य सेवा में बजट बढ़ाना आवश्यक हो गया है। वर्ष 2020 की मानव
विकास रिपोर्ट से पता चलता है कि भारत में प्रति 10,000 लोगों पर पांच अस्पताल के बिस्तर हैं। यह दुनिया
में सबसे कम में से एक है। इसलिए स्वास्थ्य सेवा के क्षेत्र में विशेष रूप से सार्वजनिक क्षेत्रों में सरकारी बजट
बढ़ाने की आवश्यकता है। यह समय की मांग भी है।
वहीं पूर्वी दिल्ली के कल्याणपुरी क्षेत्र में प्रधानमंत्री से पोस्टर के माध्यम से यह पूछा गया था कि हमारे बच्चों
का वैक्सीन विदेश में क्यों बेच दी गई। इस मामले को लेकर दिल्ली पुलिस ने बेरोजगार युवाओं और दिहाड़ी
मजदूरों के खिलाफ एफआईआर दर्ज कर दी है। क्या लोकतंत्र में सरकार से सवाल करना गलत है? वर्तमान
केंद्र सरकार किस तरह के तंत्र को बढ़ावा दे रही है?
अरुण कुमार उरांव, सहायक सम्पादक
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