Sunday, July 4, 2021

अवैज्ञानिक सरकार के दंभ का परिणाम झेलती आम जनता

 अवैज्ञानिक सरकार के दंभ का परिणाम झेलती आम जनता

वर्तमान कोविड-19 की दूसरी लहर पिछले वर्ष की तुलना में कहीं अधिक खतरनाक है। इसलिए देश के

विभिन्न हिस्सों में मृतकों की संख्या में काफी बढोत्तरी देखने को मिल रही है। उदाहरण के तौर पर हम

दिल्ली को लेते हैं। क्योंकि दिल्ली राष्ट्रीय राजधानी है। इसलिए यहां निवास कर रहे सभी नागरिकों को बेहतर

स्वास्थ्य सुविधा एवं शासन व्यवस्था मिलने की उम्मीद की जाती है। बावजूद इसके 14 अप्रैल को दिल्ली में नये

कोविड संक्रमितों की संख्या बढ़कर 17,000 हो गई। उसके छह दिन बाद 20 अप्रैल, 2021 को यह संख्या 28,000

से अधिक हो गई। इस दौरान लगभग 20 प्रतिशत संक्रमित मामलों को अस्पताल में भर्ती कराया गया। इनमें से

करीब 25 फीसदी मरीज आईसीयू में थे।

वहीं भारतीय संविधान का अनुच्छेद-21 भारत के प्रत्येक नागरिक को जीवन जीने का अधिकार प्रदान करता

है। लेकिन महामारी के इस दौर में केंद्र एवं राज्य सरकारों ने इस अधिकार को कूड़े की तरह दरकिनार कर

दिया। यह कहना सही होगा कि हैराल्ड लास्की के सभ्यता संबंधी अर्थ को ही खत्म कर दिया। उन्होंने अपने

सिद्धांत के माध्यम से परिभाषित किया था कि ‘सभ्यता का अर्थ है, सबसे आगे बढ़कर, अनावश्यक दर्द देने की

अनिच्छा...! भारत के ऐसे नागरिक जो विशेष अधिकार एवं आज्ञाओं को स्वीकार करते हैं, वे अभी भी सभ्य होने

का दावा नहीं कर सकते हैं’ इस विशेष अधिकार के तहत हमारे राजनेता और मंत्रीगण आते हैं। क्योंकि वर्तमान

व्यवस्था ने सभ्यता के लोकाचार को कम कर दिया है।

क्योंकि वर्तमान तथाकथित राष्ट्रीय मीडिया इन सारी नाकामियों के लिए सिस्टम को दोषी मान रहा है।

इसलिए जो लोग इस सिस्टम में हैं वे इस बात को भूलने के लिए सावधान रहे कि राजनीति केवल चुनाव लड़ने

और जीतने के बारे में नहीं है, बल्कि महत्वपूर्ण प्रश्न पूछने के बारे में भी है कि किसे क्या, कहां, कब और कैसे

मिलता है। इस प्रकार चयनात्मक भूलने की बीमारी का उपयोग करना कल्पना का एक बफर बनाने के लिए

किया जा सकता है, लेकिन यह शक्ति वास्तविक चेहरों और प्रणाली के मुखौटे के बीच स्थित होता है। कोविड

की दूसरी लहर के दौरान पांच राज्यों में विधान सभा चुनाव हुए। चुनाव रैली के दौरान शायद ही कोई राजनेता मास्क का उपयोग नहीं कर रहे थे न ही नागरिक शारीरिक दूरी का पालन कर रहे थे, जिसके कारण लोगों के बीच

संक्रमण की संख्या काफी तेजी से बढ़ी।

भारत सरकार के रिपोर्टों के अनुसार, भारत में प्रति 1,000 जनसंख्या पर 1.7 नर्स हैं। वहीं 404 रोगियों पर

डॉक्टर का अनुपात 1ः1 है। यह रिपोर्ट डब्ल्यूएचओ के प्रति 1,000 जनसंख्या पर तीन नर्सों के मानदंड से काफी

नीचे है। वहीं 100 रोगी पर डॉक्टरों का अनुपात 1ः1 है। बावजूद इसके यह अनुपात भारत की पूरी समस्या को

व्यक्त नहीं करता है। क्योंकि कुछ क्षेत्रों में डॉक्टरों और नर्सों का वितरण काफी विषम है। इसके अलावा, कुछ

शहरी इलाकों में इसकी अधिकता है। यदि हम उन देशों के आंकड़ों को देखें जहां हम अपने स्वास्थ्य कर्मियों

का निर्यात करते हैं, वहां यह अंतर स्पष्ट दिखाई देता है।

इस महामारी के दौरान भारत में स्वास्थ्य सेवा में बजट बढ़ाना आवश्यक हो गया है। वर्ष 2020 की मानव

विकास रिपोर्ट से पता चलता है कि भारत में प्रति 10,000 लोगों पर पांच अस्पताल के बिस्तर हैं। यह दुनिया

में सबसे कम में से एक है। इसलिए स्वास्थ्य सेवा के क्षेत्र में विशेष रूप से सार्वजनिक क्षेत्रों में सरकारी बजट

बढ़ाने की आवश्यकता है। यह समय की मांग भी है।

वहीं पूर्वी दिल्ली के कल्याणपुरी क्षेत्र में प्रधानमंत्री से पोस्टर के माध्यम से यह पूछा गया था कि हमारे बच्चों

का वैक्सीन विदेश में क्यों बेच दी गई। इस मामले को लेकर दिल्ली पुलिस ने बेरोजगार युवाओं और दिहाड़ी

मजदूरों के खिलाफ एफआईआर दर्ज कर दी है। क्या लोकतंत्र में सरकार से सवाल करना गलत है? वर्तमान

केंद्र सरकार किस तरह के तंत्र को बढ़ावा दे रही है?

 अरुण कुमार उरांव, सहायक सम्पादक

देवी प्रसाद, शेलेन्द्र कुमार.

 कोरोना महामारी के दौर में भारतीय स्वास्थ्य तंत्र: एक आलोचनात्मक विष्लेषण

शोध् आलेख

देवी प्रसाद, शेलेन्द्र कुमार.

प्रस्तुत लेख का मुख्य उद्देश्य भारत में फैली कोरोना महामारी से त्रस्त बहुजन समाज की समस्याओं को समझने के साथ-साथ केंद्र सरकार की अदूरदर्शी नीति तथा भारतीय स्वास्थ्य तंत्र के फेल होने से उत्पन्न सामाजिक अव्यवस्थाओं को तार्किक ढंग से विश्लेषण करना है । परिजनों तक मदद पहुँचाने के लिए सरकारी मशीनरीको कोसते हुए बड़ी बेचैनी से सोशल मीडिया पर अपील करता दिखाई दे रहा था। वहीं उत्तर प्रदेश सरकार उन तक मदद पहुँचाने के बजाय मदद मांगने और करने वालों पर ही कार्यवाही कर रही थी और उन्हें हवालात में डाल रही थी। हालाँकि, ‘सोशल मीडिया पर कोरोना से जुड़ीं शिकायतें और मदद संबंधी पोस्ट पर सरकार की कार्रवाइयों पर सुप्रीम कोर्ट ने नाराजगी जताई तथा कोरोना काल में स्वास्थ्य से जुड़े मुद्दों पर सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट ने सरकारों को चेताया कि वे सोशल मीडिया पर लिखने वालों के साथ बुरा बर्ताव बंद करे, वर्ना इसे कोर्ट की अवमानना माना जाएगा।’1

भारत का पीड़ित वर्ग सोशल मीडिया पर अपने बीमार परिजन को अस्पताल में बेड, ऑक्सीजन, रेमडेसिवीर और प्लाज्मा दिलाने के अलावा विभिन्न महानगरों से पलायित मजदूरों की जीविका को लेकर अपनी बात खुलकर रख रहा था। जिसके कारण भारत का यह नव-उदित वर्ग सरकार की आँखों का किरकिरी बना हुआ था। हालांकि सोशल मीडिया पर ऑक्सीजन, रेमडेसिवीर और प्लाज्मा मांगने के पीछे का उद्देश्य किसी अपने की मदद करना होता था न कि सरकार की आलोचना करना। उनका मकसद किसी मासूम की जान बचाना था, क्योंकि सोशल मीडिया पर न्याय के लिए गुहार लगाना ही उनकी आखिरी आस होती थी। फेसबुक, ट्विटर, आदि सोशल मीडिया प्लेटफार्म पर लोगों ने कई हैशटैग का सहारा लिया और मानवता को बचाने के लिए एक मुहिम चला दी।

इस भयानक आपदा के नकारात्मक भरे माहौल में भी सोशल मीडिया के परिणाम काफी सकारात्मक रहे। ग्रामीण समाज उत्तर भारत के अनेक गाँव में भ्रमण के दौरान ज्ञात हुआ कि आज भी वहां पूरा माहौल अराजक और बोझिल बना हुआ है। ग्रामीण समाज का बहुजन वर्ग अब सरकारी अस्पतालों की तरफ देखना बंद कर दिया है और निजी अस्पताल तक उनकी पहुँच पहले से ही कोसों दूर थी। गाँवों में रह रहे कई लोगों से बात करने से पता चला कि कोरोना की इस भयावह लहर में ग्रामीण समाज में डर का माहौल व्याप्त है, जिसके कारण किसी गम्भीर बीमारी की स्थिति में मरीज को अस्पताल ले जाना बंद कर दिए हैं। चिंकी सिन्हा2 के अनुसार, ‘दरभंगा के मुरैठा में काम करने वाली आशा कार्यकर्ता ममता आजकल ज्यादातर वक्त घर पर ही रहती हैं तथा गांव में घूम-घूम कर लोगों से मास्क पहनने को कहती रहती हैं। अगर किसी को सर्दी-खांसी है, तो उनके लिए दवा का प्रबंध कराती हैं। ग्रामीण लोग अस्पताल नहीं जा रहे हैं, क्योंकि उन्हें लगता है कि वहां जाकर मर जाएंगे।’3 ग्रामीण समाज में रह रहे मजदूर एवं वंचित समाज की सामाजिक पहुँच भी अच्छी नहीं होती है। इसलिए उन्हें अस्पताल में जाने का मन नहीं करता है।

इसके अलावा सोशल मीडिया पर उठाई गई उनकी आवाज भी दबकर रह जाती है और उनकी बातों को अनसुना कर दिया जाता है। सामाजिक संपर्क सीमित होने के कारण उनके द्वारा सोशल मीडिया पर लगाई गई गुहार पर बहुत कम ही ध्यान दिया जाता है, क्योंकि उन्हें पेट भरने के लिए दिनभर मेहनत एवं मजदूरी करनी पड़ती है और सोशल मीडिया पर अपनी बात को लिखने के लिए समय का अभाव होता है। बावजूद इसके कभी-कभी उनकी कुछ अत्यंत मार्मिक पोस्ट वायरल हो ही जाती हैं।

पिछले कुछ दिनों में सोशल मीडिया पर कई तस्वीरें वायरल हुई, जिसमें हमें यह देखने को मिला कि अमुख व्यक्ति के पास पैसे नहीं थे, इसलिए वह ‘अपनी बेटी और पत्नी की लाश को अपने कंधे पर ले जा रहा था।’4

 महामारी के इस दौर में ग्रामीण दलित समाज की वास्तविक परिस्थिति जानने के लिए अनेक लोगों से साक्षात्कार किया गया। इस महामारी के कारण आई विभिन्न समस्याओं पर एक स्थानीय शिक्षक रामनारायण ने खुलकर बात की। रामनारायण दलित समुदाय से ताल्लुक रखते हैं और उत्तर प्रदेश के टंडवा ग्राम में निवास करते हैं। आज की हालात पर वे अपना पक्ष रखते हुए यह समझाने का प्रयास करते हैं कि अप्रैल (2021) के बाद ‘सरकारी अस्पतालों को लेकर कई भ्रांतियां’5 गांवों में फैली है, जिससे दलित समुदाय के मजदूर वर्ग का काफी नुकसान हो रहा है और इस तरह की मनगढ़ंत बातों से कई जानें जा चुकी हैं। टंडवा ग्राम के कई अन्य लोगों से बात करने पर यह ज्ञात हुआ कि दो व्यक्तियों की मौत इस गाँव में हो चुकी है तथा पडोसी गांवों के 20 से 25 वंचित वर्ग के लोग उचित इलाज के अभाव में अपनी जान गवां चुके हैं।

रामनारायण कहते हैं कि “यह भी देखने में आया कि पैसे के अभाव में परिजन अस्पताल से लाशों को ले जाने से मना कर दे रहें हैं, क्योंकि एम्बुलेंस से लेकर लाश को जलाने तक हर जगह पैसे की जरूरत पड़ती है।” हालांकि कई समाचार पत्र भी इनकी बातों की पुष्टि करते हैं। सोशल मीडिया पर यह बात भी सामने आई है कि श्मशान घाटों पर अव्यवस्था फैली हुई थी और लोग सरकारी तंत्र को कोसते हुए अपनों को मुखाग्नि दे रहे थे। सोशल मीडिया पर अफरा-तफरी के कई वीडियो वायरल हो रहे थे।

आज भी स्थिति बहुत अच्छी नहीं है। स्वास्थ्य प्रणाली पूरी तरह से चरमरा जाने के बाद लोग स्वेच्छा से अपनों के बीच घर पर ही रहकर प्राणोत्सर्ग करना पसंद कर रहे हैं। इसलिए सोशल मीडिया पर तंज भरे लहजे में यह बात अक्सर कही जाती है कि ‘सरकारी मशीनरी लाशों के आंकड़े छुपाने में लगी है, हालाँकि नदियाँ कभी झूठ नहीं बोलती।’ शायद उनका इशारा गंगा और यमुना में सड़कर तैर रही लाशों की तरफ होता है, जिसे जानवर नोच-घसीट रहे हैं। उपरोक्त संदर्भ में सौतिक बिस्वास लिखते हैं कि ‘अंग्रेजी अखबार ‘हिंदू’ ने अपनी एक रिपोर्ट मेंबताया कि 16 अप्रैल को गुजरात के सात शहरों में कोविड प्रोटोकॉल के तहत 689 शवों का दाह संस्कार किया गया था, जबकि सरकारी आंकड़ों के मुताबिक उस दिन पूरे राज्य में कोरोना के कारण 94 लोगों की मौत हुई थी।’6 हालाँकि तथ्यों को छिपाने तथा उससे उत्पन्न भयावह परिणामों के संदर्भ में उच्च-न्यायालय ने भी राज्यों को कई बार आगाह कर चुका है।

कोरोना और ग्रामीण समाज विजदान मोहम्मद कवूसा (बीबीसी, 7 मई, 2021) लिखते हैं कि ‘सार्वजनिक तौर पर उपलब्ध डेटा ‘हाउ इंडिया लिव्स’ के आधार पर 700 जिलों में कोरोना संक्रमण के मामलों को दर्ज किए गए, पर बीबीसी मॉनिटरिंग के शोध में पाया गया है कि कोरोना वायरस अब ग्रामीण इलाकों में तेजी से अपने पैर पसार रहा है। संक्रमण की गति में उन जिलों में तेजी देखी गई, जहां 80 फीसद आबादी ग्रामीण इलाकों में है। यहां संक्रमितों का आंकड़ा वर्ष 2020 के शुरूआत में 9.5 फीसद था, वहीं 17वें सप्ताह अप्रैल 2021 के खत्म होने तक 21 फीसद हो गया था।’7

व्यक्तिगत अध्ययन पूर्वी उत्तर प्रदेश के सुल्तानपुर (कुरेभार ब्लॉक) के अनेक गांवों में भ्रमण करने के दौरान यह ज्ञात हुआ कि सैकड़ों दलित-बहुजन श्रमजीवी, मेहनतकस व्यक्ति कोरोना महामारी के चलते अपनी जान गवां चुके हैं। जमीनी हालात की पड़ताल करने के लिए अनेक पीड़ित परिवार से बात की तथा सामाजिक-आर्थिक कारकोंको समझने का प्रयत्न किया। उदाहरण स्वरूप, मुंबई में मजदूरी करने वाले मंगरू पाल को लॉकडाउन के कारण अपने घर वापस आना पड़ा। उनका घर जिला मुख्यालय से लगभग 18 किलोमीटर दूर है, जब उसकी पत्नी बीमार हुई, तब उसने सरकारी जिला अस्पतालमें भर्ती कराने के उद्देश्य से एक निजी एम्बुलेंस किराए पर मंगवाई। लेकिन अस्पताल पहुँचने पर पता चला कि अस्पताल में बेड खाली नहीं है। उन्हें सोशल मीडिया पर यह जानकारी मिली की पास के दूसरे अस्पताल में कुछ सीटें खाली हुई हैं। इसके बाद वह 10 किलोमीटर दूर दूसरे अस्पताल में अपनी गंभीर रूप से बीमार पत्नी को भर्ती करवाने के लिए ले जाने लगे, मगर आधे रास्ते में ही उनकी पत्नी का देहावसान हो गया।

इसी प्रकार कुछ अन्य मृतक व्यक्ति के परिजनों से बात करने पर मालूम हुआ कि मार्च से मई के बीच लोग दम तोड़ते रहे, क्योंकि अस्पतालों में जगह की कमी होने के कारण नए मरीजों को भर्ती नहीं किया जा रहा था। जिसके फलस्वरूप न तो इन मृतकों का नाम सरकारी दस्तावेजों में दर्ज हो पाया और न ही मरने का वास्तविक कारण ही पता लग पाया तथा ऐसे में पीड़ित परिवार को सरकारी मुआवजा मिलने का ख्याल भी अधूरा रह जाता है। उपरोक्त संदर्भ में यदि हम ‘आयुष्मान भारत-च्डश्र।ल् योजना की बात करें, तो आंकड़े यह दर्शाते हैं कि पिछले साल इस स्कीम के तहत सिर्फ चार लाख लोगों का इलाज हुआ है, जबकि प्रतिदिन लाखों की संख्या में लोग कोरोना से संक्रमित हो रहे थे।’8

 ऊमेन सी. कुरियन के अनुसार, “इस सरकार की दिक्कत यही है कि ये यह डेटा साझा नहीं करती है। सरकार चार लाख मरीज के बारे में बात कर रही है, ये सभी मरीज किस हाल में थे, किस राज्य में कितने थे, ये भी बताने में इन्हें दिक्कत है, तो फिर समझा जा सकता है कि ये क्या छुपाना चाह रहे हैं।”9

निष्कर्ष

पिछले एक वर्षों से इस महामारी के कारण बहुसंख्यक श्रमजीवी वर्ग बेरोजगार होकर घर पर बैठा हुआ है, ऊपर से मंहगी स्वास्थ्य सुविधा के कारण उसे दोहरी मार पड़ रही है। इसलिए भारत सरकार भी कोरोना के टीका को मुफ्त में लगाने का दावा कर रही है। पंजाब केसरी की रिपोर्ट के अनुसार, “देश  की सर्वोच्च अदालत ने केंद्र की टीकाकरण नीति को सवालों के घेरे में लाकर खड़ा कर दिया है। सुप्रीम कोर्ट ने 18 से 44 वर्ष की आयु के वैक्सीनेशन नीति को प्रथमदृष्टया अतार्किक बताया है।”10 केंद्र सरकार की अदूरदर्शी सोच के कारण अन्य देशों की तुलना में भारत वैक्सीन लगाने की प्रक्रिया में भी काफी धीमा है, जिसके कारण कोरोना से लड़ाई में हम विवश नजर आते हैं।

टीकाकरण और भारत की स्थिति

अगर हम आंकड़ों पर दृष्टि डालें तो यह पाते हैं कि अमरीका (40.7 प्रतिशत),11 फ्रांस (38.40 प्रतिशत),12 जर्मनी (40.8 प्रतिशत),13 चिली (54.77 प्रतिशत), मंगोलिया (56.51 प्रतिशत), हंगरी और बहरीन (53 प्रतिशत) आदि देशों ने आधी से ज्यादा आबादी को कोविड का प्रथम टीका दे दिया है। बल्कि भारत वैक्सीन उत्पादन के क्षेत्र में अग्रणी होने के बाद भी अपनी आबादी का मात्र 12 प्रतिशत को अभी तक पहला डोज दे पाया है।14 वहीं भारत में कोरोना वैक्सीन के दूसरे डोज की बात करें तो पाएंगे कि मात्र 3.2 प्रतिशत लोगों को ही यह मिल पाया है। भारत में

टीकाकरण की वर्तमान गति औसतन 20 लाख दैनिक खुराक से लगभग दुगनी (50 लाख तक) करता है, तो

दिसम्बर 2021 तक 50 प्रतिशत आबादी का टीकाकरण हो सकेगा।15

कोरोना महामारी और भुखमरी

कोरोना महामारी और भुखमरी का गहरा नाता रहा है। श्रम और रोजगार मंत्रालय के अनुसार असंगठित क्षेत्र में करीब 42 करोड़ श्रमिक कार्य करते हैं। वहीं, सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकोनॉमी के मुताबिक 12.2 करोड़ भारतीयों ने कोरोना काल अप्रैल 2021 में अपनी नौकरी और रोजगार खो चुके हैं।16 कोरोना महामारी के कारण सरकार को बार-बार लॉकडाउन करना पड़ रहा है, जिसका असर असंगठित क्षेत्र में कार्यरत श्रमजीवी वर्ग तथा छोटे एवं मझोले दुकानदारों पर अधिक पड़ रहा है। “काम बंद हो जाने और ‘रोज-कमाने, खाने’ वाला वर्ग महामारी से सबसे अधिक प्रभावित हुआ है, लेकिन हुकूमत के जरिए दी गई राहतों में ‘क्लास बायएस’ यानी एक खास वर्ग के लिए पूर्वग्रह साफ देखा जा सकता है।”17 इस लॉकडाउन के फलस्वरूप आर्थिक विषमताएं बढ़ रही हैं और दलित-पिछड़े वर्ग से आने वाले श्रमजीवी वर्ग पर काफी विपरीत असर पड़ रहा है। यह परिस्थिति उन्हें और अधिक विपन्नता की ओर ढकेल रही है।18 जिसके फलस्वरूप भारतीय समाज का निचला तबका भुखमरी के कगार पर खड़ा है।

कोरोना महामारी और प्राथमिक  शिक्षा

सरकारी प्राथमिक विद्यालयों में पढ़ने वाले विद्यार्थियों की सामाजिक पृष्ठभूमि का अध्ययन करने के उपरांत ज्ञात हुआ कि 90 प्रतिशत से अधिक बच्चे पिछड़ी जातियों तथा अनुसूचित जातियों से हैं। लॉकडाउन के कारण कई महीनों से सरकारी स्कूल बंद पड़े हैं और इन बच्चों के घरों में मोबाइल या टीवी की उपलब्धता नहीं होने के कारण सरकार द्वारा चलाई जा रही ऑनलाइन शिक्षा व्यवस्था से ये बच्चे कोसों दूर हैं। अब इन बच्चों पर कई नकारात्मक परिवर्तन स्पष्ट रूप से दृष्टिगोचर हो रहे हैं। टंडवा माध्यमिक विद्यालय में पढ़ने वाला मनीष वर्तमान समय में कक्षा आठ में पढ़ता है और वह हमेशा कक्षा में अव्वल रहा है, लेकिन पिछले एक साल से स्कूल बंद होने की वजह से उसकी पढ़ाई में रूचि खत्म हो चुकी है। अब मनीष दो पहिया वाहनों की मरम्मत करने की सोच रहा है। वहीं टंडवा गाँव की कोमल इंटर कॉलेज नटोली की छात्रा है। उनसे बात करने पर ज्ञात हुआ कि कक्षा सात से उन्हें पदोन्नति करके अब कक्षा आठ में कर दिया गया है। कोमल अभी भी हिंदी और अंग्रेजी की किताब पढ़ नहीं पाती हैं। उन्हें घर के सदस्यों के नाम हिंदी और अंग्रेजी में लिखने में भी दिक्कत महसूस होती है। यह कहानी सिर्फ उन दो दलित बच्चों की नहीं है, अपितु ऐसे बच्चे उत्तर प्रदेश में लाखों की तादाद में हैं, जिनके सपने एवं सुनहरा भविष्य कोरोना महामारी ने निगल ली है। इसके अतिरिक्त सरकार को ऐसे बच्चों को आधुनिक उपकरण दिलाने में कोई दिलचस्पी भी नहीं है। सरकार इन बहुजन समाज के वंचित बच्चों को सिर्फ ‘मध्याह्न भोजन योजना’ के तहत कुछ किलो अनाज देकर कागजी खानापूर्ति कर लेती है, लेकिन इनकी वास्तविक जरूरतों को हमेशा अनदेखा कर दिया जाता है।

कालाबाजारी, सोशल मीडिया और मददगार

जहाँ एक तरफ, स्वास्थ्य क्षेत्र में कालाबाजारी के कारण व्याप्त अनेक नकारात्मक बातें हमारे सामने आ रही हैं, वहीं दूसरी तरफ रेमडेसिविर इंजेक्शन, दवाइयाँ, ऑक्सीजन और बेड दिलाने के नाम पर नैतिक रूप से पतित लोग अपनी जेब भरने में लगे हैं। इस तरह से ऐसे लोग आपदा में अवसर ढूढ़ रहे हैं और इसी को कमाई का जरिया बना रहे हैं। हालांकि अच्छे लोगों की भी कमी नहीं है। आज सोशल मीडिया के जरिये  देश-विदेश में बैठे लोग जरूरतमंद लोगों के लिए आगे आकर मदद के लिए हाथ बढ़ा रहे हैं। ऐसे लोग पैसे की मदद से लेकर, दवाईयां, तथा खाना बाँटने तक का कार्य स्वेच्छा से कर रहे हैं। इस संदर्भ में विकास गुप्ता (2021) लिखते हैं कि ‘फेसबुक तथा इंस्टाग्राम पर हैशटैग रेमडेसिवीर पर 27 हजार से ज्यादा लोगों ने पोस्ट किया और वहां पर मददगारों का समूह तेजी से सक्रिय हो गया।’19 अनेक लोगों का मानना है कि सरकार ने राष्ट्रीय हितों को दरकिनार किया तथा पार्टी हितों को ज्यादा वरीयता दी। जिसके फलस्वरूप भारत की छवि वैश्विक पटल पर धूमिल हुई है। जनमानस के द्वारा सार्वजनिक समारोह में कोरोना प्रोटोकाल का पालन नहीं किया गया। जिसके परिणाम स्वरूप संक्रमितों की संख्या में तेजी से इजाफा हुआ, जिसके कारण देश में देखते ही देखते स्वास्थ्य तंत्र अपंग बन गया तथा हजारों मासूमों को मौत के मुंह में जाने से रोका नहीं जा सका। इस महामारी में सरकारी मशीनरी को पूरी तरह से फेल पाया गया। इसलिए इसे संस्थानिक हत्या करार दिया जाय तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी।

आज भी इस महामारी के दौर में पीड़ित लोग संयमित व्यवहार का परिचय दे रहें हैं। वे सभी एक जिम्मेदार नागरिक की भांति सकारात्मकता के साथ आने वाली चुनौतियों का सामना कर रहे हैं। लोग सरकारी मशीनरी से निराश तो हैं, मगर अभी भी उनमें एक आशा की किरण बची हुई है और सकारात्मकता के साथ कर्तव्यों का निर्वहन कर रहे हैं। आज नेताओं को इस महामारी के दौर में पार्टी हितों को दरकिनार करते हुए जनता के साथ मिलकर कार्य करना होगा और भारतीय सभ्य समाज को भी इससे एक सीख लेने की महती आवश्यकता है।

संदर्भ

1. Retrieved on 25/05.2021 from https://hindi.asianet news.com/national-news/police-action-againstpeople-seeking-help-on-social-media-in-coronacrisis-supreme-court-tells-important-decision-kpaqsdhcr 

2. Retrieved on 26/05.2021 from https://www.bbc. com/hindi/india-57179450 

3. Retrieved on 25/05.2021 from https://www. amarujala.com/photo-gallery/punjab/jalandhar/ video-of-man-carrying-dead-body-of-his-daughteron-his-shoulders-viral-in-jalandhar-of-punjab

4. धूस लेकर मरीज को भर्ती करना, सरकारी अस्पतालों में संक्रमण के अधिक खतरे, अकुशल डाक्टर, मंहगी दवाईयां आदि प्रकरण से ग्रामीण भयभीत होते हैं।

5.Retrieved on 30/05.2021 from https://www.bbc.com /hindi/india-57077816 

6.Retrieved on 27/05.2021 from https://www.bbc.com/ hindi/india-57010300

7 उमेन  सी. कुरियन ऑब्जर्वर रिसर्च फाउंडेशन के साथ सीनियर फेलो भी हैं

8.Retrieved on 27/05.2021 from https://www.bbc.com /hindi/india-57132959

 9. Retrieved on 27/05.2021 from https://www. punjabkesari.in/national/news/the-supreme-courtraised-questions-on-the-vaccination-policy-of-thecenter-139345

10  Our world in data के अनुसार टीका देने के मामले में

 भारत 100 देशों से पीछे है।

11. Retrieved on 25/05.2021 from https://www. beckershospitalreview.com/public-health/statesranked-by-percentage-of-population-vaccinatedmarch-15.html 

12. Retrieved on 25/05.2021 from https://www. sortiraparis.com/news/in-paris/articles/239732- vaccination-in-france-how-many-people-arevaccinated-as-of-datacovid-confirmedfr/lang/en 

13. Retrieved on 25/05.2021 from https://www. thelocal.de/20210526/how-many-people-havebeen-vaccinated-against-covid-so-far-in-germany/ 

14. Retrieved on 25/05.2021 from https://www. nytimes.com/interactive/2021/world/covidvaccinations-tracker.html 

15. Retrieved on 25/05.2021 from https://www. bloombergquint.com/coronavirus-outbreak/indiascovid-vaccine-policy-all-you-need-to-know 

16. Retrieved on 25/05.2021 from https://hindi. news18.com/blogs/sumit-verma/unorganizedsector-situation-challenge-and-government-effortsin-the-corona-period-3189769.html 

17- QSly eksgEen vyh (2020) Retrieved on 26/05.2021 from https://www.bbc.com/hindi/india-52038983 

18. Retrieved on 27/05.2021 from https://www.bbc. com/hindi/india-52038983 

19. Retrieved on 25/05.2021 from https://www.patrika. com/miscellenous-india/social-media-is-becominga-support-for-corona-patients-6807785/

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लेखक: समाजशास्त्र विभाग,

हैदराबाद विश्वविद्यालय, गचीबावली,

हैदराबाद-500046, तेलंगाना में डॉक्टरल फेलो हैं।

ईमेल: 

लेखक: शोध छात्र, प्राचीन इतिहास विभाग,

श्री गाँधी पी.जी. कॉलेज, मालटारी, आजमगढ-

276138।

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कोरोना महामारी के कारण वर्ष (2020) काफी मुश्किलों और चुनौतियों से भरा साबित हुआ तथा भारत के साथ-साथ पूरी दुनिया इस महामारी से जूझती नजर आई। इस महामारी को समझने के लिए विभिन्न शोध संस्थान और उससे जुड़े वैज्ञानिक साल भर अपने स्तर से कार्य करते रहे। इसके बाद वर्ष के अंत तक कोरोना महामारी के जाल से मुक्त होने के लिए टीके बनाने का भी काम किया। जिसके फलस्वरूप, वर्ष 2021 की प्रथम तिमाही में भारत की विभिन्न राजनीतिक पार्टियां कोरोना जैसी घातक महामारी पर विजय पाने को लेकर आशान्वित दिखाई दे रहीं थी। भारत के पड़ोसी देशों को भी कोरोना वैक्सीन को लेकर भारत से काफी अपेक्षाएं थी। अनेक राजनीतिक दल राष्ट्रीय हितों को ताक पर रखकर चुनाव प्रचार अभियान में मशगूल थे। पार्टी के हितों को ध्यान में रखते हुए तथा इस वैश्विक महामारी को नजरअंदाज करते हुए कुम्भ मेला जैसे हिन्दू धार्मिक आयोजनों को अनुमति दी गई। जिसके कारण इस महामारी को फिर से फैलने में मदद मिली। जिसके कारण कुम्भ मेला में स्नान करने के लिए लाखों की भीड़ इकठ्ठा हुई थी। आज उसी गंगा में सैकड़ों की संख्या में मानव की तैरती हुई लावारिश लाशें सम्पूर्ण सामाजिक-राजनीतिक तंत्र पर प्रश्न-चिह्न खड़ा कर दिया है। जिससे भारत की छवि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर धूमिल हुई है। इस वर्ष मार्च-अप्रैल में कोरोना की दूसरी लहर के कारण चारों तरफ अफरा-तफरी फैल गई तथा स्वास्थ्य क्षेत्र बहुत बुरी तरह से प्रभावित हुआ। कोरोना से उत्पन्न विकट परिस्थिति के कारण वर्ष 2021 का अप्रैल और मई का महीना भारत में काफी अफरा-तफरी और अराजकता से भरा था। सम्पूर्ण सरकारी तंत्र लाचार नजर आया तथा अनेक राज्यों की सरकारें एवं केंद सरकार जवाबदेही से अपना-अपना पल्ला झाड़ती नजर आई। अप्रैल और मई के दुष्कर महीनों में मानवीय संवेदनाओं का पतन स्पष्ट रूप से देखा एवं महसूस किया जा सकता था। मेडिकल क्षेत्र में कालाबाजारी अपने चरम पर थी और ऑक्सीजन तथा रेमडेसिवीर जैसी मूलभूत जरूरत की वस्तुओं की  भयानक कमी की वजह से हजारों लोगों की जानें चली गई। नैतिक रूप से पतित दलाल लोग अस्पताल के बेड दिलाने से लेकर, दवाइयों एवं उपकरणों को मंहगे दाम पर बेचकर अपनी जेब भरने में लगे रहे और सरकारी मशीनरी तंत्र उन पर नकेल कसने में असहाय नजर आया। द्वितीय लहर के कारण, दूसरे देशों को दी जाने वाली वैक्सीन के निर्यात पर रोक लगा दी गई, जिसके परिणाम स्वरूप अब पड़ोसी मुल्कों को भी भारत से कोविशील्ड वैक्सीन पाने की आस धूमिल हो गई है, इसलिए वे चीन तथा अमेरिका की तरफ जाने को मजबूर हो गए हैं। जिसके फलस्वरूप पड़ोसी देशों के साथ भारत की जवाबदेही पर प्रश्नचिह्न लगना लाजमी हो गया है।

सोषल मीडिया और प्रषासन

कोरोना महामारी की दूसरी लहर के कारण भारत में मची भारी तबाही से अस्पतालों में अफरा-तफरी का माहौल था। प्रत्येक दिन देश में तीन लाख से अधिक कोरोना के मामले दर्ज किए जा रहे थे और हजारों लोग अपनी जान भी गवां रहे थे। इस तरह की परिस्थितियों में जीवन और मौत के बीच सोशल मीडिया एक पुल बना हुआ था। बहुजन समाज अपने सगे-संबंधियों एवं 

एक राष्ट्रव्यापी अभियान के लिए पृष्ठभूमि नोट
हमें  कोविड-19 से निपटने में  अन्धविश्वास नहीं, विज्ञान से  मदद मिलेगी।
.23 जुलाई लाई 2020 को अखिल भारतीय जनवादी महिला समिति (एआईडीडब्ल्यूए ) क्रांतिकारी
स्वतंत्रता सेनानी और प्रगतिशील म ूल्यों, लोकतांत्रिक अधिकारों, ल ैंगिक न्याय व जीवन भर
वैज्ञानिक दृष्टिकोण क े लिए जीवन भर अनथक संघर्ष करने वाली कैप्टन लक्ष्मी सहगल की
आठवीं पुण्यतिथि मना रहा है। वे 1981 में बन े संगठन के संस्थापक सदस्यों म ें से एक थीं,
और उन्होनें हिंदी क्षेत्र म ें संगठन बनाने म ें एक महत्वप ूर्ण भूमिका निभाई । एक डॉक्टर क े रूप
म ें, यूपी क े कानपूर में स्थित उनका क्लिनिक संगठन के लिए एक नोडल क ेंद्र था, जो उन
महिलाओं को आकर्षित करता था जो चिकित्सा खर्च वहन करने म ें असमर्थ थी। इसके साथ-
साथ यह जगह कार्यकर्ताओं की बैठकों व बातचीत क े लिए अनुक ुल जगह थी । हजारा ें
भाग्यशाली बच्चों को उन्होंने अपन े क्लिनिक म ें जन्म दिलवाया, परन्तु उनक े माता पिता का े
चिकित्सा खर्चा ें की चिंता करने की जरूरत नहीं थी।
अखिल भारतीय पीपुल्स साइंस नेटवर्क  (एआईपीएसएन) जिसमें पूरे भारत म ें 37 संगठन
शामिल हैं, डॉ लक्ष्मी सहगल क े भारी योगदान को याद करने और मनाने म ें जनवादी महिला
समिति क े साथ शामिल ह ैं । गा ैरतलब है कि उन्होंने 1987 म ें सांइस नेटवर्क  की स्थापना म ें
एक अग्रणी भूमिका निभाई थी और वैज्ञानिक सोच को बढ ़ावा देने व रूढ़िवाद के खिलाफ
खिलाफ लड़ाई की च ैंपियन रही हैं।
डॉ लक्ष्मी सहगल का जीवन और कार्य कोविड-19 महामारी के दौरा म ें और अधिक प्रासंगिक
हो गया ह ै जिसक े दौरान रूढ़िवादी ताकतें अ ंधविश्वास और छद्म वैज्ञानिक मान्यताओं का े
फैलाने क े लिए लोगों, विशेष रूप से महिलाओं क े बीच भय का खेल रही हैं। .कई परंपरावादी
प्रथाओं का कोविड-19 क े इलाज या निवारक क े रूप में इस्तेमाल करने की वकालत की जा
रही है। महामारी क े इस समय में संघ परिवार द्वारा रूढ़िवादी म ूल्यों, सांप्रदायिक पूर्वाग्रहों और
पितृसत्तात्मक धारणाओं को मजबूत करने क े प्रयास किए जा रहे ह ैं। प्रगतिशील और
लोकतांत्रिक ताकतों द्वारा इसका एकज ुट होकर विरोध किया जाना चाहिए।
विज्ञान का संदेश
कोविड-19 महामारी जनवरी 2020 में भारत म ें आई और शुरुआती दिनों स े ही सार्वजनिक
स्वास्थ्य विशेषज्ञों, डॉक्टरो ं और वैज्ञानिकों क े लिए एक चुनौती पेश की जो अभी भी कोरोना
वायरस क े बारे म ें सीख रहे ह ैं । क ेरल को छोड़कर जिसने उल्लेखनीय रूप से दुनिया भर म ें
छाप छोड़ी, क ेंद्र सरकार और अधिकांश राज्य सरकारों ने एक सुसंगत, तर्क संगत समझ को
लोगों क े समक्ष रखने व प्रभावी ढंग से संवाद कायम करने म ें काफी देरी की। खुद प्रधानम ंत्री
द्वारा अचानक बिना किसी योजना क े लागू किए गए लॉक डाउन तथा बाद में दीए जलवाने,
ताली व थाली बजाने आदि से बीमारी क े फैलाव को रोकने म ें कोई मदद नहीं मिली।
इसम ें आश्चर्य नहीं कि कोविड-19 से सुरक्षा और राहत हासिल करने की बेचैनी से पैदा र्ह ुइ
शून्यता को भरने क े लिए लोग मिथकों और विश्वासों का इस्तेमाल कर रहे हैं। इनम ें गर्म
पानी पीना, धूप म ें खड़े हा ेना, घर म ें क ुछ खास पौधे उगाना आदि कई घरेलू उपचार शामिल
हैं। अगर वैज्ञानिकों व लोगों क े संगठनों और आंदोलनों क े दबाव म ें, अधिक सुसंगत और
विज्ञान आधारित सार्वजनिक संदेश लोगों तक नहीं पंहुचते ह ैं तो इस तरह क े अपरीक्षित
विश्वासों लोकप्रियता मिलती रहेगी। एआईएसपीएन और वैज्ञानिकों, डॉक्टरों और सार्वजनिक
स्वास्थ्य विशेषज्ञों क े अन्य संगठन ही डब्ल्यूएचओ और आईसीएमआर के दिशा निर्देशा ें व
स्वास्थ्य विशेषज्ञों की राय क े आधार पर कोरोना वायरस के संबध म ें क्या करें और क्या नही ं
की सही सूचनाएं जनता को देने में सबसे आगे है। कई लोकप्रिय प्रथाएं और घरेलू उपचार
इसलिए भी स्वीकृति प्राप्त करते हैं क्योंकि 80 प्रतिशत मामलों में रोगी बिना किसी उपचार क े
ठीक हो जाता ह ै।
इस बीच मुख्य चुनौती रूढ़िवादी ताकतों और निहित स्वार्थी तत्वों को इस अनिश्चितता का
उपयोग करते हुए अपनी विचारधारा का प्रसार करने और मुनाफा कमाने से रोकने की है। यह
अनिश्चितता अभी भी बनी हुई है। स्वय ं क े स्तर पर घरेलू या पर ंपरावादी उपचार करने की
प्रवृति इस भ्रामक संदेश के साथ कि कोविड-19 के लिए कोई उपचार उपलब्ध नहीं है और
सरकारों की सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवाओं को तेजी से देकर सस्ती गुणवत्ताप्ररक चिकित्सा
देखभाल प्रदान करने की विफलताओं स े ध्यान हटाने क े लिए प्रोतसाहित की जा रही है।
हालांकि अभी तक कोई उपचारात्मक एलोपैथिक दवा नहीं है। वैज्ञानिक और चिकित्सा
सम ुदायों ने वायरस और इसक े प्रभावो ं क े बारे म ें बहुत क ुछ सीखा ह ै और इस ज्ञान का े
कोविड-19 के परीक्षण और उपचार म ें विशेष रूप से अस्पतालों म ें ऑक्सीजन या वेंटिलेटर क े
साथ या बिना इनक े लागू कर रहे हैं। इसक े अलावा, निश्चित उपचार और रोकथाम क े लिए
टीकों की खोज विशेष रूप से नैदानिक परीक्षणों क े माध्यम से वैज्ञानिक सत्यापन पर जोर देन े
क े साथ जारी ह ै ताकि सुरक्षा और प्रभावकारिता सुनिश्चित हो सक े। यह वैज्ञानिक दृष्टिकोण
है। दुर्भाग्य स े, आध ुनिक चिकित्सा क्ष ेत्र क े भीतर भी क ुछ चीज ें धक ेली जा रही ह ैं। कॉर्पोरेट
और सता म ें बैठे उसक े चहेतों क े हितों क े लिए, म ुनाफे या झुठे राष्ट्रीय गौरव के लालच स े
प्रेरित होकर वैज्ञानिक प्रक्रियाओं म ें कटौती की जा रही है। अस्पतालों पर जल्दबाजी में टीका
तैयार करने क े जिए नैदानिक परीक्षणों म ें तेजी लाने का अनुचित दबाव शायद इसलिए बनाया
जा रहा कि स्वतंत्रता दिवस पर लाल किले से एक विजयी घोषणा की जा सक े। वैज्ञानिक व
चिकित्सा सम ुदायों तथा जागरूक लोगों क े विरोध बाद ही इस म ंशा से पीछ े हटा गया है।
छद ्म उपचार और झूठे प्रचार का म ुकाबला
आयुर्वेद, होम्योपैथी या अन्य पारंपरिक योगों क े नाम पर कोविड क े इलाज के कुछ झूठ े
उपचार और नकली दावे किए जा रहे है ं। इनमें से किसी क े पास इन पर ंपराओं क े भीतर भी
कोई आधार नहीं है और न ही वे किसी वैज्ञानिक परीक्षण से गुजरे हैं। फिर भी ऐसे कई दावा ें
को प्रचारित करने की अनुमति दी गई है। यहां तक कि केन्द्र और कई राज्यों म ें कुछ म ंत्रियों
ने भी ऐसे दावे किए हैं। जब केंद्रीय स्वास्थ्य म ंत्री या सरकार के प्रमुख प्रवक्ताओं को ऐस े
दावों पर चुना ैती दी गई, तो भी उन्हें सिरे से खारिज करने की बजाय यह कहा गया कि व े
उन म ंत्रियों या नेताओं की व्यक्तिगत मान्यताएं हो सकती हैं।
इस प्रवृति की वजह से बाबा रामदेव के पत ंजलि सम ूह ने आयुर्वेदिक इलाज का बेशर्म  दावा
किया। राजनीतिक रूप से संघ परिवार से ज ुड़े बाबा द्वारा तैयार दवाई बिना किसी क्लिनिकल
क े ट्रायल के म ुनाफे के लिए बाजार म ें उतार दी गई। जब वैज्ञानिकों, डॉक्टरा ें और जागरूक
नागरिकों द्वारा सार्वजनिक रूप से विरोध किया गया तो स्वास्थ्य और आयुष म ंत्रालयों को इस
दावे को खारिज करने के लिए मजबूर होना पड़ा और यहां तक कि जादुई इलाज और
उपचार क े खिलाफ जल्द ही कानून लागू करने की घोषणा करनी पड़ी। इसक े बावज ूद भी,
कई तथाकथित रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाने वाली और कोविड-19 से लोगों को लड़ने म ें
मदद करने वाली दवाओं को प्रचारित किया जा रहा है तथा बड़ी चतुराई से इलाज की बजाए
देखभाल शब्द का उपयोग किया जा रहा है।
छद्म वैज्ञानिक दावों को मान्यता मिल रही है क्योंकि ऐसी ताकतों का समर्थन करने वाली
सताधारी पार्टी ऐसी धारणाओं को साथ ल ेकर चल रही ह ै। प्रधानम ंत्री ने डॉक्टरों और स्वास्थ्य
कर्मि यों के प्रति समर्थन व्यक्त करने के लिए, लोगों को बालकनी या दरवाजों पर आकर ताली
व थाली बजाने और बाद म ें दीए, मोमबती, मशालें या हल्के लैंप जलाने का आह्वान किया था
जिसक े बाद ट्विटर और सोशल मीडिया पर ऐसी पोस्टस की बाढ़ आ गई जिनमें दावा किया
गया कि भारत द्वारा जलाए गए दीए नासा द्वारा अ ंतरिक्ष से देखे गए हैं, इन सार्वजनिक
प्रदर्शनों से शक्तिशाली विकिरण या क ंपन पैदा होगा जो कोरोना वायरस को नष्ट कर देगा।
सरकार या संघ परिवार के किसी भी नेता द्वारा इन दावों म ें से किसी का खंडन करने क े
लिए कोई प्रयास नहीं किए गए। (यह कहने की जरूरत नहीं है कि वायरस चिंताजनक रूप
से फैलता जा रहा है) इस तरह क े दावा ें का इस्तेमाल ना क ेवल पीएम की महाशक्तियों का े
बढ ़ा-चढ़ा कर दिखाने के लिए किया जा रहा है, बल्कि समाज में विज्ञान, तार्कि कता और
आलोचनात्मक सोच क े प्रभाव को कमजोर करने क े लिए भी किया जा रहा है।
संघ परिवार और इससे ज ुड़ी ताकतों ने सांप्रदायिक जहर फैलाने क े लिए भी कोविड-19
महामारी का इस्तेमाल किया है। निजाम ुद्दीन म ें एक बेहद खेदजनक साम ूहिक धार्मि क सभा, का
उपयोग महामारी फैलने क े प्रम ुख कारण क े रूप म ें किया गया। एक विशेष धार्मि क
अल्पसंख्यक सम ुदाय को कई महीनों तक व्यवस्थित रूप से राक्षस क े जौर पर प्रस्तुत किया
गया। झूठी अफवाहें फैलाकर पूरे सम ुदाय को कलंकित करने का प्रयास किया गया कि इस
सभा से निकले कोरोना संक्रमित लोग जानब ूझकर वायरस फैलाने क े लिए दूसरों पर थूक रहे
हैं या इस सम ुदाय से संबंधित विक्र ेताओ ं से सब्जियां खरीदना खतरनाक है आदि। साधारण
तथ्य यह है, विज्ञान हम ें सिखाता है, कि यह धर्म  मायने नहीं रखता है, लेकिन वहां एक बड़ी
सभा हुई थी, जिसम ें शारीरिक दूरी या अन्य सावधानियों का ख्याल नहीं रखा गया। हाल ही
म ें देश क े सबसे लोकप्रिय मंदिर म े ं हुई एक घटना जहां बड़ी संख्या म ें पुजारी और श्रद्धाल ु
संक्रमित हुए हैं, इस तथ्य को बखूबी रेखा ंकित करती है।
संघ परिवार और उससे जुड़ी ताकतें अ ंधविश्वास, सांप्रदायिक, पर ंपरावादी और रूढ़िवादी
विश्वासों को बड़े पैमाने पर प्रचारित करने क े लिए सोशल मीडिया का इस्तेमाल कर रही हैं,
जिनका मुकाबला विज्ञान आधारित अपन े दमदार मीडिया अभियानों क े माध्यम से किया जाना
है ।
पितृसत्ता को सुदृढ़ करने क े लिए धर्म  का खुला उपयोग करना ।

अन्य खतरनाक बात यह है कि धार्मि क मान्यताओं का सहारा लेकर रूढ़िवादी विचारों और
पितृसता को मजबूत करने क े लिए वायरस को लैंगिक आधार देकर क ्रोधित देवी क े रूप म ें
स्थापित किया जा रहा है। देश क े विभिन्न राज्यों मं े एडवा कार्यकर्ताओं द्वारा एकत्रित की गई
जानकारियों अनुसार यह प्रसार ज ेती से बढ ़ रहा है।
राजस्थान में, क ुछ प्रसिद्ध म ंदिरों को च ुपक े से खोला गया, सरकार द्वारा पूजा स्थल खोलन े
पर प्रतिबंध क े बावज ूद, अफवाहें फैलाई गई कि मंदिर क े दरवाजे अपने आप ही खुल गए
और लोगों, विशेष रूप से महिलाओं को कोरोना वायरस को शांत करने के लिए वहां प्रार्थना
करनी चाहिए। महिलाओं को क ुमकुम के पानी में या यूपी म ें गाय के गोबर म ें हाथ डुबोने क े
लिए कहा गया है और कोरोना माई (देवी) को शांत करने क े लिए अपने घरों की दीवारों पर
अपनी छाप डाल दी है। बिहार के क ुछ हिस्सों म ें कोरोना माई को शान्त करने के लिए
महिलाओं को सिंदूर, बिंदी, मिठाई आदि लेकर आस-पास की नदियों पर जाकर पूजा करने
और डुबकी लगाने क े लिए प्रेरित किया जा रहा है ज ैसा कि वे छठ पूजा के दौरान करती हैं।
क ुछ स्थानों पर, महिलाएं कोरोना माई को दूर भगाने के लिए बाल खोलकर भूत भगाने ज ैसा
स्वांग कर रही हैं। दुर्भा ग्य से यह देखा गया ह ै कि ज्यादातर दलित और पिछड़े परिवारों की
महिलाएं इस तरह की गतिविधियों म ें शामिल हैं। उत्तराखंड और पश्चिम बंगाल म ें भी नाराज
कोरोना देवी को मनाने क े लिए प्रचार किया जा रहा है।
एक क्रोधी या खतरनाक देवी की ऐसी धारणाएं जिसे खुश किया जाना चाहिए, पहले भी भारत
म ें देखा गई हं ै । छा ेटे चेचक को महिला देवी क े साथ जोड़ा गया है, उदाहरण क े लिए
तमिलनाडु म ें मारियामा, और चेचक ही माता, अम्मा, अम्माई आदि क े रूप में जाना जाता था,
क्योंकि चिकन पॉक्स, खसरा आदि को अक्सर आज भी माता कहा जाता है । इसका एक
हिस्सा प्राचीन अर्ध-धार्मि क मान्यताओं से निकला है, लेकिन इसकी भी गहरी जड़ें
पितृसत्तात्मक संस्कृति और विचारधाराओं से उपजी हैं जो महिलाओं को बुरी, खतरनाक और
शक्ति की भूखी आदि लक्षण बताकर उन्हें चुड़ैल, डायन आदि क े रूप में घोषित करती ह ैं।
तेलंगाना म ें, संघ परिवार अक्सर महिलाओं के नेतृत्व में प्रभात फेरियां निकाल रहा है। इसक े
माध्यम से यह प्रचार किया जा रहा है कि कोविड महामारी ने इसलिए फैल रही है क्योंकि
महिलाओं ने पूजा और अन्य संस्कारी या पारंपरिक प्रथाओं को करना बंद कर दिया है। उन्हें
फिर से शुरू करने के लिए बुला रह े हैं ताकि कोरोना वायरस को दूर किया जा सक े। इरादा
स्पष्ट रूप से घर के चारों ओर खींची गई लक्ष्मण रेखा क े भीतर महिलाओं क े लिए तैयार की
गई एक अधीन की भूमिका क े साथ पारंपरिक पितृसत्तात्मक संस्कृति को मजबूत करने का है।
ओडिशा म ें संघ परिवार समर्थक संगठन प्रचार कर रहे हैं कि म ंदिरों को बंद नहीं किया जाना
चाहिए था। सुप्रीम कोर्ट ने रथ यात्रा की अनुमति नहीं दी क्योंकि कोर्ट मुस्लिम और ईसाई
समर्थक है। वास्तव में, लगभग सभी धार्मि क संप्रदायों क े पूजा स्थलों को संबंधित धार्मि क
संस्थाओं द्वारा स्वयं और सरकारी दिशा-निर्देशों अनुसार बंद रखा गया है। जहां ऐसा नही ं
हुआ है या शारीरिक दूरी रखने और हाथों की सफाई करने का पालन किए बिना भीड ़
एकत्रित हुई हैं, वहां कोविड-19 मामलों म ें वृद्धि हुई ह ै। कोई भी तर्क संगत और निष्पक्ष व्यक्ति
यह बता देगा कि समस्या धर्म विशेष क े साथ नहीं है, बल्कि अपनाए गए तरीकों क े साथ है।
रूढ़िवादी ताकतें जानब ूझकर सांप्रदायिक पूर्वाग्रहों को हवा दे रही हैं जबकि इस समय म ें
विज्ञान और तर्क संगत विचार का अवम ूल्यन और गुणवत्तापूर्ण चिकित्सा देखभाल प्रदान करन े
की जिम्म ेदारी से सरकारों का विचलन सभी को विचलित कर रहा है ।
इस संदर्भ म ें, एडवा और एआईपीएसएन रूढ़िवादी ताकतों द्वारा फैलाए जा रहे अ ंधविश्वासा ें
और तर्कहीन मान्यताओं क े प्रचार का म ुकाबला करने क े लिए 23 जुलाई 2020 से संयुक्त
अभियान शुरू करेंगे । हम कैप्टन लक्ष्मी सहगल जैसी महान सेनानियों से प्रेरणा लेते हुए
लोगों को अ ंधविश्वास क े खिलाफ व विज्ञान क े साथ खड़ा करने के लिए काम करेंगें। इस
अभियान की मांग ह ै कि संविधान म ें निहित वैज्ञानिक सोच को व्यापक रूप से बढ ़ावा दिया
जाए। यह अभियान सरकार और प्रतिकि ्रयावादी ताकतों द्वारा हम ें पीछे ले जाने क े प्रयासों का
विरोध करेगा और एक अग्रगामी, लोकतांत्रिक समाज के निर्माण क े लिए आवश्यक तत्वों
धर्म निरप ेक्षता, लैंगिक न्याय, आलोचनात्मक सोच और वैज्ञानिक सा ेच क े म ूल्यों को बनाए
रखेगा।
एडवा आ ैर एआईपीएसएन का यह संयुक्त अभियान 23 ज ुलाई से 20 अगस्त 2020 को राष्ट्रीय
वैज्ञानिक सोच दिवस तक पूरे देश म ें चलाया जाएगा। इस काले दिन अ ंधविश्वास विरोधी
आंदा ेलन क े नेता डॉ नरेंद्र दाभोलकर की दक्षिणपंथी रूढ़िवादी ताकतों द्वारा हत्या कर दी र्गइ
थी। 

संजय रोकडे़

 आलेख

आलम यही रहा तो, निष्चित तौर पर

खतरे की घंटी बजनी है

संजय रोकडे़

भारत में कोरोना काल के दौरान जो तबाही मची है,उसके लिए काफी हद तक सत्तासीन भारतीय जनता पार्टी  जिम्मेदार है। क्योकि आरएसएस की विचारधारा के अनुकूल लोगों को ध्रुवीकृत करके सत्ता हथियाना एक बात है और सत्तारूढ़ होने पर देश को चलाना दूसरी बात है। लेकिन दुर्भाग्य है कि महामारी के इस भयानक दौर में भी आरएसएस और भाजपा ने अपनी नीति और नीयत में बदलाव नहीं किया है। वे आज भी लोगों को धर्म का अफीम देकर नशे में चूर रखना चाहते हैं। जो लोग इस तरह नशे के आदी नहीं हैं, उनके बीच हिंदू-मुस्लिम का जहर घोलकर उन्हें मार देना चाहते हैं। लेकिन लोग समझने को तैयार नहीं हैं। सत्ता हासिल करने के बाद भी संगठन की खोखली बातों पर ही अमल कर रहे हैं, संगठन और सत्ता में जमीन आसमान का अंतर है। संगठन की रीति-नीति उसकी कार्यप्रणाली सत्ता को हासिल करने की होती है और सत्ता का काम लोगों के दुःख-दर्द को समझकर उससे निजात दिलाने का होता है। लेकिन सच तो यही है कि भाजपा में जो लोग सत्ता का मजा चख रहे हैं, वे जनता को सुख देने के बजाय तकलीफ में डालने का काम कर रहे हैं। इस बात की तसदीक करने के लिए हमें वजीरे आज़म नरेन्द्र मोदी के कुछ फैसलों की तरफ नजरें इनायत करना चाहिए। मोदी सरकार की चंद नीतियां हैं, जो महामारी से ध्यान हटवाकर इसे हिंदू-मुस्लिम का जामा पहनाने की कोशिश हो रही है। मोदी सरकार के हाल में लिए गए फैसले इस बात को सच साबित करते हैं कि कोविड-19 महामारी पर ज्यादा ध्यान न देकर इसे केवल साम्प्रदायिकता का रूप देना चाहती हैं, ताकि अपनी नाकामयाबियों को छुपा सकें। हालांकि होना यह चाहिए था कि वे एक सशक्त एवं ईमानदार प्रधानमंत्री के रूप में अपनी जिम्मेदारी का निर्वहन करते और इस महामारी पर अंकुश लगाने की पहल करते। लेकिन ऐसा नहीं किया। महामारी को बढ़ावा देने के लिए मोदी सरकार ने हिंदुओं की भावना से भावनात्मक खिलवाड़ कर कुंभ मेले जैसे धार्मिक आयोजनों पर प्रतिबंध लगाने के बजाए, उन्हें विस्तारित रूप देकर अनुमति प्रदान की। एक दल विशेष के पीएम होने के नाते उन्होंने चुनावी सभाओं में बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया। हाल मे ं हुए विधान सभा चुनावो मे ं लाखों- लाख लोगों की सभाएं कर कोरोना महामारीको बुलावा देने का काम किया। जिसके बाद आलम यह है कि लाखों की तादात में लोग बेसमय मौत के गाल में समा रहे हैं। इलाज के दौरान टूटती सांसों को न ऑक्सीजन मिल पा रही थी न ही दवाइयां। दवाई के अभाव में बेसमय ही लोगों की मौत हो रही थी। मीडिया के माध्यम से लोगों के बीच झूठी साख बनाने की कोशिश की जा रही है और इलाज के लिए तड़प रहे लोगों को शब्दजाल में फंसाकर मूर्ख बनाने का काम किया जा रहा है। देश के अंदर इस समय जिस तरह के हालात निर्मित हुए हैं और जो घटनाएं घटी हैं, उनको देखते हुए शीर्ष नेतृत्व को यह समझना होगा कि वर्ष 2019 की जीत के बाद जिस तरह से सरकार चल रही है, उसमें अब सुधार की काफी जरूरत है। 

सरकार को इस पहल के लिए सबसे पहले सच

स्वीकारना होगा, क्योंकि वह जनता को ऑक्सीजन तक

मुहैया नहीं करवा पाई है। इसलिए स्थिति का सामना

करते हुए, उसके मार्ग में आने वाली बाधाओं को हटाना

होगा। जनता यह भी जानना चाहती है कि कोविड-19

के पहले साल में ही वैज्ञानिकों ने इस संकट को संभालने

का संकेत दिया था, तो फिर उसको लेकर धरातल पर

काम क्यों नहीं दिखाई दे रहा है? यदि केन्द्र सरकार

सजग थी, तो देश इतने कम समय में घोर स्वास्थ्य

संकट कैसे झेल रहा है। असल में कोरोना की दूसरी

लहर ने मोदी सरकार के झूठ-सच का पर्दाफाश कर

दिया है। लोग मदद की निगाहों से प्रधानमंत्री मोदी की

तरफ देख रहे हैं, लेकिन वे जनता से आत्मनिर्भर बनने

की बात कर रहे हैं। मोदी सरकार के व्यवहार से साफ

है कि वे सिर्फ चुनाव के समय जनता के बीच जाकर

लोगों को धर्म का अफीम पिलाकर वोट ले लेते हैं और

चुनाव जीतने के बाद उन्हें अपने हाल में छोड़ देते हैं।

इसलिए लोग भयावह स्थिति के लिए अब सीधे-

सीधे भाजपा सरकार से कहीं ज्यादा नरेन्द्र मोदी को दोषी

मान रहे हैं, जिन्हें प्रधानमंत्री मोदी से उम्मीदें थी, वे भी

निराश नज़र आ रहे हैं। ऐसा ही एक उदाहरण आगरा

शहर से सामने आया है। आगरा में अमित जायसवाल

नाम का एक शख्स था, वह मोदी का परम भक्त था।

हाल ही में कोरोना से उसकी जान चली गयी। अमित

जायसवाल को स्वयं मोदी ट्विटर पर फॉलो करते

थे। जब वह कोविड से ग्रसित हुआ तो उसकी बहन

ने अस्पताल में भर्ती करवाने के लिए पीएमओ, नरेन्द्र

मोदी और योगी आदित्यनाथ को टैग करके मदद मांगी,

लेकिन सब जगह से निराशा ही हाथ लगी। उनकी मौत

के कुछ दिन बाद ही उसकी मां की भी मौत हो गई।

अमित जायसवाल के दिल में नरेन्द्र मोदी को लेकर

जो दीवानगी थी, हम थोड़ा उसके बारे में भी जान

लेते हैं। अमित जायसवाल के सिर पर नरेन्द्र मोदी का

भूत इस तरह से सवार था कि वे पिछले कई सालों से

अपनी कार के पीछे मोदी का पोस्टर लगाकर बाजार

में घूमते रहता था। वह पीएम की हर अदा का कायल

था। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी अच्छा करे या बुरा करे उसे

हर रूप में स्वीकार कर अच्छा ही मानता था। अमित

जायसवाल ने अपने ट्विटर हैंडिल में यह लिख रखा

था कि उसे प्रधानमंत्री फॉलो करते हैं। इस संबंध में

एक वेबसाईट ने तो उसके ट्विटर हैंडिल का स्क्रीन

शॉट भी प्रकाशित किया था। मजेदार बात यह है कि

अब वह ट्विटर हैंडिल अस्तित्व में नहीं है। उसे डिलीट

किया जा चुका है।

वह भाजपा और आरएसएस का एक सच्चा सिपाही

था। वह एक सच्चे हिन्दू झंडाबरदार की तरह पिछले

साल न केवल अयोध्या गया था, बल्कि उसने पूरे शहर

में राम मंदिर का काम शुरू होने पर अपनी तरफ से

अयोध्या में एलईडी बैनर भी लगवाए थे। इन पर राम

जन्मभूमि की इबारत चमक रही थी। अमित जायसवाल

को आगरा में आरएसएस से जुड़े लोग बहुत मेहनती

स्वयं सेवक के रूप में जानते थे। पिछले साल उसने

आगरा म े ं लॉकडाउन क े समय एर्क इ -शाखा का

आयोजन कर संघ-भाजपा के तमाम छोटे बड़े नेताओं

की वाहवाही भी खूब लूटी थी।

सच तो यह है कि वह व्यक्ति कट्टर हिंदुवादी

था। उसने अपने ट्विटर हैंड़ल पर जो तस्वीर लगा

रखी थी, वह उसकी उग्रता को खुलकर बयां कर रही

थी। यह तस्वीर राम की है, जो युद्ध करने की मुद्रा

में धनुष पर बाण चढ़ाए रखे है। उन्होंने इसके बगल

में एक कैप्शन भी लिख रखा था कि-‘वी कांकर, वी

किल’। यानी हम विजय प्राप्त करते हैं, हम वध करते

हैं। यह कैप्शन उनके हिंसात्मक प्रवृत्ति को साफ बयां

कर रहा था। वह मोदी का अंधभक्त था। लेकिन उसकी

यह अंधभक्ति कोई काम नहीं आई। क्योंकि एक युवक

बेसमय मोदी के स्वास्थ्य संबंधित कुनीतियों के चलते

मौत की भेंट चढ गया। उसकी मौत के बाद बहन सोनू

ने उसके कार से पोस्टर नोचकर फंेक दिया है। सोनू

कहती हैं कि मेरा भाई अमित और मेरी मां 19 अप्रैल

को कोरोना पॉजिटिव पाए गए थे। दोनों को आगरा

में भर्ती कराने का प्रयास किया गया, लेकिन सफलता

नहीं मिली। इसके बाद मथुरा ले जाकर वहां के नयति

अस्पताल में भर्ती किया गया। 25 अप्रैल, 2021 को इन

दोनों की हालत बिगड़ने लगी, तो अस्पताल प्रबंधन

ने रेमडिसिविर इंजेक्शन का इंतजाम करने को कहा।

इसी दौरान सोनू ने अपने भाई के ट्विटर अकाउंट से

प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री को गुहार लगाई।

माईसेल्फ सोनू, मिस्टर अमित जायसवाल्स सिस्टर

दिस इज टू इनफार्म यू दैट वी आर फेसिंग इश्यूज

रिगार्डिंगअरेजमेंट ऑफ रेमडिसिविर एण्ड ट्रीटमेंट। ही

इज एडमिटेड इन नयति हॉस्पिटल मथुरा। वी नीड़

योर हेल्प। ही इज नॉट वेल। इस टिवट् के साथ एट

द रेट पीएमओ इंडिया, एट द रेट नरेन्द्र मोदी, एट द

रेट योगी आदित्यनाथ को टैग किया गया।

लेकिन कोई मदद नहीं मिली। सोनू बेहद उदासी

एवं गुस्से भरे लहजे में कहती है कि इतनी जगहों पर

गुहार लगाने के बाद भी कोई मदद नहीं मिली। इस

बीच फिल्म अभिनेता अनुपम खेर ने एक टीवी चैनल

में साक्षात्कार के दौरान कहा था कि जीवन में छवि

बनाने से ज्यादा और भी बहुत कुछ है। साक्षात्कार के

अंत में यह कह देना की कोरोना बीमारी के प्रबंधन में

मोदी सरकार की चूक को सीधे-सीधे सामने लाता है।

ये वही फिल्म अभिनेता हैं, जिनकी एक हालिया ट्विट

बड़ी मशहूर हुई थी। इस ट्विट में उन्होंने साफ कहा

था कि कुछ भी कर लो आएगा तो मोदी ही।

यह कहने का मतलब साफ है कि नरेन्द्र मोदी, संघ

एवं भाजपा को हिंदू-हिंदुत्व और हिंदुस्तान के युवाओं से

कोई लेना देना नहीं है। इन्हें केवल सत्ता हासिल करने

के लिए बस युवाओं का भावनात्मक शोषण करना है,

जो युवा अमित की तरह अंधभक्त हैं, उन्हें बस इतना

भर सोचना समझना है कि सत्ताधारियों को सत्ता बचाए

रखने भर से मतलब होता है, बाकी किसी से नहीं।

मगर अब भी युवा इस बात पर गौर नहीं फरमाएंगे

तो अमित जायसवाल की मौत मारे जाएंगे। इस समय

वजीरे आज़म मोदी ने देश में जिस तरह से स्वास्थ्य

आपातकाल के हालात पैदा किए हैं, उसे भी युवाओं

को समझना होगा। यह वह कृत्य है, जो अक्षम्य है।

हालिया घटनाएं यह साबित करती हैं कि मुद्दों

को संभालने में मोदी सरकार नाकाम रही है। लम्बे समय

से चल रहे किसान आंदोलन का भी कोई समाधान

नहीं निकाल पाए हैं। कृषि कानूनों को लेकर हो रहे

इन प्रदर्शनों में ज्यादातर किसान हैं लेकिन हाल में हुए

विधान सभा चुनाव के दौरान किए गए सर्वे से साफ

जाहिर हो गया है कि बड़ी संख्या में लोग चाहते हैं

कि कृषि कानून वापस हों। हालांकि सर्वे केवल चार

राज्यों की जनता के द्वारा दिए गए जवाब का परिणाम

है,लेकिन दूसरे राज्यों में भी कृषि कानूनों पर लोगों

केअलग विचार नहीं हैं।

यह दर्शाता है कि मोदी सरकार को अपनी नीतियों

पर पुनर्विचार करने की जरूरत है। इस समय आमजन

को राहत देने के लिए सरकार कोविड-19 की तीसरी

लहर का सामना करने के लिए माकुल रणनीति बनाकर

संसाधनों का उचित प्रबंध करने पर ध्यान दे। इसके

साथ ही आवधिक चुनौती को स्वीकार कर लंबी अवधि

की रणनीति शीघ्र ही बनाए। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी

को यह समझना होगा कि वे जिस हठधर्मिता से शासन

चला रहे हैं, वह देश की जनता को तबाही की ओर ही

धकेल रहा है। प्रधानमंत्री मोदी ही नहीं बल्कि हिंदुत्व

के तेज तर्रार नुमांइदे के रूप में पहचान बनाने वाले

योगी आदित्यनाथ की नाकामयाबियां भी उनके ही मंत्रियों

द्वारा सामने लायी जा रही है। हाल ही में यूपी के सीएम

होने के नाते योगी को केन्द्र के एक मंत्री और उनके ही

मंत्रिमंडल के कई मंत्रियों ने नाराजगी से भरी चिट्ठियां

लिखी है। यह बात दीगर है कि योगी ने लिखी गयी

उन चिट्ठियों को दबाकर जनता की नजरों से हटा

दिया है। इस समय मोदी और उनकी पार्टी के लोग

सच को छुपाने की भरसक कोशिश कर रहे हैं। लेकिन

इन दिनों सोशल मिडिया पर आम जनता का गुस्सा

भाजपा के खिलाफ खुलकर सामने आ रहा है। इसमें दो

राय नहीं है कि इनके विरोध में जो कटु बयान सामने

आ रहे हैं वह कोई नई बात है, लेकिन इस बार नई

बात यह है कि मोदी, संघ, भाजपा एवं योगी के समर्थन

में जो ट्वीट और पोस्ट उनके समर्थकों के आ रहे थे,

अब वह उतनी तादात में नहीं आ रहे हैं। अब समर्थक

भी पहले की तरह पुरजोर तरीके से अपनी बात नहीं

रख पा रहे हैं।

 इस प्रकार बड़ी संख्या में जनता का मोदी और

उनकी पार्टी से विश्वास उठने लगा है। अब आलम यह

है कि सबसे ज्यादा लोकप्रिय प्रधानमंत्री मोदी, प्रतिदिन

अपनी लोकप्रियता खोते जा रहे हैं। क्योंकि केंद्र सरकार

ने संकट के समय में ईमानदारी से काम नहीं किया और

चुनावी रैलियों के साथ हिंदुओं का धार्मिक तुष्टीकरण

करने में जुटी रही।

देश में जिस तरह के हालात निर्मित हो रहे हैं, उसे

देखते हुए यह साफ है कि संघ एवं भाजपा को मोदी

सरकार पर इस बात के लिए दबाव बनाना चाहिए। इसके

साथ-साथ संघ एवं भाजपा को अपने कुछ विवादास्पद

फैसलों पर भी पुनर्विचार करना चाहिए।

यदि मोदी सरकार ने स्वास्थ्य को लेकर थोड़ी भी

सजगता दिखाई होती तो शायद कोरोना काल में इतनी

बड़ी तबाही नहीं मचती। मोदी और भाजपा अभी भले ही

सत्ता के नशे में चूर होकर अपनी गलतियों को स्वीकार

न करे पर सच तो यही है कि अगर यही आलम रहा

तो आने वाले समय में निश्चित तौर पर खतरे की घंटी

बजने वाली है। 11

लेखक: स्वतंत्र पत्रकार हैं।

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