Wednesday, February 8, 2023

ब्रूनो को जिंदा जला दिया गया ! क्यों ?

 ब्रूनो को जिंदा जला दिया गया ! क्यों ?

"भीड़ मर गयी ब्रूनो नहीं मरा"हम सब को बहुत गुस्सा आता है जब हम पढते हैं कि किस तरहव् क्रूर ईसाई धर्मान्धों ने ब्रूनो को जिंदा जला दिया था ! ब्रूनो का गुनाह क्या था ? उसने सच बोला था ! उसने कहा था कि सूर्य पृथ्वी के चारों तरफ नहीं घूमता बल्कि पृथ्वी सूर्य के चारों तरफ घूमती है ! जबकि धर्मग्रन्थ में लिखा था कि पृथ्वी केन्द्र में है और सूर्य तथा अन्य गृह उसके चारों तरफ घुमते हैं ! ब्रूनो ने जो बोला वो सच था ! धर्मग्रन्थ में झूठ लिखा था ! इसलिए धर्मग्रंथ को ही सच मानने वाले सारे अंधे ब्रूनो के विरुद्ध हो गये ! ब्रूनो  को पकड़ कर मुकदमा चलाया गया ! अदालत ने सत्य को अपने फैसले का आधार नहीं बनाया ! अदालत भीड़ से डर गयी ! भीड़ ने कहा यह हमारे धर्म के खिलाफ बोलता है इसे जिंदा जला दो ! अदालत ने फ़ैसला दिया इसे ज़िंदा जला दो क्योंकी इसने लोगों की धार्मिक आस्था के खिलाफ बोला है ! सत्य हार गया आस्था जीत गयी! जिंदा जला दिया गया ब्रूनो , सत्य बोलने के कारण !आज भी जब हम ये पढते हैं तो सोचते हैं कि काश तब हम जैसे समझदार लोग होते तो ऐसा गलत काम न होने देते ! लेकिन अगर मैं आपको बताऊँ कि ऐसा आज भी हो रहा और आप इसे होते हुए चुपचाप देख भी रहे हैं तो भी क्या आप में इसका विरोध करने का साहस है ? आप अपनी तो छोडि़ये इस देश के सर्वोच्च न्यायालय में भी ये साहस नहीं है ! न्यायालय के एक नहीं अनेकों निर्णय ऐसे हैं जो सत्य के आधार पर नहीं धर्मान्ध भीड़ को खुश करने के लिए दिये गये हैं !पहला उदाहरण है अमरनाथ के बर्फ के पिंड को शिवलिंग मानने के बारे में स्वामी अग्निवेश के बयान पर उन्हें सर्वोच्च न्यायालय की फटकार ! दो-दो जिला अदालतों द्वारा अग्निवेश के खिलाफ गिरफ्तारी वारंट जारी कर दिये गये ! वो बेचारे ज़मानत के लिए भटकते घूमे ! स्वामी अग्निवेश ने कौन सी झूठी बात कही भाई ! क्या ये विज्ञान सम्मत बात नहीं है कि उस तापमान पर अगर पानी टपकेगा तो पिंड के रूप में जम ही जायेगा ! अगर डरे हुए करोडों लोग उस पिंड को भगवान मानते है तो इससे विज्ञान अपना सिद्धांत तो नहीं बदल देगा ! या तो बदल दो बच्चों की विज्ञान की किताबे! या फिर कहने दो किसी को भी सच बात ! उन्हें इस सच को कहने के लिए पीटा गया ! उनकी गर्दन काट कर लाने के लिए एक धार्मिक संगठन ने दस लाख के नगद इनाम की घोषणा कर दी ! ज्यादातर राजनैतिक पार्टी इस बात के लिए नहीं बोली ! उनको इन्ही धर्मान्धों के वोट चाहिए ! सबसे ज्यादा गुस्से की बात ये है कि इसी युग में, इसी साल इसी मामले पर इसी देश के सर्वोच्च न्यायालय ने इस मामले पर स्वामी अग्निवेश को फटकार लगाईं !भयंकर स्थिति है ! सच नहीं बोला जा सकता ! विज्ञान बढ़ रहा है ! विज्ञानका उपयोग हथियार बनाने में हो रहा है ! विज्ञान की खोज, टीवी का इस्तेमाल लोगों के दिमाग बंद करने में किया जा रहा है ! लोगों को भीड़ में बदला जा रहा है !भीड़ की मानसिकता को एक जैसा बनाया जा रहा है ! जो अलग तरह से बोले उसे मारो या जेल में डाल दो ! अलग बात बोलने वाला अपराधी है !सच बोलने वाला अपराधी है !ये मस्जिदें तोड़ने वाली भीड़, ये दलितों की बस्तियां जला देने वाली भीड़, ये आदिवासियों को नक्सली कह कर उनका दमन कर उनकी ज़मीने छीनने वाली भीड़, जो दंतेवाड़ा से अयोध्या तक फ़ैली है , वही भीड़ संसद में दाखिल हो गयी है ! वो कुर्सियों पर बैठ गयी है ! वो सोनी सोरी मामले मेंअत्याचारी पुलिस का साथ दे रही है ! वो गुजरात में मोदी का साथ दे रही है ! वो तर्क को नहीं मानेगी , इतिहास को नहीं मानेगी !ये भीड़ राजनीति को चलाएगी ! विज्ञान को जूतों तले रोंद देगी ! कमजोरों को मार देगी !और फिर ढोंग करके खुद को धर्मिक , राष्ट्रभक्त और मुख्यधारा कहेगी !मैं खुद को इस भीड़ के राष्ट्रवाद , धर्म और राजनीति से अलग करता हूं ! मुझे इसके खतरे पता हैं ! पर मैंने इतिहास में जाकर जलते हुए ब्रूनो के साथ खड़े होने का फ़ैसला किया है ! मुझे पता है मेरा अंत उससे ज्यादा बुरा हो सकता है ! पर देखो न भीड़ मर गयी ब्रूनो नहीं मरा !

सुदीप बनर्जी

 स्वर्गीय कवि सुदीप बनर्जी ने यह कविता भोपाल गैस त्रासदी के संदर्भ में लिखी थी।आज भी यह कितनी प्रासंगिक है,जैसे आज पर हो:


इतनी इतनी बड़ी मौतों के बाद भी

इतनी बड़ी चुप्पी, ऐसा पहरावा

ऐसा चालचलन


 उड़ते हुए आना, उड़ते हुए चले जाना

 कुछ आंकड़ों के मांसल टुकड़े बीन कर चले जाना


 मैंने देखा है ऐसों को अक्सर

 सब बेखबर है़ंं

अपने-अपने धंधों में मशगूल


 इतनी तबाही के बाद इतना बड़बोलापन 

 इतने जन्मोत्सव, इतने इश्तेहार 


हम सब समकालीन हैं, इन सबके हमराह 

जरायमपेशे में या चश्मदीद

खामोशी के गुनाहगार 


पर और भी हैं जो अभी शाया नहीं सड़कों पर

पूरी तरह हरकत में तो नहीं पर जमींदोज भी नहीं 


अभी कोई नहीं सुन रहा है

कोई नहीं सुन रहा है उन्हें

उनका जोर- जोर से चुप रहना 

धीरे-धीरे चिल्लाना।

गलत दावे 

 गलत दावे 

भाजपा सरकार लगातार दावा कर रही है कि दलितों की स्थिति में सुधार हो रहा है, दलित उत्पीड़न की घटनाओं में कमी आई है। सफाई कर्मियों के पांव धोकर, अंबेडकर की तस्वीर और अन्य प्रतीकों का इस्तेमाल करके तरह-तरह से भाजपा दलित हितैषी होने का दावा कर रही है। लेकिन आंकड़े कुछ और ही कहानी कह रहे हैं। 


राज्यसभा सांसद जवाहर सरकार नें सदन में दलितों और अल्पसंख्यकों के खिलाफ बढ़ रहे अपराधों के बारे में गृह मंत्रालय से सवाल पूछा। जिसका लिखित जवाब 20 जुलाई 2022 गृह राज्यमंत्री नित्यानंद राय ने दिया। 


उन्होंने अपने जवाब में पिछले पांच सालों के जो आंकड़े दिये हैं वो चौंकाने वाले हैं और दलितों को लुभाने वाले सरकारी प्रोपगेंडा की पोल खोल कर रख देते है। आइये, इन आंकड़ों की नज़र से देखते हैं कि देश में पिछले पांच सालों में दलित उत्पीड़न की क्या स्थिति रही है। 


पिछले पांच सालों में दलितों के ख़िलाफ़ अपराध में 23% बढ़ोतरी 


गृह राज्यमंत्री नित्यानंद राय द्वारा राज्यसभा में दिये गये लिखित जवाब के अनुसार वर्ष 2016 में दलितों के खिलाफ अपराध के कुल 40,801 मामले दर्ज़ किय गये थे, 2017 में 43,203, वर्ष 2018 में 42,793, वर्ष 2019 में 45,961 और 2020 में ये संख्या बढ़कर 50,291 हो गई। इस प्रकार हम देख सकते हैं कि पिछले पांच सालों में दलितों के खिलाफ अपराध के मामलों में साल दर साल लगातार बढ़ोतरी हुई है। वर्ष 2016 में जहां कुल अपराधों की संख्या 40,801 थी, वहीं 2020 में बढ़कर 50,291 हो गई। यानी पिछले पांच सालों में दलितों के खिलाफ होने वाले अपराधों में 23% बढ़ोतरी हुई है। ये काफी चिंताजनक स्थिति है और सरकार के दलित हितैषी होने के तमाम दावों और प्रोपगेंडा की पोल खोल कर रख दे रही है। 


दलित महिलाओं के रेप के मामलों में 33% वृद्धि 


गौरतलब है कि दलितों में भी दलित स्त्री तथाकथित सवर्णों की ताकत और जाति व्यवस्था का सबसे नृशंस रूप भुगतती हैं। दलित स्त्री के शरीर को मर्दानगी, श्रेष्ठता, ताकत दिखाने के साथ-साथ मौज-मजा करने, सबक सिखाने और बदला लेने के लिए एक मैदान की तरह देखा जाता है। पिछले पांच सालों में दलित महिलाएं भयानक क्रूरता का सामना कर रही हैं। राज्यसभा में पेश किये गये आंकड़े इस बात की पुष्टि करते हैं कि पिछले पांच सालों में दलित महिलाओं के साथ रेप के मामलों में साल दर साल लगातार बढ़ोतरी हुई है। वर्ष 2016 में दलित महिलाओं के रेप के 2,541 मामले दर्ज़ किये गये थे, वर्ष 2017 में 2,714, वर्ष 2018 में 2,936, वर्ष 2019 में 3,484 और वर्ष 2020 में 3,372 मामले दर्ज़ किये गये हैं। ये आंकड़े बताते हैं कि पिछले पांच सालों में दलित महिलाओं के रेप के मामलों में लगभग 33% बढ़ोतरी हुई है। यानी एक-तिहाई बढ़ोतरी दर्ज़ की गई है। हर रोज 9 दलित महिलाओं के रेप के मामले दर्ज़ होते हैं। 


न्याय में देर और अंधेर 


सबसे पहले तो हमें ये समझना होगा कि ये संख्या मात्र उन मामलों की है जो पुलिस तक पहुंच पाते हैं। ऐसे बहुत से मामले होंगे जो दबा दिये जाते हैं और दर्ज़ नहीं हो पाते हैं। हमें ये भी देखने की ज़रूरत है कि जो मामले दर्ज़ होते हैं उनकी स्थिति क्या है? क्या सचमुच पीड़ितों को न्याय मिलता हैं? वर्ष 2020 में दलितों के खिलाफ अपराध के कुल 50,291 मामले दर्ज़ किये गये थे जिनमें से मात्र 3,241 मामलों में ही सजा सुनाई गई है। यानी मात्र 6% मामलों में ही सजा हुई है। यही स्थिति दलित महिलाओं के रेप के मामलों की है। वर्ष 2020 में दलितों महिलाओं के रेप के कुल 3,372 मामले दर्ज़ किए गये। जिनमें से मात्र 2,959 मामलों में ही चार्ज़शीट पेश की गई और सिर्फ 225 मामलों में ही सज़ा सुनाई गई। यानी मात्र 6% मामलों में। ये आंकड़ा पुलिस प्रशासन से लेकर न्याय व्यवस्था पर भी सवाल उठा रहा है और तमाम सरकारी दावों की पोल खो रहा है। 


(लेखक स्वतंत्र पत्रकार एवं ट्रेनर हैं। आप सरकारी योजनाओं से संबंधित दावों और वायरल संदेशों की पड़ताल भी करते हैं।) 


 

हमें तो ताश खेलने से ही फुर्सत नहीं है

 हमें तो ताश खेलने से ही फुर्सत नहीं है

रणबीर

हरियाणा में आज के दिन महिलाओं की जिंदगी तनाव , असुरक्षा , अभाव और असहायता मतलब लाचारी में डूबती जा रही लगती है।

दूसरी तरफ हम कह सकते हैं कि महिलाओं ने खेलों में तम्बू गाड़ दिए । ठीक ।  पर वे इस कारण नहीं गाड़ पाई कि हमने गावों में खेलने कूदने  का उनके लिए कोई बेहतर माहौल बना कर दिया हो , वे अपनी लग्न और अपनी खुबात  से जीत कर लाई हैं मैडल ।  महिला के एक हिस्से का जहां असरशन बढ़ा है वहीं दूसरी ओर औरत पर शिकंजा और मजबूत होता जा रहा लगता है हरियाणा में।  महिला भ्रूण हत्या , दहेज़ हत्या , इज्जत के नाम पर हत्या का ग्राफ ऊपर की तरफ ही जाता दिखाई दे रहा है। यौन उत्पीड़न ,बलात्कार , छेड़ छाड़ ,डराना-धमकाना ,घरेलू हिंसा ,औरतों का अपमान , असुरक्षा और घुटन इस हद तक बढ़ गये कि नेताओं  ने और लोगों ने यूं मान लिया कि ये तो आम बात हैं । 

        कुछ आंकड़े  राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण-5 के भी इसी की पुष्टि करते हुए लगते हैं।

1.लिंग अनुपात 926 है यानी 926 महिलाएं हैं प्रति 1000 पुरुषों पर। 

2. लिंग अनुपात पिछले 5 साल में जन्म के वक्त है--893

3. 20 से 24 साल की महिलाएं जिनकी 16 साल से कम उम्र में शादी हुई-12.5%

4. सीजेरियन सेक्शन से डिलीवरी का प्रतिशत 2015-16 में 11.7% था जो अब 19.7% हो गया।

5.15 से 49 साल की महिलाएं जी एनीमिक हैं--60.4%

6. 18.2% महिलाएं (18 से 49 साल )  हैं जिन्होंने स्पॉउज वायलेंस झेली है--18.2%

7. हरियाणा में साल-दर साल बढ़ रही बलात्कार की घटनाएं,पिछले 8 वर्षों में 2021 में सर्वाधिक 1546 बलात्कार के मामले हुए दर्ज।

8. एनसीआरबी की रिपोर्ट में कहा गया है कि हरियाणा में, महिलाओं के खिलाफ अपराध में 27 प्रतिशत की वृद्धि हुई है, जो 2020 में 13,000 से बढ़कर 2021 में 16,658 हो गई है।

9. राज्य ने नाबालिग लड़कियों (आईपीसी की धारा 366 ए) की खरीद के 992 मामले दर्ज किए, जिनमें 1,099 पीड़ित थे। यहां भी, राज्य प्रति लाख जनसंख्या पर 7.1 मामलों की अपराध दर के साथ देश में शीर्ष पर है।



आर्थिक संकट आज दरवाजे पर आकर  खड़ा हो गया और परिवार टूटते नजर आते हैं।  जीवन के साफ़ सुथरे साधन बचे नहीं तो खुली छिप्पी वैश्यावृति की तरफ भी औरत हर जगह धकेली जा रही हैं ऐसा भी सुनने में आ रहा है ।

    अराजकता और मनमानेपन का जो माहौल यहां बणा दिया गया है उसमें महिलाओं को 'सस्ते मैं उपलब्ध और'आसानी तैं उपलब्ध शिकार'  के  रूप मैं देखा जाता है । इस आर्थिक असमानता और सामजिक  असमानता के चलते ताकतवर तबके महिलाओं के साथ कुछ भी और किसी भी हद तक पता नहीं कितना घृणित काम कर सकते हैं ।  कुल मिला कर सौ का तोड़ ये है कि महिलाओं का अवमूल्यन हुआ है ।

     गरीब से गरीब तबकों में भी उनके अपने समुदाय और परिवार के बीच में  महिलाओं पर अत्याचार बढ़े हैं । औरतों को ' क्षणिक मजे की चीज ' की तरह देखना और इस तथाकथित मजे के लिए इन औरतों को मौका लगते की साथ घेर लेना बड़ी आसान और आम बात हो गई । पिछले दिनों मैं हरियाणा में परित्यक्ताओं और औरतों के साथ संबंधों मैं धोखाधड़ी बहोत बधी है।  ब्याह के कुछ दिन बाद ही लड़कियों पर हिंसा बढ़ी है और क़त्ल और आत्म हत्या के केस सामने आ रहे हैं ।

    दूसरी तरफ लिंग अनुपात मैं विषमता के कारण लड़कियां दूर दूर से खरीद कर लाई जा रही हैं और औरत पसंद नहीं आये तो उसको वापिस छोड़ आये और उसकी बहण को  ले आये उसकी जगह ,ऐसी घृणात्मक बातें भी सुनने में आती रही हैं । एक दौर के बादअब तो औरतों के खरीद फरोख्त के धंधे मैं दलाल भी पैदा हो गए सुनते हैं ।  ये खरीद फरोख्त तेजी  से रफ़्तार पकड़ रही है और औरतों के हक़ में आवज उठाने  वाली   जनवादी महिला समिति जैसी संस्थाएं बहोत थोड़ी हैं ।  

      हरियाणा के समाज मैं संघर्ष करने वाली महिलाओं के लिए 'स्पोर्ट सिस्टम 'की बहोत कमी है ।  जितनी सामाजिक असुरक्षा बढ़ती जा रही है उसके हिसाब से यूं एक दो नारी निकेतन का मामला कोणी रह रहा।   परित्यक्ताओं , एकल माओं ,अविवाहित महिलाओं ,यौन उत्पीड़न की शिकार  महिलाओं ,बच्चियों की  जरूरतों का ध्यान रख कर और सोच  समझ कर समाज में उनका स्थान बनाना बहोत जरूरी हो गया है। शार्ट स्टे होम , कामकाजी महिला हॉस्टल ,लड़कियों के हॉस्टल , मुफ्त जच्चा बच्चा केंद्र , कानूनी सहायता केंद्र , सलाह केंद्र, तनाव मुक्ति केंद्र , मनो-चिकित्सा केंद्र, कौशल विकसित करने वाले कार्यक्रम , एकल माओं के बच्चों की शिक्षा के लिए अनुदान और कर्ज की सुविधा , महिला स्वास्थ्य केंद्र , व्यायाम शालायें , सामूहिक रसोईघर , की मांग जरूरी हो गई हैं। हिंसा की शिकार महिलाओं के लिए कानून और स्वास्थ्य से संबंधित आपातकालिक व जल्द सेवाओं की मांग गम्भीरता से  समाज मैं उठानी बहोत जरूरी हो गई और इस के लिए कुछ संस्थाएं सक्रिय भी हैं । जो भी जहां है उसे इस स्पोर्ट सिस्टम को खड़ा करने में अपना योगदान जरूर करणा चाहिए ।  इसके साथ साथ सरकार पर भी दबाव बढ़ाना चाहिए इस स्पोर्ट सिस्टम के विकास के लिये।

   हरियाणे में पढ़े लिखे लोगों में लिंग अनुपात एक हजार पुरुषों पर छह सौ सतरह महिलाओं का पहोंच गया था कुछ साल पहले । अभी भी 926 ही है। आम जन में यह अनुपात 1000 पुरुषों पर 877 महिलाओं का ही है आज के दिन। यह खतरे की घंटी बजी रही है हरियाणा में । पर लोगों को ताश खेलने से फुर्सत नहीं , या बणी की दो सो गज जमीन पर कब्ज़ा करने की जुगाड़ बाजी में हैं । इन सारी  बातों पर गांव और शहर की महिलाओं को और पुरुषां  को गंभीरता से विचार करने  की जरूरत है।

रणबीर सिंह दहिया

एआईपीएसएन और एनसीओए-सीपीएसई अवधारणा नोट  परिचय

 एस एंड टी आत्मनिर्भरता पर संगोष्ठी 

12 और 13 नवंबर, 2022 

दिल्ली विज्ञान मंच 

एआईपीएसएन और एनसीओए-सीपीएसई अवधारणा नोट 

परिचय

स्वतंत्र भारत ने आत्मनिर्भर विकास के रास्तों के अवलोकन के लिए विज्ञान और प्रौद्योगिकी (एस एंड टी) पर आधारित औद्योगीकरण और विकास के पथ पर अग्रसर किया। आत्मनिर्भरता की यह नीति दूसरी पंचवर्षीय योजना, औद्योगिक नीति संकल्प और विज्ञान नीति संकल्प में व्यक्त की गई थी, जो नए स्वतंत्र देशों में अद्वितीय थी। ये नीतियां स्वतंत्रता से पहले भी राष्ट्रीय आंदोलन द्वारा परिकल्पित नियोजित विकास की प्रक्रिया के साथ घनिष्ठ रूप से जुड़ी हुई थीं, और बाद में योजना आयोग के माध्यम से लागू की गईं।

         सार्वजनिक क्षेत्र और सार्वजनिक अनुसंधान संस्थानों ने अर्थव्यवस्था के "मुख्य क्षेत्रों" में और अंतरिक्ष, परमाणु ऊर्जा जैसे रणनीतिक क्षेत्रों में और कुछ हद तक रक्षा में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। निजी क्षेत्र पूरी तरह से औद्योगीकरण के इस पथ पर सवार था, जैसा कि उद्योग के कप्तानों द्वारा तैयार की गई 1948 की तथाकथित बॉम्बे योजना में चित्रित किया गया था। यह कुछ "नेहरूवादी समाजवादी" साजिश नहीं थी जैसा कि अक्सर आरोप लगाया जाता है, लेकिन निजी क्षेत्र द्वारा "मुख्य क्षेत्र" को राज्य पर छोड़ने के लिए सहमति व्यक्त की गई थी क्योंकि केवल बाद वाले के पास आवश्यक पूंजी और क्षमताएं थीं, जबकि निजी क्षेत्र द्वारा उपभोक्ता वस्तुओं और प्रकाश इंजीनियरिंग पर ध्यान केंद्रित किया जाएगा। 

           भारतीय राज्य ने स्पष्ट रूप से प्राकृतिक संसाधनों को विकसित करने और एस एंड टी क्षमताओं को उन्नत करने का लक्ष्य रखा, विशेष रूप से औद्योगिक अनुसंधान और उच्च शिक्षा के प्रमुख संस्थानों के लिए प्रयोगशालाओं के एक नेटवर्क की स्थापना के माध्यम से, संतुलित औद्योगिक विकास और एस एंड टी में आत्मनिर्भरता की उपलब्धि के लिए। इन और अन्य उपायों के माध्यम से, 1970 के दशक तक, भारत जापान को छोड़कर अधिकांश एशियाई अर्थव्यवस्थाओं के साथ औद्योगिक दृष्टि से लगभग बराबर था।

            अस्सी के दशक के मध्य से भारत में आत्मनिर्भर विकास, सार्वजनिक क्षेत्र और सार्वजनिक अनुसंधान संस्थानों के लिए योजना प्रक्रिया का धीरे-धीरे कमजोर होना और एस एंड टी की परियोजना के लिए समर्थन कमजोर होना देखा गया। इस बीच दक्षिण कोरिया, ताइवान और सिंगापुर जैसे देशों ने तेजी से भारत को औद्योगिक, सामाजिक-आर्थिक रूप से और साथ ही एस एंड टी क्षमताओं में पीछे छोड़ दिया।

        युद्ध के बाद जापान द्वारा पहले लिए गए मार्ग का अनुसरण करते हुए, राज्य ने रणनीतिक रूप से चयनित क्षेत्रों में एस एंड टी और औद्योगिक क्षमताओं में निवेश करने वाले प्रमुख कॉर्पोरेट घरानों के साथ साझेदारी में, इलेक्ट्रॉनिक्स, ऑप्टिक्स, ऑटोमोबाइल जैसे क्षेत्रों में प्रौद्योगिकियों, उत्पादों और ब्रांडों में वैश्विक नेतृत्व की स्थिति स्थापित की। सेमी-कंडक्टर, उन्नत मशीन टूल्स, भारी मशीनरी, रोबोटिक्स और मास मैन्युफैक्चरिंग, और जल्द ही कंप्यूटर, सेल फोन आदि में। चीन की तीव्र प्रगति, शुरू में निर्यात-उन्मुख बड़े पैमाने पर निर्माण में बाद में प्रौद्योगिकियों के राज्य समर्थित अपेक्षाकृत आत्मनिर्भर विकास में विकसित  और रिवर्स इंजीनियरिंग और स्वदेशी आरएंडडी सहित उत्पादों को थोड़ा दोहराव की आवश्यकता है यह सोच बनी। चीन ने अब भविष्य की उन्नत तकनीकों जैसे 5G, IoT, AI, इलेक्ट्रिक वाहन और बैटरी, सौर ऊर्जा, बायो-फार्मा आदि में 2035 तक वैश्विक नेतृत्व की दिशा में R&D और औद्योगिक विकास की एक नियोजित रणनीति की घोषणा की है।

        1990 के दशक के बाद से, उदारीकरण, निजीकरण और वैश्वीकरण (एलपीजी) के युग के दौरान, भारतीय अर्थव्यवस्था को वैश्विक प्रतिस्पर्धा के लिए खोलना और विदेशी निवेश को उन्नत तकनीकों में लाना था,   आत्म निर्भरता-सम्बन्धी "पुरानी" व अप्रासंगिक अवधारणा माना जाता था उससे निकालकर। लेकिन व्यवहार में ऐसा नहीं हुआ है।

    बहुराष्ट्रीय कंपनियों और घरेलू निजी क्षेत्र को दिए गए सभी प्रोत्साहनों के बावजूद, भारतीय उद्योग द्वारा उन्नत प्रौद्योगिकियों का कोई महत्वपूर्ण समावेश नहीं किया गया है। कोई उल्लेखनीय स्वदेशी आर एंड डी, उल्लेखनीय भारतीय उत्पाद नहीं हैं जिन्होंने अंतरराष्ट्रीय स्तर पर उन्नत बाजारों में अपनी पहचान बनाई है। 

   "मेक इन इंडिया" और "आत्मनिर्भर भारत" के नवीनतम विकास उन्मुख मार्ग यह मानते हैं कि आत्मनिर्भर विकास कुलीन वर्गों और व्यापार मार्ग में आसानी, यहां तक ​​कि प्रौद्योगिकी अवशोषण और स्वदेशी आर एंड डी की अनुपस्थिति में, जो निजी क्षेत्र के साथ जीडीपी के 1% से भी कम योगदान देता है, और यहां तक ​​​​कि पीएसयू के निरंतर कमजोर पड़ने या एकमुश्त निजीकरण के साथ भी, और राष्ट्रीय अनुसंधान एवं विकास प्रयोगशालाओं के अनुकरण यानी नकल आदि से प्राप्त किया जा सकता है।

      एशियाई वित्तीय संकट के बाद के युग में, नव-उदारवादी मॉडल में विश्वास बढ़ा और पूंजीवाद माल और पूंजी के मुक्त प्रवाह के माध्यम से सभी राष्ट्र राज्यों को एकीकृत करने में सक्षम था। हालाँकि 2000 के दशक में चीन के आर्थिक विकास के आलोक में, यह दावा करना कठिन हो गया है कि उदार बाजार पूंजीवाद ही विकास का एकमात्र मार्ग है। वैश्विक राजनीतिक अर्थव्यवस्था भी कुछ तेजी से बदलाव के दौर से गुजर रही है।

      पूर्वी एशिया के भीतर प्रतिस्पर्धी आर्थिक संबंधों के लिए जापान को शक्ति संबंधों में बदलाव के रूप में प्रतिस्पर्धा और सहयोग के लिए नए दृष्टिकोणों के संयोजन के साथ देश और विदेश में प्रतिक्रिया देने की आवश्यकता है। चीन के उदय के कारण संयुक्त राज्य अमेरिका एशिया में ऑफ-शोरिंग मैन्युफैक्चरिंग को वापस कर रहा है। रूस और चीन दोनों के साथ संयुक्त राज्य अमेरिका और यूरोप के आकस्मिक संघर्ष के कारण अंतर्राष्ट्रीय आर्थिक संबंध पुनर्व्यवस्था की प्रक्रिया से गुजर रहे हैं।

          पूंजीवादी विकास के रास्ते न केवल जलवायु परिवर्तन और ऊर्जा संक्रमण के कारण बल्कि बढ़ती असमानता और नस्लीय / जातीय / धार्मिक तनावों के कारण भी वैश्विक दबाव और तनाव में हैं। सत्तावादी लोकलुभावनवाद (ओं) औद्योगिक और विज्ञान, प्रौद्योगिकी और नवाचार (एसटीआई) नीतियों और वैज्ञानिकों, प्रौद्योगिकीविदों, सामाजिक वैज्ञानिकों और राजनीतिक और नागरिक समाज के नेताओं के सामाजिक एम्बेडिंग को विकास के लिए अनुसंधान और प्रौद्योगिकी की उभरती दिशाओं पर सामूहिक रूप से प्रतिबिंबित करने की आवश्यकता है।


        उद्देश्यों 

सवाल यह है कि भारतीय राज्य तंत्र और समाज किन परिस्थितियों में आत्मनिर्भर औद्योगिक और कृषि विकास, रोजगार सृजन, पर्यावरण और जलवायु अनुकूल शहरीकरण, सिर्फ ऊर्जा संक्रमण और कई चुनौतियों से सफलतापूर्वक निपटने में सक्षम नीतियों को अपनाने और इस तरह के और बदलाव के लिए तैयार होगा। 

      इस संगोष्ठी में हम खुद से पूछेंगे कि किस तरह की औद्योगिक नीति और विज्ञान, प्रौद्योगिकी और नवाचार (एसटीआई) नीतियों से भारतीय समाज वर्तमान समय में सतत विकास लक्ष्यों को प्राप्त करने में सक्षम औद्योगिक परिवर्तन को आगे बढ़ाने में सक्षम होगा।  संगोष्ठी एस एंड टी आत्मनिर्भरता और नियोजित आर्थिक विकास की धारणा को बेहतर ढंग से समझने और भविष्य की समस्याओं से निपटने के लिए नीतियों पर विचार-विमर्श करने का प्रयास करती है। संगोष्ठी केंद्र सरकार द्वारा प्रतिपादित "आत्मनिर्भर भारत" के वर्तमान पथ का आकलन करने का भी प्रयास करती है, जो अब लगभग तीन वर्षों से लागू है और अभी भी एक नव-उदार नीति ढांचे के भीतर अपने लक्ष्यों को बदलते भू-राजनीतिक परिदृश्य में  प्राप्त करने की उम्मीद है रखता है। 

       एक वैश्वीकृत औद्योगिक दृष्टिकोण के साथ जहां प्रौद्योगिकियों और निवेश को उन देशों में प्रवाहित किया जाता है जो व्यापार में आसानी के माध्यम से निवेश के लिए अनुकूल परिस्थितियों का निर्माण कर सकते हैं, भारत वास्तव में क्या हासिल कर सकता है या खो सकता है, यह वह प्रश्न है जिसकी अवधारणात्मक और क्षेत्रवार जांच की जानी चाहिए। संगोष्ठी मोटे तौर पर आत्मनिर्भर विकास के लिए भारत के मार्गों के इतिहास का पता लगाएगी। यह जांच करेगा कि भारत ने मिश्रित अर्थव्यवस्था में एक स्वायत्त स्वदेशी एस एंड टी और औद्योगिक क्षमता विकसित करने का प्रयास कैसे किया, जहां सार्वजनिक क्षेत्र और निजी क्षेत्र अंततः संघर्ष में आ गए और उदारीकरण, निजीकरण और वैश्वीकरण के लिए मार्ग प्रशस्त किया। 


      संगोष्ठी में विचार-विमर्श रोजगार को बनाए रखने में सक्षम भविष्य के मार्गों के विकास की चुनौतियों को भी लक्षित करेगा, चौथी "औद्योगिक क्रांति", ऊर्जा, पर्यावरण, गतिशीलता और शहरी विकास के क्षेत्र में सामाजिक-तकनीकी परिवर्तन और राष्ट्र राज्य को जलवायु परिवर्तन के प्रतिकूल प्रभावों के प्रति संवेदनशील आबादी की रक्षा करने 




में सक्षम बनाना।

भारत वास्तव में किसका है?* 

 *भारत वास्तव में किसका है?* 


*(भारत का इतिहास) =*

*अंत तक पढ़ने लायक।* 


गोरी साम्राज्य से नरेंद्र मोदी तक 


*गोरी साम्राज्य* 


  1 = 1193 मोहम्मद गौरी

  2 = 1206 कुतुबुद्दीन ऐबकी

  3 = 1210

  4 = 1211

  5 = 1236 रकिनुद्दीन फ़िरोज़ शाह

  6 = 1236 रज़ा सुल्तान

  7 = 1240 मोजद्दीन बहराम शाह

  8 = 1242 अल-दीन मसूद शाह

  9 = 1246 नसीरुद्दीन महमूदी

  10 = 1266 गयासुद्दीन बलबीन

  11 = 1286............

  12 = 1287 मस्जिद के कबड्डी

  13 = 1290 शमसुद्दीन कमर

  महान साम्राज्य का अंत

  (सरकार से दूर -97 वर्ष लगभग।) 


  *खलजी साम्राज्य* 


  1 = 1290 जलालुद्दीन फ़िरोज़ खिलजी

  2=1292 अलाउद्दीन खिलजी

  4=1316 शहाबुद्दीन उमर शाह

  5 = 1316 कुतुबुद्दीन मुबारक शाह

  6 = 1320 नसीरुद्दीन खुसरो शाह

  खिलजी साम्राज्य का अंत

  (दूर सरकार -30 वर्ष लगभग) 


  *तुगलक साम्राज्य* 


  1 = 1320 गयासुद्दीन तुगलक (प्रथम)

  2 = 1325 मोहम्मद इब्न तुगलक (द्वितीय)

  3 = 1351 फिरोज शाह तुगलक

  4 = 1388 गयासुद्दीन तुगलक (द्वितीय)

  5 = 1389 अबू बकर शाह

  6 = 1389 मोहम्मद तुगलक (सोम)

  7 = 1394....... (मैं)

  8 = 1394 नसीरुद्दीन शाह (द्वितीय)

  9=1395 नुसरत शाह

  10 = 1399 नसीरुद्दीन मोहम्मद शाह (द्वितीय)

  11 = 1413 सरकार

  तुगलक साम्राज्य का अंत

  (सरकार से दूर -94 वर्ष लगभग।) 


  *सईद वंश* 


  1 = 1414 पाम खान

  2 = 1421 मुइज़ुद्दीन मुबारक शाह (द्वितीय)

  3 = 1434 मुहम्मद शाह (चतुर्थ)

  4 = 1445 अल्लाह आलम शाह

  सईद साम्राज्य का अंत

  (दूर सरकार-37 वर्ष लगभग) 


  *लोधी साम्राज्य* 


  1 = 1451 बहलोल लोधी

  2 = 1489 लोधी (द्वितीय)

  3 = 1517 इब्राहीम लोधी

  लोधी साम्राज्य का अंत

  (दूर सरकार-75 वर्ष लगभग) 


*मुगल साम्राज्य* 


  1 = 1526 जहीरुद्दीन बाबरी

  2 = 1530 हुमायूँ

  मुगल साम्राज्य का अंत 


  *सुरियन साम्राज्य* 


  1 = 1539 शेर शाह सूरी

  2 = 1545 इस्लाम शाह सूरी

  3 = 1552 महमूद शाह सूरी

  4 = 1553 अब्राहम सूरी

  5 = 1554 परवेज शाह सूरी

  6 = 1554 मुबारक खान सूरी

  सुररियन साम्राज्य का अंत

  (दूर सरकार-16 साल लगभग) 


*मुगल साम्राज्य फिर से* 


  1 = 1555 हुमायूँ (फिर से)

  2=1556 जलालुद्दीन अकबर

  3 = 1605 जहांगीर

  4 = 1628 शाहजहाँ

  5 = 1659 औरंगजेब

  6 = 1707 शाह आलम (प्रथम)

  7 = 1712 बहादुर शाह

  8 = 1713

  9 = 1719

  10 = 1719 …………………

  11 = 1719 …………………

  12 = 1719 महमूद शाह

  13 = 1748 अहमद शाह

  14 = 1754

  15 = 1759 शाह आलम

  16 = 1806 अकबर शाह

  17 = 1837 ज़फ़री

  मुगल साम्राज्य का अंत

  (सरकार से दूर-315 वर्ष लगभग।) 


  *ब्रिटिश राज* 


  1 = 1858 लॉर्ड किंग

  2 = 1862 लॉर्ड जेम्स ब्रूस एल्गिन

  3 = 1864 लॉर्ड जे. लॉरेंस

  4 = 1869 लॉर्ड रिचर्ड मेयो

  5 = 1872 लॉर्ड नार्थबक

  6 = 1876 लॉर्ड एडवर्ड लैटिन

  7 = 1880 लॉर्ड जॉर्ज रिपोन

  8 = 1884 लॉर्ड डफरिन

  9 = 1888 लॉर्ड हनी लेसडन

  10 = 1894 लॉर्ड विक्टर ब्रूस एल्गिन

  11 = 1899 लॉर्ड जॉर्ज कोरजेन

  12 = 1905 लॉर्ड गिल्बर्ट मिंटो

  13 = 1910 लॉर्ड चार्ल्स हार्डगे

  14 = 1916 लॉर्ड फ्रेडरिक से राजकोष तक

  15 = 1921 लॉर्ड रक्स अजाक रिडिगो

  16 = 1926 लॉर्ड एडवर्ड इरविन

  17 = 1931 लॉर्ड फर्मन वेल्डन

  18 = 1936 लॉर्ड एलेजांद्रा लिनलिथगो

  19 = 1943 लॉर्ड आर्चीबाल्ड व्हील

  20 = 1947 लॉर्ड माउंट बैटन 


  ब्रिटिश साम्राज्यवाद का अंत 


  *भारत का प्रधान मंत्री* 


  1 = 1947 जवाहरलाल नेहरू

  2 = 1964 गोलजारी लाल नंदा

  3 = 1964 लाल बहादुर शास्त्री

  4 = 1966 गोलजारी लाल नंदा

  5 = 1966 इंदिरा गांधी

  6 = 1977 मोरारजी देसाई

  7 = 1979 चरण सिंह

  8 = 1980 इंदिरा गांधी

  9 = 1984 राजीव गांधी

  10 = 1989 वी पी सिंह

  11 = 1990 चंद्रशेखर

  12 = 1991 पी.वी.  नरसीमा राव

  13 = 1992 अटल बिहारी वाजपेयी

  14 = 1996 देवेगौड़ा

  15 = 1997 आई.के.  गुजराल

  16 = 1998 अटल बिहारी वाजपेयी

  17 = 2004 मनमोहन सिंह

  18=2014 नरेंद्र मोदी 


  1000 साल तक मुस्लिम राज्य होने के बावजूद भारत में हिंदू रहते हैं।  मुस्लिम शासकों ने उनके साथ कभी अन्याय नहीं किया जब तक शासन किया भारत में न्याय और इन्साफ क़ायम रहा. 


  और .... 


  हिंदुओं को अब तक 100 साल भी नहीं हुए हैं और वो मुसलमानों को खत्म करने की बात करते हैं !!

   यह जानकारी छात्रों को दी जानी चाहिए और इस पोस्ट को सभी के साथ साझा करना चाहिए।  क्योंकि आजकल 90% लोगों को इस बारे में कोई जानकारी नहीं है।

डॉ.बाबा सहाब अम्बेडकर

ने कहा था कि जो लोग अपना इतिहास नहीं जानते वो लोग अपना भविष्य नहीं बना सकते

और अगर किसी क़ौम को खत्म करना हैं तो उस कौम का इतिहास खत्म कर दो वो कौम खुद ब खुद खत्म हो जाती हैं

असलम सैय्यद वॉइस प्रेसिडेंट एस डी पी आई (SDPI)पुणे,महाराष्ट्र

नेहरू विरोध की जड़ें

 नेहरू विरोध की जड़ें

अविजीत पाठक (समाज शास्त्री) (पंजाबी ट्रिब्यून, चंडीगढ़)

अनुवाद: वंदना सुखीजा, गुरबख्श सिंह मोंगा

जैसे देश के एक प्रमुख मीडिया घराने के हाल ही में करवाए गए सर्वे में ‘देश का मिजाज’ दिखाया गया है और हमें यह भरोसा दिलाया जा रहा है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी बहुत ही स्वीकार्य है I जैसे हमें बताया गया है मोदी इस देश के अब तक के सबसे ‘बेहतरीन’ प्रधानमंत्री हैं और वह अन्य सारे प्रधानमंत्रियों पर छाए हुए हैं I सचमुच हम इस समय ‘मोदी के जमाने’ में रह रहे हैं, सर्व-व्यापक मोदी अंतर्राष्ट्रीय रहनुमा के तौर पर चारों ओर घूम रहे हैं अपने खास नाटकीय अंदाज़ के साथ तकरीरें करते हुए हर तरह की चीजों से वादे करते हुए तथा अन्य हर किसी को तुच्छ और महत्वहीन बनाते हुए अपने साथी मंत्रियों तक को I 

इसके बावजूद एक प्रश्न लगातार हमें परेशान कर रहा है I मोदी के इस साधारण से कहीं बड़े अक्स के बावजूद क्या कारण है कि सत्तारूढ़ पक्ष (और हां, साथ ही इसके साथ जुड़ी हुई प्रचार मशीनरी) कभी भी जवाहरलाल नेहरू की बेइज्जती करने या उनकी कद्र कम करने से थकता-अकता नहीं I ऐसा क्यों है कि कर्नाटक सरकार अपने मीडिया इश्तिहार में स्वाधीनता सेनानियों की सूची में से नेहरू का नाम हटाने तक के बारे में सोचती है? अथवा फिर यह कह लें कि ऐसा क्यों है कि एक हिंदी टेलीविज़न चैनल को (एक बार फिर आंकड़ों के रहस्य के साथ) के द्वारा दावा करना पड़ता है कि राष्ट्र के द्वारा नेहरू को सबसे बुरा प्रधानमंत्री माना जाता है?

क्या आत्म-प्रशंसा में कुछ स्वयं-विरोधी है? तुम जितने ज्यादा ताकतवर होते जाते हो, उतना ही ज्यादा असुरक्षित महसूस करते हो! अथवा नेहरू बारे कुछ तो ऐसा है जो सत्तारूढ़ पक्ष को लगातार तंग करता है? नहीं तो हम यह कैसे समझ सकते हैं कि चिरकालिक ‘नेहरू ईर्ष्या’ को क्या माना जाए?

बात शुरू करने से पहले मुझे नेहरू के बारे में तीन नुक्ते साफ करने दो; राजनेता की तरह उनका करिश्मा, उनकी बौद्धिक गहराई, महात्मा गांधी के साथ उनका रिश्ता और इस सबसे बढ़ कर उनकी तरफ से शुरू किया गया राष्ट्र निर्माण का कार्य I

पहला, जैसे ‘द डिस्कवरी ऑफ इंडिया’ (भारत एक खोज) तथा ‘एन ऑटोबायोग्राफी एंड ग्लाइंपसेस ऑफ़ वर्ल्ड हिस्ट्री’ (एक स्वै-जीवनी और विश्व इतिहास की झलक) का कोई भी जागरूक पाठक यह बात जरूर मानेगा कि नेहरू सचमुच चिंतक-दार्शनिक थे I उनकी समझ में उनको मानवीय इतिहास के विकास - ज्ञान के दौर में साइंस, सभ्याचार और राजनीति में अहम इंकलाबों आदि का एहसास करने के काबिल बनाया; उनकी आश्चर्यचकित होने की भावना ने उनकी आंखें खोल दी; वह आंखें जो भारतीय सभ्यता की  संवेदनाओं को देख, महसूस और इस का एहसास कर सकती थी; और गहरी सभ्याचारक संभावनाओं के साथ भरपूर आधुनिकता वादी होने के नाते ‘अतीत के मुर्दा वज़न’ में से बाहर आते नए भारत का सपना देख सकते थे जो ‘वैज्ञानिक स्वभाव’ को अपनाता हुआ खुद को आधुनिक भी बनाता है परंतु साथ ही उपनिषदों से पैदा हुई समझ, गौतम बुद्ध की खोज तथा हमारे पूर्वजों की दार्शनिक और कलात्मक प्राप्तियां और लगातार अंतर-धार्मिक चर्चाओं और संवाद को नहीं भूलता I

दूसरा, उनके महात्मा गांधी के साथ रचनात्मक तौर पर सूक्ष्म और गंभीर मेल-मिलाप ने उनके जिज्ञासु मन के मंथन को ज़ाहिर किया I गांधी की तरफ से आधुनिक/बेरहम सभ्यता (modern/’satanic’ civilization) संबंधी नैतिक/आध्यात्मिक आलोचना विकसित करने और ‘स्वराज’ की जैविक जरूरतों और वातावरण के साथ सद्भावना भरे रिश्ते वाली कुल मिलाकर एक बड़े स्तर पर विकेंद्रीकरण आधारित धारणा लिए हुए कोशिश करने के लिए लिखी गई संवाद भरपूर किताब ‘हिंद स्वराज’ के बुनियादी सिद्धांतों के साथ तो चाहे आधुनिकतावादी नेहरू सहमत नहीं हो सकते थे परंतु फिर भी वह गांधी से बच नहीं सके I

उधर गांधी भी उन पर भरोसा करते थे I संभवत अपने प्यार और अहिंसा की धार्मिकता के साथ गांधी भी नेहरू की धर्मनिरपेक्षता के प्रति गहरी वचनबद्धता के कारण उन पर भरोसा करते थे I उन्होंने महसूस किया कि नेहरू ही बंटवारे के सदमे का शिकार और ‘दो कोमो के सिद्धांत’ के हिमायतियों की तरफ से ज़हरीले किए हुए भारत की समरसता के ज़ख्मों पर मरहम लगा सकते हैं I

तीसरा, नेहरू कल्याणकारी राज्य की जरूरत और प्रासंगिकता को हरमन प्यारा बनाने में कामयाब रहे ऐसी स्टेट/रियासत जो सामाजिक पिछड़ेपन तथा आर्थिक गैर-बराबरी की शिद्दत कम करने वाले सार्वजनिक प्रतिष्ठानों के विकास के लिए वचनबद्ध हो I

सभी इंसानों की तरह नेहरू भी अपने आप में मुकम्मल नहीं थे; हालांकि यह कहना भी नादानी होगी कि वह भारत में इंकलाबी तब्दीलियां करने और सभी सामाजिक-आर्थिक ना-बराबरियों तथा जातिवादी/ पितृ-सत्तात्मक सोच का खात्मा करने में कामयाब रहे I फिर संभवत नेहरू के दौर ने भी नई तरह का कुलीन वर्ग पैदा किया तथा उसका पालन पोषण किया, जैसे पश्चिमी देशों में पढ़े हुए अर्थशास्त्री, साइंस दान, टेक्नोक्रेट, सिविल अफसरशाही आदि जो सरकारी मशीनरी को चला रहे थे तथा नई तरह के नौकरशाही ताकत का वृतांत पैदा कर रहे थे I फिर भी आजादी के लिए लड़ने वालों की तरफ से नए विचारों के साथ भरपूर बुद्धिजीवी की तरह, एक अंतरराष्ट्रीय नेता तथा इस सब से भी बढ़ कर भारत के पहले दूरदर्शी प्रधानमंत्री की तरह उन्होंने शानदार किरदार निभाया, उनको हरगिज़ नकारा नहीं जा सकता I

इसके बावजूद इन दिनों हम अपनी सांझी चेतना में नेहरू के योगदान को मिटा देने की संयोजित कोशिशें होती देख रहे हैं I दरअसल, हिंदुत्व के हिमायती कभी भी नेहरू की स्टेट/रियासत की धर्मनिरपेक्षता वाली दृष्टि के लिए वचनबद्धता के साथ आरामदेह महसूस नहीं कर सकते I तर्क की रोशनी को ही नफ़रत करने वाला ज़हरीला वातावरण हरगिज़ भी नेहरू की तीव्र समाजिक-सियासी सोच, वैज्ञानिक जज़्बे और दार्शनिक जुनून के साथ मेल नहीं खाता I भारत के जिस विचार को नेहरू ने अपनी चेतना की लचकता तथा विश्वव्यापीकरण के साथ संजोया था, वह हरगिज उस सोच के साथ मेल खाने वाला नहीं हो सकता जिसके लिए अपनी फूट डालने वाली सोच के कारण गोलवलकर और सावरकर के पैरोकार काम करते हैं I

हां, जब हिंदुत्व का ठोस जन-सभ्याचार शोर भरपूर तथा हिंसक घोषणा पत्र जैसा ज़ाहिर होता है तथा साथ ही सोशल मीडिया से लगातार चलने वाले ज़हरीले टेलीविज़न चैनलों की तरफ ऐतिहासिक तौर पर गल्त, बौद्धिक तौर पर धुंधले तथा आध्यात्मिक तौर पर कंगाली वाले संदेश प्रसारित किए जाते हैं तो हर किसी को प्रतिकूल रूप में बदल देना ज़्यादा मुश्किल नहीं होता I

दरअसल, जब वह मोदी को ‘ब्रांड’ की तरह बाजार में बेचना चाहते हैं, वह भी लगभग अवतार की तरह, तो उनके लिए सभी बदलने वाली संभावनाओं को कम करना जरूरी हो जाता है I मोदी के अति-आवेशपूर्ण दावों के दौरान, यह ‘हारा हुआ’ नेहरू कौन है जो 1962 में चीन को कड़ा सबक सिखाने में नाकाम रहा? दृढ़ इरादों वाले और ‘राष्ट्रवादी’ मोदी जो अयोध्या में शानदार मंदिर बनवाने के लिए दृढ़ है, के सामने यह ‘कुलीनवादी’ धर्मनिरपेक्ष नेहरू कौन है? फिर जब केदारनाथ में ध्यान (समाधि) लगाते हुए मोदी की बड़े स्तर पर प्रसारित हुई तस्वीर ज़्यादा दिलकश लगती है तो कोई वेदांत तथा नेहरू के गहरे विचारों के साथ जुड़ने का कष्ट क्यों करें? इसलिए कोई आश्चर्यजनक बात नहीं कि नेहरू को बुरा भला कहने वाली जनता ने अभी बढ़ना-फूलना है I 

वैसे, किसी ऐसे चौकन्ने दर्शक जिसने अभी बौद्धिकता की रोशनी ना गवाई हो, के लिए बढ़ती आत्म- प्रशंसा और इसके साथ संबंधित मानसिक असुरक्षा के दौरान ‘नेहरू से ईर्ष्या’ के मनोविज्ञान को देखना व समझना मुश्किल नहीं है I


अनुवाद                             

वंदना सुखीजा                     गुरबख्श सिंह मोंगा

असिस्टेंट प्रोफेसर, अंग्रेजी                एल-102 सुषमा जोयनेस्ट 

मीरी पीरी खालसा कॉलेज,             एयरपोर्ट रिंग रोड 

भदौड़ (बरनाला)                     ज़ीरकपुर

vandanasukheeja@gmail.com        मोहाली- 140603

मो. 9354221054

. ओमप्रकाश ग्रेवाल का परिचय (1937 – 2006)

 डा. ओमप्रकाश ग्रेवाल का परिचय (1937 – 2006)


हरियाणा  के भिवानी जिले के बामला गांव में 11 जुलाई 1937 को जन्म हुआ।भिवानी से स्कूल की शिक्षा प्राप्त करने के बाद दिल्ली विश्वविद्यालय से उच्च शिक्षा प्राप्त की। अमेरिका के रोचेस्टर विश्वविद्यालय से पीएच डी की उपाधि प्राप्त की।

कुरुक्षेत्र  विश्वविद्यालय में अंग्रेजी के प्रोफेसर रहे। कला एवं भाषा संकाय के डीन तथा कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय के डीन एकेडमिक अफेयर रहे।

जनवादी लेखक संघ के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष एवं महासचिव रहे। जनवादी सांस्कृतिक मंच हरियाणा तथा हरियाणा ज्ञान-विज्ञान समिति के संस्थापकों में रहे। साक्षरता अभियान मे सक्रिय रहे।

‘नया पथ’  तथा ‘जतन’ पत्रिका के संपादक रहे।

एक शिक्षक के रूप में अपने विद्यार्थियों, शिक्षक सहकर्मियों व शिक्षा के समूचे परिदृश्य पर शैक्षणिक व वैचारिक पकड़ का अनुकरणीय आदर्श स्थापित किया। हिंदी आलोचना में तत्कालीन बहस में सक्रिय थे और  साहित्य में प्रगतिशील रूझानों को बढ़ावा देने के लिए अपनी लेखनी चलाई। नव लेखकों से जीवंत संवाद से सैंकड़ों लेखकों को मार्गदर्शन किया।

वे जीवन-पर्यंत साम्प्रदायिकता, जाति-व्यवस्था, सामाजिक अन्याय, स्त्री-दासता के सांमती ढांचों के खिलाफ सांस्कृतिक पहल की अगुवाई करते रहे। प्रगतिशील-जनतांत्रिक मूल्यों की पक्षधरता उनके व्यवहार व लेखन व वक्तृत्व का हिस्सा हमेशा रही।

गंभीर बीमारी के चलते 24 जनवरी 2006 को उनका देहांत हो गया।


 


 

एकएक महिला वैज्ञानिक का होना

 एकएक महिला वैज्ञानिक का होना

   जब भी 10वीं या 12वीं की बोर्ड की परीक्षा का वार्षिक परिणाम आता है प्राय एक वाक्य सुर्खियों में रहता है, इस बार भी लड़कियों ने बाजी मारी ।विज्ञान संकाय में भी अधिकतर यही स्थिति रहती है। लेकिन जैसे-जैसे ये लड़कियां ऊंची कक्षाओं में जाती हैं स्थिति बदलती जाती है। सँख्या की दृष्टि से लड़कियां कम होती जाती हैं। स्नातक कक्षाओं में विज्ञान संकाय में लड़के और लड़कियों के बीच अनुपात का अंतर बढ़ जाता है ।यह लगभग  53:47 रह जाता है। लड़कियां कुछ पिछड़ जाती है ।यह संख्या की दृष्टि से है गुणवत्ता की दृष्टि से नहीं। स्नातकोत्तर कक्षाओं में यह अंतर और बढ़ जाता है (57:43)। शोध तक आते-आते लड़कियों की संख्या लड़कों की तुलना में लगभग एक तिहाई रह जाती है (28:72)। विज्ञान की दुनिया में विश्व में महिला वैज्ञानिकों की संख्या लगभग 28% है जबकि भारत में यह प्रतिशत 14%तक ही है ।ऐसा क्यों है ?

   भारतीय विज्ञान संस्थान सन 1911 में स्थापित हुआ था ।यह एक प्रतिष्ठित वैज्ञानिक संस्थान है। उसी समय से यहां लड़कों के लिए हॉस्टल की व्यवस्था है। महिला हॉस्टल की व्यवस्था होने तक लगभग तीन दशक (1942 में ) का समय लग गया। भारतीय विज्ञान संस्थान बेंगलुरु का एक रोचक किस्सा इस प्रकार बताते हैं। यह सन 1933 की बात है। इस संस्थान में विज्ञान संकाय में एक अप्रत्याशित घटना घटित हुई।उन दिनों संस्थान के निदेशक नोबेल वैज्ञानिक सर सी वी रमन थे। एक युवा लड़की( विद्यार्थी) ने इस संस्थान को झकझोर दिया। इस विद्यार्थी का नाम था कमला भागवत । इनका जन्म 1911 में हुआ था। ये एक संभ्रांत परिवार से थी ।इनके माता-पिता दोनों विज्ञान की ऊंची पढ़ाई लिए हुए थे । ये अपनी लड़की को भी एक वैज्ञानिक बनाना चाहते थे। इन्होंने पहले अपनी स्कूल की पढ़ाई पूरी की ।बाद में ये विज्ञान की पढ़ाई के लिए मुंबई आ गई ।यहां से इन्होंने मेरिट में अपनी डिग्री प्राप्त की ।इनका  सपना एक अच्छे संस्थान से वैज्ञानिक बनना था।

    आगे पढ़ने के लिए इन्होंने एक शोधार्थी के रूप में बेंगलुरु संस्थान में आवेदन किया। सर सी वी रमन ने इनके आवेदन को खारिज कर दिया व इनको अपने संस्थान में दाखिला देने से इनकार कर दिया । यद्यपि ये मेरिट में आई थी । कमला भागवत ने इसका कारण जानना चाहा। सर सी वी रमन का कहना था कि वे किसी भी महिला को अपने संस्थान में वैज्ञानिक बनने के लिए दाखिला नहीं देते हैं । कमला भागवत में विरोध दर्ज करवाते हुए कहा कि यह तो कोई कारण नहीं हुआ। इन्होंने संस्थान के अंदर ही गांधीवादी तरीके से सत्याग्रह शुरू कर दिया और वापस हटने से बिल्कुल मना कर दिया ।अब स्थिति बड़ी विचित्र हो गई थी। इनकी ज़िद के सामने सर सी वी रमन को पीछे हटना पड़ा। अंत में सर सी वी रमन ने दाखिला देना स्वीकार कर लिया। लेकिन इनके सामने बहुत ही सख्त शर्ते रखी ।पहली शर्त तो यही थी कि जब तक वे स्वयं उनके काम (गुणवत्ता की दृष्टि से) से संतुष्ट नहीं होंगे उनके काम को स्वीकृत नहीं समझा जाएगा। दूसरी शर्त बहुत ही अजीब थी। वह थी कि दिन के समय प्रयोगशाला लड़कों के लिए ही उपलब्ध होंगी ,इसलिए इन्हें रात्रि को ही प्रयोगशाला में काम करने की अनुमति होगी ताकि लड़कों का काम प्रभावित न हो। 22 वर्षीय युवा कमला ने यह सब स्वीकार किया और कोई शिकायत भी नहीं की। और न  ही इसे अपनी शान के खिलाफ समझा। यहां इन्हें गाइड के रूप में माननीय एम श्रीनिवासैया मिले। ये अपने समय के जाने-माने माइक्रोबायोलॉजिस्ट थे। इनके साथ काम करते हुए कमला ने दूध व दालों में प्रोटीन की उपस्थिति पर अपना शोध किया। सन 1936 में इनका यह शोध कार्य पूरा हुआ और शानदार उपलब्धियों के साथ इन्होंने अपनी एमएससी की डिग्री प्राप्त की।


यह कमला भागवत की उपलब्धियों के बाद ही संभव हुआ कि सर सी वी रमन ने सन 1937 के बाद से इस संस्थान के द्वार लड़कियों की पढ़ाई के लिए हमेशा -हमेशा के लिए खोल दिए। इसके बाद कमला ने कैंब्रिज विश्वविद्यालय से अपनी डॉक्टरेट की उपाधि प्राप्त की ।कैंब्रिज में इन्होंने डॉक्टर डीरेक रिकटर और डॉक्टर रोबिन जैसे महान वैज्ञानिकों के साथ काम किया। इन्होंने यहां नोबेल पुरस्कार प्राप्त वैज्ञानिक डॉक्टर फ्राड्रिक हॉपकिंस के साथ फेलोशिप लेते हुए अपना कार्य किया। यहां इन्होंने पौधों में पाए जाने वाले एंजाइम साइटोक्रोम सी पर मौलिक कार्य किया। सन 1939 में ये अपना शोध कार्य करने के उपरांत भारत वापस आयी। यहां इन्होंने माधव सोहिनी से शादी की और अब ये कमला सोहिनी बन गई ।सन 1947 में ये मुंबई आ गई और प्रतिष्ठित संस्थानों में जिम्मेवारी के पदों पर कार्य किया। भारत के प्रथम राष्ट्रपति डॉ राजेंद्र प्रसाद इनके कार्य से बहुत प्रभावित हुए। कमला सोहिनी एक उच्च कोटि की विज्ञान लेखिका भी रही। इन्हें अनेक राष्ट्रीय स्तर के ऊंचे पुरस्कारों से नवाजा गया। सन 1998 में 86 वर्ष की आयु में ये इस दुनिया को विदा कह गई ।

   हम जानते हैं कि सन 1973 में 13 जून को भारतीय महिला विज्ञान एसोसिएशन रजिस्टर्ड हुई। इसके मुख्य उद्देश्यों  में वैज्ञानिक मानसिकता के प्रचार प्रसार के साथ दो उद्देश्य इस प्रकार थे ।देश में विज्ञान के क्षेत्र में महिलाओं के लिए सामने आने वाली समस्याओं का अध्ययन करना व इनके समाधान की ओर बढ़ना। विज्ञान व तकनीक के क्षेत्र में महिलाओं का उचित प्रतिनिधित्व कैसे सुनिश्चित हो। यद्यपि इस एसोसिएशन ने काफी कार्य किया है फिर भी अभी तक कोई उल्लेखनीय कार्य इस दिशा में नहीं हुआ है। इसी एसोसिएशन के समक्ष कमला सोहिनी ने अपनी यह दर्दभरी दास्तान सुनाई थी। इन्होंने मुखर होकर कहा था-- यद्यपि सर सी वी रमन एक महान वैज्ञानिक थे लेकिन वे लैंगिक संवेदनशीलता के मामलों में बहुत तंग दिमाग थे। मैं कभी नहीं भूल सकती कि एक महिला होते हुए उन्होंने मुझसे ऐसा व्यवहार किया। यह मेरा बड़ा अपमान था ।उस समय महिलाओं के प्रति यह कितना बुरा पूर्वाग्रह किया गया। किसी से क्या उम्मीद की जाए जबकि एक नोबेल पुरस्कार वैज्ञानिक इस प्रकार व्यवहार करता हो।

    एसोसिएशन के समक्ष अनेक महिला वैज्ञानिकों ने अपनीअपनी बहुत ही हैरतअंगेज आप बीती बातें बताई हैं। एक वैज्ञानिक श्रीमती डी के पदमा बताती हैं कि मेरे गाइड श्री MRA Rao ने मुझसे कहा कि वे पहले मेरे पति से मिलेंगे। उन्होंने मेरे पति के सामने यह शर्त रखी कि वे मुझे तभी यह शोध करने की अनुमति देंगे जब वे उन्हें आश्वस्त कर दे कि वे 5 वर्ष तक कोई संतान पैदा नहीं करेंगे ।एक अन्य महिला वैज्ञानिक के सामने तो एक उच्च अधिकारी ने तो यहां तक कह दिया कि आपने एक व्यक्ति( पुरुष ) का कैरियर कम कर दिया है।एक महिला वैज्ञानिक के सामने वैसे ही अनेक विभागीय समस्याएं व अन्य व्यावहारिक समस्याएं रहती हैं ।इनके साथ साथ यह लैंगिक भेदभाव एक बहुत बड़ी रुकावट है ।वैज्ञानिक मानसिकता के दायरे में यह पुरुषवादी वर्चस्व की मानसिकता सबसे बड़ी अड़चन है ।इस मामले में अभी हम बहुत पिछड़े हुए हैं। महिला वैज्ञानिक का होना

   जब भी 10वीं या 12वीं की बोर्ड की परीक्षा का वार्षिक परिणाम आता है प्राय एक वाक्य सुर्खियों में रहता है, इस बार भी लड़कियों ने बाजी मारी ।विज्ञान संकाय में भी अधिकतर यही स्थिति रहती है। लेकिन जैसे-जैसे ये लड़कियां ऊंची कक्षाओं में जाती हैं स्थिति बदलती जाती है। सँख्या की दृष्टि से लड़कियां कम होती जाती हैं। स्नातक कक्षाओं में विज्ञान संकाय में लड़के और लड़कियों के बीच अनुपात का अंतर बढ़ जाता है ।यह लगभग  53:47 रह जाता है। लड़कियां कुछ पिछड़ जाती है ।यह संख्या की दृष्टि से है गुणवत्ता की दृष्टि से नहीं। स्नातकोत्तर कक्षाओं में यह अंतर और बढ़ जाता है (57:43)। शोध तक आते-आते लड़कियों की संख्या लड़कों की तुलना में लगभग एक तिहाई रह जाती है (28:72)। विज्ञान की दुनिया में विश्व में महिला वैज्ञानिकों की संख्या लगभग 28% है जबकि भारत में यह प्रतिशत 14%तक ही है ।ऐसा क्यों है ?

   भारतीय विज्ञान संस्थान सन 1911 में स्थापित हुआ था ।यह एक प्रतिष्ठित वैज्ञानिक संस्थान है। उसी समय से यहां लड़कों के लिए हॉस्टल की व्यवस्था है। महिला हॉस्टल की व्यवस्था होने तक लगभग तीन दशक (1942 में ) का समय लग गया। भारतीय विज्ञान संस्थान बेंगलुरु का एक रोचक किस्सा इस प्रकार बताते हैं। यह सन 1933 की बात है। इस संस्थान में विज्ञान संकाय में एक अप्रत्याशित घटना घटित हुई।उन दिनों संस्थान के निदेशक नोबेल वैज्ञानिक सर सी वी रमन थे। एक युवा लड़की( विद्यार्थी) ने इस संस्थान को झकझोर दिया। इस विद्यार्थी का नाम था कमला भागवत । इनका जन्म 1911 में हुआ था। ये एक संभ्रांत परिवार से थी ।इनके माता-पिता दोनों विज्ञान की ऊंची पढ़ाई लिए हुए थे । ये अपनी लड़की को भी एक वैज्ञानिक बनाना चाहते थे। इन्होंने पहले अपनी स्कूल की पढ़ाई पूरी की ।बाद में ये विज्ञान की पढ़ाई के लिए मुंबई आ गई ।यहां से इन्होंने मेरिट में अपनी डिग्री प्राप्त की ।इनका  सपना एक अच्छे संस्थान से वैज्ञानिक बनना था।

    आगे पढ़ने के लिए इन्होंने एक शोधार्थी के रूप में बेंगलुरु संस्थान में आवेदन किया। सर सी वी रमन ने इनके आवेदन को खारिज कर दिया व इनको अपने संस्थान में दाखिला देने से इनकार कर दिया । यद्यपि ये मेरिट में आई थी । कमला भागवत ने इसका कारण जानना चाहा। सर सी वी रमन का कहना था कि वे किसी भी महिला को अपने संस्थान में वैज्ञानिक बनने के लिए दाखिला नहीं देते हैं । कमला भागवत में विरोध दर्ज करवाते हुए कहा कि यह तो कोई कारण नहीं हुआ। इन्होंने संस्थान के अंदर ही गांधीवादी तरीके से सत्याग्रह शुरू कर दिया और वापस हटने से बिल्कुल मना कर दिया ।अब स्थिति बड़ी विचित्र हो गई थी। इनकी ज़िद के सामने सर सी वी रमन को पीछे हटना पड़ा। अंत में सर सी वी रमन ने दाखिला देना स्वीकार कर लिया। लेकिन इनके सामने बहुत ही सख्त शर्ते रखी ।पहली शर्त तो यही थी कि जब तक वे स्वयं उनके काम (गुणवत्ता की दृष्टि से) से संतुष्ट नहीं होंगे उनके काम को स्वीकृत नहीं समझा जाएगा। दूसरी शर्त बहुत ही अजीब थी। वह थी कि दिन के समय प्रयोगशाला लड़कों के लिए ही उपलब्ध होंगी ,इसलिए इन्हें रात्रि को ही प्रयोगशाला में काम करने की अनुमति होगी ताकि लड़कों का काम प्रभावित न हो। 22 वर्षीय युवा कमला ने यह सब स्वीकार किया और कोई शिकायत भी नहीं की। और न  ही इसे अपनी शान के खिलाफ समझा। यहां इन्हें गाइड के रूप में माननीय एम श्रीनिवासैया मिले। ये अपने समय के जाने-माने माइक्रोबायोलॉजिस्ट थे। इनके साथ काम करते हुए कमला ने दूध व दालों में प्रोटीन की उपस्थिति पर अपना शोध किया। सन 1936 में इनका यह शोध कार्य पूरा हुआ और शानदार उपलब्धियों के साथ इन्होंने अपनी एमएससी की डिग्री प्राप्त की।


यह कमला भागवत की उपलब्धियों के बाद ही संभव हुआ कि सर सी वी रमन ने सन 1937 के बाद से इस संस्थान के द्वार लड़कियों की पढ़ाई के लिए हमेशा -हमेशा के लिए खोल दिए। इसके बाद कमला ने कैंब्रिज विश्वविद्यालय से अपनी डॉक्टरेट की उपाधि प्राप्त की ।कैंब्रिज में इन्होंने डॉक्टर डीरेक रिकटर और डॉक्टर रोबिन जैसे महान वैज्ञानिकों के साथ काम किया। इन्होंने यहां नोबेल पुरस्कार प्राप्त वैज्ञानिक डॉक्टर फ्राड्रिक हॉपकिंस के साथ फेलोशिप लेते हुए अपना कार्य किया। यहां इन्होंने पौधों में पाए जाने वाले एंजाइम साइटोक्रोम सी पर मौलिक कार्य किया। सन 1939 में ये अपना शोध कार्य करने के उपरांत भारत वापस आयी। यहां इन्होंने माधव सोहिनी से शादी की और अब ये कमला सोहिनी बन गई ।सन 1947 में ये मुंबई आ गई और प्रतिष्ठित संस्थानों में जिम्मेवारी के पदों पर कार्य किया। भारत के प्रथम राष्ट्रपति डॉ राजेंद्र प्रसाद इनके कार्य से बहुत प्रभावित हुए। कमला सोहिनी एक उच्च कोटि की विज्ञान लेखिका भी रही। इन्हें अनेक राष्ट्रीय स्तर के ऊंचे पुरस्कारों से नवाजा गया। सन 1998 में 86 वर्ष की आयु में ये इस दुनिया को विदा कह गई ।

   हम जानते हैं कि सन 1973 में 13 जून को भारतीय महिला विज्ञान एसोसिएशन रजिस्टर्ड हुई। इसके मुख्य उद्देश्यों  में वैज्ञानिक मानसिकता के प्रचार प्रसार के साथ दो उद्देश्य इस प्रकार थे ।देश में विज्ञान के क्षेत्र में महिलाओं के लिए सामने आने वाली समस्याओं का अध्ययन करना व इनके समाधान की ओर बढ़ना। विज्ञान व तकनीक के क्षेत्र में महिलाओं का उचित प्रतिनिधित्व कैसे सुनिश्चित हो। यद्यपि इस एसोसिएशन ने काफी कार्य किया है फिर भी अभी तक कोई उल्लेखनीय कार्य इस दिशा में नहीं हुआ है। इसी एसोसिएशन के समक्ष कमला सोहिनी ने अपनी यह दर्दभरी दास्तान सुनाई थी। इन्होंने मुखर होकर कहा था-- यद्यपि सर सी वी रमन एक महान वैज्ञानिक थे लेकिन वे लैंगिक संवेदनशीलता के मामलों में बहुत तंग दिमाग थे। मैं कभी नहीं भूल सकती कि एक महिला होते हुए उन्होंने मुझसे ऐसा व्यवहार किया। यह मेरा बड़ा अपमान था ।उस समय महिलाओं के प्रति यह कितना बुरा पूर्वाग्रह किया गया। किसी से क्या उम्मीद की जाए जबकि एक नोबेल पुरस्कार वैज्ञानिक इस प्रकार व्यवहार करता हो।

    एसोसिएशन के समक्ष अनेक महिला वैज्ञानिकों ने अपनीअपनी बहुत ही हैरतअंगेज आप बीती बातें बताई हैं। एक वैज्ञानिक श्रीमती डी के पदमा बताती हैं कि मेरे गाइड श्री MRA Rao ने मुझसे कहा कि वे पहले मेरे पति से मिलेंगे। उन्होंने मेरे पति के सामने यह शर्त रखी कि वे मुझे तभी यह शोध करने की अनुमति देंगे जब वे उन्हें आश्वस्त कर दे कि वे 5 वर्ष तक कोई संतान पैदा नहीं करेंगे ।एक अन्य महिला वैज्ञानिक के सामने तो एक उच्च अधिकारी ने तो यहां तक कह दिया कि आपने एक व्यक्ति( पुरुष ) का कैरियर कम कर दिया है।एक महिला वैज्ञानिक के सामने वैसे ही अनेक विभागीय समस्याएं व अन्य व्यावहारिक समस्याएं रहती हैं ।इनके साथ साथ यह लैंगिक भेदभाव एक बहुत बड़ी रुकावट है ।वैज्ञानिक मानसिकता के दायरे में यह पुरुषवादी वर्चस्व की मानसिकता सबसे बड़ी अड़चन है ।इस मामले में अभी हम बहुत पिछड़े हुए हैं।

जन - विज्ञान आंदोलन क्यों?

 जन - विज्ञान आंदोलन क्यों?

पिछले 200 सालों से संसार का चमत्कारी और तेज गति से रूपांतरण हो रहा है।  भौतिक और वनस्पति विज्ञान में हो रही नई नई खोजों और औद्योगिक प्रतिष्ठानों द्वारा इनके इस्तेमाल ने संसार में बहुत सी जानलेवा बीमारियों मसलन चेचक,प्लेग व मलेरिया का खात्मा संभव बना दिया है। चिकित्सा जगत में नई खोजों के द्वारा अन्य बहुत सी बीमारियों( जिनको आज से 50 साल पहले दैवी प्रकोप के कारण माना जाता था ) का इलाज ढूंढ लिया गया है। रेल, मोटर गाड़ी, आधुनिक समुद्री जहाज और हवाई जहाज के आविष्कार ने दुनिया में दूर-दूर बसे महाद्वीपों के देशों को एक दूसरे के बहुत नजदीक ला दिया है। यंत्र विज्ञान और बुनियादी विज्ञान की तरक्की ने मनुष्य के लिए यह संभव बना दिया है कि वह पहले के मुकाबले अब प्राकृतिक शक्तियों को और अधिक कारगर ढंग से साध सकें। भले ही यह धातु के संदर्भ में हो चाहे, बाढ़ को नियंत्रित करने का मसला हो , चाहे उर्जा के दूसरे स्वरूप पैदा करने की बात हो या जमीन की उत्पादकता बढ़ाने की योजना हो । अब वैज्ञानिक तकनीकी क्रांति के चलते, खासकर इलेक्ट्रॉनिक्स ,जैविक विज्ञान और अंतरिक्ष विज्ञान की तरक्की होने से, मानवता आगे बढ़ने के लिए एक लंबी छलांग लगाने की तैयारी में है।

      मगर आमतौर पर देखने में आया है कि विज्ञान और शिल्प विज्ञान बहुसंख्यक लोगों के हितों को ध्यान में रखकर विकसित नहीं हुआ है। इस संदर्भ में विकास की प्रक्रिया का दिशा निर्देशन भी जनता के व्यापक हिस्से के हितों की अनदेखी करता हुआ प्रतीत होता है। विज्ञान और शिल्प विज्ञान पर कुछ धनी व ताकतवर लोगों का प्रभुत्व और इन्हीं लोगों द्वारा निजी मुनाफा कमाने के लिए विज्ञान के एक तरफा इस्तेमाल ने संसार में बहुत गंभीर परिणाम और खतरे खड़े कर दिए हैं । मुनाफे के लिए मनमाने ढंग से जंगलों की कटाई, वातावरण का प्रदूषण एवं व्यापक स्तर पर औद्योगिक प्रदूषण एवं नतीजतन बहुत से लोगों के स्वास्थ्य को खतरा, ये सभी इस प्रकार के निजी मुनाफा कमाने की ललक का नतीजा हैं। आज विज्ञान और यांत्रिकी  क्षेत्र में तरक्की के कारण मिले फलों का रसास्वादन बी इन्हीं लोगों के द्वारा

किया जा रहा है

क्योंकि उत्पादन के साधनों एवं मिलों के मालिक हैं ।

   हमारे भाई बहनों का बहुत बड़ा हिस्सा इस संसार में अभी भी स्वास्थ्य, शिक्षा, सिर ढांपने के लिये मकान, पहनने के लिए कपड़े तथा यहां तक कि दो जून के भोजन से वंचित है। विडम्बना यह है कि इस सबके बावजूद विज्ञान की उपलब्धियों को शक्तिशाली मिलिट्री-उद्योग प्रतिष्ठानों द्वारा मानव -घाती हथियार बनाने के काम में लाया जा रहा है। इस प्रक्रिया के चलते इन निजी आद्योगिक प्रतिष्ठानों को और अधिक फलने फूलने का मौका मिल रहा है। 


अभी तक विज्ञान के स्तर पर असीम विकास के बावजूद विभिन्न देशों के बीच विद्यमान विषमताएं बरकरार हैं  क्योंकि मुट्ठी भर पूंजीवाद देश वैज्ञानिक ज्ञान तथा भौतिकी संपदा के बड़े हिस्से पर अपना प्रभुत्व जमाए बैठे हैं । इन देशों ने हाल ही के दौर में आजाद हुए विकासशील या अविकसित देशों को आर्थिक स्तर पर अभी भी गुलाम बनाया हुआ है। इस प्रक्रिया को जारी रखने के प्रयास साफ नजर आने लगे हैं।

    अगर जिन समस्याओं की चर्चा की गई है इन समस्याओं ने हमारे अपने भारत देश के अंदर बहुत ही तीव्र रूप धारण  कर लिया है । यदि हम संस्कृति और सभ्यता के नजरिए से देखें तो हमारे भारत देश को की एक गौरवशाली परंपरा रही है। भारत के वैज्ञानिकों पर हम वास्तव में गर्व कर सकते हैं। आर्य भट्ट, भास्कर, ब्रह्मगुप्त, सुश्रुत आदि वैज्ञानिक पैदा करने का गौरव भारत को मिला। इसी प्रकार विज्ञान की भिन्न भिन्न शाखाएं - मसलन एस्ट्रोनॉमी, हिसाब तथा चिकित्सा शास्त्र भी उल्लेखनीय हैं। लेकिन उसके बाद का दौर काफी कड़वी सच्चाई लिए हुए है।

आज हम दो शताब्दियों से चलते आ रहे गुलामी के फंदे से निकल भर पाए हैं ।  हमारे पिछड़े पन के लिए जहां-जहां औपनिवेशिक राज, बहुराष्ट्रीय कंपनियों की लूट एवं पश्चिमी देशों की लूट महत्वपूर्ण कारण हैं वहीं हमारी आंतरिक सामाजिक संरचना में (जो कि ब्रिटिश शासन काल के दौर में कायम की गई) बचे उस दौर के अवशेषों की भी एक महत्वपूर्ण भूमिका है। मौजूदा सामाजिक संरचना के कारण ही आज के ऐतिहासिक दौर में पश्चिम की औद्योगिक  क्रांति से शुरू हुई विज्ञान और तकनीक के क्षेत्र में तरक्की में भारतवर्ष की हिस्सेदारी अपूर्ण रही है तथा मौजूदा सामाजिक संरचना विज्ञान और तकनीक के व्यापक फैलाव में अवरोध का काम कर रही है।

       आज वक्त का तकाजा है कि लोगों की समस्याएं सुलझाने के लिए भारतवर्ष में आधुनिक विज्ञान और तकनीक का क्रमबद्ध ढंग से इस्तेमाल किया जाए। हमें यह ध्यान रखना होगा कि लोगों का जीवन स्तर ऊंचा उठाने के लिए जो संघर्ष किया जा रहा है उसके साथ साथ उन बाहरी तथा अंदरूनी ताकतों के खिलाफ भी जन-सघर्ष चलाया जाए जो हमारे देश की वैज्ञानिक और तकनीकी तरक्की में बाधा बने हुए हैं। इस जन ज्ञान विज्ञान आंदोलन के कर्णधारों को निजी मुनाफे की होड़ में पैदा होने वाले वातावरण के प्रदूषण व वन पर्यावरण जैसे पहलूओं को भी ध्यान में रखकर  चलना होगा।

      इन व्यापक  उद्देश्यों की पूर्ति के लिए देश में कई लोकप्रिय विज्ञान आंदोलन पिछले दो-तीन दशकों में उभर कर आए हैं। इन जन-विज्ञान आंदोलनों ने यह सवाल आत्मसात किया है कि विज्ञान  से किस प्रकार लोगों का जीवन स्तर सुधारा जा सकता है । साथ ही यह भी सवाल उठाया है कि अभी तक विज्ञान और तकनीक के अंदर छिपी असीमित संभावनाओं का विकास करके हमारे देश में यह काम क्यों नहीं हो पाया है ? ये लोकप्रिय आंदोलन सिर्फ इन सवालों के विश्लेषण पर ही केंद्रित नहीं हैं बल्कि लोगों में वैज्ञानिक दृष्टिकोण पैदा करने का प्रयत्न भी कारगरता से कर रहे हैं । लोगों ने इस चेतना का विकास किया जा रहा है कि विज्ञान और तकनीक के तीव्र विकास के कारण जनसाधारण का जीवन सुधारने की संसार के स्तर पर असीम संभावनाएं पैदा हुई हैं । अपने काम करने के दौर में ही इन आंदोलनों में 'जन विज्ञान आंदोलनों' या दोनों या 'पीपल्ज साइंस मूवमेंट्स' का नाम अर्जित किया है क्योंकि इन सभी आंदोलनों का सरोकार  सैद्धांतिक व व्यावहारिक स्तर पर मुख्य रूप से 'लोगों के लिए विज्ञान' रहा है । ये जन विज्ञान आंदोलन पूर्ण सामाजिक प्रक्रिया के धरातल पर (मसलन शिक्षा, स्वास्थ्य, ऊर्जा, सिंचाई, जमीन का सार्थक उपयोग, परिवहन, वातावरण एवं वन) सक्रिय  हुए हैं । कहने का अर्थ यह है कि हरेक सामाजिक घटना से इनका वास्ता है क्योंकि आज कोई भी मानव क्रिया कलाप विज्ञान और तकनीक के प्रभाव से अछूती नहीं है।  वर्तमान सामाजिक ढांचे के तथा विज्ञान और तकनीक को लोगों के लिए इस्तेमाल करने के मुद्दे के बीच क्या अंतर संबंध है, यह जन -विज्ञान आंदोलनों को मालूम है , उन्हें कोई भ्रम नहीं है। इस आंदोलन को मालूम है कि भारत में यह भिन्न-भिन्न वर्गों के लोगों पर अलग-अलग प्रभाव डालता है। यहां यह भी साफ करना जरूरी है कि यह जन विज्ञान आंदोलन पश्चिमी देशों द्वारा आर्थिक सहायता प्राप्त करके चलने वाले तथाकथित समाजसेवी संगठनों से भिन्न है।

        इन जन- विज्ञान आंदोलनों ने बहुत से मुद्दे उठाए हैं।  इनमें से ज्यादा चर्चित मुद्दे- नदियों के पानी के प्रदूषण का सवाल, व्यवसाय से जुड़ी बीमारियों का सवाल, खतरनाक एम प्रतिबंधित दवाओं का सवाल, लोगों की स्वास्थ्य नीति, वनों की कटाई, तर्कसंगत औद्योगिकरण आदि रहे हैं । जहां भी विभिन्न वर्गों के हितों को लेकर इन विषयों पर कोई संघर्ष उभरा है तो जन साधारण के हितों की तरफदारी की है। इनमें से बहुत से संगठन अपने अस्तित्व के लिए सरकारी सहायता या दूसरी संस्था पर निर्भर नहीं करते । 

  सन 1987 में 5 भारत जन विज्ञान  जत्थों के इर्द गिर्द हुई कार्रवाहियों के चलते , इस तरह के पहले से काम कर रहे लोकप्रिय विज्ञान आंदोलनों को एक दूसरे के नजदीक आने का मौका मिला--- इनमें से कुछ का तो बहुत ही लम्बा अनुभव भी है । इस कार्यक्रम के दौरान भारत के एक कोने से लेकर दूसरे कोने तक 2 अक्टूबर 1987 से 7 नवंबर 1987 तक विभिन्न गतिविधियां आयोजित की गई।

       इसके पीछे केरल साहित्य परिषद जोकि पिछले 25 साल से इस विज्ञान जन आंदोलन को केरल में चलाए हुए है, जैसे संगठनों की प्रेरणा ने काफी सक्रिय भूमिका निभाई है। कुछ ऐसे नए संगठन  भी हैं जो हैं तो नए मगर जिन्होंने बहुत से अग्रणी वैज्ञानिकों की भागीदारी इन जन विज्ञान आंदोलनों में सुनिश्चित की है । विज्ञान और समाज के अंतर संबंधों एवं विज्ञान नीति को लेकर बहुत ही महत्वपूर्ण सवालों को रेखांकित किया है। कई संगठन  ऐसे भी हैं जो बिल्कुल नए हैं। लेकिन जन विज्ञान आंदोलनों की एक खासियत यह है कि इनके संगठनकर्ता और नाभि बिंदु बहुत ही समर्पित व्यक्ति हैं । जनसाधारण तथा वैज्ञानिकों ने सारे भारत के भिन्न भिन्न हिस्सों में भारत जन विज्ञान जत्थे का बड़े उत्साह के साथ स्वागत किया। इस जत्थे ने इन जन आंदोलनों में विद्यमान एकरूपता को ही रेखांकित किया है। अगले पड़ाव की ओर यह काम अपने आप में एक महत्वपूर्ण कदम है । इस प्रक्रिया ने विभिन्न ग्रुपों  के बीच एक  वार्तालाप की शुरुआत की है। सूचनाओं, विचारों तथा अनुभवों का आदान-प्रदान आरंभ हुआ है।

       

    इस जन विज्ञान आंदोलन की महत्वपूर्ण उपलब्धियों में से एक उपलब्धि यह भी है कि थियेटर के माध्यम से विज्ञान का संदेश बहुत सशक्त ढंग से लोगों तक पहुंचाया जा सकता है। इस आंदोलन ने लोक शैलियों के अंदर प्रचलित विकृत सरोकारों को तिलांजलि देकर इन लोक शैलियों के अंदर विद्यमान उस लोके तत्व को पुनः बहाल करने की शुरुआत की है जिसमें मेहनत कर जनता की समस्याओं को पुन: परिभाषित किया जा रहा है । आंदोलन ने समझा है कि उपयुक्त विषयों को उठाना ही काफी नहीं है, वह रूप जिसमें उसकी अभिव्यक्ति होती है समान रूप से महत्वपूर्ण है।

       इस जत्थे के दौरान एक अन्य रोमांचकारी अनुभव इस आंदोलन में 'खेल खेल में विज्ञान' प्रणाली के माध्यम से हासिल किया है। यह एक वास्तविकता है कि बच्चों को कठिन से कठिन वैज्ञानिक सिद्धांत भी  इन सिद्धांतों पर बने हुए सस्ते एवं साधारण खिलौनों के माध्यम से रूचिकर ढंग से सिखाया जा सकता है। इसके साथ ही विभिन्न विषयों पर पोस्टर प्रदर्शनी, स्लाइड शो एवं वीडियो फिल्म जैसे माध्यमों का भी सफल प्रयोग इस जन विज्ञान आंदोलन ने करके दिखाया है।

    


        इस आंदोलन ने राष्ट्रीय एकता के साथ अपना संबंध जोड़ा है क्योंकि सच्चाई को ढूंढने के वैज्ञानिक दृष्टिकोण में जो व्यापकता तथा सार्वभौमिकता निहित है वह इसकी संरचना में समाहित है। इसी के कारण आज के दौर में संकीर्ण, गैर तर्कसंगत तथा प्रतिक्रियावादी दृष्टिकोण के मुकाबले विज्ञान एक सार्वभौमिक, तर्क संगत तथा धर्मनिरपेक्ष व मानवतावादी रूझान एवं विचार का हिमायती है । उदाहरण के लिए विज्ञान हमें बताता है कि जहां तक विभिन्न जातियों में नस्लों के मनुष्यों में प्रवाहित खून का सवाल है , वह खून सभी में एक समान है, इन सब के खून में कोई भिन्नता नहीं है। वैज्ञानिक सोच एवं विचार इस प्रकार प्रमाण तर्क एवं सिद्धांत के आधार पर हमें जात-पात, नस्लवाद,रूढ़िवाद व धार्मिक कट्टरता के बंद व अंधेरे गलियारों से बाहर निकालने में मदद करता है ।

   यह उपलब्धि भी इसी जन आंदोलन की है कि इसने प्रोफेसर उदगांओंकर (टाटा इंस्टीट्यूट मुंबई )श्री एम. पी. परमेश्वरन , इंजीनियर(केरल सहित्य परिषद) दिनेश अबरोल,डी रघुनन्दन वैज्ञानिक (दिल्ली साइंस फोरम), तथा सुकन्या अगारो (कैंसर अनुसन्धान संस्थान बम्बई) जैसे हजारों वैज्ञानिकों को यह सोचने पर मजबूर किया है कि विज्ञान के लिए वास्तव में कुछ करने के लिए प्रयोगशालाओं में कार्य करना ही पर्याप्त नहीं है बल्कि इस संदेश को जन विज्ञान के माध्यम से जन जन तक पहुंचाना भी बहुत आवश्यक है कि"ज्ञान का समस्त भंडार जनता की धरोहर है।" विज्ञान कोई सिद्धांत अथवा सूत्र नहीं है जिसे किताबों से रटकर याद किया जाये। यह जीवन के प्रति दृष्टिकोण है जिसमें व्यावहारिक अमल की एक महत्वपूर्ण भूमिका है। इसलिए बच्चों को प्रयोग स्वयं करने का ज्यादा से ज्यादा अवसर मिलना बहुत आवश्यक है। विज्ञान एक खेल की तरह सीखा जा सकता है, जिससे उत्साह और आनंद मिले। इसके लिए शिक्षा में नवोदय स्कूलों वाला परिवर्तन नहीं बल्कि बुनियादी परिवर्तन लाने की आवश्यकता है। मगर यह परिवर्तन अपने आप नहीं आएगा । यह तभी सम्भव है जब हम , हमारे शिक्षक, अभिभावक और छात्र यह निर्णय लें कि ऐसा होना चाहिए।

          आने वाले दौर में जन विज्ञान आंदोलन को भारत जन विज्ञान जत्थे के  दौर में उभरकर आए सहमत मुद्दों के आधार पर आगे बढ़ते जाना है । जन विज्ञान आंदोलन देश के पैमाने पर एक सशक्त आंदोलन के रूप में उभर रहा है।

         अपने उद्देश्य में उन तमाम चीजों के साथ इन बातों को मुख्य रूप से अपने व्यवहार का हिस्सा बनाकर अग्रेषित करना है 

* विज्ञान और तकनीक के विकास के कारण पैदा हुई समाज विकास की संभावनाओं को लोगों के सामने करके दिखाना 

* इस आवश्यकता पर बल देना कि अपना भविष्य बनाने के लिए लोगों की भागीदारी विज्ञान व तकनीकी नीतियों के निर्धारण में बढें ताकि लोगों का सामूहिक संभव हो पाए 

* लोगों को इतना चेतन करना कि वह समझ सकें कि विज्ञान व तकनीक के विकास व इनके गलत उपयोग के कारण पैदा होने वाले हानिकारक परिणामों का कारण विज्ञान का विकास नहीं अपितु हमारे समाज की आर्थिक सामाजिक संरचना में है 

* जनसाधारण तथा वैज्ञानिकों तक यह बात पहुंचाई जानी चाहिए कि वैज्ञानिकों और तकनिशियनों  का एक सामाजिक दायित्व भी है कि उन्हें जनसाधारण की आशाओं के अनुरूप इस दायित्व को पूरा करना है ।

* इस बात की आवश्यकता पर जोर देना कि भारत का स्वतंत्रता विकास हो (आत्म निर्भरता  की ओर बढ़े।) इसके लिए  उपलब्ध साधनों  के विकास के बारे में भी विचार करना होगा ।

* इस विज्ञान (जो कि मानवता की हमारी बहुमूल्य धरोहर रहा है ) का इस्तेमाल एकता के हथियार के रूप में विघटनकारी ताकतों (जो कि जात-पात , इलाके या भाषा का बुर्का ओढ़ती हैं और विदेशी आर्थिक मदद का दामन थामती हैं तथा देश की एकता को तार-तार कर देना चाहती हैं के खिलाफ किया जाए।

       कोई भी आंदोलन अपने उद्देश्यों  को कुछ खास नारों के रूप में रूपांतरित करता है। जन विज्ञान आंदोलन ने भी संघर्ष के दौरान अर्जित नारे किए हैं ।

* लोगों के लिए विज्ञान 

* देश के लिए विज्ञान 

* आत्मनिर्भरता के लिए विज्ञान 

* राष्ट्रीय एकता के लिए विज्ञान 

* ज्ञान के लिए विज्ञान 

* मूलभूत आवश्यकताओं के लिए विज्ञान * भोजन के लिए विज्ञान 

* कपड़ों के लिए विज्ञान 

* सबको स्वास्थ्य के लिए विज्ञान 

      यह उपयुक्त वक्त है मुक्ति संघर्ष के लिए निर्भरता तथा गुलामी से मुक्ति, अज्ञानता से मुक्ति, अंधविश्वास से मुक्ति, सांप्रदायिक माहौल से मुक्ति।

   यह जन विज्ञान आंदोलन आत्मनिर्भरता का आंदोलन बने साक्षरता का आंदोलन बने और राष्ट्रीय एकता का आंदोलन बने।

   हम इक्कीसवीं शताब्दी   में एक ऐसे देश के रूप में नहीं जाना चाहते जिसमें :-

* दुनिया के सबसे ज्यादा अनपढ़ लोग रहते हैं।

* दुनिया के सबसे ज्यादा भूखे लोग रहते हैं। 

* लोग एक दूसरे के (भाई बहन )के खून से सने हैं। 

* देश की स्वतंत्रता तथा आत्मसम्मान को बहुराष्ट्रीय कंपनियों के पास गिरवी रख दिया गया हो ।

* हमें निश्चित करना होगा कि---

'हम गरीबी और शोषण का खात्मा करके ही दम लेंगे'

यदि हम में लगन है तो रास्ता भी मिलेगा और मंजिल भी।

यदि हम में इच्छा शक्ति है तो  हम कर सकते हैं। हमें सोचना चाहिए । आज  हमारे लिए समय है जब हम ,आप, सब मिलकर सवाल उठाएं, बहुत से सवाल और बार-बार उठाएं- साइंस क्या है?.... मेहनत है 

मेहनत क्या है?.... दौलत है 

दौलत किस की?... जनता की 

तो साइंस भी हो ?...जनता की

रणबीर सिंह दहिया 

1989 

    

         

कश्मीर का पूरा सच 

 📮_________________📮

कश्मीर का पूरा सच जानने के लिये पूरा लेख समय देकर जरूर पढ़ें।लेख बड़ा तो जरूर है लेकिन बहुत कुछ सच बता देगा आपको पूरे तथ्यों के साथ है।वीर भरोखां। 

✍ आनन्‍द सिंह

उत्तर प्रदेश सहित 4 राज्यों के विधानसभा चुनावों में भाजपा की जीत के बाद संघ परिवार की समूची फ़ासिस्ट मशीनरी अब विवेक अग्निहोत्री की फ़िल्म ‘द कश्मीर फ़ाइल्स’ को प्रचारित करने में जुट गयी है। फ़िल्म रिलीज़ होने के अगले ही दिन प्रधानमंत्री मोदी ने फ़िल्म के निर्माता, निर्देशक और मुख्य कलाकारों से मुलाक़ात की। यही नहीं, फ़ि‍ल्‍म चर्चा में बनी रहे इसलिए मोदी ने भाजपा की एक बैठक में फ़िल्म को बदनाम करने की साज़िश का भी ज़िक्र किया। गृहमंत्री अमित शाह ने भी फ़िल्म की टीम से मुलाक़ात की। भाजपा शासित प्रदेशों ने फ़िल्म को टैक्स-फ़्री कर दिया है ताकि फ़िल्म को ज़्यादा से ज़्यादा लोग देखें। तमाम शहरों के सिनेमा हॉलों में संघ परिवार के कार्यकर्ता और उसके लग्गू-भग्गू फ़िल्म प्रदर्शन को हिन्दुत्ववादी ज़हरीली नफ़रती राजनतिक प्रोपागैण्डा में तब्दील कर रहे हैं। स्पष्ट है कि यह सब एक सोची-समझी रणनीति के तहत किया जा रहा है जिसका समाज पर वैसा ही असर होने वाला है जैसा नाज़ी जर्मनी में ‘द इटर्नल ज्यू’ जैसी यहूदी-विरोधी प्रोपागैण्डा फ़िल्मों का हुआ था।

कश्मीर मसले के इतिहास के तमाम पहलुओं से वाक़िफ़ किसी भी व्यक्ति को यह आसानी से समझ में आ सकता है कि फ़िल्म में आधे सच और सफ़ेद झूठ का शातिराना ढंग से मिश्रण करते हुए कश्मीरी पण्डितों की हत्याओं और पलायन की त्रासदी को कश्मीर समस्या के पूरे सन्दर्भ से काटकर एक स्वतंत्र समस्या के रूप में पेश किया गया है। लेकिन इस फ़िल्म का सबसे ख़तरनाक पहलू यह है कि इसमें कश्मीरी पण्डितों की त्रासदी दिखाने की आड़ में संघ परिवार के मुस्लिम-विरोधी और कम्युनिज़्म-विरोधी एजेण्डा को बेहद नंगे और भोंडे रूप में सामने लाया गया है जो कम ऐतिहासिक व राजनीतिक चेतना के किसी भी व्यक्ति के भीतर कश्मीर समस्या के बारे में कोई विवेक पैदा करने की बजाय नफ़रत और ग़ुस्सा पैदा करने का काम करता है।

फ़िल्म को देखने के बाद सिनेमा हॉल से बाहर निकले लोगों की प्रतिक्रिया को भी सोशल मीडिया पर प्रचारित करके नफ़रत और ग़ुस्से को और ज़्यादा तूल दिया जा रहा है। ऐसी ज़्यादातर प्रतिक्रियाओं में लोगों को फ़ि‍ल्‍म देखने के बाद रोते हुए और भावनात्मक टिप्पणी करते हुए दिखाया जा रहा है। फ़िल्म का मक़सद ही यही है कि कश्मीरी पण्डितों की त्रासदी दिखाकर लोगों को नकारात्मक भावना और ग़ुस्से से भर दिया जाये। लेकिन अगर कोई व्यक्ति कश्मीरी पण्डितों की त्रासदी के कारणों को जानने की जिज्ञासा के साथ फ़िल्म देखने जायेगा तो उसे निराशा ही हाथ लगेगी। फ़िल्म में कश्मीरी पण्डितों की समस्या और त्रासदी को भारत की आज़ादी के बाद पैदा हुई कश्मीर समस्या और त्रासदी के एक अंग के रूप में दिखाने की बजाय उसे एक स्वतंत्र समस्या के रूप में पेश किया गया है। फ़िल्म में इसका कोई ज़िक्र नहीं मिलता कि किस प्रकार आज़ादी के बाद कश्मीरियों ने इस्लाम के आधार पर बने पाकिस्तान में न मिलने का फ़ैसला किया था। कश्मीर में रायशुमारी कराने के वायदे से भारतीय राज्य के मुकरने, उसके ज़ोर-ज़बर्दस्ती और ग़ैर-लोकतांत्रिक आचरण की वजह से कश्मीर समस्या लगातार उलझती चली गयी जिसका नतीजा कश्मीर घाटी की मुस्लिम आबादी में लगातार बढ़ते अलगाव के रूप में सामने आया। फ़िल्म में इसका भी कोई हवाला नहीं मिलता है कि कश्मीरी मुस्लिम आबादी के बीच भारत की राज्यसत्ता से बढ़ते अलगाव के बावजूद 1980 के दशक के उत्तरार्द्ध से पहले कश्मीरी पण्डित अल्पसंख्यक आबादी के ख़िलाफ़ पूर्वाग्रह भले ही हों लेकिन नफ़रत और हिंसा जैसे हालात नहीं थे। ऐसे हालात पैदा करने में 1980 के दशक में घटी कुछ अहम राष्ट्रीय और अन्तरराष्ट्रीय घटनाओं की भूमिका थी।

11 फ़रवरी 1984 को भारतीय और पाकिस्तानी क़ब्ज़े वाले समूचे कश्मीर की आज़ादी की माँग को लेकर सशस्त्र संघर्ष के हिमायती लोकप्रिय नेता मक़बूल बट को तिहाड़ जेल में फाँसी दे दी गयी थी जिसने कश्मीरी युवाओं में असन्तोष बढ़ाने का काम किया। जुलाई 1984 में इंदिरा गाँधी ने फारूख़ अब्दुल्ला की सरकार को बरख़ास्त कर दिया जिससे घाटी में एक बार फिर असन्तोष बढ़ने लगा। श्रीनगर में 72 दिनों तक कर्फ़्यू लगा रहा। लेकिन 1986 में फारूख़ अब्दुल्ला ने भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गाँधी के साथ समझौता किया और वे एक बार फिर मुख्यमंत्री बने। मार्च 1987 में जम्मू एवं कश्मीर विधानसभा का चुनाव सम्पन्न हुआ जिसमें नेशनल कान्फ़्रेंस और कांग्रेस ने गठबन्धन बनाया। इन चुनावों में बड़े पैमाने पर धाँधली हुई। विपक्षी मुस्लिम यूनाइटेड फ़्रण्ट (एमयूएफ़) की कश्मीर घाटी में ज़बर्दस्त लोकप्रियता होने के बावजूद चुनावी धाँधली की वजह से उसे विधानसभा में सीटें नहीं मिल पायीं। इन चुनावों में धाँधली के बाद कश्मीरी युवाओं की बड़ी आबादी का चुनावी प्रक्रिया से भरोसा उठ गया और बड़ी संख्या में युवाओं ने बन्दूक़ें थामी। इसके बाद से ही कश्मीर में सशस्त्र संघर्ष प्रभावी रूप में सामने आया। ग़ौरतलब है कि जिन नेताओं ने बाद में आतंकवाद की राह पर जाने का फ़ैसला किया उनमें से अधिकांश ने 1987 के चुनावों में हिस्सा लिया था और चुनावी धाँधली की वजह से उनका मोहभंग हुआ। 1986 में गठित इस्लामिक स्टूडेण्ट्स लीग के चार प्रमुख सदस्यों – अब्दुल हमीद शेख़, अश्फ़ाक़ माज़िद वानी, जावेद अहमद मीर और यासीन मलिक – जिन्हें हाजी ग्रुप कहा जाता था, ने एमयूएफ़ के समर्थन में चुनाव प्रचार किया था। यहाँ तक कि हिजबुल मुजाहिद्दीन का मुखिया सैयद सलाहुद्दीन जिसका असली नाम मोहम्मद यूसुफ़ शाह है, ने भी एमयूएफ़ के उम्मीदवार के रूप में 1987 के चुनाव में भागीदारी की थी। 1987 के चुनावों में भारी धाँधली के बाद कश्मीर में जो जनउभार देखने को आया उसके पीछे पिछले 40 सालों का कुशासन, आर्थिक बदहाली, बेरोज़गारी और भ्रष्टाचार भी प्रमुख कारण थे। 1988 में बिजली की दरों में वृद्धि के ख़िलाफ़ प्रदर्शन के दमन से कश्मीर घाटी की जनता में ज़बर्दस्त आक्रोश देखने को आया। उसी साल मकबूल बट की बरसी पर पुलिस ने कश्मीरी आज़ादी के समर्थकों पर अन्धाधुन्ध गोलियाँ चलायीं। यही वह दौर था जब पाकिस्तान ने अफ़ग़ानिस्तान में अमेरिका की मदद से सोवियत संघ के ख़िलाफ़ लड़ाई में प्रशिक्षित मुजाहिद्दीनों को कश्मीर में जेहाद के लिए भेजना शुरू किया और कश्मीर की आज़ादी के संघर्ष को इस्लामिक कट्टरपन्थी रंग देने की कुटिल चाल चली जिसने कश्मीर की आज़ादी के संघर्ष को नुक़सान पहुँचाने के अलावा अल्पसंख्यक कश्मीरी पण्डितों के ख़िलाफ़ नफ़रत फैलाने में प्रमुख भूमिका अदा की।

इस सन्दर्भ के बिना 1989-90 में हुई कश्मीरी पण्डितों की हत्याओं और उसके बाद हुए उनके पलायन को समझा ही नहीं जा सकता है। लेकिन ‘द कश्मीर फ़ाइल्स’ का मक़सद यह समझाना नहीं बल्कि लोगों की रगों में नफ़रत का ज़हर फैलाना है। इसीलिए इस फ़िल्म में कश्मीर के इस समकालीन इतिहास को पूरी तरह से ग़ायब कर दिया गया और इतिहास के नाम पर चयनित ढंग से कश्मीर के प्राचीन इतिहास के गौरव और मध्यकालीन सामन्ती मुस्लिम शासकों की बर्बरता के क़िस्से सुनाये गये हैं जिनका वर्तमान कश्मीर समस्या और कश्मीरी पण्डितों के पलायन से कोई रिश्ता नहीं है और जो संघ की शाखाओं से उधार लिये गये हैं। यह पूरा ब्योरा संघ के ‘हिन्दू ख़तरे में है’ और ‘इस्लाम है ही कट्टर’ के प्रोपागैण्डा के अनुरूप है।

फ़िल्म में समूची कश्मीरी मुस्लिम आबादी को एक एकाश्मी समूह के रूप में दिखाया गया है, सभी कश्मीरी मुस्लिम किरदार या तो कश्मीरी पण्डितों के ख़ून के प्यासे हैं या उनकी सम्पत्ति हड़पने के लिए लालायित हैं या उनकी महिलाओं पर बुरी नज़र रखते हैं। मुस्लिम बच्चे पाकिस्तान क्रिकेट टीम के समर्थक हैं, मुस्लिम महिलाएँ राशन डिपो पर पूरे अनाज पर क़ब्ज़ा कर लेती हैं ताकि पण्डितों को राशन न मिले। मुस्लिम पड़ोसी पण्डितों के भागने का इन्तज़ार करते हैं ताकि उनकी सम्पत्ति पर क़ब्ज़ा कर सकें। मौलवी की बुरी नज़र पण्डित महिलाओं पर रहती है। हालाँकि 1990 में जब पण्डितों के ख़िलाफ़ नफ़रत अपने चरम पर थी तब कश्मीरी मुस्लिम आबादी में ऐसे लोगों की मौजूदगी और इस प्रकार की चन्द घटनाओं से इन्कार नहीं किया जा सकता है क्योंकि ऐसी घटनाओं के कुछ संस्मरण मौजूद हैं, लेकिन उस दौर के जितने भी संस्मरण, रिपोर्टें मौजूद हैं जिनमें कश्मीरी पण्डितों के भी संस्मरण शामिल हैं वे यह भी बताते हैं कि तमाम कश्मीरी मुस्लि‍मों ने पण्डितों को बचाया भी था और वे नहीं चाहते थे कि पण्डित घाटी छोड़कर जाएँ। लेकिन ‘द कश्मीर फ़ाइल्स’ में ऐसा एक भी मुस्लिम किरदार नहीं मौजूद है जो पण्डितों के पलायन से दुखी हो। कारण साफ़ है कि ऐसे किरदार के होने से नफ़रत का असर थोड़ा कम हो जाता।

फ़िल्म में निहायत ही शातिराना ढंग से यह सच्चाई भी पूरी तरह से छिपा दी गयी है कि जिस दौर में कश्मीरी पण्डितों पर हमले हो रहे थे उस समय तमाम कश्मीरी मुस्लिमों को भी निशाना बनाया गया था जिनमें नेशनल कान्फ़्रेंस और कांग्रेस के नेताओं के अलावा मीरवाइज़ मोहम्मद फ़ारूख़ जैसे कई नरमपन्थी अलगाववादी नेता और आम कश्मीरी मुस्लिम भी शामिल थे। पाकिस्तानपरस्त इस्लामिक कट्टरपन्थियों के निशाने पर वे सभी लोग थे जो कश्मीर के पाकिस्तान में मिलने का विरोध कर रहे थे, चाहे वो भारत के नज़रिए से विरोध कर रहे हों या कश्मीर की आज़ादी के नज़रिए से। आतंकवाद के दौर में कश्मीरी पण्डितों से कई गुना ज़्यादा कश्मीरी मुस्लिमों की मौतें हुईं। लेकिन अगर विवेक अग्निहोत्री इस सच्चाई को दिखाने लग जाते तो मुस्लिमों के ख़िलाफ़ नफ़रत कैसे फैला पाते और कश्मीर समस्या को हिन्दू बनाम मुस्लिम की लड़ाई के रूप में कैसे दिखा पाते!

फ़िल्म के एक दृश्य में जेएनयू में जब प्रो. राधिका मेनन कश्मीर में भारतीय सेना द्वारा किये गये ज़ुल्म की चर्चा करते हुए कश्मीर में पायी गयी 7000 से भी ज़्यादा गुमनाम क़ब्रों का हवाला देती है तो फ़िल्म का मुख्य किरदार कृष्णा फ़ौरन बोल पड़ता है कि ‘व्हाट अबाउट बट मज़ार’? जब प्रो. पूछती है कि बट मज़ार क्‍या है तो वह बताता है कि जहाँ एक लाख कश्मीरी हिन्दुओं को डल लेक में डुबोकर मार डाला गया। इतने लोग मरे कि सिर्फ़ उनके जनेऊ से ही 7 बड़े टीले बन गये थे। यह दृश्य व्हाटअबाउटरी की टिपिकल संघी शैली का उदाहरण है। इसमें बड़ी ही चालाकी से आज के कश्मीर में हुए ज़ुल्म के बरक्स मध्यकाल की किसी घटना को रख दिया जाता है और उसका समय जानबूझकर नहीं बताया जाता ताकि दर्शकों को ऐसा लगे कि आधुनिक कश्मीर में पण्डितों के साथ ऐसी घटना घटी हैं और उनका दिल कश्मीरी मुस्लिमों के प्रति नफ़रत से भर उठे।

फ़िल्म में धूर्ततापूर्ण तरीक़े से यह सच्चाई भी छिपायी गयी है कि जिस दौर में कश्‍मीरी पण्डितों के साथ सबसे घृणित अपराध हुए उस समय दिल्ली में वी.पी.सिंह की सरकार थी जो भाजपा के समर्थन के बिना एक दिन भी नहीं चल सकती थी। लेकिन भाजपा ने कश्मीरी पण्डितों पर होने वाले ज़ुल्मों के मुद्दे पर सरकार से समर्थन वापस नहीं लिया। फ़िल्म में उस दौर को कुछ इस तरह से प्रस्तुत किया गया है मानो उस समय राजीव गाँधी की कांग्रेसी सरकार हो। यह भी दिखाता है कि फ़‍िल्मकार का मक़सद सच दिखाना नहीं बल्कि संघ परिवार का प्रोपागैण्डा फैलाना है।

वी.पी. सिंह की सरकार 2 दिसम्बर 1989 में सत्ता में आयी थी और 8 दिसम्बर को कश्मीरी मिलिटेण्ट्स ने उस सरकार में गृहमंत्री मुफ़्ती मोहम्मद सईद की बेटी रूबिया सईद का अपहरण कर लिया था। भारत सरकार ने गृहमंत्री की बेटी को छोड़ने की एवज में 5 मिलिटेण्ट्स को रिहा किया था जिसके बाद से कश्मीर घाटी में मिलिटेण्ट्स का बोलबाला हो गया था और कश्मीरी पण्डितों की हत्याओं में तेज़ी से बढ़ोतरी हुई थी। 18 जनवरी 1990 को फ़ारूख़ अब्दुल्ला की सरकार इस्तीफ़ा देती है और कश्मीर में दूसरी बार राज्यपाल के पद पर कुख्यात जगमोहन को नियुक्त किया जाता है। कई कश्मीरी पण्डित समेत तमाम पत्रकारों और विश्लेषकों का यह मानना है कि जगमोहन ने स्वयं कश्मीरी पण्डितों को घाटी छोड़ने के लिए कहा और उनके पलायन के लिए गाड़‍ियाँ तक मुहैया करायीं ताकि उन्हें घाटी में निर्ममता से सुरक्षा बलों का इस्तेमाल करने का बहाना मिल जाये। हालाँकि यह व्याक्या विवादास्पद है लेकिन इतना तो तय है कि जगमोहन के कार्यकाल में कश्मीरी पण्डितों को सुरक्षित माहौल नहीं मिल पाया जिसकी वजह से पण्डितों को पलायन करने पर मजबूर होना पड़ा। उस समय जम्मू व कश्मीर में तैनात वरिष्ठ नौकरशाह वजाहत हबीबुल्लाह ने लिखा है कि घाटी के कई मुस्लिमों ने उनसे कश्मीरी पण्डितों के पलायन को रोकने की गुहार लगायी थी जिसके बाद उन्होंने जगमोहन से आग्रह किया था कि वे दूरदर्शन के प्रसारण के माध्यम से कश्मीरी पण्डितों को घाटी न छोड़ने के लिए कहें। लेकिन जगमोहन ने ऐसा करने की बजाय यह घोषणा की कि अगर कश्मीरी पण्डित घाटी छोड़ते हैं तो उनका इन्तज़ाम शरणार्थी शिविर में किया जायेगा और सरकारी कर्मचारियों को उनकी तनख़्वाहें मिलती रहेंगी। फ़िल्म में पण्डितों को घाटी में सुरक्षा का आश्वासन देने की बजाय उनके पलायन को बढ़ावा देने में जगमोहन की भूमिका पर भी पूरी तरह से पर्दा डाला गया है। इसी तरह फ़िल्म में 19 जनवरी 1990 को श्रीनगर में कश्मीरी पण्डितों पर हुए हमलों और उनके ख़िलाफ़ नफ़रत से भरी नारेबाज़ी को विस्तार से दिखाया है लेकिन इस सच्चाई को छिपा दिया है कि उसके दो दिन बाद ही श्रीनगर के गौकदल पुल के पास सीआरपीएफ़ की अन्धाधुन्ध गोलीबारी में 50 से अधिक कश्मीरियों की जान चली गयी थी जिसके बाद से घाटी का माहौल और ख़राब हो गया था।

मुस्लिमों के अलावा ‘द कश्मीर फ़ाइल्स’ द्वारा प्रसारित नफ़रत का दूसरा प्रमुख निशाना वामपन्थी हैं। फ़िल्म में पल्लवी जोशी ने जेएनयू की एक प्रो. राधिका मेनन का किरदार निभाया है। पल्लवी जोशी ने अपने एक इण्टरव्यू में कहा है कि इस किरदार को उन्होंने इस क़दर निभाया है कि लोग उससे बेइन्तहाँ नफ़रत करें। इस प्रोफ़ेसर को देश के ख़िलाफ़ काम करने वाले एक कुटिल व्यक्ति के रूप में पेश किया गया है जो अपने छात्रों का ‘ब्रेनवाश’ करके उन्हें भारत के ख़िलाफ़ काम करने के लिए प्रेरित करती है। वह अपनी खुली कक्षा में कश्मीर की आज़ादी की बात करती है और उसके छात्र भारत के टुकड़े करने के नारे लगाते हैं। यह 2016 में जेएनयू प्रकरण का संघी कैरिकेचर है जिसे विवेक अग्निहोत्री ने बेशर्मी के साथ दिखाया है।

इतना ही नहीं फ़िल्म में संघ परिवार द्वारा फैलाये जा रहे ‘वामपन्थी-जेहादी गँठजोड़’ के फ़र्ज़ी नरेटिव को भी हास्यास्पद ढंग से पेश किया है। प्रोफ़ेसर राधिका अपने छात्र कृष्णा को कश्मीरी आतंकी बिट्टा कराटे से मुलाक़ात करने के लिए भेजती है। बिट्टा के घर में एक तस्वीर दिखायी जाती है जिसमें बिट्टा राधिका का हाथ पकड़े हुए है। इस दृश्य की प्रेरणा कुछ साल पहले अरुन्धति रॉय और यासीन मलिक की एक तस्वीर से ली गयी है जिसे संघियों द्वारा बेशर्मी के साथ वायरल किया गया था। यह दृश्य विवेक अग्निहोत्री सहित समूचे संघ परिवार के घोर स्त्री-विरोधी चरित्र को भी सामने लाता है। इसके ज़रिए दोनों के बेहद क़रीबी रिश्ते को दिखाया गया है ताकि दर्शक आज़ादी की बात करने वाले वामपन्थि‍यों से रोम-रोम तक नफ़रत करने लगें। बिट्टा कृष्णा को जेएनयू के प्रेसिडेण्ट का चुनाव लड़ने के लिए बधाई देता है और जाते समय उसे पिस्तौल थमाता है। जेएनयू के ज़रिए फ़‍िल्मकार ने समूचे वामपन्थ के प्रति लोगों में नफ़रत पैदा करने की कोशिश की है। दर्शकों के दिमाग़ में यह कनेक्शन बना रहे इसलिए जेएनयू के दृश्यों की पृष्ठभूमि में मार्क्स, लेनिन व माओ आदि की तस्वीरें प्रमुखता से उभारी गयी हैं।

फ़िल्म में शातिराना ढंग से मुख्या किरदार में बिट्टा कराटे और यासीन मलिक के किरदारों को गड्डमड्ड कर दिया गया है ताकि दर्शक कश्मीरी अलगाववादियों को हद दर्जे का बर्बर और दोगला इन्सान समझकर उनसे बेइन्तहाँ नफ़रत करें। एक ओर बिट्टा 20 से ज़्यादा पण्डितों की हत्या की बात कबूलता है वहीं दूसरी ओर वह गाँधीवादी ढंग से स्वतंत्रता आन्दोलन छेड़ने की बात करता है और वामपन्थियों के साथ गँठजोड़ करके भारत के ख़िलाफ़ साज़िश रचता है। फ़िल्म में इतिहास के साथ ज़्यादती करते हुए 2003 में कश्मीर के पुलवामा ज़िले के नदीमार्ग में हुए कश्मीरी पण्डितों के क़त्लेआम को 1990 के दशक में कश्मीरियों के पलायन की निरन्तरता में दिखाया गया है और उसे भी जेकेएलफ़ के बिट्टा कराटे द्वारा अंजाम देते हुए दिखाया गया है। सच तो यह है कि नदीमार्ग क़त्लेआम जेकेएलएफ़ की नहीं बल्कि लश्करे तोइबा की कारगुज़ारी थी। इतिहास के साथ किये गये इस घालमेल के पीछे भी फ़िल्मकार का मक़सद कश्मीर की आज़ादी के लिए संघर्ष करने वाले सभी संगठनों और सभी व्यक्तियों को हैवान बताकर दर्शकों के मन में नफ़रत पैदा करना है। फ़िल्म के अन्तिम दृश्य में नदीमार्ग गाँव के सभी कश्मीरी पण्डितों को लाइन में खड़ा करके उनमें से सभी को एक-एक करके गोली से मारने का वीभत्स दृश्य दिखाया गया है और सबसे अन्त में बर्बर ढंग से बच्चे को मारते हुए दिखाया गया है ताकि दर्शक फ़ि‍ल्‍म को देखकर समूची कश्मीरी मुस्लिम आबादी के ख़िलाफ़ बेइन्तहाँ नफ़रत की भावना लेकर बाहर निकलें।

फ़िल्म में अनुपम खेर के किरदार की काफ़ी प्रशंसा की जा रही है। लेकिन इस किरदार के ज़रिए भी फ़‍िल्मकार ने चालाकी से नरेन्‍द्र मोदी को कश्मीरी पण्डितों के मसीहा बताने के संघी झूठ का एक नमूना पेश किया है। पुष्कर नाथ नामक यह किरदार घाटी से पलायन के बाद कश्मीर से धारा 370 को हटाने को अपने जीवन का एकमात्र उद्देश्य बना लेता है। ऐसा दिखाने का मक़सद दर्शकों के मन में यह भ्रान्ति पैदा करना है कि मोदी सरकार द्वारा कश्मीर से धारा 370 के हटाने से कश्मीरी पण्डितों को न्याय मिल गया है। सच तो यह है कि अनुपम खेर जैसे खाये-अघाये कश्मीरी पण्डित भले ही धारा 370 के हटने पर अपना राष्ट्रवादी सीना चौड़ा कर लें, लेकिन हज़ारों की संख्या में जो ग़रीब कश्मीरी पण्डित अभी भी कैम्पों में रहने को मजबूर हैं उनकी ज़िन्दगी में धारा 370 के हटने से रत्तीभर फ़र्क़ नहीं पड़ा है। पलायन का वास्तविक दंश झेलने वाले इन पण्डितों को वास्तविक न्याय तो तभी मिल सकता है जब कश्मीर में ऐसे हालात बनें कि कश्मीरी पण्डित वापस घाटी में अपने घरों में जा सकें। लेकिन सच तो यह है कि मोदी सरकार की नीतियों ने घाटी के माहौल को और ख़राब करने का काम करके पण्डितों के हितों के ख़िलाफ़ भी काम किया है। लेकिन विवेक अग्निहोत्री जैसे संघी प्रोपागैण्डिस्ट से यह उम्मीद करना बेमानी है कि वह कश्मीरी पण्डितों के जीवन से जुड़ी इस कड़वी सच्चाई को दिखायेगा।

अब कोई दूसरा कमाल ख़ान नहीं होगा*

 *अब कोई दूसरा कमाल ख़ान नहीं होगा*

                   --- *रवीश कुमार*

                 ♦️♦️♦️


उन्होंने केवल पत्रकारिता की नुमाइंदगी नहीं की, पत्रकारिता के भीतर संवेदना और भाषा की नुमाइंदगी नहीं की, बल्कि अपनी रिपोर्ट के ज़रिए अपने शहर लखनऊ और अपने मुल्क हिन्दुस्तान की भी नुमाइंदगी की. कमाल का मतलब पुराना लखनऊ भी था जिस लखनऊ को धर्म के नाम पर चली नफ़रत की आंधी ने बदल दिया. वहां के हुक्मरान की भाषा बदल गई. संवैधानिक पदों पर बैठे लोग किसी को ठोंक देने या गोली से परलोक पहुंचा देने की ज़ुबान बोलने लगे. *उस दौर में भी कमाल ख़ान उस इमामबाड़े की तरह टिके रहे, जिसके बिना लखनऊ की सरज़मीं का चेहरा अधूरा हो जाता है.*


उस लखनऊ से अलग कर कमाल ख़ान को नहीं समझ सकते. कमाल ख़ान जैसा पत्रकार केवल काम से जाना गया लेकिन आज के लखनऊ में उनकी पहचान मज़हब से जोड़ी गई. सरकार के भीतर बैठे कमज़ोर नीयत के लोगों ने उनसे दूरी बनाई.कमाल ने इस बात की तकलीफ़ को लखनऊ की अदब की तरह संभाल लिया. दिखाया कम और जताया भी कम. सौ बातों के बीच एक लाइन में कह देते थे कि आप तो जानते हैं. मैं पूछूंगा तो कहेंगे कि मुसलमान है. एक पत्रकार को उसके मज़हब की पहचान में धकेलने की कोशिशों के बीच वह पत्रकार ख़ुद को जनता की तरफ धकेलता रहा. उनकी हर रिपोर्ट इस बात का गवाह है. 


यही कमाल ख़ान का हासिल है कि आज उन्हें याद करते वक्त आम दर्शक भी उनके काम को याद कर रहे हैं. ऐसे वक्त में याद करना कितना रस्मी हो जाता है लेकिन लोग जिस तरह से कमाल ख़ान के काम को याद कर रहे हैं, उनके अलग-अलग पीस टू कैमरा और रिपोर्ट के लिंक साझा कर रहे हैं, इससे पता चलता है कि कमाल ख़ान ने अपने दर्शकों को भी कितना कुछ दिया है. मैं ट्विटर पर देख रहा था. उनकी अनगिनत रिपोर्ट के हिस्से साझा हो रहे थे. यही कमाल ख़ान का होना है. यही उनके प्रति सच्ची श्रद्धांजलि है जो लोग उनके काम को साझा करने के साथ दे रहे हैं.


उस काम को करते हुए हमने एक कमाल ख़ान को देखा और सुना है. जिसे जानना इसलिए भी ज़रूरी है ताकि पता चले कि कमाल ख़ान अहमद फराज़ और हबीब जालिब के शेर सुन कर नहीं बन जाता है. दो मिनट की रिपोर्ट लिखने के लिए भी वो दिन भर सोचा करते थे. दिनभर पढ़ा करते थे और लिखा करते थे. उनके साथ काम करने वाले जानते थे कि कमाल भाई ऐसे ही काम करते हैं. यह कितनी अच्छी बात है कि कोई अपने काम को इस आदर और लगन के साथ निभाता है. 

 

अयोध्या पर उनकी कई सैकड़ों रिपोर्ट को अगर एक साथ एक जगह पर रखकर देखेंगे तो पता चलेगा कि पूरे उत्तर प्रदेश में कमाल ख़ान के पास एक अलग अयोध्या था. वो उस अयोध्या को लेकर गर्व के नाम पर नफरत की आग में बदहवास देश से कितनी सरलता से बात कर सकते थे. उसके भीतर उबल रही नफ़रत की आग ठंडी कर देते थे. *वे तुलसी के रामायण को भी डूबकर पढ़ते थे और गीता को भी. कहीं से एक-दो लाइनें चुराकर अपनी रिपोर्ट में जान डाल देने वाले पत्रकार नहीं थे*. उन्हें पता था कि यूपी का समाज धर्म में डूबा हुआ है. उसके इस भोलेपन को सियासत गरम आंधी में बदल देती है. उस समाज से बात करने के लिए कमाल ने न जाने कितनी धार्मिक किताबों का गहन अध्ययन किया होगा. इसलिए जब कमाल ख़ान बोलते थे तो सुनने वाला भी ठहर जाता था. सुनता था. 


*क्योंकि कमाल ख़ान उसकी नज़र से होते हुए ज़हन में उतर जाते थे और अंतरात्मा को हल्के हाथों से झकझोर कर याद दिला देते थे कि सब कुछ का मतलब अगर मोहब्बत और भाईचारा नहीं है तो और क्या है. और यही तो मज़हब और यूपी की मिट्टी के बुजुर्ग बता गए हैं. कमाल ख़ान जिस अधिकार पर राम और कृष्ण से जुड़े विवादों की रिपोर्टिंग कर सकते थे उतनी शालीनता से शायद ही कोई कर पाए क्योंकि उनके पास जानकारी थी. जिसके लिए वे काफी पढ़ा करते थे. बनारस जाते थे तो बहुत सारी किताबें खरीद लाया करते थे. गूगल के पहले के दौर में कमाल ख़ान जब रिपोर्टिंग करने निकलते थे तब उस मुद्दे से जुड़ी किताबें लेकर निकलते थे.* 


 वे अक्खड़ भी थे क्योंकि अनुशासित थे. इसलिए ना कह देते थे. वे हर बात में हां कहने वाले रिपोर्टर नहीं है. कमाल ख़ान का हां कह देने का मतलब था कि न्यूज़ रूम में किसी ने राहत की सांस ली है. वे नाजायज़ या ज़िद से ना नहीं कहते थे बल्कि किसी स्टोरी को न कहने के पीछे के कारण को विस्तार से समझाते थे. ऐसा करते हुए कमाल ख़ान अपने आस-पास के लोगों को उस उसूल की याद दिलाते थे जिसे हर किसी को याद रखना चाहिए. चाहे वो संपादक हो या नया रिपोर्टर. रिपोर्टर अपने तर्कों से जितनी ना कहता है, अपने संस्थान का उतना ही भला करता है क्योंकि ऐसा करते वक्त वह अपने संस्थान को भी ग़लत और कमज़ोर रिपोर्ट करने से बचा लेता है. 


*अब कोई दूसरा कमाल ख़ान नहीं होगा. क्योंकि जिस प्रक्रिया से गुज़र कर कोई कमाल ख़ान बनता है उसे दोहराने की नैतिक शक्ति यह देश खो चुका है. इसकी मिट्टी में अब इतने कमज़ोर लोग हैं कि उनकी रीढ़ में दम नहीं होगा कि अपने-अपने संस्थानों में कमाल ख़ान पैदा कर दें. वर्ना जिस कमाल ख़ान की भाषा पर हर दूसरे चैनल में दाद दी जाती है उन चैनलों में कोई कमाल ख़ान ज़रूर होता. कमाल ख़ान एनडीटीवी के चांद थे. जिनकी बातों में तारों की झिलमिलाहट थी. चांदनी का सुकून था.*

 

                   ---- *रवीश कुमार*


          ♦️♦️♦️