जो लोग स्त्रियों के अधिकार के पक्षपातियों के साथ कठ बैठी दलीलें करते हैं , जो तर्क नहीं करते , न उन्हें तर्क मिलता है , न किसी तर्कानुमोदित अधर पर वे स्त्रियों की पराधीनता का समर्थन करना चाहते हैं | लेकिन वे अपनी आदत और पुराणी पड़ी हुई परिपाटी के गुलाम हैं | रूढी प्रियता ने , बहुत दिनों के रिवाज ने , उनकी मानसिक विचार दृष्टि को ख़राब कर दिया है | कोई कैसा भी रिवाज क्यों न हो, जब हम देखें की वह मनुष्यों की कमजोरी , स्वार्थपरता और नीचता आदि विकारों से प्रचलित है , तो हमारा धर्म है की हम उसे तुरंत मिटाने के लिए दत चित होकर खड़े हो जाएँ स्त्रियों के साथ पुरुषों की निष्ठुरता या दुर्व्यवहार है , वह सब मानसिक नीचता पर आश्रित है | केवल पाशविक बल की अधिकता के कारन जो हम स्त्रियों को अपने अंगूठे के नीचे दबाकर रखना चाहते हैं , यह सर्वथा बुरा है | आदिकाल में स्त्रियों और पुरुषों के अधिकारों में भेद न था |स्त्रियाँ पुरुषों की दासी या उनके सम्भोग की चीज नहीं समझी जाती थी | यह बात हमें प्राचीन सामाजिक रीती -नीतियों के देखने से प्रतयक्ष मालूम होती है | बाद में हम लोगों ने स्त्रियों की निर्बलता से अनुचित लाभ उठाने का इरादा किया | क्योंकि लूट खसोट प्रत्येक पशु के स्वभाव में होती है , मनुष्य भी पशु है | लेकिन आज जब हमारी पशुता घट रही है और सग्यानता आये दिन वृद्धि पाती जा रही है ,तब हमें दूसरों के अधिकारों पर अत्याचार करना शोभा नहीं देता |
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