Sunday, July 4, 2021

देवी प्रसाद, शेलेन्द्र कुमार.

 कोरोना महामारी के दौर में भारतीय स्वास्थ्य तंत्र: एक आलोचनात्मक विष्लेषण

शोध् आलेख

देवी प्रसाद, शेलेन्द्र कुमार.

प्रस्तुत लेख का मुख्य उद्देश्य भारत में फैली कोरोना महामारी से त्रस्त बहुजन समाज की समस्याओं को समझने के साथ-साथ केंद्र सरकार की अदूरदर्शी नीति तथा भारतीय स्वास्थ्य तंत्र के फेल होने से उत्पन्न सामाजिक अव्यवस्थाओं को तार्किक ढंग से विश्लेषण करना है । परिजनों तक मदद पहुँचाने के लिए सरकारी मशीनरीको कोसते हुए बड़ी बेचैनी से सोशल मीडिया पर अपील करता दिखाई दे रहा था। वहीं उत्तर प्रदेश सरकार उन तक मदद पहुँचाने के बजाय मदद मांगने और करने वालों पर ही कार्यवाही कर रही थी और उन्हें हवालात में डाल रही थी। हालाँकि, ‘सोशल मीडिया पर कोरोना से जुड़ीं शिकायतें और मदद संबंधी पोस्ट पर सरकार की कार्रवाइयों पर सुप्रीम कोर्ट ने नाराजगी जताई तथा कोरोना काल में स्वास्थ्य से जुड़े मुद्दों पर सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट ने सरकारों को चेताया कि वे सोशल मीडिया पर लिखने वालों के साथ बुरा बर्ताव बंद करे, वर्ना इसे कोर्ट की अवमानना माना जाएगा।’1

भारत का पीड़ित वर्ग सोशल मीडिया पर अपने बीमार परिजन को अस्पताल में बेड, ऑक्सीजन, रेमडेसिवीर और प्लाज्मा दिलाने के अलावा विभिन्न महानगरों से पलायित मजदूरों की जीविका को लेकर अपनी बात खुलकर रख रहा था। जिसके कारण भारत का यह नव-उदित वर्ग सरकार की आँखों का किरकिरी बना हुआ था। हालांकि सोशल मीडिया पर ऑक्सीजन, रेमडेसिवीर और प्लाज्मा मांगने के पीछे का उद्देश्य किसी अपने की मदद करना होता था न कि सरकार की आलोचना करना। उनका मकसद किसी मासूम की जान बचाना था, क्योंकि सोशल मीडिया पर न्याय के लिए गुहार लगाना ही उनकी आखिरी आस होती थी। फेसबुक, ट्विटर, आदि सोशल मीडिया प्लेटफार्म पर लोगों ने कई हैशटैग का सहारा लिया और मानवता को बचाने के लिए एक मुहिम चला दी।

इस भयानक आपदा के नकारात्मक भरे माहौल में भी सोशल मीडिया के परिणाम काफी सकारात्मक रहे। ग्रामीण समाज उत्तर भारत के अनेक गाँव में भ्रमण के दौरान ज्ञात हुआ कि आज भी वहां पूरा माहौल अराजक और बोझिल बना हुआ है। ग्रामीण समाज का बहुजन वर्ग अब सरकारी अस्पतालों की तरफ देखना बंद कर दिया है और निजी अस्पताल तक उनकी पहुँच पहले से ही कोसों दूर थी। गाँवों में रह रहे कई लोगों से बात करने से पता चला कि कोरोना की इस भयावह लहर में ग्रामीण समाज में डर का माहौल व्याप्त है, जिसके कारण किसी गम्भीर बीमारी की स्थिति में मरीज को अस्पताल ले जाना बंद कर दिए हैं। चिंकी सिन्हा2 के अनुसार, ‘दरभंगा के मुरैठा में काम करने वाली आशा कार्यकर्ता ममता आजकल ज्यादातर वक्त घर पर ही रहती हैं तथा गांव में घूम-घूम कर लोगों से मास्क पहनने को कहती रहती हैं। अगर किसी को सर्दी-खांसी है, तो उनके लिए दवा का प्रबंध कराती हैं। ग्रामीण लोग अस्पताल नहीं जा रहे हैं, क्योंकि उन्हें लगता है कि वहां जाकर मर जाएंगे।’3 ग्रामीण समाज में रह रहे मजदूर एवं वंचित समाज की सामाजिक पहुँच भी अच्छी नहीं होती है। इसलिए उन्हें अस्पताल में जाने का मन नहीं करता है।

इसके अलावा सोशल मीडिया पर उठाई गई उनकी आवाज भी दबकर रह जाती है और उनकी बातों को अनसुना कर दिया जाता है। सामाजिक संपर्क सीमित होने के कारण उनके द्वारा सोशल मीडिया पर लगाई गई गुहार पर बहुत कम ही ध्यान दिया जाता है, क्योंकि उन्हें पेट भरने के लिए दिनभर मेहनत एवं मजदूरी करनी पड़ती है और सोशल मीडिया पर अपनी बात को लिखने के लिए समय का अभाव होता है। बावजूद इसके कभी-कभी उनकी कुछ अत्यंत मार्मिक पोस्ट वायरल हो ही जाती हैं।

पिछले कुछ दिनों में सोशल मीडिया पर कई तस्वीरें वायरल हुई, जिसमें हमें यह देखने को मिला कि अमुख व्यक्ति के पास पैसे नहीं थे, इसलिए वह ‘अपनी बेटी और पत्नी की लाश को अपने कंधे पर ले जा रहा था।’4

 महामारी के इस दौर में ग्रामीण दलित समाज की वास्तविक परिस्थिति जानने के लिए अनेक लोगों से साक्षात्कार किया गया। इस महामारी के कारण आई विभिन्न समस्याओं पर एक स्थानीय शिक्षक रामनारायण ने खुलकर बात की। रामनारायण दलित समुदाय से ताल्लुक रखते हैं और उत्तर प्रदेश के टंडवा ग्राम में निवास करते हैं। आज की हालात पर वे अपना पक्ष रखते हुए यह समझाने का प्रयास करते हैं कि अप्रैल (2021) के बाद ‘सरकारी अस्पतालों को लेकर कई भ्रांतियां’5 गांवों में फैली है, जिससे दलित समुदाय के मजदूर वर्ग का काफी नुकसान हो रहा है और इस तरह की मनगढ़ंत बातों से कई जानें जा चुकी हैं। टंडवा ग्राम के कई अन्य लोगों से बात करने पर यह ज्ञात हुआ कि दो व्यक्तियों की मौत इस गाँव में हो चुकी है तथा पडोसी गांवों के 20 से 25 वंचित वर्ग के लोग उचित इलाज के अभाव में अपनी जान गवां चुके हैं।

रामनारायण कहते हैं कि “यह भी देखने में आया कि पैसे के अभाव में परिजन अस्पताल से लाशों को ले जाने से मना कर दे रहें हैं, क्योंकि एम्बुलेंस से लेकर लाश को जलाने तक हर जगह पैसे की जरूरत पड़ती है।” हालांकि कई समाचार पत्र भी इनकी बातों की पुष्टि करते हैं। सोशल मीडिया पर यह बात भी सामने आई है कि श्मशान घाटों पर अव्यवस्था फैली हुई थी और लोग सरकारी तंत्र को कोसते हुए अपनों को मुखाग्नि दे रहे थे। सोशल मीडिया पर अफरा-तफरी के कई वीडियो वायरल हो रहे थे।

आज भी स्थिति बहुत अच्छी नहीं है। स्वास्थ्य प्रणाली पूरी तरह से चरमरा जाने के बाद लोग स्वेच्छा से अपनों के बीच घर पर ही रहकर प्राणोत्सर्ग करना पसंद कर रहे हैं। इसलिए सोशल मीडिया पर तंज भरे लहजे में यह बात अक्सर कही जाती है कि ‘सरकारी मशीनरी लाशों के आंकड़े छुपाने में लगी है, हालाँकि नदियाँ कभी झूठ नहीं बोलती।’ शायद उनका इशारा गंगा और यमुना में सड़कर तैर रही लाशों की तरफ होता है, जिसे जानवर नोच-घसीट रहे हैं। उपरोक्त संदर्भ में सौतिक बिस्वास लिखते हैं कि ‘अंग्रेजी अखबार ‘हिंदू’ ने अपनी एक रिपोर्ट मेंबताया कि 16 अप्रैल को गुजरात के सात शहरों में कोविड प्रोटोकॉल के तहत 689 शवों का दाह संस्कार किया गया था, जबकि सरकारी आंकड़ों के मुताबिक उस दिन पूरे राज्य में कोरोना के कारण 94 लोगों की मौत हुई थी।’6 हालाँकि तथ्यों को छिपाने तथा उससे उत्पन्न भयावह परिणामों के संदर्भ में उच्च-न्यायालय ने भी राज्यों को कई बार आगाह कर चुका है।

कोरोना और ग्रामीण समाज विजदान मोहम्मद कवूसा (बीबीसी, 7 मई, 2021) लिखते हैं कि ‘सार्वजनिक तौर पर उपलब्ध डेटा ‘हाउ इंडिया लिव्स’ के आधार पर 700 जिलों में कोरोना संक्रमण के मामलों को दर्ज किए गए, पर बीबीसी मॉनिटरिंग के शोध में पाया गया है कि कोरोना वायरस अब ग्रामीण इलाकों में तेजी से अपने पैर पसार रहा है। संक्रमण की गति में उन जिलों में तेजी देखी गई, जहां 80 फीसद आबादी ग्रामीण इलाकों में है। यहां संक्रमितों का आंकड़ा वर्ष 2020 के शुरूआत में 9.5 फीसद था, वहीं 17वें सप्ताह अप्रैल 2021 के खत्म होने तक 21 फीसद हो गया था।’7

व्यक्तिगत अध्ययन पूर्वी उत्तर प्रदेश के सुल्तानपुर (कुरेभार ब्लॉक) के अनेक गांवों में भ्रमण करने के दौरान यह ज्ञात हुआ कि सैकड़ों दलित-बहुजन श्रमजीवी, मेहनतकस व्यक्ति कोरोना महामारी के चलते अपनी जान गवां चुके हैं। जमीनी हालात की पड़ताल करने के लिए अनेक पीड़ित परिवार से बात की तथा सामाजिक-आर्थिक कारकोंको समझने का प्रयत्न किया। उदाहरण स्वरूप, मुंबई में मजदूरी करने वाले मंगरू पाल को लॉकडाउन के कारण अपने घर वापस आना पड़ा। उनका घर जिला मुख्यालय से लगभग 18 किलोमीटर दूर है, जब उसकी पत्नी बीमार हुई, तब उसने सरकारी जिला अस्पतालमें भर्ती कराने के उद्देश्य से एक निजी एम्बुलेंस किराए पर मंगवाई। लेकिन अस्पताल पहुँचने पर पता चला कि अस्पताल में बेड खाली नहीं है। उन्हें सोशल मीडिया पर यह जानकारी मिली की पास के दूसरे अस्पताल में कुछ सीटें खाली हुई हैं। इसके बाद वह 10 किलोमीटर दूर दूसरे अस्पताल में अपनी गंभीर रूप से बीमार पत्नी को भर्ती करवाने के लिए ले जाने लगे, मगर आधे रास्ते में ही उनकी पत्नी का देहावसान हो गया।

इसी प्रकार कुछ अन्य मृतक व्यक्ति के परिजनों से बात करने पर मालूम हुआ कि मार्च से मई के बीच लोग दम तोड़ते रहे, क्योंकि अस्पतालों में जगह की कमी होने के कारण नए मरीजों को भर्ती नहीं किया जा रहा था। जिसके फलस्वरूप न तो इन मृतकों का नाम सरकारी दस्तावेजों में दर्ज हो पाया और न ही मरने का वास्तविक कारण ही पता लग पाया तथा ऐसे में पीड़ित परिवार को सरकारी मुआवजा मिलने का ख्याल भी अधूरा रह जाता है। उपरोक्त संदर्भ में यदि हम ‘आयुष्मान भारत-च्डश्र।ल् योजना की बात करें, तो आंकड़े यह दर्शाते हैं कि पिछले साल इस स्कीम के तहत सिर्फ चार लाख लोगों का इलाज हुआ है, जबकि प्रतिदिन लाखों की संख्या में लोग कोरोना से संक्रमित हो रहे थे।’8

 ऊमेन सी. कुरियन के अनुसार, “इस सरकार की दिक्कत यही है कि ये यह डेटा साझा नहीं करती है। सरकार चार लाख मरीज के बारे में बात कर रही है, ये सभी मरीज किस हाल में थे, किस राज्य में कितने थे, ये भी बताने में इन्हें दिक्कत है, तो फिर समझा जा सकता है कि ये क्या छुपाना चाह रहे हैं।”9

निष्कर्ष

पिछले एक वर्षों से इस महामारी के कारण बहुसंख्यक श्रमजीवी वर्ग बेरोजगार होकर घर पर बैठा हुआ है, ऊपर से मंहगी स्वास्थ्य सुविधा के कारण उसे दोहरी मार पड़ रही है। इसलिए भारत सरकार भी कोरोना के टीका को मुफ्त में लगाने का दावा कर रही है। पंजाब केसरी की रिपोर्ट के अनुसार, “देश  की सर्वोच्च अदालत ने केंद्र की टीकाकरण नीति को सवालों के घेरे में लाकर खड़ा कर दिया है। सुप्रीम कोर्ट ने 18 से 44 वर्ष की आयु के वैक्सीनेशन नीति को प्रथमदृष्टया अतार्किक बताया है।”10 केंद्र सरकार की अदूरदर्शी सोच के कारण अन्य देशों की तुलना में भारत वैक्सीन लगाने की प्रक्रिया में भी काफी धीमा है, जिसके कारण कोरोना से लड़ाई में हम विवश नजर आते हैं।

टीकाकरण और भारत की स्थिति

अगर हम आंकड़ों पर दृष्टि डालें तो यह पाते हैं कि अमरीका (40.7 प्रतिशत),11 फ्रांस (38.40 प्रतिशत),12 जर्मनी (40.8 प्रतिशत),13 चिली (54.77 प्रतिशत), मंगोलिया (56.51 प्रतिशत), हंगरी और बहरीन (53 प्रतिशत) आदि देशों ने आधी से ज्यादा आबादी को कोविड का प्रथम टीका दे दिया है। बल्कि भारत वैक्सीन उत्पादन के क्षेत्र में अग्रणी होने के बाद भी अपनी आबादी का मात्र 12 प्रतिशत को अभी तक पहला डोज दे पाया है।14 वहीं भारत में कोरोना वैक्सीन के दूसरे डोज की बात करें तो पाएंगे कि मात्र 3.2 प्रतिशत लोगों को ही यह मिल पाया है। भारत में

टीकाकरण की वर्तमान गति औसतन 20 लाख दैनिक खुराक से लगभग दुगनी (50 लाख तक) करता है, तो

दिसम्बर 2021 तक 50 प्रतिशत आबादी का टीकाकरण हो सकेगा।15

कोरोना महामारी और भुखमरी

कोरोना महामारी और भुखमरी का गहरा नाता रहा है। श्रम और रोजगार मंत्रालय के अनुसार असंगठित क्षेत्र में करीब 42 करोड़ श्रमिक कार्य करते हैं। वहीं, सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकोनॉमी के मुताबिक 12.2 करोड़ भारतीयों ने कोरोना काल अप्रैल 2021 में अपनी नौकरी और रोजगार खो चुके हैं।16 कोरोना महामारी के कारण सरकार को बार-बार लॉकडाउन करना पड़ रहा है, जिसका असर असंगठित क्षेत्र में कार्यरत श्रमजीवी वर्ग तथा छोटे एवं मझोले दुकानदारों पर अधिक पड़ रहा है। “काम बंद हो जाने और ‘रोज-कमाने, खाने’ वाला वर्ग महामारी से सबसे अधिक प्रभावित हुआ है, लेकिन हुकूमत के जरिए दी गई राहतों में ‘क्लास बायएस’ यानी एक खास वर्ग के लिए पूर्वग्रह साफ देखा जा सकता है।”17 इस लॉकडाउन के फलस्वरूप आर्थिक विषमताएं बढ़ रही हैं और दलित-पिछड़े वर्ग से आने वाले श्रमजीवी वर्ग पर काफी विपरीत असर पड़ रहा है। यह परिस्थिति उन्हें और अधिक विपन्नता की ओर ढकेल रही है।18 जिसके फलस्वरूप भारतीय समाज का निचला तबका भुखमरी के कगार पर खड़ा है।

कोरोना महामारी और प्राथमिक  शिक्षा

सरकारी प्राथमिक विद्यालयों में पढ़ने वाले विद्यार्थियों की सामाजिक पृष्ठभूमि का अध्ययन करने के उपरांत ज्ञात हुआ कि 90 प्रतिशत से अधिक बच्चे पिछड़ी जातियों तथा अनुसूचित जातियों से हैं। लॉकडाउन के कारण कई महीनों से सरकारी स्कूल बंद पड़े हैं और इन बच्चों के घरों में मोबाइल या टीवी की उपलब्धता नहीं होने के कारण सरकार द्वारा चलाई जा रही ऑनलाइन शिक्षा व्यवस्था से ये बच्चे कोसों दूर हैं। अब इन बच्चों पर कई नकारात्मक परिवर्तन स्पष्ट रूप से दृष्टिगोचर हो रहे हैं। टंडवा माध्यमिक विद्यालय में पढ़ने वाला मनीष वर्तमान समय में कक्षा आठ में पढ़ता है और वह हमेशा कक्षा में अव्वल रहा है, लेकिन पिछले एक साल से स्कूल बंद होने की वजह से उसकी पढ़ाई में रूचि खत्म हो चुकी है। अब मनीष दो पहिया वाहनों की मरम्मत करने की सोच रहा है। वहीं टंडवा गाँव की कोमल इंटर कॉलेज नटोली की छात्रा है। उनसे बात करने पर ज्ञात हुआ कि कक्षा सात से उन्हें पदोन्नति करके अब कक्षा आठ में कर दिया गया है। कोमल अभी भी हिंदी और अंग्रेजी की किताब पढ़ नहीं पाती हैं। उन्हें घर के सदस्यों के नाम हिंदी और अंग्रेजी में लिखने में भी दिक्कत महसूस होती है। यह कहानी सिर्फ उन दो दलित बच्चों की नहीं है, अपितु ऐसे बच्चे उत्तर प्रदेश में लाखों की तादाद में हैं, जिनके सपने एवं सुनहरा भविष्य कोरोना महामारी ने निगल ली है। इसके अतिरिक्त सरकार को ऐसे बच्चों को आधुनिक उपकरण दिलाने में कोई दिलचस्पी भी नहीं है। सरकार इन बहुजन समाज के वंचित बच्चों को सिर्फ ‘मध्याह्न भोजन योजना’ के तहत कुछ किलो अनाज देकर कागजी खानापूर्ति कर लेती है, लेकिन इनकी वास्तविक जरूरतों को हमेशा अनदेखा कर दिया जाता है।

कालाबाजारी, सोशल मीडिया और मददगार

जहाँ एक तरफ, स्वास्थ्य क्षेत्र में कालाबाजारी के कारण व्याप्त अनेक नकारात्मक बातें हमारे सामने आ रही हैं, वहीं दूसरी तरफ रेमडेसिविर इंजेक्शन, दवाइयाँ, ऑक्सीजन और बेड दिलाने के नाम पर नैतिक रूप से पतित लोग अपनी जेब भरने में लगे हैं। इस तरह से ऐसे लोग आपदा में अवसर ढूढ़ रहे हैं और इसी को कमाई का जरिया बना रहे हैं। हालांकि अच्छे लोगों की भी कमी नहीं है। आज सोशल मीडिया के जरिये  देश-विदेश में बैठे लोग जरूरतमंद लोगों के लिए आगे आकर मदद के लिए हाथ बढ़ा रहे हैं। ऐसे लोग पैसे की मदद से लेकर, दवाईयां, तथा खाना बाँटने तक का कार्य स्वेच्छा से कर रहे हैं। इस संदर्भ में विकास गुप्ता (2021) लिखते हैं कि ‘फेसबुक तथा इंस्टाग्राम पर हैशटैग रेमडेसिवीर पर 27 हजार से ज्यादा लोगों ने पोस्ट किया और वहां पर मददगारों का समूह तेजी से सक्रिय हो गया।’19 अनेक लोगों का मानना है कि सरकार ने राष्ट्रीय हितों को दरकिनार किया तथा पार्टी हितों को ज्यादा वरीयता दी। जिसके फलस्वरूप भारत की छवि वैश्विक पटल पर धूमिल हुई है। जनमानस के द्वारा सार्वजनिक समारोह में कोरोना प्रोटोकाल का पालन नहीं किया गया। जिसके परिणाम स्वरूप संक्रमितों की संख्या में तेजी से इजाफा हुआ, जिसके कारण देश में देखते ही देखते स्वास्थ्य तंत्र अपंग बन गया तथा हजारों मासूमों को मौत के मुंह में जाने से रोका नहीं जा सका। इस महामारी में सरकारी मशीनरी को पूरी तरह से फेल पाया गया। इसलिए इसे संस्थानिक हत्या करार दिया जाय तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी।

आज भी इस महामारी के दौर में पीड़ित लोग संयमित व्यवहार का परिचय दे रहें हैं। वे सभी एक जिम्मेदार नागरिक की भांति सकारात्मकता के साथ आने वाली चुनौतियों का सामना कर रहे हैं। लोग सरकारी मशीनरी से निराश तो हैं, मगर अभी भी उनमें एक आशा की किरण बची हुई है और सकारात्मकता के साथ कर्तव्यों का निर्वहन कर रहे हैं। आज नेताओं को इस महामारी के दौर में पार्टी हितों को दरकिनार करते हुए जनता के साथ मिलकर कार्य करना होगा और भारतीय सभ्य समाज को भी इससे एक सीख लेने की महती आवश्यकता है।

संदर्भ

1. Retrieved on 25/05.2021 from https://hindi.asianet news.com/national-news/police-action-againstpeople-seeking-help-on-social-media-in-coronacrisis-supreme-court-tells-important-decision-kpaqsdhcr 

2. Retrieved on 26/05.2021 from https://www.bbc. com/hindi/india-57179450 

3. Retrieved on 25/05.2021 from https://www. amarujala.com/photo-gallery/punjab/jalandhar/ video-of-man-carrying-dead-body-of-his-daughteron-his-shoulders-viral-in-jalandhar-of-punjab

4. धूस लेकर मरीज को भर्ती करना, सरकारी अस्पतालों में संक्रमण के अधिक खतरे, अकुशल डाक्टर, मंहगी दवाईयां आदि प्रकरण से ग्रामीण भयभीत होते हैं।

5.Retrieved on 30/05.2021 from https://www.bbc.com /hindi/india-57077816 

6.Retrieved on 27/05.2021 from https://www.bbc.com/ hindi/india-57010300

7 उमेन  सी. कुरियन ऑब्जर्वर रिसर्च फाउंडेशन के साथ सीनियर फेलो भी हैं

8.Retrieved on 27/05.2021 from https://www.bbc.com /hindi/india-57132959

 9. Retrieved on 27/05.2021 from https://www. punjabkesari.in/national/news/the-supreme-courtraised-questions-on-the-vaccination-policy-of-thecenter-139345

10  Our world in data के अनुसार टीका देने के मामले में

 भारत 100 देशों से पीछे है।

11. Retrieved on 25/05.2021 from https://www. beckershospitalreview.com/public-health/statesranked-by-percentage-of-population-vaccinatedmarch-15.html 

12. Retrieved on 25/05.2021 from https://www. sortiraparis.com/news/in-paris/articles/239732- vaccination-in-france-how-many-people-arevaccinated-as-of-datacovid-confirmedfr/lang/en 

13. Retrieved on 25/05.2021 from https://www. thelocal.de/20210526/how-many-people-havebeen-vaccinated-against-covid-so-far-in-germany/ 

14. Retrieved on 25/05.2021 from https://www. nytimes.com/interactive/2021/world/covidvaccinations-tracker.html 

15. Retrieved on 25/05.2021 from https://www. bloombergquint.com/coronavirus-outbreak/indiascovid-vaccine-policy-all-you-need-to-know 

16. Retrieved on 25/05.2021 from https://hindi. news18.com/blogs/sumit-verma/unorganizedsector-situation-challenge-and-government-effortsin-the-corona-period-3189769.html 

17- QSly eksgEen vyh (2020) Retrieved on 26/05.2021 from https://www.bbc.com/hindi/india-52038983 

18. Retrieved on 27/05.2021 from https://www.bbc. com/hindi/india-52038983 

19. Retrieved on 25/05.2021 from https://www.patrika. com/miscellenous-india/social-media-is-becominga-support-for-corona-patients-6807785/

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लेखक: समाजशास्त्र विभाग,

हैदराबाद विश्वविद्यालय, गचीबावली,

हैदराबाद-500046, तेलंगाना में डॉक्टरल फेलो हैं।

ईमेल: 

लेखक: शोध छात्र, प्राचीन इतिहास विभाग,

श्री गाँधी पी.जी. कॉलेज, मालटारी, आजमगढ-

276138।

ईमेल: 


कोरोना महामारी के कारण वर्ष (2020) काफी मुश्किलों और चुनौतियों से भरा साबित हुआ तथा भारत के साथ-साथ पूरी दुनिया इस महामारी से जूझती नजर आई। इस महामारी को समझने के लिए विभिन्न शोध संस्थान और उससे जुड़े वैज्ञानिक साल भर अपने स्तर से कार्य करते रहे। इसके बाद वर्ष के अंत तक कोरोना महामारी के जाल से मुक्त होने के लिए टीके बनाने का भी काम किया। जिसके फलस्वरूप, वर्ष 2021 की प्रथम तिमाही में भारत की विभिन्न राजनीतिक पार्टियां कोरोना जैसी घातक महामारी पर विजय पाने को लेकर आशान्वित दिखाई दे रहीं थी। भारत के पड़ोसी देशों को भी कोरोना वैक्सीन को लेकर भारत से काफी अपेक्षाएं थी। अनेक राजनीतिक दल राष्ट्रीय हितों को ताक पर रखकर चुनाव प्रचार अभियान में मशगूल थे। पार्टी के हितों को ध्यान में रखते हुए तथा इस वैश्विक महामारी को नजरअंदाज करते हुए कुम्भ मेला जैसे हिन्दू धार्मिक आयोजनों को अनुमति दी गई। जिसके कारण इस महामारी को फिर से फैलने में मदद मिली। जिसके कारण कुम्भ मेला में स्नान करने के लिए लाखों की भीड़ इकठ्ठा हुई थी। आज उसी गंगा में सैकड़ों की संख्या में मानव की तैरती हुई लावारिश लाशें सम्पूर्ण सामाजिक-राजनीतिक तंत्र पर प्रश्न-चिह्न खड़ा कर दिया है। जिससे भारत की छवि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर धूमिल हुई है। इस वर्ष मार्च-अप्रैल में कोरोना की दूसरी लहर के कारण चारों तरफ अफरा-तफरी फैल गई तथा स्वास्थ्य क्षेत्र बहुत बुरी तरह से प्रभावित हुआ। कोरोना से उत्पन्न विकट परिस्थिति के कारण वर्ष 2021 का अप्रैल और मई का महीना भारत में काफी अफरा-तफरी और अराजकता से भरा था। सम्पूर्ण सरकारी तंत्र लाचार नजर आया तथा अनेक राज्यों की सरकारें एवं केंद सरकार जवाबदेही से अपना-अपना पल्ला झाड़ती नजर आई। अप्रैल और मई के दुष्कर महीनों में मानवीय संवेदनाओं का पतन स्पष्ट रूप से देखा एवं महसूस किया जा सकता था। मेडिकल क्षेत्र में कालाबाजारी अपने चरम पर थी और ऑक्सीजन तथा रेमडेसिवीर जैसी मूलभूत जरूरत की वस्तुओं की  भयानक कमी की वजह से हजारों लोगों की जानें चली गई। नैतिक रूप से पतित दलाल लोग अस्पताल के बेड दिलाने से लेकर, दवाइयों एवं उपकरणों को मंहगे दाम पर बेचकर अपनी जेब भरने में लगे रहे और सरकारी मशीनरी तंत्र उन पर नकेल कसने में असहाय नजर आया। द्वितीय लहर के कारण, दूसरे देशों को दी जाने वाली वैक्सीन के निर्यात पर रोक लगा दी गई, जिसके परिणाम स्वरूप अब पड़ोसी मुल्कों को भी भारत से कोविशील्ड वैक्सीन पाने की आस धूमिल हो गई है, इसलिए वे चीन तथा अमेरिका की तरफ जाने को मजबूर हो गए हैं। जिसके फलस्वरूप पड़ोसी देशों के साथ भारत की जवाबदेही पर प्रश्नचिह्न लगना लाजमी हो गया है।

सोषल मीडिया और प्रषासन

कोरोना महामारी की दूसरी लहर के कारण भारत में मची भारी तबाही से अस्पतालों में अफरा-तफरी का माहौल था। प्रत्येक दिन देश में तीन लाख से अधिक कोरोना के मामले दर्ज किए जा रहे थे और हजारों लोग अपनी जान भी गवां रहे थे। इस तरह की परिस्थितियों में जीवन और मौत के बीच सोशल मीडिया एक पुल बना हुआ था। बहुजन समाज अपने सगे-संबंधियों एवं 

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