Sunday, July 4, 2021

एक राष्ट्रव्यापी अभियान के लिए पृष्ठभूमि नोट
हमें  कोविड-19 से निपटने में  अन्धविश्वास नहीं, विज्ञान से  मदद मिलेगी।
.23 जुलाई लाई 2020 को अखिल भारतीय जनवादी महिला समिति (एआईडीडब्ल्यूए ) क्रांतिकारी
स्वतंत्रता सेनानी और प्रगतिशील म ूल्यों, लोकतांत्रिक अधिकारों, ल ैंगिक न्याय व जीवन भर
वैज्ञानिक दृष्टिकोण क े लिए जीवन भर अनथक संघर्ष करने वाली कैप्टन लक्ष्मी सहगल की
आठवीं पुण्यतिथि मना रहा है। वे 1981 में बन े संगठन के संस्थापक सदस्यों म ें से एक थीं,
और उन्होनें हिंदी क्षेत्र म ें संगठन बनाने म ें एक महत्वप ूर्ण भूमिका निभाई । एक डॉक्टर क े रूप
म ें, यूपी क े कानपूर में स्थित उनका क्लिनिक संगठन के लिए एक नोडल क ेंद्र था, जो उन
महिलाओं को आकर्षित करता था जो चिकित्सा खर्च वहन करने म ें असमर्थ थी। इसके साथ-
साथ यह जगह कार्यकर्ताओं की बैठकों व बातचीत क े लिए अनुक ुल जगह थी । हजारा ें
भाग्यशाली बच्चों को उन्होंने अपन े क्लिनिक म ें जन्म दिलवाया, परन्तु उनक े माता पिता का े
चिकित्सा खर्चा ें की चिंता करने की जरूरत नहीं थी।
अखिल भारतीय पीपुल्स साइंस नेटवर्क  (एआईपीएसएन) जिसमें पूरे भारत म ें 37 संगठन
शामिल हैं, डॉ लक्ष्मी सहगल क े भारी योगदान को याद करने और मनाने म ें जनवादी महिला
समिति क े साथ शामिल ह ैं । गा ैरतलब है कि उन्होंने 1987 म ें सांइस नेटवर्क  की स्थापना म ें
एक अग्रणी भूमिका निभाई थी और वैज्ञानिक सोच को बढ ़ावा देने व रूढ़िवाद के खिलाफ
खिलाफ लड़ाई की च ैंपियन रही हैं।
डॉ लक्ष्मी सहगल का जीवन और कार्य कोविड-19 महामारी के दौरा म ें और अधिक प्रासंगिक
हो गया ह ै जिसक े दौरान रूढ़िवादी ताकतें अ ंधविश्वास और छद्म वैज्ञानिक मान्यताओं का े
फैलाने क े लिए लोगों, विशेष रूप से महिलाओं क े बीच भय का खेल रही हैं। .कई परंपरावादी
प्रथाओं का कोविड-19 क े इलाज या निवारक क े रूप में इस्तेमाल करने की वकालत की जा
रही है। महामारी क े इस समय में संघ परिवार द्वारा रूढ़िवादी म ूल्यों, सांप्रदायिक पूर्वाग्रहों और
पितृसत्तात्मक धारणाओं को मजबूत करने क े प्रयास किए जा रहे ह ैं। प्रगतिशील और
लोकतांत्रिक ताकतों द्वारा इसका एकज ुट होकर विरोध किया जाना चाहिए।
विज्ञान का संदेश
कोविड-19 महामारी जनवरी 2020 में भारत म ें आई और शुरुआती दिनों स े ही सार्वजनिक
स्वास्थ्य विशेषज्ञों, डॉक्टरो ं और वैज्ञानिकों क े लिए एक चुनौती पेश की जो अभी भी कोरोना
वायरस क े बारे म ें सीख रहे ह ैं । क ेरल को छोड़कर जिसने उल्लेखनीय रूप से दुनिया भर म ें
छाप छोड़ी, क ेंद्र सरकार और अधिकांश राज्य सरकारों ने एक सुसंगत, तर्क संगत समझ को
लोगों क े समक्ष रखने व प्रभावी ढंग से संवाद कायम करने म ें काफी देरी की। खुद प्रधानम ंत्री
द्वारा अचानक बिना किसी योजना क े लागू किए गए लॉक डाउन तथा बाद में दीए जलवाने,
ताली व थाली बजाने आदि से बीमारी क े फैलाव को रोकने म ें कोई मदद नहीं मिली।
इसम ें आश्चर्य नहीं कि कोविड-19 से सुरक्षा और राहत हासिल करने की बेचैनी से पैदा र्ह ुइ
शून्यता को भरने क े लिए लोग मिथकों और विश्वासों का इस्तेमाल कर रहे हैं। इनम ें गर्म
पानी पीना, धूप म ें खड़े हा ेना, घर म ें क ुछ खास पौधे उगाना आदि कई घरेलू उपचार शामिल
हैं। अगर वैज्ञानिकों व लोगों क े संगठनों और आंदोलनों क े दबाव म ें, अधिक सुसंगत और
विज्ञान आधारित सार्वजनिक संदेश लोगों तक नहीं पंहुचते ह ैं तो इस तरह क े अपरीक्षित
विश्वासों लोकप्रियता मिलती रहेगी। एआईएसपीएन और वैज्ञानिकों, डॉक्टरों और सार्वजनिक
स्वास्थ्य विशेषज्ञों क े अन्य संगठन ही डब्ल्यूएचओ और आईसीएमआर के दिशा निर्देशा ें व
स्वास्थ्य विशेषज्ञों की राय क े आधार पर कोरोना वायरस के संबध म ें क्या करें और क्या नही ं
की सही सूचनाएं जनता को देने में सबसे आगे है। कई लोकप्रिय प्रथाएं और घरेलू उपचार
इसलिए भी स्वीकृति प्राप्त करते हैं क्योंकि 80 प्रतिशत मामलों में रोगी बिना किसी उपचार क े
ठीक हो जाता ह ै।
इस बीच मुख्य चुनौती रूढ़िवादी ताकतों और निहित स्वार्थी तत्वों को इस अनिश्चितता का
उपयोग करते हुए अपनी विचारधारा का प्रसार करने और मुनाफा कमाने से रोकने की है। यह
अनिश्चितता अभी भी बनी हुई है। स्वय ं क े स्तर पर घरेलू या पर ंपरावादी उपचार करने की
प्रवृति इस भ्रामक संदेश के साथ कि कोविड-19 के लिए कोई उपचार उपलब्ध नहीं है और
सरकारों की सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवाओं को तेजी से देकर सस्ती गुणवत्ताप्ररक चिकित्सा
देखभाल प्रदान करने की विफलताओं स े ध्यान हटाने क े लिए प्रोतसाहित की जा रही है।
हालांकि अभी तक कोई उपचारात्मक एलोपैथिक दवा नहीं है। वैज्ञानिक और चिकित्सा
सम ुदायों ने वायरस और इसक े प्रभावो ं क े बारे म ें बहुत क ुछ सीखा ह ै और इस ज्ञान का े
कोविड-19 के परीक्षण और उपचार म ें विशेष रूप से अस्पतालों म ें ऑक्सीजन या वेंटिलेटर क े
साथ या बिना इनक े लागू कर रहे हैं। इसक े अलावा, निश्चित उपचार और रोकथाम क े लिए
टीकों की खोज विशेष रूप से नैदानिक परीक्षणों क े माध्यम से वैज्ञानिक सत्यापन पर जोर देन े
क े साथ जारी ह ै ताकि सुरक्षा और प्रभावकारिता सुनिश्चित हो सक े। यह वैज्ञानिक दृष्टिकोण
है। दुर्भाग्य स े, आध ुनिक चिकित्सा क्ष ेत्र क े भीतर भी क ुछ चीज ें धक ेली जा रही ह ैं। कॉर्पोरेट
और सता म ें बैठे उसक े चहेतों क े हितों क े लिए, म ुनाफे या झुठे राष्ट्रीय गौरव के लालच स े
प्रेरित होकर वैज्ञानिक प्रक्रियाओं म ें कटौती की जा रही है। अस्पतालों पर जल्दबाजी में टीका
तैयार करने क े जिए नैदानिक परीक्षणों म ें तेजी लाने का अनुचित दबाव शायद इसलिए बनाया
जा रहा कि स्वतंत्रता दिवस पर लाल किले से एक विजयी घोषणा की जा सक े। वैज्ञानिक व
चिकित्सा सम ुदायों तथा जागरूक लोगों क े विरोध बाद ही इस म ंशा से पीछ े हटा गया है।
छद ्म उपचार और झूठे प्रचार का म ुकाबला
आयुर्वेद, होम्योपैथी या अन्य पारंपरिक योगों क े नाम पर कोविड क े इलाज के कुछ झूठ े
उपचार और नकली दावे किए जा रहे है ं। इनमें से किसी क े पास इन पर ंपराओं क े भीतर भी
कोई आधार नहीं है और न ही वे किसी वैज्ञानिक परीक्षण से गुजरे हैं। फिर भी ऐसे कई दावा ें
को प्रचारित करने की अनुमति दी गई है। यहां तक कि केन्द्र और कई राज्यों म ें कुछ म ंत्रियों
ने भी ऐसे दावे किए हैं। जब केंद्रीय स्वास्थ्य म ंत्री या सरकार के प्रमुख प्रवक्ताओं को ऐस े
दावों पर चुना ैती दी गई, तो भी उन्हें सिरे से खारिज करने की बजाय यह कहा गया कि व े
उन म ंत्रियों या नेताओं की व्यक्तिगत मान्यताएं हो सकती हैं।
इस प्रवृति की वजह से बाबा रामदेव के पत ंजलि सम ूह ने आयुर्वेदिक इलाज का बेशर्म  दावा
किया। राजनीतिक रूप से संघ परिवार से ज ुड़े बाबा द्वारा तैयार दवाई बिना किसी क्लिनिकल
क े ट्रायल के म ुनाफे के लिए बाजार म ें उतार दी गई। जब वैज्ञानिकों, डॉक्टरा ें और जागरूक
नागरिकों द्वारा सार्वजनिक रूप से विरोध किया गया तो स्वास्थ्य और आयुष म ंत्रालयों को इस
दावे को खारिज करने के लिए मजबूर होना पड़ा और यहां तक कि जादुई इलाज और
उपचार क े खिलाफ जल्द ही कानून लागू करने की घोषणा करनी पड़ी। इसक े बावज ूद भी,
कई तथाकथित रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाने वाली और कोविड-19 से लोगों को लड़ने म ें
मदद करने वाली दवाओं को प्रचारित किया जा रहा है तथा बड़ी चतुराई से इलाज की बजाए
देखभाल शब्द का उपयोग किया जा रहा है।
छद्म वैज्ञानिक दावों को मान्यता मिल रही है क्योंकि ऐसी ताकतों का समर्थन करने वाली
सताधारी पार्टी ऐसी धारणाओं को साथ ल ेकर चल रही ह ै। प्रधानम ंत्री ने डॉक्टरों और स्वास्थ्य
कर्मि यों के प्रति समर्थन व्यक्त करने के लिए, लोगों को बालकनी या दरवाजों पर आकर ताली
व थाली बजाने और बाद म ें दीए, मोमबती, मशालें या हल्के लैंप जलाने का आह्वान किया था
जिसक े बाद ट्विटर और सोशल मीडिया पर ऐसी पोस्टस की बाढ़ आ गई जिनमें दावा किया
गया कि भारत द्वारा जलाए गए दीए नासा द्वारा अ ंतरिक्ष से देखे गए हैं, इन सार्वजनिक
प्रदर्शनों से शक्तिशाली विकिरण या क ंपन पैदा होगा जो कोरोना वायरस को नष्ट कर देगा।
सरकार या संघ परिवार के किसी भी नेता द्वारा इन दावों म ें से किसी का खंडन करने क े
लिए कोई प्रयास नहीं किए गए। (यह कहने की जरूरत नहीं है कि वायरस चिंताजनक रूप
से फैलता जा रहा है) इस तरह क े दावा ें का इस्तेमाल ना क ेवल पीएम की महाशक्तियों का े
बढ ़ा-चढ़ा कर दिखाने के लिए किया जा रहा है, बल्कि समाज में विज्ञान, तार्कि कता और
आलोचनात्मक सोच क े प्रभाव को कमजोर करने क े लिए भी किया जा रहा है।
संघ परिवार और इससे ज ुड़ी ताकतों ने सांप्रदायिक जहर फैलाने क े लिए भी कोविड-19
महामारी का इस्तेमाल किया है। निजाम ुद्दीन म ें एक बेहद खेदजनक साम ूहिक धार्मि क सभा, का
उपयोग महामारी फैलने क े प्रम ुख कारण क े रूप म ें किया गया। एक विशेष धार्मि क
अल्पसंख्यक सम ुदाय को कई महीनों तक व्यवस्थित रूप से राक्षस क े जौर पर प्रस्तुत किया
गया। झूठी अफवाहें फैलाकर पूरे सम ुदाय को कलंकित करने का प्रयास किया गया कि इस
सभा से निकले कोरोना संक्रमित लोग जानब ूझकर वायरस फैलाने क े लिए दूसरों पर थूक रहे
हैं या इस सम ुदाय से संबंधित विक्र ेताओ ं से सब्जियां खरीदना खतरनाक है आदि। साधारण
तथ्य यह है, विज्ञान हम ें सिखाता है, कि यह धर्म  मायने नहीं रखता है, लेकिन वहां एक बड़ी
सभा हुई थी, जिसम ें शारीरिक दूरी या अन्य सावधानियों का ख्याल नहीं रखा गया। हाल ही
म ें देश क े सबसे लोकप्रिय मंदिर म े ं हुई एक घटना जहां बड़ी संख्या म ें पुजारी और श्रद्धाल ु
संक्रमित हुए हैं, इस तथ्य को बखूबी रेखा ंकित करती है।
संघ परिवार और उससे जुड़ी ताकतें अ ंधविश्वास, सांप्रदायिक, पर ंपरावादी और रूढ़िवादी
विश्वासों को बड़े पैमाने पर प्रचारित करने क े लिए सोशल मीडिया का इस्तेमाल कर रही हैं,
जिनका मुकाबला विज्ञान आधारित अपन े दमदार मीडिया अभियानों क े माध्यम से किया जाना
है ।
पितृसत्ता को सुदृढ़ करने क े लिए धर्म  का खुला उपयोग करना ।

अन्य खतरनाक बात यह है कि धार्मि क मान्यताओं का सहारा लेकर रूढ़िवादी विचारों और
पितृसता को मजबूत करने क े लिए वायरस को लैंगिक आधार देकर क ्रोधित देवी क े रूप म ें
स्थापित किया जा रहा है। देश क े विभिन्न राज्यों मं े एडवा कार्यकर्ताओं द्वारा एकत्रित की गई
जानकारियों अनुसार यह प्रसार ज ेती से बढ ़ रहा है।
राजस्थान में, क ुछ प्रसिद्ध म ंदिरों को च ुपक े से खोला गया, सरकार द्वारा पूजा स्थल खोलन े
पर प्रतिबंध क े बावज ूद, अफवाहें फैलाई गई कि मंदिर क े दरवाजे अपने आप ही खुल गए
और लोगों, विशेष रूप से महिलाओं को कोरोना वायरस को शांत करने के लिए वहां प्रार्थना
करनी चाहिए। महिलाओं को क ुमकुम के पानी में या यूपी म ें गाय के गोबर म ें हाथ डुबोने क े
लिए कहा गया है और कोरोना माई (देवी) को शांत करने क े लिए अपने घरों की दीवारों पर
अपनी छाप डाल दी है। बिहार के क ुछ हिस्सों म ें कोरोना माई को शान्त करने के लिए
महिलाओं को सिंदूर, बिंदी, मिठाई आदि लेकर आस-पास की नदियों पर जाकर पूजा करने
और डुबकी लगाने क े लिए प्रेरित किया जा रहा है ज ैसा कि वे छठ पूजा के दौरान करती हैं।
क ुछ स्थानों पर, महिलाएं कोरोना माई को दूर भगाने के लिए बाल खोलकर भूत भगाने ज ैसा
स्वांग कर रही हैं। दुर्भा ग्य से यह देखा गया ह ै कि ज्यादातर दलित और पिछड़े परिवारों की
महिलाएं इस तरह की गतिविधियों म ें शामिल हैं। उत्तराखंड और पश्चिम बंगाल म ें भी नाराज
कोरोना देवी को मनाने क े लिए प्रचार किया जा रहा है।
एक क्रोधी या खतरनाक देवी की ऐसी धारणाएं जिसे खुश किया जाना चाहिए, पहले भी भारत
म ें देखा गई हं ै । छा ेटे चेचक को महिला देवी क े साथ जोड़ा गया है, उदाहरण क े लिए
तमिलनाडु म ें मारियामा, और चेचक ही माता, अम्मा, अम्माई आदि क े रूप में जाना जाता था,
क्योंकि चिकन पॉक्स, खसरा आदि को अक्सर आज भी माता कहा जाता है । इसका एक
हिस्सा प्राचीन अर्ध-धार्मि क मान्यताओं से निकला है, लेकिन इसकी भी गहरी जड़ें
पितृसत्तात्मक संस्कृति और विचारधाराओं से उपजी हैं जो महिलाओं को बुरी, खतरनाक और
शक्ति की भूखी आदि लक्षण बताकर उन्हें चुड़ैल, डायन आदि क े रूप में घोषित करती ह ैं।
तेलंगाना म ें, संघ परिवार अक्सर महिलाओं के नेतृत्व में प्रभात फेरियां निकाल रहा है। इसक े
माध्यम से यह प्रचार किया जा रहा है कि कोविड महामारी ने इसलिए फैल रही है क्योंकि
महिलाओं ने पूजा और अन्य संस्कारी या पारंपरिक प्रथाओं को करना बंद कर दिया है। उन्हें
फिर से शुरू करने के लिए बुला रह े हैं ताकि कोरोना वायरस को दूर किया जा सक े। इरादा
स्पष्ट रूप से घर के चारों ओर खींची गई लक्ष्मण रेखा क े भीतर महिलाओं क े लिए तैयार की
गई एक अधीन की भूमिका क े साथ पारंपरिक पितृसत्तात्मक संस्कृति को मजबूत करने का है।
ओडिशा म ें संघ परिवार समर्थक संगठन प्रचार कर रहे हैं कि म ंदिरों को बंद नहीं किया जाना
चाहिए था। सुप्रीम कोर्ट ने रथ यात्रा की अनुमति नहीं दी क्योंकि कोर्ट मुस्लिम और ईसाई
समर्थक है। वास्तव में, लगभग सभी धार्मि क संप्रदायों क े पूजा स्थलों को संबंधित धार्मि क
संस्थाओं द्वारा स्वयं और सरकारी दिशा-निर्देशों अनुसार बंद रखा गया है। जहां ऐसा नही ं
हुआ है या शारीरिक दूरी रखने और हाथों की सफाई करने का पालन किए बिना भीड ़
एकत्रित हुई हैं, वहां कोविड-19 मामलों म ें वृद्धि हुई ह ै। कोई भी तर्क संगत और निष्पक्ष व्यक्ति
यह बता देगा कि समस्या धर्म विशेष क े साथ नहीं है, बल्कि अपनाए गए तरीकों क े साथ है।
रूढ़िवादी ताकतें जानब ूझकर सांप्रदायिक पूर्वाग्रहों को हवा दे रही हैं जबकि इस समय म ें
विज्ञान और तर्क संगत विचार का अवम ूल्यन और गुणवत्तापूर्ण चिकित्सा देखभाल प्रदान करन े
की जिम्म ेदारी से सरकारों का विचलन सभी को विचलित कर रहा है ।
इस संदर्भ म ें, एडवा और एआईपीएसएन रूढ़िवादी ताकतों द्वारा फैलाए जा रहे अ ंधविश्वासा ें
और तर्कहीन मान्यताओं क े प्रचार का म ुकाबला करने क े लिए 23 जुलाई 2020 से संयुक्त
अभियान शुरू करेंगे । हम कैप्टन लक्ष्मी सहगल जैसी महान सेनानियों से प्रेरणा लेते हुए
लोगों को अ ंधविश्वास क े खिलाफ व विज्ञान क े साथ खड़ा करने के लिए काम करेंगें। इस
अभियान की मांग ह ै कि संविधान म ें निहित वैज्ञानिक सोच को व्यापक रूप से बढ ़ावा दिया
जाए। यह अभियान सरकार और प्रतिकि ्रयावादी ताकतों द्वारा हम ें पीछे ले जाने क े प्रयासों का
विरोध करेगा और एक अग्रगामी, लोकतांत्रिक समाज के निर्माण क े लिए आवश्यक तत्वों
धर्म निरप ेक्षता, लैंगिक न्याय, आलोचनात्मक सोच और वैज्ञानिक सा ेच क े म ूल्यों को बनाए
रखेगा।
एडवा आ ैर एआईपीएसएन का यह संयुक्त अभियान 23 ज ुलाई से 20 अगस्त 2020 को राष्ट्रीय
वैज्ञानिक सोच दिवस तक पूरे देश म ें चलाया जाएगा। इस काले दिन अ ंधविश्वास विरोधी
आंदा ेलन क े नेता डॉ नरेंद्र दाभोलकर की दक्षिणपंथी रूढ़िवादी ताकतों द्वारा हत्या कर दी र्गइ
थी। 

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