Wednesday, February 8, 2023

नेहरू विरोध की जड़ें

 नेहरू विरोध की जड़ें

अविजीत पाठक (समाज शास्त्री) (पंजाबी ट्रिब्यून, चंडीगढ़)

अनुवाद: वंदना सुखीजा, गुरबख्श सिंह मोंगा

जैसे देश के एक प्रमुख मीडिया घराने के हाल ही में करवाए गए सर्वे में ‘देश का मिजाज’ दिखाया गया है और हमें यह भरोसा दिलाया जा रहा है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी बहुत ही स्वीकार्य है I जैसे हमें बताया गया है मोदी इस देश के अब तक के सबसे ‘बेहतरीन’ प्रधानमंत्री हैं और वह अन्य सारे प्रधानमंत्रियों पर छाए हुए हैं I सचमुच हम इस समय ‘मोदी के जमाने’ में रह रहे हैं, सर्व-व्यापक मोदी अंतर्राष्ट्रीय रहनुमा के तौर पर चारों ओर घूम रहे हैं अपने खास नाटकीय अंदाज़ के साथ तकरीरें करते हुए हर तरह की चीजों से वादे करते हुए तथा अन्य हर किसी को तुच्छ और महत्वहीन बनाते हुए अपने साथी मंत्रियों तक को I 

इसके बावजूद एक प्रश्न लगातार हमें परेशान कर रहा है I मोदी के इस साधारण से कहीं बड़े अक्स के बावजूद क्या कारण है कि सत्तारूढ़ पक्ष (और हां, साथ ही इसके साथ जुड़ी हुई प्रचार मशीनरी) कभी भी जवाहरलाल नेहरू की बेइज्जती करने या उनकी कद्र कम करने से थकता-अकता नहीं I ऐसा क्यों है कि कर्नाटक सरकार अपने मीडिया इश्तिहार में स्वाधीनता सेनानियों की सूची में से नेहरू का नाम हटाने तक के बारे में सोचती है? अथवा फिर यह कह लें कि ऐसा क्यों है कि एक हिंदी टेलीविज़न चैनल को (एक बार फिर आंकड़ों के रहस्य के साथ) के द्वारा दावा करना पड़ता है कि राष्ट्र के द्वारा नेहरू को सबसे बुरा प्रधानमंत्री माना जाता है?

क्या आत्म-प्रशंसा में कुछ स्वयं-विरोधी है? तुम जितने ज्यादा ताकतवर होते जाते हो, उतना ही ज्यादा असुरक्षित महसूस करते हो! अथवा नेहरू बारे कुछ तो ऐसा है जो सत्तारूढ़ पक्ष को लगातार तंग करता है? नहीं तो हम यह कैसे समझ सकते हैं कि चिरकालिक ‘नेहरू ईर्ष्या’ को क्या माना जाए?

बात शुरू करने से पहले मुझे नेहरू के बारे में तीन नुक्ते साफ करने दो; राजनेता की तरह उनका करिश्मा, उनकी बौद्धिक गहराई, महात्मा गांधी के साथ उनका रिश्ता और इस सबसे बढ़ कर उनकी तरफ से शुरू किया गया राष्ट्र निर्माण का कार्य I

पहला, जैसे ‘द डिस्कवरी ऑफ इंडिया’ (भारत एक खोज) तथा ‘एन ऑटोबायोग्राफी एंड ग्लाइंपसेस ऑफ़ वर्ल्ड हिस्ट्री’ (एक स्वै-जीवनी और विश्व इतिहास की झलक) का कोई भी जागरूक पाठक यह बात जरूर मानेगा कि नेहरू सचमुच चिंतक-दार्शनिक थे I उनकी समझ में उनको मानवीय इतिहास के विकास - ज्ञान के दौर में साइंस, सभ्याचार और राजनीति में अहम इंकलाबों आदि का एहसास करने के काबिल बनाया; उनकी आश्चर्यचकित होने की भावना ने उनकी आंखें खोल दी; वह आंखें जो भारतीय सभ्यता की  संवेदनाओं को देख, महसूस और इस का एहसास कर सकती थी; और गहरी सभ्याचारक संभावनाओं के साथ भरपूर आधुनिकता वादी होने के नाते ‘अतीत के मुर्दा वज़न’ में से बाहर आते नए भारत का सपना देख सकते थे जो ‘वैज्ञानिक स्वभाव’ को अपनाता हुआ खुद को आधुनिक भी बनाता है परंतु साथ ही उपनिषदों से पैदा हुई समझ, गौतम बुद्ध की खोज तथा हमारे पूर्वजों की दार्शनिक और कलात्मक प्राप्तियां और लगातार अंतर-धार्मिक चर्चाओं और संवाद को नहीं भूलता I

दूसरा, उनके महात्मा गांधी के साथ रचनात्मक तौर पर सूक्ष्म और गंभीर मेल-मिलाप ने उनके जिज्ञासु मन के मंथन को ज़ाहिर किया I गांधी की तरफ से आधुनिक/बेरहम सभ्यता (modern/’satanic’ civilization) संबंधी नैतिक/आध्यात्मिक आलोचना विकसित करने और ‘स्वराज’ की जैविक जरूरतों और वातावरण के साथ सद्भावना भरे रिश्ते वाली कुल मिलाकर एक बड़े स्तर पर विकेंद्रीकरण आधारित धारणा लिए हुए कोशिश करने के लिए लिखी गई संवाद भरपूर किताब ‘हिंद स्वराज’ के बुनियादी सिद्धांतों के साथ तो चाहे आधुनिकतावादी नेहरू सहमत नहीं हो सकते थे परंतु फिर भी वह गांधी से बच नहीं सके I

उधर गांधी भी उन पर भरोसा करते थे I संभवत अपने प्यार और अहिंसा की धार्मिकता के साथ गांधी भी नेहरू की धर्मनिरपेक्षता के प्रति गहरी वचनबद्धता के कारण उन पर भरोसा करते थे I उन्होंने महसूस किया कि नेहरू ही बंटवारे के सदमे का शिकार और ‘दो कोमो के सिद्धांत’ के हिमायतियों की तरफ से ज़हरीले किए हुए भारत की समरसता के ज़ख्मों पर मरहम लगा सकते हैं I

तीसरा, नेहरू कल्याणकारी राज्य की जरूरत और प्रासंगिकता को हरमन प्यारा बनाने में कामयाब रहे ऐसी स्टेट/रियासत जो सामाजिक पिछड़ेपन तथा आर्थिक गैर-बराबरी की शिद्दत कम करने वाले सार्वजनिक प्रतिष्ठानों के विकास के लिए वचनबद्ध हो I

सभी इंसानों की तरह नेहरू भी अपने आप में मुकम्मल नहीं थे; हालांकि यह कहना भी नादानी होगी कि वह भारत में इंकलाबी तब्दीलियां करने और सभी सामाजिक-आर्थिक ना-बराबरियों तथा जातिवादी/ पितृ-सत्तात्मक सोच का खात्मा करने में कामयाब रहे I फिर संभवत नेहरू के दौर ने भी नई तरह का कुलीन वर्ग पैदा किया तथा उसका पालन पोषण किया, जैसे पश्चिमी देशों में पढ़े हुए अर्थशास्त्री, साइंस दान, टेक्नोक्रेट, सिविल अफसरशाही आदि जो सरकारी मशीनरी को चला रहे थे तथा नई तरह के नौकरशाही ताकत का वृतांत पैदा कर रहे थे I फिर भी आजादी के लिए लड़ने वालों की तरफ से नए विचारों के साथ भरपूर बुद्धिजीवी की तरह, एक अंतरराष्ट्रीय नेता तथा इस सब से भी बढ़ कर भारत के पहले दूरदर्शी प्रधानमंत्री की तरह उन्होंने शानदार किरदार निभाया, उनको हरगिज़ नकारा नहीं जा सकता I

इसके बावजूद इन दिनों हम अपनी सांझी चेतना में नेहरू के योगदान को मिटा देने की संयोजित कोशिशें होती देख रहे हैं I दरअसल, हिंदुत्व के हिमायती कभी भी नेहरू की स्टेट/रियासत की धर्मनिरपेक्षता वाली दृष्टि के लिए वचनबद्धता के साथ आरामदेह महसूस नहीं कर सकते I तर्क की रोशनी को ही नफ़रत करने वाला ज़हरीला वातावरण हरगिज़ भी नेहरू की तीव्र समाजिक-सियासी सोच, वैज्ञानिक जज़्बे और दार्शनिक जुनून के साथ मेल नहीं खाता I भारत के जिस विचार को नेहरू ने अपनी चेतना की लचकता तथा विश्वव्यापीकरण के साथ संजोया था, वह हरगिज उस सोच के साथ मेल खाने वाला नहीं हो सकता जिसके लिए अपनी फूट डालने वाली सोच के कारण गोलवलकर और सावरकर के पैरोकार काम करते हैं I

हां, जब हिंदुत्व का ठोस जन-सभ्याचार शोर भरपूर तथा हिंसक घोषणा पत्र जैसा ज़ाहिर होता है तथा साथ ही सोशल मीडिया से लगातार चलने वाले ज़हरीले टेलीविज़न चैनलों की तरफ ऐतिहासिक तौर पर गल्त, बौद्धिक तौर पर धुंधले तथा आध्यात्मिक तौर पर कंगाली वाले संदेश प्रसारित किए जाते हैं तो हर किसी को प्रतिकूल रूप में बदल देना ज़्यादा मुश्किल नहीं होता I

दरअसल, जब वह मोदी को ‘ब्रांड’ की तरह बाजार में बेचना चाहते हैं, वह भी लगभग अवतार की तरह, तो उनके लिए सभी बदलने वाली संभावनाओं को कम करना जरूरी हो जाता है I मोदी के अति-आवेशपूर्ण दावों के दौरान, यह ‘हारा हुआ’ नेहरू कौन है जो 1962 में चीन को कड़ा सबक सिखाने में नाकाम रहा? दृढ़ इरादों वाले और ‘राष्ट्रवादी’ मोदी जो अयोध्या में शानदार मंदिर बनवाने के लिए दृढ़ है, के सामने यह ‘कुलीनवादी’ धर्मनिरपेक्ष नेहरू कौन है? फिर जब केदारनाथ में ध्यान (समाधि) लगाते हुए मोदी की बड़े स्तर पर प्रसारित हुई तस्वीर ज़्यादा दिलकश लगती है तो कोई वेदांत तथा नेहरू के गहरे विचारों के साथ जुड़ने का कष्ट क्यों करें? इसलिए कोई आश्चर्यजनक बात नहीं कि नेहरू को बुरा भला कहने वाली जनता ने अभी बढ़ना-फूलना है I 

वैसे, किसी ऐसे चौकन्ने दर्शक जिसने अभी बौद्धिकता की रोशनी ना गवाई हो, के लिए बढ़ती आत्म- प्रशंसा और इसके साथ संबंधित मानसिक असुरक्षा के दौरान ‘नेहरू से ईर्ष्या’ के मनोविज्ञान को देखना व समझना मुश्किल नहीं है I


अनुवाद                             

वंदना सुखीजा                     गुरबख्श सिंह मोंगा

असिस्टेंट प्रोफेसर, अंग्रेजी                एल-102 सुषमा जोयनेस्ट 

मीरी पीरी खालसा कॉलेज,             एयरपोर्ट रिंग रोड 

भदौड़ (बरनाला)                     ज़ीरकपुर

vandanasukheeja@gmail.com        मोहाली- 140603

मो. 9354221054

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