Friday, July 11, 2014

GLOBALISATION AND IMPACT ON HEALTH

वैश्वीकरण  का सम्बन्ध एक ऐसी आर्थिक और राजनैतिक नीतियों के समूह से है जो एक़ विश्व बाजार के निर्माण के लिए  तमाम बन्धनों को तोड़ने की वकालत करती है  और इसे  समृद्धि का सबसे कारगर नुस्खा बताता है। बहुराष्ट्रीय  निगमें इसका स्वागत करती हैं और हर जगह की  बड़ी धनवान और ताकतवर कम्पनियां भी इसे चाहती हैं। एक बड़ा बाजार इनके लिए खुल रहा है। जयादातर देशों  में छोटे उत्पादक
और यहां तक की  छोटी औद्योगिक इकाईयां जो बहुराश्ट्रीय कम्पनियों का मुकाबला नहीं कर सकती, इसका विरोध करती हैं । आज का वैश्वीकरण न केवल व्यापार बंधनों को हटाकर एक विश्व बाजार का निर्माण करता है , यह एक समान विश्व संस्कृति अर्थात बाजार संस्कृति या पैसे की संस्कृति भी बनाता है जो अलग अलग जगह की मानवीय संस्कृति का विनाश करके ही संभव हो सकता है ।
उदारीकरण का सम्बन्ध उस आर्थिक दर्शन से है जो आर्थिक मामलों में सरकार के हस्तक्षेप को सामाप्त  वकालत करता है । उत्पादन अथवा व्यापार पर सरकार का कोई अंकुश नहीं होना चाहिए । ऐसा  माना जा रहा था  कि इस तरह का मुक्त व्यापार अर्थ व्यवस्था के विकास का सबसे अच्छा तरीका है ।  यह उम्मीद जताई जा रही थी कि जब मुक्त व्यापार को इजाजत मिलेगी तब उत्पादकों के बीच की प्रतिस्पर्धा से वस्तुओं की गुणवत्ता व मात्र के साथ साथ सभी के लिए रोजगार के अवसर बन सकेंगे मगर इस विचार को बहुत सी चुनौतियों का सामना करना पड़ा तथा अब साफ़ होता जा रहा है कि उदारीकरण बहुत सी मूलभूत समस्याओं का समाधान नहीं है ।
निजीकरण की नीति के तहत सरकार सभी सार्वजानिक क्षेत्र के उपक्रमों और अपने द्वारा दी जा रही सेवाओं को निजी हाथों में सौंप देती है । पश्चिम देशों के द्वारा बनाई गयी एक नयी अं तर राष्ट्रीय  वित्तीय संस्था अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष जिसका इरादा अंतरराष्ट्रीय स्तिथि के प्रबंध को सहायता प्रदान करना है । विकासशील देशों को यह कोष ऋण मुहैया करवाता है । जब कर्ज दार देश संकट में हों तब यह संस्था इन देशों से ऋणों के बदले में उन देशों की नीतियों में परिवर्तन की मांग करता है ताकि अमीर देशों के हितों की रक्षा हो सके । इसके साथ साथ विश्व बैंक एक ऐसा अंतरराष्ट्रीय बैंक है जिसके सबसे बड़े शेयर  धारक और इसलिए असली मालिक विश्व के अमीर देश हैं , खास तौर से संयुक्त राजय अमरीका । जमा करना व उधर देना इस बैंक का काम है । जमाकर्ता धनी देश हैं । विकसशील देशों के विकास में सहायता के लिए यह बैंक ऋण मुहैया करवाता है । यह कर्ज तभी देता देता है जब यह तय करले कि कर्ज कहाँ खर्च किया जायेगा और कैसे खर्च किया जायेगा । विकास की इसकी अपनी समझ है जो कि अवीक्षित देशों को रास नहीं आती मगर उसी विकास की समझ के अनुरूप ही किसी देश के विकास में सहायता के लिए कर्ज देता है ।
विष बैंक स्वास्थ्य के क्षेत्र में जिन स्वस्थु कार्यक्रमों के लिए कर्ज रदान करता है , उनकी बारीकियां भी वह खुद ही तयार करता है । यह मदद या अनुदान नहीं होता । इन सबको सूद समेत वापस लौटना पड़ता है । एक और
अंतरराष्ट्रीय संस्था है जिसे विश्व व्यापार संगठन का नाम दिया गया है और इसकी स्थापना विश्व के उन तमाम राष्ट्रों को मिलकर की गयी है जिन्होंने अंतरराष्ट्रीय व्यापार संधि पर हस्ताक्षर किये हैं । (ज्यादातर संधि की बातें विकसशील देशों के हितों के खिलाफ हैं ) जिन्होंने इन पर अंगूठा लगा दिया उन्हें ही इसका सदस्य बनाया गया है । यह विश्व व्यापार संगठन कानूनों का निर्धारण करने , विवाद को सुलझाने ,और राष्ट्रों के बीच व्यापार संधियों को लगी करवाने की निगरानी के लिए बना है । मालिक धनि देश परन्तु फरियाद विकासशील देश भी कर सकते हैं क्योंकि वे इसके सदस्य हैं । इसी प्रकार एक शब्द है मुद्रा स्फीति । इसका मतलब है ऐसी आर्थिक स्थिति जिसमें कागज की मुद्रा की कीमत गिर जाती है नतीजतन सभी वस्तुओं की कीमतें बढ़ जाती हैं । मजदूरों की वास्तविक मजदूरी घटती है मगर मालिकों की संपत्ति का नगदी मूल्य और बढ़ जाता है । इन्ही नीतियों के चलते एक ढंचागत समायोजन का जिकर भी खूब हुआ । इसका मतलब है कि सरकारी खर्चों में कटौती करो , निजीकरण तेजी से लागू करो , स्थानीय मुद्रा का अवमूल्यन करो, ज्यादा निर्यात करो , बाजार में खुलापन लाओ और इसे बेलगाम छोड़ दो , आयतों पर सीमा शुल्क और करों में कटौती करो, प्राकृतिक संसाधनों का बेहताशा दोहन होने दो । 
इन सभी वैश्वीकरण , उदारीकरण व निजीकरण की नीतियों के चलते स्वास्थ्य क्षेत्र पर पड़ने वाले असर काफी डराने वाले हैं । इस क्षेत्र के बारे में कहा गया कि कल्याणकारी निवेश में कटौती करो। नतीजतन स्वास्थ्य सेवाओं का धीरे धीरे विघटन होना शुरू हुआ और तेजी पकड़ता जा रहा है । दूसरी बात कही गयी कि सार्वजानिक स्वास्थ्य सेवाओं में सेवा शुल्क वसूलने का प्रावधान किया जाये । स्वास्थ्य सेवाओं का निजीकरण व व्यापारीकरण करते हुए निजीक्षेत्र में सब्सिडी को प्रोत्साहन दिया जा रहा है और सरकारी स्वास्थ्य सेवाओं में संसाधनों की कमी का रोना रॉय जा रहा है । स्वयं सेवी क्षेत्रों पर भी दबाव बढ़ाया जा रहा है कि अमुक क्षेत्र में काम करें । बजट भी उन्ही क्षेत्रों को दिया जा रहा है जिनमें विश्व बैंक ठीक समझता है । दवा उद्योग की  आत्म  निर्भरता  को गंभीर खतरा पैदा किया जा रहा है । स्थानीय समस्याएं कहीं भी एजंडे पर दिखाई नहीं देती मसलन हरयाणा में कीटनाशक दवाओं के दुष्प्रभावों का मुद्दा , गिरते लिंग अनुपात का मुद्दा , गर्भवती महिलाओं में खून की कमी का मुद्दा और बच्चों में कुपोषण का मुद्दा आदि ।
इन सबके चलते स्वास्थ्य सेवाऐं और दूसरी सेवाएं लोगों की पहुँच से बाहर होती जा रही हैं । स्वास्थ्य बीमा योजना का नुस्खा दिया जा रहा है । पर्यावरण को खतरा बढ़ा है । पी डी एस व खाद्य नीति में जनविरोधी क़दमों की भरमार है , बेरोजगारी बढ़ रही है , अश्लील संस्कृति टी वी पर और मोबइल फोन पर परोसी जा रही है ।  इन सब बातों का हमारे स्वास्थ्य पर सीधा असर हो रहा है । उपसहारा अफ्रीका में शिशु मृत्यु दर बढी है , लातिनी अमरीका में मातृ मृत्यु  दर ज्यादा हुई है तथा भारत में कुपोषण का स्तर बढ़ा है ।
सरकार निजी क्षेत्र को बढ़ावा दे रही है तथा दूसरी तरफ जान स्वास्थ्य सेवाओं से हाथ खींच रही है । सरकार एक डाक्टर की एम बी बी एस की पढ़ाई पर लगभग 10 से ज्यादा रूपये खर्च करती है । इनमें से ज्यादातर प्राइवेट प्रेक्टिस में जाते हैं ।  कन्सेशन व सब्सिडी निजी   क्षेत्र को दी जा रही हैं ।  टैक्ष हॉलीडेज के रूप में तथा दवा उद्योग को व  उपकरण बनाने वाले उद्योग को  भी सब्सिडी दी जा रही हैं । बल्क दवाऐं कम दामों पर   निजी कंपनियों को फार्मुलेशन वाली दवा बनाने वके लिए दी जाती हैं । निजी क्षेत्र को उपकरणों पर आयात करों में छूट दी जाती है । साथ यह कहा जाता है कि ये अस्पताल 40 % मरीजों का मुफ्त इलाज करेंगे । मगर मुफ्त इलाज इन प्राइवेट अस्पतालों द्वारा नहीं दिया जा रहा । तकरीबन 500 करोड़ की सब्सिडी इस प्रकार दी जा रही है । निजी अस्पतालों को ट्रस्ट के रूप में काम करते हुए इन्हें कर से मुक्त करने का प्रावधान है । 4000 -5000 डाक्टर देश छोड़ जाते हैं और 400 -500 करोड़ का नुक्सान देश को होता है ।
अपोलो अस्पताल इसका एक जीता जागता  उदाहरण है । दिल्ली में अपोलो अस्पताल को 15 एकड़ जमीन खास मौके की जगह पर एक रूपया महीना किराये पर दे दी गयी । 17. 84 करोड़ रूपये ईमारत बनाने के प्रोजेक्ट में दिए गए । अभी तक गरीब मरीजों को मुफत इलाज देने की सुविधा नहीं की गयी है । मनमानी फीसें वसूली जाती हैं (पायोनियर 25 जनवरी 1997 ) अमरीका में 2 ,50 ,000   गंभीर मरीजों को मुनाफा कमाने वाले अस्पतालों से पब्लिक अस्पतालों में भेजा गया क्योंकि वे खर्च नहीं दे सकते थे । इनमें से 25000     के लगभग ट्रांसफर में देरी के कारन मर  जाते हैं (लैंसेट 1991 ;337 :38 ) अमरीका में एक अध्ययन के अनुसार 1981 से 1988 के बीच अमरीका की सबसे बड़ी कंपनियों ने 348 नयी दवाएं बनाई । इनमें से सिर्फ 3 % का अहम योगदान रहा । एक फ़्रांस के अध्ययन के अनुसार दुनिया में 1975 से 1984 के बीच 508 नए केमिकल आये  इनमें से 70 % पहले से  मौजूद केमिकलों से बेहतर नहीं थे । पिछले   दशकों में स्वास्थ्य पर खर्चे बढे हैं ।भारत में एक परिवार सालाना 3000 रूपये दवाओं और डाइग्नोस्टिक पर खर्च करता है । अनुमान लगाया गया है कि इसका 50 % खर्च फिजूल खर्च या इर रेशनल खर्च है । इससे हर साल 30000 -40000 करोड़ इर रेशनल या फालतू का खर्च होता है । भारत में 60000 --100000 के लगभग भिन्न भिन्न दवाओं के ब्रांड उपलब्ध हैं जबकि आवश्यक दवाओं की लिस्ट में महज 348 दवाएं हैं ।

सरकारी अस्पतलों में मरीज के इलाज में सुधार के लिए जब भी बजट की बात की जाती है तो संसाधनों की कमी की बात खड़ी कर दी जाती है । भारत में सबसे ज्यादा गरीब लोग रहते हैं मगर भारत गरीब देश नहीं है । संसाधन भारत के पास हैं और आत्मनिर्भर स्वास्थ्य ढांचे का विकास भी संम्भव है । एकं अनुमान के अनुसार टैक्स की चोरी 41230 करोड़ रूपये तक की है । इसे रोक जाना चाहिए ।  कार्पोरेट टैक्स , वैल्थ टैक्स , आयकर अमीरों पर बढ़ाये जाएँ,  काले  धन को बाहर निकला जाये , अनावश्यक खर्च दवाओं के क्षेत्र में (15000 करोड़ ) बंद किया जाये  ; बड़े घरानों द्वारा बैंकों से लिया 58000 करोड़ से ऊपर का कर्ज वापिस लिया जाये । पिछले बजट में 1428 करोड़ की कस्टम ड्यूटी काम कर दी गयी और 3200 करोड़ की एक्साइज ड्यूटी बढ़ा दी गयी । इस साल के 39237 ,98  करोड़ स्वास्थ्य क्षेत्र के बजट का सही इस्तेमाल हो । 3000 करोड़ सालाना दवा उद्योग द्वारा विज्ञापनों पर खर्च कर दिया जाता है ।
अब वक्त आ गया है जब वैश्वीकरण उदारीकरण व निजीकरण के स्वास्थ्य पर पड़ने वाले व्यापक व गंभीर परिणामों का निष्पक्षता के साथ विश्लेषण किया जाये तथा एक जनोन्मुखी आत्मनिर्भर स्वास्थ्य ढांचे के विकास की तरफ देश की प्रथमिकताएँ तय की जाएँ । इस काम को करने के लिए स्वास्थ्य सेवाओं से जुड़े सभी लोगों  को आगे आना होगा । चाहे अलोपथी हो चाहे आयुर्वेद हो , चाहे यूनानी  प्रणाली से जुड़े लोग हों चाहे गाओं के स्तर पर कार्यरत रजिस्टर्ड मेडिकल प्रैक्टिसनर हों , सभी का कर्तव्य बनता है की इस जनोन्मुखी आत्मनिर्भर स्वास्थ्य ढांचे के निर्माण में सक्रिय सहयोग दें । भगत सिंह जैसे देश की आजादी के लिए कुर्बान हुए शहीदों का भी इसी प्रकार के शोषण रहित समाज का सपना था जिसमें सभी के लिए स्वास्थ्य की गारंटी हो ।
रणबीर सिंह दहिया
हरयाणा ज्ञान विज्ञानं समिति
9812139001