Sunday, July 27, 2014

मुन्शी चन्द जयंती के मौके पर

मुन्शी  चन्द जयंती के मौके पर 
मुंशी प्रेमचंद ने लगभग 300 कहानियां और 14 उपन्यास लिखे । जन्म 31 जुलाई 1880  को हुआ । 8  अक्टूबर 1936 को चल बसे । एक रागनी के माध्यम से :
बनारस तैं  चार मील की दूरी यो लमही गाम सुण्या होगा ॥ 
इसे गाम का रहने आला था प्रेम चन्द नाम सुण्या होगा ॥ 
असली  नाम धनपत राय यो उनका गया बताया भाई 
तांगा तुलसी मैं दिन काटे खस्ता हाल गया जताया भाई 
 लाल गंज गाम मैं पढ़ने खातर इनको गया खंदाया भाई 
इसे हालात मैं पलकै नै यो कलम गया था पिनाया भाई 
अल्हड बालकपन बीत्या खेल कै  सुबो शाम सुण्या होगा॥ 
इसे गाम का रहने आला----------------------------------॥ 
बालकपन मैं माता जी बहोत घणी  बीमार होगी भाई
दिनों दिन बढ़ी बीमारी खान पीन तैं लाचार होगी भाई 
घर मैं घने हाथ भींचरे थे  मुश्किल उपचार होगी भाई 
चल बसी माता सोचै बैठ्या जिंदगी बेकार होगी भाई 
सात साल की उम्र याणी माता का इंतकाम सुण्या होगा ॥
 इसे गाम का रहने आला-----------------------------------॥ 
माँ का जगह बहन बड़ी नै घर मैं ली बताई भाईयो 
शादी हुए पाछै बेबे बी सासरै गयी खन्दाई भाईयो
दुनिया सूनी लागी जिंदगी मुश्किल बितायी भाईयो 
अपने पात्रों मैं भी कथा कई बरियां दिखाई भाईयो
उनकी कहानियों मैं यो किस्सा हमनै तमाम सुण्या होगा ॥ 
 इसे गाम का रहने आला----------------------------------॥ 
चुनार गाम मैं मास्टरी की मुश्किल तैं नौकरी थ्याई रै 
बालकपन मैं ब्याह होग्या इब माड़ी उल्गी साँस आई रै 
इंटर पास करी फेर पूरी  बी ए तक की करी पढ़ाई रै
जगह जगह घणे तबादले जान जीवन सहमी आई रै 
रणबीर लिखे कहनी उपन्यास उन्मैं पैगाम सुण्या होगा ॥ 
 इसे गाम का रहने आला---------------------------------॥ 





Monday, July 21, 2014

नुक्कड़ पर प्रतिरोधी नाटक

नुक्कड़ पर प्रतिरोधी नाटक

डा.सुभाष चन्द्र, हिन्दी-विभाग
कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय, कुरुक्षेत्र


नुक्कड़ नाटक आज जीवन्त विधा के रूप में समाज में विस्तार पा रहा है। जन-सामान्य की समस्याओं व संघर्षों की अभिव्यक्ति के लिए छोटे-बड़े शहरों में अनेक नुक्कड़-नाटक मण्डलियां कार्य कर रही हैं। दिल्ली में ‘जन नाट्य मंच’, ‘निशान्त नाट्य मंच’, ‘दिशाःजन सांस्कृतिक मंच’, ‘एक्ट वन’, चण्डीगढ में ‘जनवादी रंगमंच’, बीकानेर में ‘रंग भारती’, आगरा में ‘रंगकर्मी’, रायपुर में ‘हस्ताक्षर’, ‘अंवतिका’, ‘रचना’, ‘सिलसिला’, जबलपुर में ‘विवेचना’, पटना में ‘जन नाट्य संघ’, ‘अनागत’, ‘सर्जना’, ‘जनवादी कला एवं विचार मंच’,‘कला संगम’ तथा रांची में ‘रंगमंच’1 आदि अनेक नाटक मण्डलियां नुक्कड़ नाटकों के माध्यम से जनता की समस्याओं को अभिव्यक्त कर रही हैं और उनको दूर करने के लिए जन-संघर्ष को दिशा भी दे रहीं हैं और मजबूती भी प्रदान कर रही हैं। यह कहना अतिश्योक्ति नहीं होगा कि नुक्कड़ नाटक भी एक आन्दोलन की तरह से विस्तार पा रहा है। नुक्कड़ नाटक का कितना महत्व एवं विस्तार का अनुमान इस तथ्य से सहज ही लगाया है कि आन्ध्रप्रदेश में ‘प्रजा नाट्य मण्ड़ली’की ग्यारह सौ से अधिक ईकाइयां हैं जिसमें लगभग सत्रह हजार से अधिक कलाकार शामिल हैं। हरियाणा जैसे राज्य में जहां न तो नाटकों की कोई समृद्ध परम्परा रही है और न ही जन-आन्दोलन ही इतने प्रखर रहे हैं वहां भी विभिन्न शहरों में ‘जन नाटय मंच’, ‘जतन नाटक मंच’ ‘शहीद उधम सिंह नाटक मंच’ आदि नुक्कड़ नाटक के समूह लगभग हर जिले में मौजूद हैं। जो ‘हरियाणा ज्ञान-विज्ञान समिति’के मार्गदर्शन में नव-जागरण के लिए नाटकों का बहुत सराहनीय ढंग से प्रयोग कर रहे हैं। हरियाणा में,नुक्कड़ नाटकों में स्थानीय समस्याओं और उनके लिए किए जा रहे संघर्षों की अभिव्यक्ति के लिए काम करने वाले कलाकारों की संख्या भी पांच सौ से कम नहीं है।
यद्यपि भारत में चालीस के दशक में जब साम्राज्यवादी अंग्रेजों की लूट और शोषण से मुक्ति पाने का संघर्ष निर्णायक दौर में पहुंचा तो ‘इप्टा’के क्रान्तिकारी आन्दोलन के माध्यम से नुक्कड़ नाटक का जन्म हुआ। बलराज साहनी, राजेन्द्र सिंह बेदी, ख्वाजा अहमद अब्बास, कैफी आजमी जैसे जनता के प्रति प्रतिब कलाकार इसमें जुड़े। हालांकि यह आन्दोलन बम्बई और कलकत्ता जैसे बड़े शहरों तक ही सीमित था, लेकिन यह तो बिना किसी हिचक के कहा जा सकता है कि नुक्कड़ नाटक तो जनवादी मूल्यों और विचारधारा का बच्चा है। स्वतन्त्रता के बाद ज्यों-ज्यों जन-आन्दोलनों का विस्तार हुआ त्यों-त्यों नुक्कड़ नाटक की मण्डलियां भी एक शहर से दूसरे शहर में पनपती गई।
असल में नुक्कड़ नाटक का जन्म व उभार पूरी दुनिया में समाज में जनवादी-आन्दोलनों के साथ एक राजनीतिक जरूरत के तहत हुआ है। यदि विश्व में नुक्कड़ नाटक के जन्म पर नजर डालें तो पता चलेगा कि रूस में समाजवादी स्थापना के बाद सांस्कृतिक-आन्दोलन के लिए रंगमंच के प्रयोग के दौरान और द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान नाजीवाद और फासीवाद के विरूद्ध सेना को तैयार करने के लिए इसका प्रयोग किया गया। चीन में क्रांति के लिए किसानों को तैयार करने के लिए तीसरे दशक में इसका जन्म हुआ तो स्पेन में गृहयुद्ध के दौरान, वियतनाम में जापानी, फ्रांसीसी और अमेरिकी हमलावरों के विरूद्ध युद्ध के दौरान, क्यूबा में क्रांन्ति के तुरन्त बाद और पूरे लैटिन अमेरिका व अफ्रीका में राष्ट्रीय मुक्ति-संग्राम के दौरान और अमेरिका में मैक्सिकी,खेत मजदूरों और नीग्रो के बीच संघर्ष और संगठन के साधन के रूप में लोकप्रिय हुआ।2
भारत में यद्यपि रामलीला व रासलीला आदि की लोक-प्रस्तुतियों में नाटक के इस रूप के पैदा होने की संभावना मौजूद थी,परम्परागत तौर पर इस तरह के प्रहसन या तो राजाओं की खिल्ली उड़ाकर उनके प्रति अपने रोष को जताने का माध्यम थी या फिर धार्मिक भूख को शान्त करने का जरिया। इन दो तत्त्वों की अधिकता के कारण यह एक मनोरंजन प्रधान विधा ही बनकर रही,इसमें कोई विशेष गुणात्मक परिवर्तन नहीं हुआ। इसलिए भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने अंग्रेजी शासन की पोल खोलने की सोची तो उनको यह सशक्त माध्यम तो नजर आया,पर वे इसकी सीमा को नहीं लांघ सके। उनके नाटकों के कथ्य बेशक अंग्रेजी शासन की नीतियों के बारे में जनता को आगाह करते थे,लेकिन उनमें हास्य की अधिकता होने के कारण वे मनोरंजन करने तक ही सीमित रहे और अंग्रेजी शासन की असलियत बताने और उसके विरूद्ध आन्दोलनकारी चेतना निर्माण करने में आंशिक रूप से ही सफल हुए। राजनीतिक स्पष्टता और जनता के प्रति नाटककार की प्रतिबद्धता के कारण नुक्कड़ नाटक की जिस तरह की पहचान बनी उस दृष्टि से भारतेन्दु के नाटकों को नुक्कड़ नाटकों की श्रेणी में तो बेशक नहीं रखा जा सकता। लेकिन यह भी सच है कि जब कलाकारों ने अपना सामाजिक दायित्व निभाने के लिए नुक्कड़ नाटक को चुना तो उनको नाटक के इस परम्परागत रूप ने बहुत मदद की,बल्कि यह भी कहा जा सकता है कि उन्होंने इस रूप की मनोरंजन-प्रधानता को दूर करके इसका राजनीतिक संस्कार किया। जनता तक पहुंच को देखते हुए कभी सरकारों ने भी अपने प्रचार के लिए इसका इस्तेमाल करना चाहा तो कभी प्रतिक्रियावादी ताकतों ने भी लेकिन नुक्कड़ नाटक के रूप में ही कुछ बात है कि वे अपने मकसद के लिए इसका प्रयोग नहीं कर सके। नुक्कड़ नाटक पूरी तरह जनता के जीवन की बेहतरी का साथी बना इसीलिए यह उसी तरह उपेक्षित भी रहा, जैसे कि जनता रही।
मध्यवर्ग की मानसिकता से ग्रस्त विद्वानों ने लम्बे समय तक नुक्कड़ नाटक को विधा के तौर पर स्वीकार नहीं किया और साहित्यिक हल्कों में इसके रूप पर चर्चा ही नहीं की। नुक्कड़ नाटक में शुरू से ही बड़े कलाकारों की समृद्ध परम्परा होते हुए भी इसके कलाकारों को असल में तो कलाकार का दर्जा ही नहीं मिला और यदि कलाकार माना भी तो दूसरे दर्जे का। उसकी जन पक्षधरता को तो सराहा, लेकिन कला-पक्ष की घोर उपेक्षा की गई। लेकिन नुक्कड़ नाटक के कलाकारों ने अपनी सामाजिक प्रतिबद्धता के ऐतिहासिक दायित्व को निभाते हुए अविस्मरणीय पहचान बनाई है। सफदर हाशमी तो अपने इस दायित्व के लिए शहीद ही हो गए,जबकि गुरशरण सिंह, माला हाशमी, शमशुल इस्लाम जैसे कलाकार लगातार जनवाद के आड़े आने वाली हर समस्या से अपने नाटकों के माध्यम से जूझ रहे हैं। जनवाद के प्रति यह गहरी निष्ठा ही है कि पंजाब में आतंकवाद के दौरान आतंकवादियों की धमकियों की परवाह न करते हुए गुरशरण सिंह ने पूरे पंजाब में इसके खिलाफ नाटक किए। साम्प्रदायिक दंगों के दौरान शान्ति के लिए तथा मेहनतकश जनता के संघर्षों में शामिल होने के लिए ये कलाकार अपना नाटक लेकर संघर्षरत जनता के बीच पहुंच जाते हैं फिर चाहे वह विश्वविद्यालय के शिक्षकों की हड़ताल हो या कारखानों में काम करने वाले दिहाड़ीदार मजदूरों की। इस दौरान इन कलाकारों को कई तरह के विरोध का सामना भी करना पड़ता है। कितनी ही ऐसी घटनाएं है जबकि नाटक करने से पहले ही पुलिस ने इन्हें गिरफ्तार कर लिया और कितनी ही बार नाटक के कलाकारों को पुलिस की लाठियां भी खानी पड़ी।
स्वतन्त्रता के बाद भारत के शासक वर्ग ने विकास का पूंजीवादी रास्ता अपनाया जो जनता की आकांक्षाएं पूरी नहीं कर पाया। मंहगाई, बेरोजगारी, भ्रष्टाचार जैसी समस्याएं विकराल रूप धारण करती गई और असमान विकास के चलते अलगाववाद, क्षेत्रवाद, जातिवाद जैसी समस्याओं ने जनता की एकता को तार-तार करना शुरू किया। इस स्थिति को देखते हुए जनता के संघर्षशील व जुझारू तबकों ने विरोध करना शुरू किया। किसानों, मजदूरों, स्त्रियों, विद्यार्थियों के छोटे-छोटे आन्दोलनों को नुक्कड़-नाटक ने इसे अभिव्यक्ति दी,जबकि महानगरों तक ही सीमित मुख्यधारा का नाटक जनता से नाता तोड़कर अभिजात्य वर्ग की रुचियों को ही अभिव्यक्त करता था। नाटक में नए-नए प्रयोग तो हो रहे थे लेकिन उनका लोगों से कोई संपर्क नहीं था। ऐसे वक्त में नुक्कड़ नाटक ने जनता की आकांक्षाओं और भावनाओं को अभिव्यक्ति दी।
समाज जब अमीर-गरीब, शोषक-शोषित दो श्रेणियों में बंटा है तो फिर यह भी सच है कि इसमें दो तरह की कलाएं हैं,और उसके दो तरह के मूल्य हैं। एक वे जो ‘कला को मात्र कला के रूप में ही स्थापित करते हैं’और दूसरे वे जो ‘कला को जीवन के लिए’और समाज को बेहतर बनाने में उसकी कुछ उपयोगिता को स्वीकार करते हैं। वर्ग-विभक्त समाज में कला-साहित्य की भूमिका भी वर्गीय होती है। रचना के मूल्य समाज के किस वर्ग के हित में खड़े होते हैं इसके आधार पर ही किसी रचना को जनवाद के पक्ष में या उसके विरोध में कहा जा सकता है। ‘अन्त्यज का हित ही किसी विचार या कार्य के सही, उचित, नैतिक और करणीय होने की कसौटी’ मानने का संदेश देता गांधी जी का जन्तर जनवाद की भी कसौटी कहा जा सकता है। जनवाद का सार ‘स्वतन्त्रता, समानता, भाईचारे’ में निहित है और इन मूल्यों को बढ़ावा देने वाली रचना को जनवाद को पोषित करने वाली श्रेणी में रखा जा सकता है।
किसी भी साहित्यिक रचना की विषयवस्तु अपने रूप का निर्माण स्वयं करती है,लेकिन रूप और विषयवस्तु का यह रिश्ता द्वन्द्वात्मक होता है जहां विषयवस्तु अपने रूप का निर्माण करता है वहीं रूप भी विषयवस्तु को प्रभावित करता है। नुक्कड़ नाटक असल में विषयवस्तु प्रधान विधा है। इसमें जोर ही इस बात पर है कि कलाकार के पास कहने के लिए कोई बात है, जिसे वह जनता तक ले जाना चाहता है। इसकी कथ्य-प्रधानता ने नाटक का भी जनवादीकरण किया है। सामूहिक तौर पर भी नाटक लिखे गए और सबसे बड़ी बात यह कि नाटक-विधा को भी उसके शास्त्रीय खोल से बाहर निकाल कर मुक्त कर दिया। नाटक में जिस तरह कथानक, पात्र-योजना, संवाद, देश-काल-स्थान की एकता, मंचीय-विधान पर बल दिया जाता था उसे नुक्कड़ नाटक ने एक झटके में तोड़ दिया। नुक्कड़ नाटक सार्सी के कथन कि ‘दर्शक के बिना नाटक नहीं’ तथा ब्रेख्त के सिद्धांत पर चलता है।3 नाटक का जनता से संपर्क एवं संबंध हो और बात जनता तक जाए इसीलिए नुक्कड़ नाटक का यह स्वरूप बना है कि कलाकार किसी बड़े ताम-झाम व नाट्य-सेट को लेकर नहीं चलते बल्कि कम से कम सामान के साथ और बिना किसी चमक-दमक के मंच पर होता है। क्योंकि भारी भरकम सामान को उठाना खर्चीला और असुविधाजनक काम तो है ही साथ ही इसमें दर्शक को अपने अन्दर उलझा लेने की गुंजाइश भी रहती है जिससे नाटक की बात दबने की संभावना बन सकती है। मंच के जो नाटक विभिन्न किस्म की साम्रगी प्रयोग करके चमत्कार पैदा करते हैं वे अपने कथ्य को संप्रेषित करने में पूरी तरह सफल ही होते हैं, ऐसा नहीं कहा जा सकता।
नुक्कड़ नाटक का उद्देश्य जनवाद के मूल्यों को प्रसारित करना है इसलिए वे दर्शक को जागरूक करते हैं। और उसे जागरूक करने के लिए वास्तविकता का आभास देने की आवश्यकता नहीं होती। सच्चाई का आभास देने वाली नाट्य टेकनीक में क्षतिपूर्ति की संभावना बनी रहती है। दर्शक को सहलाना, फुसलाना या मात्र सच्चाई बतलाना नुक्कड़ नाटक का उद्देश्य नहीं है,बल्कि उसे जागरूक करना है जो तभी संभव है कि जब दर्शक को हमेशा यह अहसास रहे कि वह एक नाटक देख रहा है। यद्यपि दर्शक की तरफ से तो कोई भी नाटक बेपरवाह नहीं हो सकता, लेकिन नुक्कड़ नाटक के केन्द्र में तो दर्शक ही है। इसीलिए वह यह इन्तजार नहीं कर सकता कि दर्शक उसके पास आयेगा बल्कि वह दर्शक के पास स्वयं ही जाता है। दर्शक तक पहुंचने और उसकी तकलीफ में शामिल होने की प्रबल आकांक्षा ही इसके जनवाद समर्थक कथ्य और रूप को एक विशेष शक्ल देती है। नुक्कड़ नाटक के लिए दर्शक मुख्य है इसलिए दर्शक की भाषा, उसकी मनोरंजन पद्धति, उसका कला बोध नाटक को प्रभावित करता है। वैसे तो नाटक एक ऐसी विधा है जो समसामयिक हुए बिना जिन्दा नहीं रह सकती,लेकिन नुक्कड़ नाटक की तो यह मूलभूत शर्त है। नुक्कड़ नाटक एक ज्वलंत समस्या पर केन्द्रित होकर ही कामयाब हो सकता है। जनता का कोई भी सवाल जो एकदम उठ खड़ा हुआ है वह नुक्कड़ नाटक का विषय बनता है।
नुक्कड़ नाटक की राजनीतिक प्रखरता एवं प्रतिबद्धता की वजह से इसे राजनीतिक प्रोपगण्डा का नाटक होने का आरोप बेशक लगाते रहे हैं,वैसे तो प्रत्येक युग में राजनीति समाज के केन्द्र में रही है और जनजीवन को नियंत्रित व संचालित करने वाली शक्ति रही है,लेकिन वर्तमान लोकतांत्रिक व्यवस्था में राजनीति समाज की चर्चा का केन्द्रीय सवाल है। कोई जागरूक रचनाकार और नागरिक राजनीति से अछूता नही रह सकता। मानव समाज के सामने प्रस्तुत अधिकांश समस्याएं राजनीति की देन हैं और निःसंदेह उनका समाधान भी राजनीति में ही है। कालजयी रचनाएं वही बन सकी हैं जिनमें तत्कालीन राजनीति के मुख्य सवालों व संघर्ष को उजागर करने की क्षमता थी। विमर्श के केन्द्र में सर्वाधिक रहने वाले महाकाव्य रामायण और महाभारत से यदि राजनीति निकाल दी जाए तो इनमें शायद ही कुछ मनुष्य के काम का बचे। भारत के स्वतंत्रता-आन्दोलन के दौरान वही रचनाएं लोकप्रिय हुई जिनमें तत्कालीन राजनीति को विषय बनाया।
वर्ग-विभक्त समाज में राजनीति के भी दो स्वरूप हैं एक शोषक वर्ग की राजनीति तो दूसरी शोषित-पीड़ित वर्ग की राजनीति। यह राजनीति बिल्कुल अलग-अलग और अछूती नहीं है बल्कि इनमें तीखी टकराहट भी है। शासक वर्ग जनता पर शासन करने के लिए उसकी एकता को तोड़ने के लिए उसमें कई तरह के भ्रम व मिथ्या चेतना का प्रचार-प्रसार करता है। उनमें जाति, धर्म, क्षेत्र, भाषा के नाम पर कई तरह की संकीर्णताएं पैदा करता है और एक समुदाय और वर्ग को दूसरे के विरूद्ध इस तरह प्रस्तुत करता है कि वे एक-दूसरे के शत्रु हों। जैसे बिल्लियों की लड़ाई में बन्दर सारे ठाठ लेता है वही शासक वर्ग करता है। जनता के जीवन की बेहतरी के लिए जरूरी है निरन्तर और जुझारू संघर्ष जो उसकी व्यापक एकता में ही संभव है। शासक वर्ग जनता के संगठन की शक्ति को पहचानता है,इसलिए इसे कमजोर करने के लिए भरपूर कोशिश करता है। नुक्कड़ नाटकों में जनता के भाईचारे को तोड़कर उसकी मुक्ति की लड़ाई को कमजोर करने वाली शासक वर्गीय राजनीति को मुख्य विषय बनाया गया है। शोषक शक्तियों ने साम्प्रदायिकता को जन-एकता को तोड़ने के लिए हथियार के तौर पर इस्तेमाल किया है। आजादी से पहले अंग्रेजों ने और आजादी के बाद अंग्रेजों के वारिसों ने इसको अपने आर्थिक व राजनीतिक हितों के लिए प्रयोग किया। साम्प्रदायिकता की राजनीति अन्ततः फासीवाद तक जाती है, जिसमें जनता के तमाम जनवादी अधिकारों का खात्मा हो जाता है। फासीवाद के विरूद्ध संघर्ष में नुक्कड़ नाटक हमेशा सशक्त माध्यम रहा है। जर्मनी के बर्टोल्ट ब्रेख्त ने फासीवाद के विरूद्ध संघर्ष में ही नाटक का नया शास्त्र तैयार किया। नुक्कड़ नाटकों में साम्प्रदायिकता के विभिन्न पक्षों को जनता के सामने उद्घाटित किया है। असगर वजाहत का ‘सबसे सस्ता गोश्त’स्वार्थी नेताओं की टुच्ची राजनीति को सामने रखता है जिनके लिए मात्र सत्ता में बने रहना ही चिन्ता का विषय है और इसके लिए वे किसी भी हद तक जा सकते हैं। इन्सान की जान की उनके लिए कोई कीमत नहीं है। कितनी विडम्बना है कि गाय या सुअर का मांस उनके लिए इतना महत्वपूर्ण है कि इसके लिए वे सर्वश्रेष्ठ प्राणी माने जाने वाले मनुष्य को मार सकते हैं वो भी धर्म के नाम पर। कितना हास्यास्पद है कि पशु की रक्षा के नाम पर मनुष्य की हत्या। जन नाट्य मंच का ‘हत्यारे’नाटक में साम्प्रदायिक दंगों के पीछे काम कर रहे आर्थिक स्वार्थ को दर्शाया गया है। औद्योगिक शहरों में छोटे कारीगरों के रोजगार को समाप्त करने के लिए बड़े उद्योगपति साम्प्रदायिक दंगें करवाते हैं। इस नाटक का उद्योगपति कहता है कि ‘‘चीजों को गौर से देखो। इन कारखानों के रहते हमारे माल की सेल कभी नहीं बढ़ सकती। जब तक बाजार में अलीगढ़ का ताला रहेगा, हमारी इंडस्ट्री पनप नहीं सकती।’’4 अलीगढ, मुरादाबाद, जबलपुर, आदि के दंगों के पीछे यही मुख्य कारण रहा है,धार्मिक भावनाओं को तो इसी के लिए भड़काया गया और उद्योगपतियों ने साम्प्रदायिक दंगें आयोजित करवाए। इससे उन्हें एक तो कुशल श्रमिक सस्ती दर पर मिल गए दूसरे बाजार पर उनका एकाधिकार हो गया। राजनीतिक नेता और पूंजीपतियों के अलावा साम्राज्यवादी शक्तियां भी कथित धार्मिक नेताओं से मिलकर दंगें करवाते हैं। सफदर हाशमी का नाटक ‘अपहरण भाईचारे का’ नाटक दंगों के पीछे की शक्तियों की पहचान करने को कहता है। मदारी-जमूरा के संवाद में जमूरा कहता है कि ‘‘तो मेहरबानों,कदरदानों,अपने दुश्मन को पहचानो। बता दो कि विदेशी पैसा कहां से आ के कहां जाता है,अमरीकन अंबैसी में रोज डिनर कौन खाता है,आग लगवाने वाले पोस्टर कौन छपवाता है, गली-मुहल्लों में त्रिशूल कौन बंटवाता है, अल्ला-ईश्वर के नाम पर सेनाएं कौन बनवाता है, कौन खालिस्तान का नारा लगवाता है।’’5 लोगों में साम्प्रदायिक उन्माद पैदा करने के लिए इतिहास के तथ्यों को तोड़-मरोड़कर इस तरह पेश किया जाता है मानों कि दो धार्मिक समुदाय हमेशा लड़ते रहे हैं और वे कभी साथ-साथ शान्तिपूर्ण ढंग से रहे ही नहीं। जबकि सच्चाई इसके विपरीत है विभिन्न समुदाय न केवल मिलकर रहे हैं बल्कि एक दूसरे से सीखते हुए साझी संस्कृति का निर्माण किया है। ‘मत बांटो इन्सान को’ नाटक इसकी ओर संकेत करता है। नुक्कड़ नाटकों में साम्प्रदायिक दंगों के दौरान हत्या, हिंसा और बर्बरता एवं अमानवीयता के भावुकतापूर्ण चित्र नहीं, बल्कि साम्प्रदायिकता की राजनीति के षडयन्त्रों को उद्घाटित करते हुए इसके वर्गीय स्वरूप को दर्शाया है। बिना धर्मनिरपेक्षता के लोकतांत्रिक व्यवस्था संभव ही नहीं है। साम्प्रदायिकता मूलतः जनविरोधी है और इसकी उत्पति ही अंग्रेजी-शासकों की ‘फूट डालो और राज करो’की नीति के तहत हुआ था। स्वयं को ‘सांस्कृतिक पुरूष’ और ‘शुद्ध संस्कार’ डालने और ‘चरित्र-निर्माण’ करने का ढोंग रचकर आम लोगों को धोखा देते हुए उनमें जो धर्मोंन्माद, रूढियों, अतीतमोह, दूसरे धर्म के लोगों के प्रति घृणा एवं अविश्वास पैदा करने वाले, मन्दिर-मस्जिद के नाम पर देश की शान्ति भंग करने वालों ने बेशक धार्मिक चोला व धार्मिक वाग्जाल अपना रखा हो, नुक्कड़ नाटक बताते हैं कि असल में न तो ये धार्मिक हैं और न ही देश-भक्त। बात भी सही है कि देश तो तभी तरक्की कर सकता है जब इसके निवासियों में आपसी प्रेम,सद्भाव, विश्वास और भाईचारे की भावना मजबूत हो। लेकिन यह इतिहास का तथ्य है कि शासक वर्ग अपना शासन कायम रखने के लिए साम, दाम, दण्ड, भेद की नीति अपनाते हैं और इसे वैध या स्वीकृति के लिए इस तरह पेश करते हैं मानो कि यह दैवीय-ईश्वरीय या प्राकृतिक व्यवस्था हो। चूंकि शासक वर्ग इस बात से भी भलीभांति परिचित है कि मात्र दमन-तंत्र से शासन नहीं किया जा सकता इसलिए वह अपने वर्गीय हितों को सबके हित के तौर पर प्रस्तुत करता है। पूंजीवादी राजनीति के दोगलेपन को प्रमुखता से विषय बनाया गया है। पूंजीवादी शासकों की विडम्बना यह है कि उन्हें स्वयं को दिखाना तो पड़ता है जनता के सबसे बड़े हितैषी। लेकिन वास्तव में वे करते हैं पूंजीप्रधान लोगों की सेवा। इसलिए उनकी राजनीति दो भागों में बंट जाती है। एक जनता को रिझाने के लिए उनकी लोकप्रिय मगर थोथी घोषणाएं दूसरी नीतियों के माध्यम से पूंजी को अधिकाधिक शोषण करने की छूट। नुक्कड़ नाटकों में सत्ता-लोलुप नेताओं,पूंजीपतियों,साम्राज्यवादी शक्तियों और कथित धार्मिक नेताओं के गठजोड़ को उद्घाटित किया गया है। पूंजीवादी राजनीतिक दल सत्ता प्राप्त करने के लिए धनी लोगों से ‘दान’ के रूप में भारी धन लेते हैं और सत्ता हासिल करने के बाद ऐसी नीतियों को लागू करते हैं जिससे जनता के हिस्सा इनकी तिजोरियों में स्वतः ही पहुंच जाता है। जनता के वोट प्राप्त करने के बाद सत्ता में आए कथित ‘जनसेवक’ जनता से दूरी कायम कर लेते हैं। नुक्कड़ नाटकों में राजनीति के दोनों रूपों को साथ-साथ रखते हुए इस राजनीति की असलियत दिखाई है। जनविरोधी राजनीति के रूप को ‘समरथ को नहीं दोष गुंसाई’, ‘काला कानून’, ‘कैसी जनता’ में प्रमुखता उठाया है।
जनता ने जो अधिकार संघर्ष करके प्राप्त किए हैं चाहे वह अभिव्यक्ति का अधिकार हो,शिक्षा का अधिकार हो,शासन सत्ताएं अपने हितों के लिए इनका हनन करती हैं तो जनवाद को स्थापित करने का संघर्ष भी कमजोर पड़ता है। आखिर तो इन अधिकारों के माध्यम से ही जनवाद की स्थापना हो सकती है। नुक्कड़ नाटकों में इसे विषय बनाया है। आपात काल के दौरान कलाकारों की अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता पर पाबन्दी लगी तो इसके विरोध में कई सशक्त नुक्कड़ नाटक आए। जब तत्कालीन तानाशाही शासकों ने घोषणा की कि वही राष्ट्र व देश है तो पूरे देश में इसका विरोध हुआ। शिवराम का नाटक ‘जनता पागल हो गई है’ में इस स्थिति की बहुत प्रभावी अभिव्यक्ति की और यह नाटक इतना लोकप्रिय हुआ कि इतने बरसों बाद भी जब किसी जगह इस तरह की स्थिति आती है तो थोड़ा-बहुत फेर बदल करके इसे प्रस्तुत किया जा सकता है।
जब तक समाज में बराबरी स्थापित नहीं होगी तब तक न तो जनवाद की कल्पना की जा सकती है और न ही शान्तिपूर्ण एवं समृद्ध समाज का ही निर्माण हो सकता है। फिर चाहे असमानता सामाजिक स्तर पर हो या लैंगिक आधार पर हो या फिर आर्थिक ही क्यों न हो। शोषण इस असमानता को बढावा देता है। इसलिए शोषण का विरोध किए बगैर जनवाद संभव नहीं है। नुक्कड़ नाटकों में शोषण के चित्र ही नहीं खींचे गए हैं बल्कि इनके कारण का खुलासा करते हुए इसके निदान की ओर भी संकेत किया गया है। नुक्कड़ नाटक में समस्या चाहे कोई भी उठाई गई हो लेकिन उसका समाधान व्यवस्था परिवर्तन में ही दिखाई देता है। ‘जंगीराम की हवेली’ नाटक में हवेली शोषणकारी व्यवस्था का प्रतीक है, जो इसमें रहने वाले अधिकांश लोगों को आश्रय नहीं दे सकती। हवेली का मालिक यानी शासक वर्ग जब जनता की आंकाक्षाओं पर खरा नहीं उतरता तो वे इसे गिराकर नई हवेली यानी नई व्यवस्था बनाने की बात करते हैं। मौजूदा शोषणकारी व्यवस्था का विध्वंस करके ही नई व्यवस्था का निर्माण संभव है। इस व्यवस्था में गरीबी,बेरोजगारी व मंहगाई का कोई समाधान नहीं है,बल्कि सच तो यह है कि ये इस व्यवस्था की अनिवार्य परिणतियां हैं। यदि लोग गरीब व बेरोजगार नहीं होंगें जो शासक वर्गों को सस्ते श्रमिक कहां से मिलेंगें और मंहगाई के बिना उनको अधिक लाभ कैसे मिलेगा।
पूंजी-प्रधान व्यवस्था का जनवाद के साथ मूल विरोध है। इसमें समस्त अधिकार वही भोग सकता है जिसके पास धन है,प्रकृति व समाज निर्मित समस्त नियामतें और सुविधाएं उसी के हिस्से में है जबकि अधिकांश लोगों के पास तो पेट भर गुजारा करने के लिए भी साधन नहीं हैं। ऐसा नहीं है कि पूंजीवादी-व्यवस्था में वस्तुओं की कमी है। वस्तुओं के गोदाम भरे पड़े हैं, लेकिन जनता की उन तक पहुंच नहीं है। अनाज का इतना उत्पादन होता है कि उसे रखने के लिए गोदाम कम पड़ गए हैं, लेकिन लोग भूख से मर रहे हैं। कपड़े की कोई कमी नहीं,मकान बनाने के लिए प्रयुक्त होने वाले सामान की कोई कमी नहीं। फिर भी लोग इनके लिए तरसते हैं। हां यह बात जरूर है कि इस व्यवस्था की अमानवीयता को छुपाने के लिए इसके अभाव में मरने वालों के लिए पूंजीपतियों के अखबार इनकी मौत को लू या सर्दी से होने वाली मौत बता देते हैं। नुक्कड़ नाटकों में वस्तुओं की जमाखोरी से कृत्रिम अभाव पैदा करके लाभ कमाने नहीं बल्कि लूट मचाने के लिए महाजनों द्वारा की गई कार्रवाइयों को दर्शाया है। यह उसी तरह का घृणित काम है जैसे कि अंग्रेजों द्वारा कृत्रिम अकाल पैदा करके लोगों को भूखे मरने के लिए छोड़ दिया जाता था। धन एकत्रित करने की हवस में खाद्य-पदार्थों में मिलावट करने जैसे अमानवीय कार्य में कुछ भी अनुचित नजर न आने वाले लोगों को वर्तमान व्यवस्था राजनीतिक प्रश्रय देती है। तमाम प्रशासनिक मशीनरी इसे अनदेखा करती है। ‘मशीन’, ‘गांव से शहर तक’, ‘राजा का बाजा’, ‘जंग के खतरे’आदि नुक्कड़ नाटकों में मौजूदा-व्यवस्था के राजनीतिक-अर्थशास्त्र को विश्लेषित करके समझाया है कि यह मूलतः जन विरोधी है।
भारतीय समाज में वर्चस्वी वर्गों की विचारधारा पितृसत्ता और वर्ण-व्यवस्था के माध्यम से लोगों के विचार व व्यवहार को नियंत्रित करती है। समाज की लगभग दो तिहाई आबादी के शोषण को यह विचारधारा वैध ठहरा देती है। स्त्रियों और दलितों को इन्सानी व बराबरी का दर्जा मिले बगैर जनवादी व न्यायपूर्ण समाज की कल्पना ही नहीं की जा सकती। स्त्री का आर्थिक व दैहिक शोषण तथा विकास के उचित अवसरों से वंचित करने के चित्र दर्शाये हैं और स्त्री का समाज के विकास में योगदान को प्रस्तुत किया है। नुक्कड़ नाटकों में स्त्री-शोषण के तीन रूपों को व्यक्त किया है। दलितों को सामाजिक तौर पर जो उत्पीड़न सहन करना पड़ता है तथा समाज की नफरत व घृणा का शिकार होना पड़ता है। यदि दलित इसका विरोध करें तो उनको इसकी सजा भुगतनी पड़ती है। प्रेमचन्द की कहानियों के आधार पर बने ‘सद्गति’ और ‘ठाकुर का कुंआ’ नाटक के अलावा भी कई महत्वपूर्ण नाटक आए हैं। समाज में बहुत से शोषित समुदाय एवं वर्ग हैं जिनको कि शोषण से मुक्ति चाहिए, लेकिन यह भी सच है कि शोषण से मुक्ति किसी को अकेले-अकेले नहीं मिलेगी। मुक्ति मिलेगी तो समस्त शोषित समाज को एक साथ। यह भी सही है कि मुक्ति तोहफे में नहीं बल्कि संघर्ष से मिलेगी। इसलिए मुक्तिकामी वर्गों और समुदायों में बृहत्तर भाईचारे व एकता निर्माण के लिए नुक्कड़ नाटक एक जोड़ने वाले विचार-सूत्र का काम करता है। जन नाटय मंच इस समझदारी से काम करता है कि ‘‘समाज का कोई भी शोषित तबका केवल अपनी समस्याओं को लेकर अलग-अलग संघर्ष कर सफल नहीं हो सकता। जनता के सभी शोषित तबकों को एक साथ मिलकर, संगठित होकर बढ़ते जुल्मो-सितम का मुकाबला करना होगा। गरीब औरतों,मरदों, किसानों, छात्रों, कर्मचारियों को भाईचारे की भावना के साथ मिलकर लड़ना होगा। जनवाद और प्रजातन्त्र की जड़ें मजबूत करनी होगी।’’6
शासक-वर्ग का शोषित पर दमन उसके पुलिस-तन्त्र की क्रूरता व बर्बर कार्रवाइयों सर्वाधिक प्रखर रूप में दिखाई देता है। कहने के लिए तो पुलिस कानून और व्यवस्था को बनाए रखने के लिए होती है, लेकिन असल में वह वर्चस्वशाली वर्ग के लोगों के हितों की रक्षा अधिक करती है। कानून तोड़ने वाले भ्रष्ट पूंजीपति, बदमाश और छुटभैये नेता तो पुलिस के साथ गलबहियां करते हैं और कानून तोड़ने से पीड़ित शोषित वर्ग पर उसके अत्याचार का डण्डा चलता है। पुलिस के इस वर्गीय चरित्र को ‘पुलिस-चरित्रम्’ व ‘इन्सपेक्टर मातादीन चांद पर’ नाटक में दर्शाया गया है।
आधुनिक समाज में जनवाद की अवधारणा ने कलाओं और साहित्य को प्रभावित किया है। जनवाद की चेतना शोषित-दलित-पीड़ित-वंचित वर्गों को शोषणपरक व्यवस्था से छुटकारा पाने के लिए संघर्ष की प्रेरणा देती है जो साहित्य के विभिन्न रूपों में व्यक्त हुई है। समाज में शासक वर्गों द्वारा फैलाई जा रही मिथ्या-चेतना को दूर करने व संघर्ष चेतना को प्रखर करने में नुक्कड़ नाटक अपनी भूमिका निभा रहा है। जनता के जनवादी संघर्षों के स्वरों ने जहां नुक्कड़ नाटक के विकास में योगदान दिया है वहीं नुक्कड़ नाटक ने भी जनवाद के पक्ष में उठे स्वरों की अभिव्यक्ति करके व इन्हें सूत्रबद्ध करके मजबूती प्रदान की।


संदर्भः
1. जयदेव तनेजा, हिन्दी रंगकर्मः दशा और दिशा, तक्षशिला प्रकाशन, दिल्ली, 1988, पृ.-143
2. सफदर हाशमी, सफदर (नुक्कड़ नाटक के आरम्भिक दस वर्ष) राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, 1989, पृ.- 43
3. सं. चन्द्रेश, नुक्कड़ नाटक, राधाकृष्ण प्रकाशन, नई दिल्ली, 1985, पृ.-13
4. जन नाटय मंच, चौक-चौक पर गली-गली में (भाग-2), सफदर हाशमी मैमोरियल ट्रस्ट,नई दिल्ली, 1991, पृ.-3
5. सफदर हाशमी, सफदर, पृ.-158
6. कथन (जुलाई-अगस्त)80, पृ.-53

मौलाना अल्ताफ हुसैन ‘हाली’: जीवन-परिचय

मौलाना अल्ताफ हुसैन ‘हाली’: जीवन-परिचय



फरिश्ते से बेहतर है इन्सान बनना
मगर इसमें पड़ती है मेहनत ज़्यादा
यही है इबादत यही दीन व ईमां
के काम आये दुनिया में इन्सां के इन्सां
मौलाना अल्ताफ हुसैन ‘हाली’ हरियाणा के ऐतिहासिक शहर पानीपत के रहने वाले थे। पानीपत शहर की ख्याति दो कारणों से रही है। एक तो यह तीन ऐसी लड़ाइयों का मैदान रहा है जिसने की हिन्दुस्तान की तकदीर बदली। दूसरे, इसलिए कि साझी संस्कृति के प्रतीक मशहूर सूफी कलन्दर व उत्तर भारत के नवजागरण के अग्रदूत मौलाना अल्ताफ हुसैन ‘हाली’ का संबंध इस शहर से था। हाली उर्दू के शायर व प्रथम आलोचक के तौर पर प्रख्यात हैं। हाली को उर्दू तक सीमित न करके हिन्दुस्तानी का कवि व आलोचक कहना अधिक उपयुक्त है। हाली ने आम लोगों की भाषा यानी हिन्दुस्तानी भाषा में कविताओं की रचना की। उनकी कविताओं की भाषा से प्रभावित होकर महात्मा गांधी ने कहा था कि ‘यदि हिन्दुस्तानी का कोई नमूना है तो वह हाली की ‘मुनाजाते बेवा’ कविता की भाषा है।’
हाली के दौर में समाज में बड़ी तेजी से बदलाव हो रहे थे। 1857 के स्वतंत्रता-संग्राम ने भारतीय समाज पर कई बड़े गहरे असर डाले थे। अंग्रेज शासकों ने अपनी नीतियों में भारी परिवर्तन किए थे। आम जनता भी समाज में परिवर्तन की जरूरत महसूस कर रही थी। समाज नए विचारों का स्वागत करने को बेचैन था। महात्मा जोतिबा फूले, स्वामी दयानन्द सरस्वती, ईश्वर चन्द्र विद्यासागर, सर सैयद अहमद खां आदि समाज सुधारकों के आन्दोलन भारतीय समाज में नई जागृति ला रहे थे। समाज में हो रहे परिवर्तन के साथ साहित्य में भी परिवर्तन की जरूरत महसूस की जा रही थी। इस बात को जिन साहित्यकारों ने पहचाना और साहित्य में परिवर्तन का आगाज किया, उनमें हाली का नाम अग्रणी पंक्ति में रखा जा सकता है।
हाली का जन्म 11 नवम्बर 1837 ई. में हुआ। इनके पिता का नाम ईजद बख्श व माता का नाम इमता-उल-रसूल था। जन्म के कुछ समय के बाद ही इनकी माता का देहान्त हो गया। हाली जब नौ वर्ष के थे तो इनके पिता का देहान्त हो गया। इन हालात में हाली की शिक्षा का समुचित प्रबन्ध नहीं हो सका। परिवार में शिक्षा-प्राप्त लोग थे, इसलिए ये अरबी व फारसी का ज्ञान हासिल कर सके। हाली के मन में अध्ययन के प्रति गहरा लगाव था। हाली के बड़े भाई इम्दाद हुसैन व उनकी दोनों बड़ी बहनों इम्ता-उल-हुसेन व वजीह-उल-निसां ने हाली की इच्छा के विरूद्ध उनका विवाह इस्लाम-उल-निसां से कर दिया। अपनी पारिवारिक स्थितियों को वे अपने अध्ययन के शौक को जारी रखने के अनुकूल नहीं पा रहे थे, तो 17 वर्ष की उम्र में घर से दिल्ली के लिए निकल पड़े, यद्यपि यहां भी वे अपने अध्ययन को व्यवस्थित ढंग से नहीं चला सके। इसके बारे में ‘हाली की कहानी हाली की जुबानी’ में बड़े पश्चाताप से लिखा कि ‘डेढ़ बरस दिल्ली में रहते हुए मैने कालिज को कभी आंख से देखा भी नहीं’। 1956 ई. में हाली दिल्ली से वापस पानीपत लौट आए। 1956 में हाली ने हिसार जिलाधीश के कार्यालय में नौकरी कर ली। 1857 के स्वतंत्रता-संग्राम के दौरान अन्य जगहों की तरह हिसार में भी अंग्रेजी-शासन व्यवस्था समाप्त हो गई थी, इस कारण उन्हें घर आना पड़ा।
1963 में नवाब मुहमद मुस्तफा खां शेफ्ता के बेटे को शिक्षा देने के लिए हाली जहांगीराबाद चले गए। 1869 ई. में नवाब शेफ्ता की मृत्यु हो गई। इसके बाद हाली को रोजगार के सिलसिले में लाहौर जाना पड़ा। वहां पंजाब गवर्नमेंट बुक डिपो पर किताबों की भाषा ठीक करने की नौकरी की। चार साल नौकरी करने के बाद ऐंग्लो-अरेबिक कालेज, दिल्ली में फारसी व अरबी भाषा के मुख्य अध्यापक के तौर पर कार्य किया। 1885 ई. में हाली ने इस पद से त्याग पत्र दे दिया।
हाली ने अपनी शायरी के जरिये ताउम्र अपने वतन के लोगों के दुख तकलीफों को व्यक्त करके उनकी सेवा की। वे शिक्षा व ज्ञान को तरक्की की कुंजी मानते थे। उन्होंने अपने लोगों की तरक्की के लिए पानीपत में स्कूल तथा पुस्तकालय का निर्माण करवाया। इन संस्थाओं के लिए हाली ने अपने जान-पहचान के अमीरों से तथा अपने शहर के लोगों से चन्दा एकत्रित करके बनवाया। सरकार से भी सहायता ली। पानीपत में आज जो स्कूल आर्य सीनियर सेकेण्डरी स्कूल के नाम से जाना जाता है पहले यह ‘हाली मुस्लिम हाई स्कूल’ था, जो देश के विभाजन के बाद आर्य प्रतिनिधि सभा, पंजाब को क्लेम में सौंप दिया गया था। शिक्षा के प्रति उनकी प्रतिबद्धता को देखते हुए 1907 में कराची में ‘आल इण्डिया मोहम्डन एजुकेशनल कांफ्रेंस’ में हाली को प्रधान चुना गया। हाली की विद्वता को देखते हुए 1904 ई. में ‘शमशुल-उलेमा’ की प्रतिष्ठित उपाधि दी गई, यह हजारों में से किसी एक को ही हासिल होती थी। आखिर के वर्षों में हाली की आंख में पानी उतर आया, जिसकी वजह से उनके लेखन-पाठन कार्य पर नकारात्मक प्रभाव पड़ा। 31 दिसम्बर,1914 ई. को हाली इस दुनिया को अलविदा कह गए। शाह कलन्दर की दरगाह में हाली को दफ्ना दिया गया।
हाली के दो बेटे और एक बेटी थी। हाली के लिए बेटे और बेटी में कोई फर्क नहीं था। उस समय इस तरह के विचार रखना व उन पर अमल करना क्रांतिकारी काम से कम नहीं था। इस दौर में मां-बाप अपनी औलाद का विवाह करके अपने दायित्व की पूर्ति मान लेते थे। खासकर बेटियों के लिए तो मां-बाप का यह ‘पवित्र कर्तव्य’ ही माना जाता था कि जवान होने से पहले ही उस ‘अमानत’ को अपने ‘रखवाले’ को सौंपकर निजात पाए। जिस समाज में हाली का जन्म हुआ था। वहां बेटियों के लिए शिक्षा का इतना ही प्रावधान था कि वह धार्मिक ग्रंथ को पढ़कर जीवन के कोल्हू में सारी उम्र जुती रहे। हाली ने इस विचार को मानने से इंकार किया। वे बेटियों की शादी अपने घर से ज्यादा दूर करने के पक्ष में नहीं थे। दूर विवाह करने को वे उसकी हत्या ही कहते थे।
साथ बेटी के मगर अब पिदरो मादर भी
ज़िन्दा दा गोर सदा रहते हैं और खस्ता जिगर
अपना और बेटियों का जब के ना सोचें अन्जाम
जाहलियत से कहीं है वह ज़ामाना बदतर
अल्ताफ हुसैन को ‘हाली’ इसलिए कहा जाता है कि वे अपनी रचनाओं में अपने वर्तमान को अभिव्यक्त करते थे। उन्होंने अपने समाज की सच्चाइयों का पूरी विश्वसनीयता के साथ वर्णन किया। समसामयिक वर्णन में हाली की खासियत यह है कि वे अपने समय में घटित घटनाओं के पीछे काम कर रही विचारधाराओं को भी पहचान रहे थे। विभिन्न प्रश्नों के प्रति समाज में विभिन्न वर्गों के रूझानों को नजदीकी से देख रहे थे,इसलिए वे उनको ईमानदारी एवं विश्वसनीयता से व्यक्त करने में सक्षम हो सके। अपने लिए ‘हाली’तखल्लुस चुनना उनके समसामयिक होने व अपने समाज से गहराई से जुड़ने की इच्छा को तो दर्शाता ही है, साथ ही उनके व्यक्तित्व की विनम्रता व उदारता को भी दर्शाता है। कोई भी साहित्यकार अमर हो जाना चाहता है, इतिहास में शाश्वत होने की लालसा भारतीय साहित्यकारों में तो विशेष तौर पर रही है। इसके लिए साहित्यकार क्या-क्या पापड़ नहीं बेलते? यदि कोई साहित्यकार अपनी रचनाओं के बल पर ऐसा कर सकने में कामयाब न भी हो तो कम-से-कम कोई शाश्वतता का आभास देने वाला तखल्लुस लगाकर तो वह संतुष्ट हो ही सकता है। हाली अमर होने के लिए इस तरह की तिकड़मों में नहीं पड़े। वे अपने समय और समाज से गहराई से जुड़े। उन्होंने अपने समय व समाज के अन्तर्विरोधों-विसंगतियों को पहचानते हुए प्रगतिशील व प्रगतिगामी शक्तियों को पहचाना। अपने लेखन से उन्होंने इस सच्चाई को कायम किया कि साहित्य के इतिहास में उसी रचनाकार का नाम हमेशा-हमेशा के लिए रहता है जो अपने समय व समाज से गहरे में जुड़कर प्रगतिशील शक्तियों के साथ होता है। अपने समय व समाज से दूर हटकर मात्र शाश्वतता का राग अलापने वाले अपने समय में ही अप्रासंगिक हो जाते हैं तो आने वाले वक्तों में उनकी कितनी प्रासंगिकता हो सकती है?इसका अनुमान लगाना किसी बुद्धिमान व्यक्ति के लिए कठिन कार्य नहीं है।
‘हाली’ का अर्थ - हल या समाधान भी होता है। हाली ने अपने तखल्लुस के इस अर्थ को भी सिद्ध किया। हाली ने अपने समय की समस्याओं को न केवल पहचाना व अपनी रचनाओं में विश्वसनीयतापूर्ण ढंग से व्यक्त किया, बल्कि उनके माकूल हल की ओर भी संकेत किया। जीवन के छोटे-छोटे से दिखने-लगने वाले पक्षों पर उन्होंने कविताएं लिखीं और उनमें व्यावहारिक-नैतिक शिक्षा मौजूद है। मनुष्य के लिए क्या उपयुक्त है और क्या नहीं इस बात पर विचार करते हुए उन्होंने अपनी बेबाक राय दी है। फिर विषय चाहे साहित्य में छन्दों-अंलकारों के प्रयोग का हो या जीवन के किसी भी पहलू से जुड़ा हो। ‘चण्डूबाजी के अंजाम’, ‘कर्ज लेकर हज को न जाने की जरूरत’, ‘बेटियों की निस्बत’, ‘बड़ों का हुक्म मानो’, ‘फलसफए तरक्की’, ‘हकूके औलाद’ आदि बहुत सी कविताएं हैं, जिनमें हाली की सीख उन्हें अपने पाठक का सलाहकार दोस्त बना देती है।
‘हाली’ सिर्फ एक शब्द नहीं है, बल्कि एक मुकम्मल संस्था का नाम है। किसान जीवन में ‘हाली’ और ‘पाली’ दो शब्दों का बड़ा महत्त्व है। किसान की अर्थव्यवस्था की रीढ़ इन्हीं शब्दों में है। हाली का कार्यक्षेत्र खेत है और पाली का पशु-पालन। किसान की अर्थव्यवस्था का महत्त्वपूर्ण अंग होते हुए भी पशु पालन उसका सह-कार्य है। उसका मुख्य कार्य तो खेत में फसल पैदा करना है। खेत के काम में भी जमीन जोतना सबसे महत्त्वपूर्ण कार्य है,जिस पर किसान का पूरा कारोबार निर्भर करता है। हाली के काम से ही किसान का आगे काम चलता है। हाली ने अपनी कविताओं में किसान जीवन के जो विश्वसनीय चित्र दिए वे किसी अन्य साहित्यकार की रचनाओं में दूरबीन से ढूंढने पर भी नहीं मिलते। किसान का पूरा परिवार व कारोबार उनकी कविताओं में मौजूद है न उसके पालतू पशु छूटे हैं और न ही खेती में काम आने वाले औजार। मौसम की मार झेलता किसान भी यहां मौजूद है और झूले झूलती किसान-स्त्रियां भी यहां मौजूद हैं। किसान की ‘अन्नदाता’की रोमांटिक छवि के तले उसके जीवन के कष्ट अक्सर ओझल हो जाते रहे हैं। हाली ने किसान-जीवन की सी सरलता के साथ किसान जीवन से जुड़ी समस्याओं के विभिन्न पहलुओं को उजागर किया, जिसे हाली जैसा किसान का सच्चा बेटा ही कर सकता था।
हाली ने 1857 का संग्राम अपनी आंखों से देखा। दिल्ली और उसके आस पास का इलाका इस संग्राम का केन्द्र था और हाली का इस क्षेत्र से गहरा ताल्लुक था। 1857के संग्राम की शुरूआत सिपाहियों ने की थीं, परन्तु असल में यह किसान-विद्रोह था। अंग्रेजों ने भूमि-व्यवस्था व कर-प्रणाली में जो बदलाव किए उससे किसान तबाह हो गए। दूसरी ओर अंग्रेजों ने यहां के उद्योगों को भी बरबाद किया था,जिसके परिणामस्वरूप इनमें काम करने वाले दस्तकार भी तबाह हो गए। किसानों और मजदूरों के पास अपने अस्तित्त्व को बचाए रखने के लिए उनकी फौज में भर्ती होने के अलावा कोई चारा नहीं था। सैनिकों की वर्दी में इन किसानों के मन में अंग्रेजी-शासन के प्रति रोष था जो एक मौका पाकर फूट पड़ा। सैनिकों ने दिल्ली पर कब्जा कर लिया था, लेकिन जल्दी ही अंग्रेजों ने दिल्ली को जीतकर अपना शासन कायम कर लिया और शहर के नागरिकों पर कहर ढ़ाया। हजारों लोग मौत के घाट उतार दिये गये। लाखों लोग उजड़े। मुसलमानों को विशेष तौर पर अंग्रेजों के कोप का भाजन बनना पड़ा। अंग्रेजों की वहशत से पूरी दिल्ली आंतकित थी। हाली ने ‘मर्सिया जनाब हकीम महमूद खां मरहम ‘देहलवी’में ‘देहलवी’के व्यक्तित्व को प्रस्तुत करते हुए इस स्थिति को व्यक्त करता एक पद लिखा।
वो जमाना जब के था दिल्ली में एक महशर बपा
नफ़सी-नफ़सी का था जब चारों तरफ़ ग़ुल पड़ रहा
अपने-अपने हाल में छोटा बड़ा था मुबतला
बाप से फ़रजन्द और भाई से भाई था जुदा
मौजे-ज़ान था जब के दरचाए इताबे ज़ुलजलाल
बाग़ियों के ज़ुल्म का दुनिया पै नाज़िल था वबाल
अंग्रेजों ने दिल्ली को पूरी तरह से खाली करवा लिया था। सारी आबादी शहर से बाहर खदेड़ दी थी। डेढ़-दो साल के बाद ही लोगों को शहर में आने की अनुमति दी। हाली ने ‘मरहूम-ए-दिल्ली’ में दिल्ली पर अंग्रेजी कहर का वर्णन किया है।
तज़ाकिरा देहली-ए-मरहूम का अय दोस्त न छेड़
न सुना जायेगा हम से यह फसाना हर्गिज़
मिट गये तेरे मिटाने के निशां भी अब तो
अय फलक इससे ज्यादा न मिटानां हर्गिज़
हाली का जन्म मुस्लिम परिवार में हुआ। हाली ने तत्कालीन मुस्लिम-समाज की कमजोरियों और खूबियों को पहचाना। हाली ने मुस्लिम समाज को एकरूपता में नहीं,बल्कि उसके विभिन्न वर्गों व विभिन्न परतों को पहचाना। हाली की खासियत थी कि वे समाज को केवल सामान्यीकरण में नहीं, बल्कि उसकी विशिष्टता में पहचानते थे। इसलिए उनको मुस्लिम समाज में भी कई समाज दिखाई दिए। हाली के समय में मुस्लिम समाज एक अजीब किस्म की मनोवृति से गुजर रहा था। अंग्रेजों के आने से पहले मुस्लिम-शासकों का शासन था, जो सत्ता से जुड़े हुए थे वे मानते थे कि अंग्रेजों ने उनकी सत्ता छीन ली है। भारत पर अंग्रेजों का शासन एक सच्चाई बन चुका था,जिसे मुसलमान स्वीकार करने को तैयार नहीं थे। वे अपने को राजकाज से जोड़ते थे, इसलिए काम करने को हीन समझते थे। वे स्वर्णिम अतीत की कल्पना में जी रहे थे। अतीत को वे वापस नहीं ला सकते थे और वर्तमान से वे आंखें चुराते थे। हाली ने उनकी इस मनोवृति को पहचाना। ‘देखें मुंह डाल के गर अपने गरीबान मैं वो, उम्र बरबाद करें फिर न इस अरमान में वो’कहकर अतीत के ख्यालों की बजाए दरपेश सच्चाई को स्वीकार करने व किसी हुनर को सीखकर बदली परिस्थितियों सम्मान से जीने की नेक सलाह दी।
पेशा सीखें कोई फ़न सीखें सिनाअत सीखें
कश्तकारी करें आईने फ़लाहात सीखें
घर से निकलें कहीं आदाबे सयाहत सीखें
अलग़रज मर्द बने ज़ुर्रतो हिम्मत सीखें
कहीं तसलीम करें जाके न आदाब करें
ख़द वसीला बनें और अपनी मदद आप करें
दिल्ली निवास (1854-1856) के दौरान हाली के जीवन में जो महत्त्वपूर्ण घटना घटी वह थी उस समय के प्रसिद्ध शायर मिर्जा गालिब से मुलाकात व उनका साथ। हाली के मिर्जा गालिब से प्रगाढ़ सम्बन्ध थे। उन्होंने मिर्जा गालिब से रचना के गुर सीखे थे। हाली ने जब गालिब को अपने शेर दिखाए तो उन्होंने हाली की प्रतिभा को पहचाना व प्रोत्साहित करते हुए कहा कि ‘यद्यपि मैं किसी को शायरी करने की अनुमति नहीं देता, किन्तु तुम्हारे बारे में मेरा विचार है कि यदि तुम शे’र नहीं कहोगे तो अपने हृदय पर भारी अत्याचार करोगे’। हाली पर गालिब का प्रभाव है लेकिन उनकी कविता का तेवर बिल्कुल अलग किस्म का है। हाली का अपने समाज के लोगों से गहरा लगाव था, इस लगाव-जुड़ाव को उन्होंने अपने साहित्य में भी बरकरार रखा। इसीलिए गालिब समेत तत्कालीन साहित्यकारों के मुकाबले हाली की रचनाएं विषय व भाषा की दृष्टि से जनता के अधिक करीब हैं। किसान व मेहनतकश गरीब जनता से गहरे जुड़ाव का ही परिणाम है कि उनकी रचनाओं में उनके जीवन के चित्र भरे पड़े हैं। हाली ने राजाओं-सामन्तों के मनोरंजन के लिए कविताओं की रचनाएं नहीं की थी, बल्कि दलितों, पीडितों, वंचितों और समाज के कमजोर वर्गों के जीवन की वास्तविकताओं व इच्छाओं-आकांक्षाओं को अपनी कविताओं में पेश किया। हाली और गालिब के रिश्ते की तुलना प्रख्यात सूफी निजामुदीन औलिया व उनके लाडले शागिर्द अमीर खुसरो के रिश्ते से की जा सकती है। जहां गुरू राजाओं और राजदरबारों से दूर भागता था, उनसे मिलना पसन्द नहीं करता था, वहीं शिष्य उम्र भर राज दरबारों की शोभा बढ़ाता रहा। औलिया और खुसरो के मुकाबले हाली और गालिब के संबंध में फर्क सिर्फ इतना है कि यहां शिष्य जनता के दुख तकलीफ बयान करता था तो गुरू की हाजिर-जबाबी, काव्य-प्रतिभा आभिजात्यों के काम आती थी।
हाली और मिर्जा गालिब के जीवन जीने के ढंग में बड़ा गहरा अन्तर था। पाखण्ड की कड़ी आलोचना करते हुए हाली एक पक्के मुसलमान का जीवन जीते थे। मिर्जा गालिब ने शायद ही कभी नमाज पढ़ी हो। यह भी सही है कि दोनों आम व्यवहार में व्यक्तिगत स्वतंत्रता के हामी थे। मिर्जा गालिब के प्रति हाली के दिल में बहुत आदर-सम्मान था। उनकी मृत्यु पर हाली ने ‘मर्सिया’लिखा। जिसमें हाली व गालिब के संबंधों पर प्रकाश पड़ता है।
बुलबुले दिल मर गया हेहात
जिस की थी बात बात में एक बात
नुक्ता दाँ, नुक्ता सन्ज, नुक्ता शनास
पाक दिल, पाक ज़ात, पाक सिफ़ात
मर्सिया उसका लिखते हैं अहबाब
किस से इसलाह लें किधर जाएँ
पस्त मज़्मू है नोहए उस्ताद
किस तरह आसमाँ पे पहुँचाएं
इस से मिलने को याँ हम आते थे
जाके दिल्ली से आएगा अब कौन
मर गया क़द्रदाने फ़हमे सुख़न
शेर हम को सुनाएगा अब कौन
मर गया तशनए मज़ाके कलाम
हम को घर बुलाएगा अब कौन
था बिसाते सुख़न में शातिर एक
हम को चालें बताएगा अब कौन

शेर में नातमाम है ‘हाली’
ग़ज़ल उस की बनाएगा अब कौन
कम लना फ़ीहे मन बकी वो अवील
वएताबा मअल ज़माने तवील
देश-कौम की चिंता ही हाली की रचनाओं की मूल चिंता है। कौम की एकता, भाईचारा, बराबरी, आजादी व जनतंत्र को स्थापित करने वाले विचार व मूल्य हाली की रचनाओं में मौजूद हैं। यही वे मूल्य हैं जो आधुनिक समाज के आधार हो सकते हैं और जिनको प्राप्त करके ही आम जनता सम्मानपूर्ण जीवन जी सकती है।
हाली ने शायरी को हुस्न-इश्क व चाटुकारिता के दलदल से निकालकर समाज की सच्चाई से जोड़ा। चाटुकार-साहित्य में समाज की वास्तविकता के लिए कोई विशेष जगह नहीं थी। रचनाकार अपनी कल्पना से ही एक ऐसे मिथ्या जगत का निर्माण करते थे जिसका वास्तविक समाज से कोई वास्ता नहीं था। इसके विपरीत हाली ने अपनी रचनाओं के विषय वास्तविक दुनिया से लिए और उनके प्रस्तुतिकरण को कभी सच्चाई से दूर नहीं होने दिया। हाली की रचनाओं के चरित्र हाड़-मांस के जिन्दा जागते चरित्र हैं, जो जीवन-स्थितियों को बेहतर बनाने के संघर्ष में कहीं जूझ रहे हैं तो कहीं पस्त हैं। यहां शासकों के मक्कार दलाल भी हैं,जो धर्म का चोला पहनकर जनता को पिछड़ेपन की ओर धकेल रहे हैं,जनता में फूट के बीज बोकर उसका भाईचारा तोड़ रहे हैं। हाली ने साहित्य में नए विषय व उनकी प्रस्तुति का नया रास्ता खोजा। इसके लिए उनको तीखे आक्षेपों का भी सामना करना पड़ा। ‘मर्सिया हकीम महमूद खां मरहम ‘देहलवी’में हाली ने उस दौर की चाटुकार-साहित्य परम्परा से अपने को अलगाते हुए लिखा किः
सुनते हैं ‘हाली’ सुखन में थी बहुत वुसअत कभी
थीं सुख़नवर के लिए चारों तरफ राहें खुली
दास्तां कोई बयाँ करता था हुस्नो इश्क की
और तसव्वुफ का सुखन में रंग भरता था कोई
गाह ग़ज़लें लिख के दिल यारों के गर्माते थे लोग
गाहक़सीदे पढ़ के खिलअत और सिले पाते थे लोग
पर मिली हमको मजाले नग़मा इस महफ़िल में कम
रागिनी ने वक्त की लेने दिया हम को न दम
नालओ फ़रियाद का टूटा कहीं जा कर न सम
कोई याँ रंगीं तराना छेड़ने पाये न हम
सीना कोबी में रहे जब तक के दम में दम रहा
हम रहे और कौम के इक़बाल का मातम रहा
हाली का संबंध साधारण परिवार से था। उनके सामने वे सब दिक्कतें थीं जो एक आम इंसान के साथ होती हैं। हाली समस्याओं को देखकर घबराए नहीं। इन समस्याओं के प्रति जीवट का रुख ही अल्ताफ हुसैन को वह ‘हाली’ बना सका है, जिसे लोग आज भी याद करते हैं। हाली ने अपनी समस्याओं को सही परिप्रेक्ष्य में समझा और उसको बृहतर सामाजिक सत्य के साथ मिलाकर देखा तो समाज की समस्या को दूर करने में ही उन्हें अपनी समस्या का निदान नजर आया।
रोजगार के लिए हाली को अपने वतन से दूर रहना पड़ा। उस समय उन्हें वतन से बिछुड़ने का अहसास हुआ और प्रवासी जीवन के अपने दर्द को रचनाओं का विषय बनाया। हाली की इस पीड़ा में उन हजारों-लाखों की पीड़ा भी शामिल हो गई,जो किसी कारण से अपना वतन छोड़कर दूर रहते हैं। अपने दर्द से दूसरों का दर्द समझने और समाज के दर्द को अपना दर्द बनाने के इस ढंग ने ही हाली को जनता का चहेता कवि बना दिया। ‘हुब्बे वतन’ में हाली ने व्यक्त किया।
हम ही ग़ुरबत में हो गए कुछ ओर
या तुम्हारे ही कुछ बदल गए तौर
गौ वही हम हैं और वही दुनिया
पर नहीं हम को लुत्फ़ दुनिया का
हो गया याँ तो दो ही दिन में ये हाल
तुझ बिन एक-एक पल है एक-एक साल
तेरी एक मुश्ते ख़ाक के बदले
लूं न हरगिज अगर बहिश्त मिले
जान जब तक न हो वतन से जुदा
कोई दुश्मन न हो वतन से जुदा
याद आता है अपना शहर कभी
लौ कभी अहले शहर की है लगी
नक्श है दिल पे कुच ओ बाजार
फिरते आँखों में है दरो दीवार
हाली समाज में हो रहे परिवर्तन को समझ रहे थे। परिवर्तन में बाधक शक्तियों को भी वे अपनी खुली आंखों से देख रहे थे। उन्होंने पुराने पड़ चुके रस्मो-रिवाजों को समाज की प्रगति में सबसे बड़ी बाधा के रूप में चिह्नित किया। जिनका कोई तार्किक आधार नहीं था और न ही समाज में इनकी कोई सार्थकता थी,समाज इनको सिर्फ इसलिए ढ़ोये जा रहा था कि उनको ये विरासत में मिली थी। परम्परा व विरासत के नाम पर समाज में अपनी जगह बनाए हुए लेकिन गल-सड़ चुके रिवाजों के खिलाफ हाली ने अपनी कलम उठाई और इनमें छुपी बर्बरता और अमानवीयता को मानवीय संवेदना के साथ इस तरह उद्घाटन करने की कोशिश की कि इनको दूर करने के लिए समाज बेचैन हो उठे। विधवा-जीवन की त्रासदी को व्यक्त करती हाली की ‘मुनाजाते बेवा’ कविता जिस तरह लोकप्रिय हुई उससे यही साबित होता है कि उस समय का समाज सामाजिक क्रांति के लिए तैयार था।
1874 में हाली रोजगार के लिए लाहौर जाकर पंजाब बुक डिपो से जुड़ गए। हाली के जीवन में असल परिवर्तन यहीं से हुआ। वे नए ढंग से सोचन लगे। यह कहना अतिश्योक्ति नहीं होगा कि हाली में इसके बाद ही उर्दू साहित्य में बदलाव की क्षमता का विकास हुआ। लाहौर में हाली की मुलाकात कर्नल हौल राइट से हुई। कर्नल हौल राइट एक ऐसे व्यक्ति थे,जिनका हाली पर बहुत गहरा प्रभाव पड़ा। कर्नल हौल राइट का प्रभाव न केवल हाली पर बल्कि पूरे उर्दू साहित्य जगत पर पड़ा। अपने लाहौर निवास के दौरान कर्नल हौल राइट ने ऐसे मुशायरों की शुरूआत की जो किसी खास विषय पर आधारित होते थे। इस विषय से संबंधित कविताएं ही इनमें पढ़ी जाती थीं। इन मुशायरों का प्रभाव यह पड़ा कि उर्दू साहित्य ग़ज़ल विधा के दायरे से बाहर निकला और बहुत शानदार कविताओं की रचना उर्दू में होने लगी। उर्दू में अभी तक ग़ज़ल ही सर्वाधिक लोकप्रिय विधा थी और इसके प्रति यहां तक मोह था कि ग़ज़ल को ही वास्तविक साहित्य माना जाता था। ग़ज़लकारों को जितने सम्मान से देखा जाता था अन्य साहित्यिक विधाओं को उतना मान प्राप्त नहीं था। 1874 में ‘बरखा रुत’ शीर्षक पर मुशायरा हुआ, जिसमें हाली ने अपनी कविता पढ़ी। यह कविता हाली के लिए और उर्दू साहित्य में सही मायने में इंकलाब की शुरूआत थी। साहित्य-जगत में व इससे इतर समाज में यह कविता इतनी पसन्द की गई कि इसकी प्रशंसा में सालों साल तक अखबारों में लेख व टिप्पणियां छपती रहीं। अब हाली का नाम उर्दू में आदर से लिया जाने लगा था। जिस तरह इस कविता की प्रशंसा हुई उससे यह साफ पता चलता है कि आम जनता में इस तरह की कविता के लिए जगह थी। हाली ने लोगों की इच्छाओं को अपनी कविता में स्थान दिया। हाली की आवाज असल में अवाम की आवाज थी।
हाली ने अपनी कविताओं में ऐसे विषय उठाए जिनकी समाज जरूरत महसूस करता था,परन्तु तत्कालीन साहित्यकार उनको या तो कविता के लायक नहीं समझते थे या फिर उनमें स्वयं उनकी कोई दिलचस्पी नहीं थी। हाली ने जिस तरह पीड़ित-मेहनतकश जनता की दृष्टि से विषयों को प्रस्तुत किया है वह उन्हें जनता का लाडला शायर बना देती है। उनकी कविताएं जनता की सलाहकार भी थी, समाज सुधारक भी, दुख दर्द की साथी भी। उनकी वाणी जनता को अपनी वाणी लगती थी।
हाली मां-बाप की अपने बच्चों को सबसे बड़ी देन शिक्षा को समझते थे,जबकि अभी समाज में माता-पिता अपने बच्चों का विवाह करके ही अपने कर्तव्य की इतिश्री समझ लेते थे। अपने कर्तव्य से जल्दी छुटकारा पाने के लिए मां-बाप अपने बच्चों की बचपन में ही शादी कर देते थे। हाली ने बाप को ‘बेटे का जवाब’ में इस पर विचार किया।
हम पे एहसां आप यां करते अगर
इल्म की दौलत से करते बहरा वर
खोल कर तालीम में दिल करते खर्च
होता कुछ होता अगर कामों में हर्ज
हाथ में होता अगर कुछ भी हुनर
रहते इज़्ज़्त से निकल जाते जिधर
हाली के लिए मानवता की सेवा ही ईश्वर की भक्ति व धर्म था। वे कर्मकाण्डों की अपेक्षा धर्म की शिक्षाओं पर जोर देते थे। वे मानते थे कि धर्म मनुष्य के लिए है न कि मनुष्य धर्म के लिए। जितने भी महापुरुष हुए हैं वे यहां किसी धर्म की स्थापना के लिए नहीं बल्कि मानवता की सेवा के लिए आए थे। इसलिए उन महापुरुषों के प्रति सच्ची श्रद्धा मानवता की सेवा में है न कि उनकी पूजा में। यदि धर्म से मानवता के प्रति संवेदना गायब हो जाए तो उसके नाम पर किए जाने वाले कर्मकाण्ड ढोंग के अलावा कुछ नहीं हैं,कर्मकाण्डों में धर्म नहीं रहता। हाली धर्म के ठेकेदारों को इस बात के लिए लताड़ लगाते हैं कि धर्म उनके उपदेशों के वाग्जाल में नहीं,बल्कि व्यवहार में सच्चाई और ईमानदार की परीक्षा मांगता है। हाली ने धार्मिक उपदेश देने वाले लागों में आ रही गिरावट पर अपनी बेबाक राय दी। आम तौर पर सामान्य जनता धार्मिक लोगों के कुकृत्यों को देखती तो है लेकिन अपनी धर्मभीरुता के कारण वे उनके सामने बोल नहीं पाती। हाली ने उनकी आलोचना करके उनकी सच्चाई सामने रखी और लोगों को उनकी आलोचना करने का हौंसला भी दिया।
दीन कहते हैं जिसे वो ख़ैर ख्वाही का है नाम
है मुसलकानो! ये इरशादे रसूले इन्सो जाँ
हैं नमाजें और रोजे और हज बेकार सब
सोज़े उम्मत की न चिंगारी हो गर दिल मे निहाँ
दीन का दावा और उम्मत की ख़बक लेते नहीं
चाहते हो तुम सनद और इम्तहाँ देते नहीं
उन से कह दों, है मुसलमानी का जिनको इद्दआ
क़ौम की ख़िदमत में है पोशीदा भेद इस्लाम का
वो यही ख़िदमत, यही मनसब है जिसके वास्ते
आए हैं दुनिया से सब नौबत ब नौबत अम्बिया
हाली वास्तव में कमेरे लोगों के लिए समाज में सम्मान की जगह चाहते थे। वे देखते थे कि जो लोग दिन भर सोने या गप्पबाजी में ही अपना समय व्यतीत करते हैं वे तो इस संसार की तमाम खुशियों को दौलत को भोग रहे हैं और जो लोग दिन रात लगकर काम करते हैं उनकी जिन्दगी मुहाल है। उन पर ही मौसम की मार पड़ती है,उनको ही धर्म में कमतर दर्जा दिया है। उनके शोषण को देखकर हाली का मन रोता था और वे चाहते थे कि मेहनतकश जनता को उसके हक मिलें। वह चैन से अपना गुजर बसर करे। मेहनतकश की जीत की आशा असल में उनकी उनके प्रति लगाव व सहानुभूति को तो दर्शाता ही है साथ ही नयी व्यवस्था की ओर भी संकेत मिलता है।
होंगें मजदूर और कमेरे उनके अब कायम मुक़ाम
फिरते हैं बेकार जिनके को दको पीरो जवाँ
हाली ‘दूसरे की सेवा’को या कि ‘खिदमत’को बुरा समझते थे। वे अपने कारोबार को इस मामले में अच्छा समझते थे क्योंकि इसमें आजादी है, लेकिन वे जमाने की चाल को समझ रहे थे कि लोग अपने धंधों को छोड़कर नौकरी करना अधिक पसन्द करते हैं।
उनको स्वयं भी अपने गुजारे के लिए नौकरी करनी पड़ी थी इसलिए वे आजादी की कीमत पहचानते थे। वे संसार में ऐसी व्यवस्था के हामी नहीं थे जिसमें एक इंसान दूसरे का गुलाम हो और दूसरा उसका मालिक। वे समाज में बराबरी के कायल थे। रिश्तों में किसी भी प्रकार की ऊंच-नीच को वे नकारते थे। उनकी मुक्ति व आजादी की परिभाषा में केवल विदेशी शासन से छुटकारा पाना ही शामिल नहीं था। वे सिर्फ राजनीतिक आजादी के ही हिमायती नहीं थे, बल्कि वे समाज में आर्थिक आजादी भी चाहते थे । वे जानते थे कि जब तक व्यक्ति आर्थिक तौर पर आत्मनिर्भर नहीं होगा तब तक वह सही मायने में आजाद नहीं हो सकता। ‘नंगे खिदमत’ कविता में हाली ने लिखा।
दर्रे मख़लूक़ को हम को रम मलजाओ मावा समझे
ता अते ख़ल्क़ को जायाज का तम्ग़ा समझे
पेश ओ हिरफ़ा को अजलाफ़ का शेवा समझे
नंगे ख़िदमत को शराफ़त का तक़ाज़ा समझे
ऐब लगने लगे नज्जारी ओ हद्दादी को
बेचते फिरने लगे जौहरे आज़ादी को
नौकरी ठहरी है ले दे के अब औक़ात अपनी
पेशा समझे थे जिसे, हो गई वो ज़ात अपनी
अब न दिन अपना रहा और न रही रात अपनी
जा पड़ी गै़र के हाथों में हर एक बात अपनी
हाथ अपने दिले आज़ाद से हम धो बैठे
एक दौलत भी हमारी सो उसे खो बैठे
इस से बढ़ कर नहीं जि़ल्लत की कोई शान यहाँ
के हो हम जिन्स की हम जिंस के कब्जे में इनाँ
एक गल्ले में क़ोई भेड़ हो और कोई शुबाँ
नस्ले आदम में कोई ढोर हो कोई इन्साँ
नातवाँ ठहरे कोई, कोई तनू मन्द बने
एक नौकर बने और खुदावंद बने
हाली की कविताएं बदलते समाज की ओर संकेत करती हैं। हाली ने समाज की सच्चाई को व्यक्त करने के लिए अपनी कला का प्रयोग किया।

रविन्द्रनाथ टैगोरः विराट भारतीय आत्मा

रविन्द्रनाथ टैगोरः विराट भारतीय आत्मा

रवीन्द्र नाथ मूलतः बंगला के कवि हैं, लेकिन वे भारत के और विश्व के कवि हैं। रविन्द्रनाथ टैगोर का जन्म हुआ। कलकत्ता में 7 मई,1861 में हुआ। रविन्द्रनाथ को एक समृद्ध विरासत मिली थी। रविन्द्रनाथ टैगोर के दादा द्वारकानाथ ने जहां उत्पादन को बढ़ावा देने में अपनी ऊर्जा लगाई, वहीं इनके पिता देवेन्द्रनाथ टैगोर ने राजा राममोहन राय द्वारा स्थापित ब्रह्म समाज में सक्रियता से कार्य किया।
रविन्द्रनाथ का संबंध जमींदार घराने से था, उनके दादा द्वारकानाथ ठाकुर राजा कहलाते थे, लेकिन रविन्द्रनाथ का बचपन साधारण तरीके से ही बीता। उन्होंने लिखा कि “हमारे बचपन में भोग-विलास का सरंजाम नहीं था, इतना कहना काफी होगा। ...हम लोग नौकरों के शासन में थे। अपने काम को आसान करने के लिए उन लोगों ने हमारा हिलना-डुलना एक तरह से बन्द कर दिया था। ...हमारे खान-पान में शौकीनी की गंध भी न थी। कपड़े-लत्ते इतने साधारण थे कि आज के लड़कों के सामने उनकी फेहरिस्त रखने से इज्जत जाने का डर है। दस साल की उम्र होने से पहले कभी किसी दिन किसी कारण से मौजा मैने नहीं पहना। जाड़े के दिनों में एक सादे कपड़े के ऊपर और भी एक सादा कपड़ा ही काफी था। इसके लिए मैने किसी दिन भाग्य को बुरा-भला नहीं कहा। हां, हमारे घर का दर्जी नियामत खलीफा उपेक्षा के भाव से जब हमारे कुर्ते में जेब लगाना आवश्यक समझता तो इसका हमें दु:ख होता - क्योंकि ऐसा कोई लड़का तो किसी भिखारी के घर भी पैदा नहीं होता जिसके पास अपनी जेब में रखने के लिए कुछ-न-कुछ चल-अचल संपति न हो। ... छोटी से छोटी चीजें भी हमारे लिए दुर्लभ थीं, बड़े होने पर कभी मिलेंगी इसी आशा में उन सबको दूर भविष्यत् के हाथों में समर्पित करके हम बैठे हुए थे। उसका फल यह हुआ था कि उन दिनों जो कुछ भी हमें मिल जाता उसका रस पूरा-पूरा गार लेते थे, छिलके से लेकर गुठली तक कुछ भी फेंका न जाता।”
वे अपने पिता की तेहरवीं संतान थे। रविन्द्रनाथ के भाई और उम्र में बड़े भानजे को स्कूल में जाते देख स्कूल जाने की जिद्द की तो निरुत्साहित करने के लिए “हम लोगों के जो शिक्षक थे उन्होंने मेरा मोह भंग करने के लिए एक जोरदार तमाचे की तरह यह सारगर्भ बात कही थी, तुम अभी स्कूल जाने के लिए जिस तरह रो रहे हो, न जाने के लिए इससे कहीं ज्यादा तुम्हें रोना पड़ेगा।” असल में शिक्षा प्रणाली का यह सच ही था। 8 मार्च, 1874 को लगभग 12-13 साल की उम्र में उनकी मां का देहांत हो गया। रविन्द्रनाथ कवि तथा नाटक के अभिनेता के तौर पर प्रसिद्धि प्राप्त कर रहे थे, सत्रह साल की उम्र में अंग्रेज़ी की पढ़ाई के लिए 1878 में इंगलैंड भेजे वे अपनी शिक्षा पूरी करने से पहले ही बुला लिये गए। 9 दिसम्बर 1883 को बाईस साल की उम्र में मृणालिनी देवी के साथ उनका विवाह कर दिया गया। उनके पांच संतानें हुईं। इनकी शिक्षा की व्यवस्था घर पर ही की। इनकी पत्नी के देहांत के बाद बच्चों को पिता के साथ-साथ मां का प्यार भी दिया। बाल मनोविज्ञान को जानने का अवसर मिला और बेहतरीन बाल साहित्य की रचना की। इनकी बेटी तथा एक बेटे की मृत्यु ने गहरा आघात पहुंचा। उन्होंने 1901 में विश्वभारती स्कूल की स्थापना की। जिसमें अंग्रेजी शिक्षा के विकल्प के तौर पर शुरु की थी। आज यह शान्तिनिकेतन विश्वविद्यालय के तौर पर फल-फूल रहा है।
1911 में भारत का राष्ट्रगान ‘ष्जन गण मण’ लिखा और उसी साल उन्होंने ब्रह्मसमाज की पत्रिका ‘तत्वबोध प्रकाशिका‘ में इसे ‘भारत विधाता‘ शीर्षक से प्रकाशित किया था। इस पत्रिका का सम्पादन गुरुदेव ही करते थे।1911 में ही भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के कलकत्ता अधिवेशन में 27 दिसंबर को इसे गाया गया।शुरु में इस पर आरोप लगाया जाता रहा कि यह जार्ज पंचम की अभ्यर्थना में लिखा गया है। कहा तो यहां तक गया कि गीत में जार्ज पंचम को ही भारत भाग्य विधाता कहा गया है।यह संयोग ही था कि जिस अधिवेशन में यह गाया गया उसी अधिवेशन में जार्ज पंचम का अभिनंदन करने का निर्णय लिया गया था। अभिनंदन करने का कारण था कि उन्होंने बंगभंग के फैसले को रद्द करने का ऐलान किया था।
गुरुदेव ने इन विवादों का ज़ोरदार विरोध किया और कहा कि ‘भारत भाग्य विधाता‘ और ‘जय हे‘ का भारत के जनगण के लिए ही व्यवहार किया गया है। यह गीत देश के जनगण के लिए समर्पित है। गुरुदेव ने स्वयं 1905 में बंगभंग के ख़िलाफ़ कलकत्ता में निकले ऐतिहासिक जुलूस का नेतृत्व किया था। उसी दौरान उन्होंने ‘बंगलार माटि बंगलार जल‘ शीर्षक गीत लिखा था। रविन्द्रनाथ टैगोर शिक्षा शास्त्री, दार्शनिक, कवि, चित्रकार के तौर पर प्रसिद्ध हुए। 15 साल की उम्र में उन्होंने कविता पाठ किया। उनकी कविताएं उनके मित्र की मासिक पत्रिका में प्रकाशित होती थी और उनके नाटकों में मुख्य भूमिका निभाने के कारण कलकत्ता के आस पास के क्षेत्र में जाने जाने लगे थे। 51 साल तक उनका दायरा सीमित ही रहा। 1912 में उनकी प्रसिद्धि हुई। उन्होंने अपनी कविताओं का अंग्रेजी में अनुवाद किया। अपनी डायरी को भूल गए और वह चित्रकार रोथेन्स्टाइन के हाथ लग गई। इस चित्रकार ने अपने दोस्त प्रख्यात कवि डब्ल्यू. बी. यीट्स को दिखाया। उन्हें ये कविताएं बेहद पसन्द आईं और उसकी भूमिका लिख दी जो 1912 में लंदन गीतांजलि नाम से प्रकाशित हुई। और एक साल के भीतर नोबेल पुरस्कार से नवाजा गया। और रविन्द्रनाथ पूरी दुनिया में प्रसिद्ध हो गए। इस पुरस्कार को प्राप्त करने वाले पहले गैर पश्चिमी व्यक्ति थे। रविन्द्रनाथ टैगोर मूलत: बंगला भाषा के कवि हैं, लेकिन गीतांजलि की सफलता के बाद उन्होंने अपनी रचनाओं को अंग्रेजी में अनुवाद किया।1913 में गीतांजलि की कविताओं पर नोबेल पुरस्कार मिला और इससे एक लाख बीस हजार रुपए मिले जो शान्तिनिकेतन आश्रम के कामों में लगा दिए। 1915 में अंग्रेजी सरकार ने सर की उपाधि दी। 1919 में जलियांवाला बाग के बर्बर नरसंहार से दुखी होकर रोष स्वरूप इसे वापिस लौटा दिया। और बहुत ही तीखा पत्र लिखा जिसे साहसी कार्रवाई माना गया।
रविन्द्रनाथ ने 11 बार विदेश की यात्राएं कीं। पूरा यूरोप, रूस, अमेरिका के दोनों महाद्वीप, चीन, जापान, मलाया, जावा, ईरान आदि देशों की यात्रा की। कई विद्वानों से परिचय हुआ। विलियम रोथेन्स्टाइन, कवि यीट्स, एच जी वेल्स, आईंस्टाइन से मुलाकात हुई। प्रसिद्ध वैज्ञानिक बोस से उनकी गहरी मित्रता थी। अपने जमाने के हर क्षेत्र के यशस्वी लोगों से टैगोर के संबंध थे। 7 अगस्त 1941 को रविन्द्रनाथ की मृत्यु हो गई।
उन्होंने एक हजार से अधिक कविताएं, आठ कहानी संग्रह, दो दर्जन नाटक, आठ उपन्यासों के अलावा धर्म, दर्शन, संस्कृति,शिक्षा आदि विषयों पर सैंकड़ों निबन्धों उनके विचार हैं। साहित्य लेखन के अलावा वे संगीतकार थे। उन्होंने लगभग दो हजार गीतों को संगीत दिया। 1929 में उन्होंने चित्रकारी शुरु की।
भारत के भविष्य का स्पष्ट नक्शा उनके जेहन में था, जो उनके साहित्यिक-रचनाओं में परिलक्षित होता है।’प्रार्थना’ और ’त्राण’ कविता में जो संकल्प है, वह रवीन्द्रनाथ के जीवन और साहित्य के लक्ष्यों व प्रतिबद्धताओं के साथ भारतीय समाज में व्याप्त समस्याओं की ओर भी संकेत करती है।
चित्त जहाँ शून्य, शीश जहाँ उच्च है
ज्ञान जहाँ मुक्त है, जहाँ गृह-प्राचीरों ने
वसुधा को आठों पहर अपने आँगन में
छोटे-छोटे टुकड़े बनाकर बन्दी नहीं किया है
जहाँ वाक्य उच्छ्वसित होकर हृदय के झरने से फूटता
जहाँ अबाध स्रोत अजस्र सहस्रविधि चरितार्थता में
देश-देश और दिशा-दिशा में प्रवाहित होता है
जहाँ तुच्छ आचार का फैला हुआ मरुस्थल
विचार के स्रोत पथ को सोखकर
पौरुष को विकीर्ण नहीं करता
सर्व कर्म चिन्ता और आनन्दों के नेता
जहाँ तुम विराज रहे हो
हे पिता, अपने हाथ से निर्दय आघात करके
भारत को उसी स्वर्ग में जागृत करो!


रवीन्द्र नाथ टैगोर ’त्राण’ कविता में व्यक्त चरित्र के नैतिक-उत्थान, आत्मिक-विकास की बात करते हैं, वही बार-बार उनकी रचनाओं का विषय बना है।
हे मंगलमय, इस अभागे देश से
सर्व तुच्छ भय दूर कर दो।
लोक-भय, राज-भय और मृत्यु भय
प्राण से दीन और बल से हीन का यह असभ्य भार
यह नित्य पिसते रहने की यन्त्रणा
नित्य धूलि-तल में पतन
पल-पल पर आत्मा का अपमान
भीतर-बाहर दासत्व के बन्धन
हजारों के पैरों के नीचे बार-बार त्रस्त और नतशिर होकर
मनुष्य की मर्यादा गौरव का अपहरण परिहरण
मंगलमय अपने चरण के आघात से
इस विपुल लज्जा-राशि को
चूर्ण करके दूर कर दो
अनन्त आकाश उदार आलोक
उन्मुक्त वातास से भरे हुए मंगल प्रभात में
सिर ऊँचा करने दो।
रवीन्द्र नाथ की कविता में काम करते हुए साधारण जन आते हैं।आम साधारण लोगों की मेहनत को रेखांकित करते हैं। उनके प्रति रवीन्द्र नाथ के मन में बड़ा आदर है।आम किसानों-मजदूरों को वे वास्तविक देवता के मानते हैं।साहित्य में आमजन को इससे पहले ऐसी प्रतिष्ठा शायद ही मिली हो। रवीन्द्र नाथ के साहित्य में आम जन के विश्वसनीय चित्रों के पीछे उनका लगाव है। रवीन्द्र नाथ को उनके बीच रहने का मौका मिला, उन्होंने उस जीवन को समझा। आमजन से सच्ची सहानुभूति के बिना ऐसा लेखन संभव नहीं है।

''धुलि-मंदिर'' कविता में
देवता तो वहाँ गए हैं,
जहाँ माटी गोड़कर खेतिहर खेती करते हैं -
पत्थर काटकर राह बना रहे हैं,
बारहों महीने खट रहे हैं।
क्या धूप, क्या वर्षा, हर हालत में सबके साथ हैं
उनके दोनों हाथों में धूल लगी हुई है
अरे, तू भी उन्हीं के समान स्वच्छ कपड़े बदलकर धूल पर जा।

रवीन्द्र नाथ की कविताओं में ब्राह्मणवाद के शिकार दलितों की पीड़ा को समझा और कविताओं में अभिव्यक्त किया।
''ब्राह्मण'' कविता में ''अपमानित'' कविता में
ऐ मेरे देश, तुमने जिनका अपमान किया है
अपमान में तुम्हें उन सबके समान होना होगा।
जिन्हें तुमने मनुष्य के अधिकार से वंचित किया है
सामने खड़ा रखा और तो भी गोद में जगह न दी
अपमान में तुम्हें उन सबके समान होना होगा।

देख नहीं पाते, मृत्यु-दूत द्वार पर खड़ा है
उसने तुम्हारी जाति के अंहकार पर अभिशाप आँक दिया है
अब भी अगर सबको नहीं बुलाते, दूर खड़े रहते हो
चारों ओर अभिमान से अपने को बाँधे रखते हो
तो फिर मौत से चिता की भस्म में सबके समान होगे।

प्रेम रवीन्द्रनाथ की कविताओं का प्रमुख विषय है, जो प्रकृति, मानव से होता हुआ समस्त पृथ्वी तक जाता है। बांगला साहित्य का इतिहासकार सुकुमार सेन ने सही लिखा है कि ''जीवन के प्रति रवीन्द्र नाथ का दृष्टिकोण स्वीकृति, प्रशंसा और कृतज्ञता का था, क्षोभ और शिकायत का नहीं।'' रवीन्द्रनाथ टैगोर हिन्दी के निराला व बांगला के नजरूल इस्लाम की तरह विद्रोही नहीं थे, लेकिन मुक्ति की चाह उनकी रचनाओं के केन्द्र में है। बार-बार विभिन्न विधाओं में इसे व्यक्त करते हैं। ''दो पंछी'' कविता में पिंजरे में बंद पंछी और जंगल के पंछी के बीच संवादों के जरिये ऐश्वर्य़पूर्ण गुलामी के प्रति हेय तथा कष्टपूर्ण आजादी के प्रति मोह रवीन्द्रनाथ के मंतव्य को उद्घाटित करने के लिए काफी है।

वन के पंछी ने कहा, 'भई पिंजरे के पंछी हम मिलकर वन में चलें।'
पिंजरे का पंछी बोला, 'भाई वनपाखी, आओ
हम आराम से पिंजरे में रहें।'
वन के पंछी ने कहा, 'नहीं
मैं अपने-आपको बांधने नहीं दूँगा।'
पिंजरे के पंछी ने पूछा,
'मगर मैं बाहर कैसे निकलूँ? '

वन का पंछी कहता है,
'भाई पिंजरे के पंछी, तनिक वन का गान तो गाओ।'
पिंजरे का पंछी कहता है,
'तुम पिंजरे का संगीत सीख लो।'
वन का पंछी कहता है,
'ना, मैं सिखाए-पढ़ाए गीत नहीं गाना चाहता।'
पिंजरे का पंछी कहता है,
'भला मैं जंगली गीत कैसे गा सकता हूँ? '
वन का पंछी कहता है,
'आकाश गहरा नीला है,
उसमें कहीं कोई बाधा नहीं है।'
पिंजरे का पंछी कहता है,
'पिंजरे की परिपाटी
कैसी घिरी हुई है चारों तरफ से!'
वन का पंछी कहता है,
'अपने-आपको
बादलों के हवाले कर दो।'
पिंजरे का पंछी कहता है,
'सीमित करो, अपने को सुख से भरे हुए एकान्त में।'
वन का पंछी कहता है,
'नहीं, मैं वहाँ उडूंगा कैसे? '
पिंजरे का पंछी कहता है,
'हाय, बादलों में बैठने का ठौर कहाँ हैं? '

रवीन्द्रनाथ के जीवन-अनुभवों और अन्तर्दृष्टि ने पहचान लिया था कि आजादी प्राप्त करने के संघर्ष में सबसे पहले खुद से संघर्ष करना पड़ता है। आजादी कभी खैरात में नहीं मिलती, उसके लिए कीमत चुकानी पड़ती है। ऐश्वर्य और सुविधापरस्त समाज की आजादी की चाह आत्मछलना है।
रविन्द्रनाथ के महात्मा गांधी जैसे राजनीतिक लोगों के साथ घनिष्ठ संबंध थे, लेकिन वे राजनीति में कभी सक्रिय नहीं हुए। आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी ने रविन्द्रनाथ के राष्ट्रगान नामक निबंध में लिखा कि “यह युग भारतवर्ष में राजनैतिक जागरण का युग है। रवीन्द्रनाथ ने किसी जमाने में राजनैतिक आंदोलनों में सक्रिय भाग लिया था, परंतु बहुत शीघ्र ही उन्होंने देखा कि जिन लोगों के साथ उन्हें काम करना पड़ रहा है, उनकी प्रकृति के साथ उनका मेल नहीं है। रवीन्द्रनाथ अंतर्मुख-साधक थे। हल्ला-गुल्ला करके, ढोल पीट के, गला फाड़ के, लेक्चरबाजी करके जो आंदोलन किया जाता है, वह उचित नहीं जंचता था। देश में करोड़ों की संख्या में दलित, अपमानित, निरन्न, निर्वस्त्र लोग हैं, उनकी सेवा करने का रास्ता ठीक वही रास्ता नहीं है जिस पर वाग्वीर लोग शासक-वर्ग को धमकाकर चला करते हैं। शौकिया ग्रामोद्धार करने वालों के साथ उनकी प्रकृति का एकदम मेल नहीं था। जो लोग सेवा करना चाहते हैं उन्हें चुपचाप सेवा में लग जाना चाहिए। सेवा का विज्ञापन करना सेवा भावना का विरोधी है।”

रविन्द्रनाथ का समय भारतीय इतिहास में क्रांतिकारियों तथा राष्ट्रवादियों के उत्थान का समय है। समाज को हिला देनेवाली घटनाएं उस दौरान हुईं। लेकिन रविन्द्रनाथ का इनके प्रति उदासीनता व तटस्थ भाव एक नई उलझन पैदा करता है। यद्यपि 1857 के मंतव्यों और शहीदों के अप्रतिम साहस को सही परिप्रेक्ष्य देकर अपने समय के साहित्यकारों से अलग रुख अपनाया था। प्रथम स्वाधीनता संग्राम के प्रति साहित्यकारों के इस रुख को पहचानकर ही रविन्द्र नाथ टैगोर ने बड़े दुखी मन से लिखा कि ‘‘उस दिन मैने 1857 के महान विप्लव के क्रान्तिकारी दृश्यों के बीच झांक कर देखा और ऐसे अनेक बहादुर लोगों की कल्पना की जो पूरे जोश के साथ भारत के विभिन्न हिस्सों में व्याप्त अराजकता के बीच प्रयास करते हुए संघर्ष की कार्रवाई में उतरे थे। यह माना गया कि इस सिपाही-युद्ध के दौरान कई नायकों ने अपनी ऊर्जा का उपयोग एक गैर जरूरी बहादुरी के बिन्दु तक किया। यदि इस तर्क को मान भी लिया जाए तो भी यह जरूर स्वीकार किया जाना चाहिए कि ये सिपाही वास्तव में बहादुर थे। उनका नामोल्लेख विश्व के महानतम वीरों में किया जाना चाहिए। इस देश का कैसा दुर्भाग्य है कि ऐसे वीरों के जीवन-वृतांत हमें विदेशियों द्वारा लिखे गए पक्षपाती इतिहास के पन्नों से जुटाने पड़ते हैं। इस सिपाही विद्रोह काल में हम ऐसे अनेक वीर योद्धाओं को चिह्नित कर सकते हैं जो यदि यूरोप में पैदा हुए होते तो उन्हें इतिहास के पन्नों में ही नहीं, कवियों के गीतों, मार्बल की प्रतिमाओं और ऊँचे स्मारकों में अमर बनाने के प्रयास अवश्य होते।’’
रविन्द्रनाथ टैगोर ने अपने जीवन को ही अपनी पाठशाला बनाया। अपने जीवन के प्रयोगों से ही उनके सिद्धांत निकले। शिक्षा के क्षेत्र में जो वो मौलिक व वैकल्पिक प्रणाली दे पाए, वह उनके अनुभव की उपज थी। वे स्कूल में गए, लेकिन जल्दी ही छूट गया और अपने घर पर रहकर ही शिक्षा प्राप्त की। बेरिस्टर की उपाधि के लिए लंदन में गए, लेकिन बीच में ही छोड़ कर आ गए। शांतिनिकेतन विश्वविद्यालय बनाने तथा उसकी शिक्षण-पद्धति के निर्मित होने में शिक्षण संस्थाओं में उनके अनुभवों का सर्वाधिक योगदान है। अपनी कविता-कहानियों-नाटकों तथा शिक्षा-संबंधी लेखों में इस संबंध में विचार प्रस्तुत किए हैं।
उन्होंने शिक्षा-व्यवस्था-प्रणाली-पद्धति तथा उसके मंतव्यों पर गंभीरता से विचार किया है। स्कूली-शिक्षा पर विशेष तौर से। उनके सामने एक स्पष्ट लक्ष्य था, बेहतर समाज के निर्माण का। शिक्षा को वे मनुष्यता के विकास-उत्थान का साधन मानते थे। शिक्षा को विशेषाधिकार नहीं, बल्कि अधिकार के रूप में चाहते थे। शिक्षा के ढांचे की जकड़ विद्यार्थी को भींचकर ही मार देती है। उन्होंने शिक्षा-ज्ञान के चरित्र के विभिन्न पहलुओं पर विचार किया।उन्होंने लिखा कि “शिक्षा का सबसे बड़ा अंग समझा देना नहीं है, मन पर चोट लगाना है। इस आघात के भीतर से जो चीज बज उठती है उसकी व्याख्या करने के लिए अगर किसी लड़के को कहा जाए तो वह बिल्कुल बच्चों -जैसी कोई बात होगी। लेकिन वह मुंह से जो कुछ कह पा रहा है उससे कहीं अधिक उसके मन में बज रहा है जो लोग विद्यालय से शिक्षार्जन करके केवल परीक्षा के द्वारा फल का निर्णय करना चाहते हैं कि उन्हें इस चीज की कोई खबर नहीं होती। मुझे याद आता है, बचपन में मैं बहुत सी चीजें नहीं समझता था, लेकिन उनसे मेरे मन में बड़ी हलचल सी पैदा हो जाती थी। ”
आज उनके विचारों का महत्तव अधिक हो गया है। वैश्वीकरण व उदारीकरण की नीतियों के कारण शिक्षा का अर्थ पूर्णरूपेण बदल गया है। शासन-सत्ताओं, नीति-निर्माताओं तथा शिक्षकों व विद्यार्थियों शिक्षा के समस्त घटकों में शिक्षा के अर्थ बदल गए हैं। शिक्षा व्यापार की वस्तु के रूप में बदल दी गई है। रवीन्द्र नाथ की तोते की कहानी वर्तमान की शिक्षा-प्रणाली का गहन विश्लेषण करती है। उसके समस्त पक्षों को छूते हुए शिक्षा की वैकल्पिक प्रणाली के सूत्र इसमें निहित हैं। तोते की शिक्षा का जिम्मा अपने भांजे को देता है, जिसका शिक्षा से कोई लेन-देन नहीं है। वह भव्य इमारतें, अत्यधिक पुस्तकें व शिक्षकों की व्यवस्था तो करता है और खूब अमीर हो जाता है। लेकिन तोते की शिक्षा देने के लिए उसकी कोई समझ नहीं है, वह उसे कागज़ खिलाता है। तोते की शिक्षा की व्यवस्था में जुटे लोग तो मालामाल होते जाते हैं और तोता धीरे-धीरे मरने की ओर अग्रसर होता जाता है, अन्ततः वह मर जाता है। आज शिक्षा में सबसे उपेक्षित विद्यार्थी है। उसका घोर शोषण हो रहा है। रवीन्द्र नाथ टैगोर ने शिक्षा पर गहन जोर दिया।
भविष्य के प्रति जो चिंतित है, वह बच्चों पर जोर देता है। रवीन्द्र नाथ ने बच्चों के लिए जितनी गंभीरता से और जितनी मात्रा में साहित्य की रचना की है, उसके आधार पर कहा जा सकता है कि वे बच्चों के पालन-पोषण से लेकर उनके मानसिक विकास के लिए कार्यरत थे।
भारतीय नवजागरण के सवालों में स्त्री-मुक्ति का सवाल प्रमुख सवाल था, जिसके इर्द-गिर्द परिवार नामक संस्था का जनतांत्रिकरण, स्त्री-पुरुष समानता, स्त्री के स्वतंत्र व्यक्तित्व, स्त्री-शिक्षा, बाल-विवाह आदि समस्याओं को संबोधित करता था। यद्यपि इसमें उत्तराधिकार व संपति के अधिकार शामिल नहीं थे, लेकिन तत्कालीन संदर्भ में यह काफी क्रांतिकारी था। इसका स्वरूप बेशक संरक्षणवादी था, लेकिन इससे जो चिंगारी निकली, उसी से स्त्री-मुक्ति के स्वतंत्र स्वर मुखरित हुए।
रविन्द्र नाथ ने भारतीय समाज व परिवार में स्त्री की स्थिति का वर्णन करते हुए उसकी मुक्ति के लिए आवाज उठाई। भारतीय रूढ़िवादी समाज में स्त्री की दशा दयनीय थी। रवीन्द्र नाथ ने घर में ही ऐसा देखा और उसे अपने साहित्य में स्थान दिया। पत्नी का पत्र आदि कहानियों तथा घर बाहर, ठकुरानी बहु आदि उपन्यासों में विशेष तौर पर इसे विषयवस्तु बनाया।
रविन्द्र नाथ पश्चिम के आधुनिक ज्ञान और भारत की परम्पराओं के सांमजस्य बिठाने वाले वे व्यक्ति थे। उनको पश्चिम के साहित्य और विज्ञान की गहरी समझ थी तथा भारतीय इतिहास और संस्कृति की नस नस से वे पूर्णत: वाकिफ थे। रविन्द्रनाथ ने अपनी परम्परा का मूल्यांकन तार्किक ढंग से किया। संस्कृत-साहित्य की समृद्ध परम्परा को आत्मसात किया। महाभारत, रामायण के अलावा कालिदास को समझा। बुद्ध, जैन, लोकायतों के चिन्तन-दर्शन को समझा। भक्तिकाव्य की संत व सूफी काव्य का गहराई से अध्ययन किया। भारतीय इतिहास की विभिन्न सांस्कृतिक धाराओं को समझा। इस सबके तार्किक दृष्टि अपनाने से उदार मानवीय दृष्टि विकसित हुई, जिससे वे भारतीय साहित्य व इतिहास का अद्भुत विश्लेषण कर पाए। गांधारी, कर्ण, जैसे चरित्रों पर कलम चलाकर उन्हें युगानुरूप व्याख्यायित किया। कबीर से वे अत्यधिक प्रभावित थे, कबीर को उन्होंने जिस तरह से समझा, पूरे विमर्श को ही बदल दिया। उनका यह प्रभाव हिन्दी में आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी के माध्यम से पड़ा।
भारत की बहु-संस्कृति, बहुधर्मी की शक्ति को रविन्द्रनाथ ने पहचाना। विभिन्न क्षेत्रों से आए विभिन्न संस्कृतियों के लोगों के परस्पर आदान-प्रदान से जिस सांझी संस्कृति का निर्माण हुआ, उसे रविन्द्र नाथ ने रेखांकित किया। वे भारत को संस्कृतियों का महा-समुद्र कहते थे। भारत-तीर्थ कविता में इस विचार को अभिव्यक्ति दी। कई लेख इस संबंध में लिखे। उनके इन विचारों का प्रभाव जवाहर लाल नेहरु पर, रामधारी सिंह दिनकर आदि पर दिखाई देता है, जिन्होंने इस विषय पर विस्तृत शोध किया।
कोई नहीं जानता, किसके आह्वान पर
कितने लोगों की दुर्वार धारा कहाँ से आई, और
इस सागर में खो गई।
आर्य, अनार्य, द्रविड़, चीनी, शक, हूण, पठान, मुगल
सब यहाँ एक देह में लीन हो गए।
आज पश्चिम ने द्वार खोला है, वहाँ से सब भेंट ला रहे हैं
ये देंगे और लेंगे, मिलाएँगे और मिलेंगे, लौटकर नहीं जाएँगे -

लड़ाई के स्रोत में विजय के उन्मत गीत गाते हुए
मरुभूमि और पहाड़-पर्वतों को पार करके जो लोग आए थे
वे सब-के-सब मुझमें विराज रहे हैं, कोई भी दूर नहीं है
मेरे लहू में उनका विचित्र सुर ध्वनित है
आर्य रुद्रवीणा, बजो, बजो, बजो
घृणा से आज भी दूर खड़े हैं जो
बन्धन तोड़ेंगे - वे भी आएँगे, घेरकर खड़े होंगे
इस भारत के महामानव के सागर के सागर-तट पर।

किसी दिन यहाँ महा ओंकार की अविराम ध्वनि
हृदय के तार में ऐक्य के मन्त्र से झंकृत हुई थी।
तप के बल से 'एक' के अनल में 'बहु' की आहुति दे
भेद-भाव भुलाकर एक विराट् हृदय को जगाया था।
उसी साधना, उस आराधना की
यज्ञशाला का द्वार आज खुला है
सबको यहाँ सिर झुकाकर मिलना होगा-
इस भारत के महामानव के सागर-तट पर।

न तो उन्होंने परम्परा का अंधानुकरण किया और न ही आधुनिकता का। परम्परा के मामले में मालविकाग्निमित्रम् में कालिदास का कथन ही उनका आदर्श था।
पुराणमित्येव न साधु सर्वं न चापि काव्यं नवमित्यवद्यम्।
सन्तः परीक्ष्यान्यतरद्भजन्ते मूढः परप्रत्ययनेयबुद्धिः।।
परम्परा के प्रति ऐसे विवेकपूर्ण रवैये के कारण ही वे संकीर्ण राष्ट्रवाद की सीमाओं व खतरों को समझते थे। लोकतंत्र और धर्मनिरपेक्षता के परस्पर संबंध को वे समझते थे। परम्परा के भार से दबे हुए नहीं थे। निर्भीक आलोचना उनके चिन्तन को विश्वसनीयता प्रदान करता है। वर्तमान जीवन से परम्परा को तथा परम्परा से वर्तमान जीवन को समझने की अद्भुत टेक्नीक विकसित की। भारतीय दर्शन की अद्भुत कृति गीता पर टिप्पणी इसे समझा जा सकता है।
1932 में रवीन्द्रनाथ टैगोर ईरान के शाही निमन्त्रण पर वायुमार्ग से ईरान गए थे। इस हवाई यात्रा का वर्णन उन्होंने अपनी फारस में नामक छोटी सी पुस्तिका में किया है। उन्होंने लिखा कि वह पृथ्वी जिसे मैं उसकी विविधता और निश्चयात्मकता वाली वस्तुओं का संज्ञान कराने वाली के रूप में जानता हूँ, अस्पष्ट सी होने लगी और इसका त्रिआयामी स्वरूप सिमटकर द्विआयामी यानी चित्र की तरह प्रतीत होने लगा। ...मुझे ऐसा लगने लगता है कि उस स्थिति में जब मनुष्य इतनी ऊंचाई से सैंकड़ों विनाशकारी शस्त्रों को बरसाता है वह कितना नृशंस हो सकता है। वह इस अपराध की भयानकता से किंचित भी विचलित नहीं होता जो उसके उठे हुए हाथ को संकोच से कंपा सकती और रोक सकती थी, अगर वह मारे जाने वालों की वास्तविक संख्या को जान सकता लेकिन वे तो उसके सामने आ ही नहीं पाते। लेकिन जब वह यथार्थ जिससे मनुष्य का घनिष्ठ संबंध रहता है, धुंधला हो जाता है तो उस घनिष्ठता का आधान भी तिरोहित हो जाता है। गीता में प्रस्तुत उपदेश और दर्शन इसी तरह का एक ऐरोप्लेन है - अर्जुन की चेतना को जो कि करुणा से पूर्ण थी उसे ऐसी ही ऊंचाई पर ले जाया गया, जहां कोई यह नहीं पहचान सकता था कि कौन वधिक है और कौन वध्य। कौन सगा संबंधी है और कौन अजनबी। मनुष्य के आयुधागार में ऐसे कितने ही ऐरोप्लेन भरे पड़े हैं जो दर्शनों से निर्मित हैं जो सामाजिक धार्मिक सिद्धांतों के रूप में उस यथार्थ को ढँक लेते हैं जो साम्राज्यवाद या विस्तारवाद की नीतियों से पैदा होता है। इसमें उसके लिए केवल यही संतोष बचा रहता है, जब भी उस पर विनाश फट पड़ेगा - न हन्यते हन्यमाने शरीरे। ।।

राजनीतिक वैचारिक तौर पर वे सैन्यवाद और राष्ट्रवाद के खिलाफ थे। वे बहु-संस्कृति, विविधता और सहनशीलता के पक्षधर और विश्वबंधुत्व के समर्थक थे। संकीर्ण राष्ट्रवाद की उनके चिन्तन में कोई जगह नहीं थी। साम्राज्यवाद का सबसे क्रूर और स्पष्ट चेहरा युद्ध में नजर आता है। रवीन्द्र नाथ ने दो-दो विश्वयुद्धों से उत्पन्न त्रासदी को महसूस किया। युद्ध का दौर उनके लिए सर्वाधिक पीड़ादायी था। वे युद्ध के खिलाफ किसी राजनीतिक नफे-नुक्सान की गणना करके नहीं थे, बल्कि युद्ध को वे मानव-संस्कृति के विनाशक के तौर पर देखते थे। ‘जे युद्धे भाई के मारे भाई’ कविता जिसका मूल बांग्ला से हिन्दी अनुवाद मोहनदास करमचंद गांधी ने किया महत्तवपूर्ण है।
वह लड़ाई ईश्वर के खिलाफ लड़ाई है ,
जिसमें भाई भाई को मारता है ।

जो धर्म के नाम पर दुश्मनी पालता है ,
वह भगवान को अर्घ्य से वंचित करता है ।
जिस अंधेरे में भाई-भाई को नहीं देख सकता ,
उस अंधेरे का अंधा तो
स्वयं अपने को नहीं देखता ।
जिस उजाले में भाई भाई को देख सकता है ,
उसमें ही ईश्वर का हँसता हुआ
चेहरा दिखाई पड़ सकता है ।
जब भाई के प्रेम में दिल भीग जाता है ,
तब अपने आप ईश्वर को
प्रणाम करने के लिए हाथ जुड़ जाते हैं।

रवीन्द्रनाथ की मृत्यु पर गांधी जी ने कहा था कि “गुरुदेव की देह खाक में मिल चुकी है, लेकिन उनके अंदर जो जोत थी, जो उजाला था, वह तो सूरज की तरह था, जो तब तक बना रहेगा, जब तक धरती पर जानदार रहेंगे। गुरुदेव ने जो रोशनी फैलाई वह आत्मा के लिए थी। सूरज की रोशनी जैसे हमारे शरीर को फायदा पँहुचाती है, वैसे गुरुदेव की दी हुई रोशनी ने हमारी आत्मा को ऊपर उठाया है।... वे तो बस गुरुदेव ही नहीं थे, वे तो ऋषि थे।”
आज हमारा समाज साम्प्रदायिकता, धार्मिक पाखण्ड, जातिगत कट्टरता, साम्राज्यवादी शोषण, मानवीय मूल्यों के पतन, चारित्रिक पतन के संकटों से जूझ रहा है। इन समस्याओं से निजात पाने के लिए रवीन्द्रनाथ के साहित्य में मौजूद चेतना को जन जीवन का हिस्सा बनाने की आवश्यकता

Tuesday, July 19, 2011

मध्यकालीन राजनीतिक परिदृश्य और साझी संस्कृति

मध्यकालीन राजनीतिक परिदृश्य और साझी संस्कृति

मध्यकाल हिन्दी साहित्य के लिए बहुत ही महत्त्वपूर्ण समय था। समाज में व्यापक स्तर पर परिवर्तन हो रहे थे। उस समय में अमीर खुसरो, फरीद, कबीर, नानक, दादू, रैदास, जायसी, रहीम, रसखान आदि रचनाएं कर रहे थे। समय व क्षेत्र की दृष्टि से हिन्दी में भक्तिकाव्य से अभिहित किए जाने वाले साहित्य का फलक व्यापक है। हिन्दी साहित्य के इतिहासकारों ने भक्ति काल को हिन्दी साहित्य का 'स्वर्ण युग' कहा है। इसकी उत्पति के कारणों को तलाशने की कोशिश की है। ''किसी ने उसे मुसलमानों के आक्रमण और अत्याचार की प्रतिक्रिया माना है, तो किसी ने ईसाइयत की देन, किसी को उसमें निराश और हतदर्प जाति की कुंठाग्रस्त और अन्तर्मुखी चेतना की अभिव्यक्ति दिखाई दी तो किसी को वह तत्कालीन परिस्थितियों और सामाजिक असंतोष की उपज प्रतीत हुआ, किसी ने उसके मूल में यौगिक और तांत्रिक प्रवृतियों का प्रसार देखा और किसी ने लोकमत के शास्त्रीय आवरण की प्राप्ति।"1
आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के इस विचार को हिन्दी में काफी मान्यता मिली कि भक्ति साहित्य की उत्पति का कारण मुसलमानों का हिन्दुओं पर अत्याचार था और भक्ति के माध्यम से हिन्दू धर्म की रक्षा करने के लिए भक्ति को अपनाया। यद्यपि आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी ने आचार्य शुक्ल के मत को अपने तर्कों से तथ्यहीन साबित किया। उन्होंने कहा कि भक्ति आन्दोलन की उत्पति मुसलमानों के अत्याचारों के कारण नहीं हुई, क्योंकि भक्ति का जन्म दक्षिण भारत में हुआ और दक्षिण में न तो मुसलमानों के आक्रमण हुए थे और न ही तब तक मुसलमान दक्षिण तक गए थे। प्रसिद्घ है कि 'द्राविड़ भक्ति उपजी, लाए रामानन्द'। तथ्यहीन व तर्कपूर्ण न होने पर भी आचार्य शुक्ल का मत अधिकांश हिन्दी के शोधार्थियों व अध्यापकों की मानसिकता का हिस्सा बना रहा है। इसका कारण हिन्दी क्षेत्र में साम्प्रदायिक इतिहास चेतना है, जो वर्तमान राजनीतिक हितों की पूर्ति के लिए इतिहास का साम्प्रदायिकरण करती रही है। अपने समय के छ:-सात सौ साल के बाद भी प्रासंगिक भक्तिकाल का जीवन्त साहित्य मात्र प्रतिक्रिया में नहीं रचा जा सकता और 'पराजित व निराश मन' की उपज तो कतई नहीं हो सकता। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने मुसलमानों के आगमन को एक अनिवार्य बुराई की तरह से देखा, उनके आने से यहां के जीवन में क्या अन्तर आया, इसे देखने में वे चूक गए और परिस्थितियों पर समग्रता से विचार किये बिना बहुत सरलीकृत ढंग से भक्तिकाल के साहित्य की उत्पति को साम्प्रदायिक रंग दे दिया।
भारत में सम्प्रदाय के आधर पर हिन्दू और मुसलमान के बीच वैमनस्य व दंगे-फसाद अंग्रेजी शासन के दौरान आरम्भ हुए। अपने शासन को टिकाये रखने के लिए साम्राज्यवादी अंग्रेजी शासकों ने जनता में फूट डालने के लिए लोगों की धार्मिक भावनाओं को उकसाना-भड़काना शुरू किया। इसके लिए उन्होंने मध्यकाल इतिहास को तोड़-मरोड़कर हिन्दू-मुस्लिम संघर्ष के तौर पर पेश किया। इतिहास का काल-विभाजन व नामकरण धर्म के आधार पर 'हिन्दू काल' व 'मुस्लिम काल' के तौर पर किया, जबकि अपने शासन को ईसाई काल न कहकर अंग्रेजी शासन काल ही कहा। ऐतिहासिक तथ्यों पर नजर डालने पर ऐसा कोई काल नजर नहीं आता, कि जिसमें किसी धर्म विशेष के लोगों का शासन हो और दूसरे धर्म के लोग उनके शासित हों। शासक अपना साम्राज्य स्थापित करते हैं, चाहे वे किसी भी धर्म के शासक हों, वे अपने धर्म के आधर पर शासन नहीं करते, लेकिन अंग्रेजी शासकों ने शासकों की लड़ाइयों को हिन्दू व मुसलमान की लड़ाई के तौर पर पेश किया, जबकि एक हिन्दू शासक दूसरे हिन्दू शासक ने लडऩे तथा मुसलमान शासकों के दूसरे मुसलमान शासकों से लडऩे तथा हिन्दू व मुसलमान शासकों के मिलकर किसी शासक से लडऩे के उदाहरणों से इतिहास भरा पड़ा है।2
हिन्दू और मुसलमानों में वैमनस्य पैदा करने के लिए अंग्रेजों ने बहु प्रचारित किया कि मुसलमानों ने हिन्दुओं के मंदिरों को ध्वस्त करके हिन्दुओं का अपमान किया। राजाओं की लड़ाइयों के कारण, धार्मिक नहीं, बल्कि राजनीतिक थे, उसी तरह धर्म-स्थलों के गिराने के कारण भी धार्मिक नहीं, बल्कि राजनीतिक व आर्थिक थे। महमूद गजनी ने सोमनाथ के मंदिर को लूटा तो उसका कारण धार्मिक नहीं, बल्कि आर्थिक था।3
अंग्रेजों ने हिन्दुओं व मुसलमानों में विद्वेष पैदा करने के लिए धर्मान्तरण को भी तूल दिया और इस झूठ को जोर-शोर से प्रचारित किया कि तलवार के जोर पर इस्लाम का विस्तार हुआ, जबकि तथ्य इसके विपरीत हैं। इस्लाम के प्रसार का कारण मुसलमान शासकों के अत्याचार नहीं थे, बल्कि वर्ण-व्यवस्था थी, जिसमें समाज की आबादी के बहुत बड़े हिस्से को मानव का दर्जा ही नहीं दिया गया। इस्लाम में इस तरह के भेदभाव नहीं थे, इसलिए अपनी मानवीय गरिमा को हासिल करने के लिए हिन्दू धर्म में निम्न कही जाने वाली जातियों ने धर्म परिवर्तन किया। धर्मपरिवर्तन में सूफियों के विचारों की भूमिका है, न कि मुस्लिम शासकों की क्रूरता व कट्टरता की।4
भक्तिकाव्य के प्रति साम्प्रदायिक रुख अख्तियार करने के कारण ही इसकी मत-मतान्तरिक, ब्रह्म, जीव, जगत, व माया के दार्शनिक-तात्विक पक्ष, भक्ति के तात्विक पक्ष, साधना के विविध पक्षों की व्याख्याएं की और मूल्यांकन में एकांगी रुख अपनाए जाने के कारण इस साहित्य के सामाजिक आधार की अनदेखी हुई।
मुसलमानों के यहां आने से समाज में हुए सामाजिक-सांस्कृतिक परिवर्तनों ने समाज को प्रभावित किया उसके सकारात्मक पक्षों का ही परिणाम है - भक्ति आन्दोलन का काव्य। ''तुर्क शासन के बाद भारत की सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक परिस्थितियों में महत्त्वपूर्ण परिवर्तन आरम्भ हुए। सिंचाई में रहट का व्यापक रूप से प्रयोग आरम्भ हुआ जिससे नदियों के किनारे विशेष रूप से पंजाब और दोआब के क्षेत्र में कपास और अन्य फसलों की पैदावार में बहुत वृद्घि हुई। सूत कातने के लिए तकली के स्थान पर चरखे का व्यापक प्रयोग होने लगा। इसी तरह रुई धुनने में तांत का प्रयोग जन साधारण के लिए महत्त्वपूर्ण बन गया था। कपास ओटने में चरखी का भी प्रयोग शुरू हुआ। तेरहवीं सदी में करघा के प्रयोग से बुनकरों और वस्त्र उद्योग की स्थिति में महत्त्वपूर्ण परिवर्तन हुआ। कपड़े की रंगाई और छपाई की भी इसी बीच व्यापक उन्नति हुई। मध्य एशिया के सीधे सम्पर्क के कारण भारत के व्यापार का भी बहुत प्रसार हुआ। इन नई परिस्थितियों ने व्यापारियों और कारीगरों का सीधा सम्बन्ध और गहरा करने में सहयोग दिया। वे व्यापारी कला और संस्कृति के आदान-प्रदान में भी महत्त्वपूर्ण संवाहक सिद्घ हुए।"5
मुसलमानों के आगमन से यहां के लोगों के जीवन में नई दृष्टि का संचार हुआ। नई नई वस्तुओं से वाकिफ हुए। खेती की व्यवस्था में परिवर्तन से जीवन में मूलभूत परिवर्तन हुआ। सड़कों व नहरों के निर्माण से सामाजिक जीवन में तुलनात्मक रूप से समृद्घि आई। विशेष तौर पर समाज के वे वर्ग अच्छी हालत में पहुंचे, जो कारीगर व श्रमिक थे। इसी वर्ग की आकांक्षाएं कबीर, नानक, रविदास व अन्य संतों की कविताओं में नजर आती हैं।
कबीर, नानक, रैदास, दादू आदि संतों का तेजस्वी काव्य सांस्कृतिक समन्वय की स्थितियों से उपजा काव्य है, न कि साम्प्रदायिक द्वेष व घृणा से, जैसा कि साम्राज्यवादी व साम्प्रदायिक इतिहास दृष्टि प्रस्तुत करती है। भारत का समाज दूसरे समाज के सम्पर्क में आया, विचारों का आदान-प्रदान हुआ, व्यापार के नए क्षेत्र खुले, जिसने भारतीय समाज के विभिन्न वर्गों को प्रभावित किया। भक्ति काल के संतों ने परम्परागत तौर पर प्रचलित संस्थागत हिन्दू धर्म और इस्लाम की संरचनाओं के स्थान पर नई प्रणालियों को विकसित किया। वे दोनों धर्मों के धार्मिक आडम्बरों और पाखण्डों का विरोध करते थे। वे धर्म के दायरे में रहते हुए भी उसको नई तरह से व्याख्यायित करने की जद्दोजहद की अभिव्यक्ति संत साहित्य में होती है।
जिन निम्न जातियों के लोगों को मुख्य सड़कों पर चलने का अधिकार भी नहीं था, शिक्षा का अधिकार नहीं था। उन वर्गों से संबंधित रचनाकार अब सरेआम वर्चस्वी वर्ग के लोगों को शास्त्रार्थ की चुनौती देते हैं, आखिर इस तरह के आत्मविश्वास का कारण, इनका सामाजिक-सांस्कृतिक अभ्युदय और तत्कालीन समाज में इनकी हैसियत के अलावा और क्या हो सकता है। निम्न जातियों से इतने संतों का आना और कबीर-रैदास का आत्मविश्वास इन वर्गों की सामाजिक-आर्थिक स्थिति की ओर भी संकेत करता है। परम्परागत तौर पर प्रचलित वर्चस्वी विचारों को चुनौती पेश करने वाली सामाजिक शक्तियां जो नए विचारों व परिवेश का स्पर्श पाकर विकसित हो उठी थीं, उन्हीं की आंकाक्षाओं को संतों की कविताएं वाणी प्रदान करती हैं।
दिल्ली में तुर्क सल्तनत की स्थापना के समय से ही सुल्तानों ने अपना शासन शरीयत (धार्मिक कानून) के आधार पर नहीं चलाया। ''शरीयत की जगह राजनीतिक और सामरिक जरूरतों को ध्यान में रखा गया था। सुल्तान इल्तुमिश के बारे में यह प्रचलित है कि उसके लिए यह हर्गिज जरूरी नहीं था कि वह विश्वास को केन्द्र में रखे। उसके लिए इतना ही काफी था कि उसका अपना विश्वास बना रहे। बलबन के बारे में तो यहां तक कहा जाता है कि वह एक कदम और आगे चला गया था। उसने सुल्तान से यह भी अपेक्षा नहीं की कि उसका कोई विश्वास हो ही और न ही उसे किसी धर्म या मत को संरक्षण देने की जरूरत है। उसके लिए सबसे महत्त्वपूर्ण था कि वह न्यायकारी हो सके। अलाउद्दीन खिलजी ने बहुत ही महत्त्वपूर्ण वक्तव्य दिया कि उसने कभी इस बात पर ध्यान नहीं दिया कि उसके निर्णय शरीयत के मुताबिक हैं या नहीं। उसने जो कुछ भी राज्य के हित में उचित समझा, उसी का पालन किया। मुहम्मद-बिन-तुगलक ने धर्म विशारदों और धार्मिक कानून के संरक्षकों को शासन के ऊपर हावी नहीं होने दिया, बल्कि वह हमेशा ही दार्शनिकों और तर्कशास्त्रियों की संगत पसंद करता था।"6 शासक अपने धार्मिक कानून के अनुसार राजनीतिक निर्णय नहीं लेते थे, बल्कि राजनीति के अनुसार वे अपने राज्य के फैसले करते थे। उलेमा और राजाओं के दृष्टिकोण में अन्तर था।
बाबर पहला मुगल सम्राट था, जिसने 1526 ई. में, पानीपत के मैदान में इब्राहिम लोदी की सेना को हराकर मुगल शासन की नींव रखी थी। बाबर साहित्यिक और सौन्दर्य प्रेमी व्यक्ति था। वह हिन्दुस्तान को बहुत प्यार करने लगा था, उसकी आत्मकथा 'तुजके बाबरी' के अध्ययन से पता चलता है कि वह यहां स्थायी रूप से रहने के लिए नहीं आया था, लेकिन यहां की जलवायु तथा मौसम को देखकर उसने यहां रहने का निश्चय किया। उसके भारत आने की कहानी भी बड़ी दिलचस्प है। बाबर यहां अपनी मर्जी से नहीं आया था, बल्कि उसे यहां के चार राजाओं ने बुलाया था। दिल्ली के शासक इब्राहिम लोदी को हराने के लिए उसे यहां बुलाया गया था।
बाबर धार्मिक मामले में कट्टर नहीं था, इसका अनुमान बाबर और गुरुनानक के प्रसंग से लगाया जा सकता है। घूमते घूमते गुरुनानक और उनका शिष्य मरदाना सैदपुर पहुचे। इन्हीं दिनों बाबर ने हिन्दुस्तान पर चढ़ाई की थी। बाबर के सैनिक भी जा पहुंचे। मुगल सिपाहियों ने शहर के अन्य लोगों के साथ गुरुनानक को भी कैद कर लिया और अन्य कैदियों की तरह इनको भी काम पर लगा दिया। गुरुनानक यहां मस्ती से ईश्वर के भजन गाते थे। जब बाबर के सेनापति मीरखान को इस बात का पता लगा तो उसने इस बात की सूचना बाबर को दी। बाबर ने ऐसे फकीर से मिलने की इच्छा जाहिर की। गुरुनानक को जब बाबर के सामने लाया गया तो बाबर का सिर झुक गया और क्षमा मांगते हुए कहा ''मेरे सिपाहियों ने अनजाने ही आप जैसे फकीर को दुख पहुचाया है। मैं शर्मिन्दा हूं। आप आजाद हैं।" गुरुनानक ने सभी कैदियों को छोडऩे के लिए कहा तो बाबर ने सारे कैदियों को रिहा कर दिया।7
यद्यपि बाबर ने अपने प्रारंभिक दिनों में तो यहां की अधिक तारीफ नहीं की, लेकिन जब उसने यहां के जन-जीवन को गहराई से देखा तो भारत की जलवायु व लोगों की तारीफ की। उसने यहां के लोगों की नब्ज को अच्छी तरह से जान लिया था। धार्मिक सहिष्णुता और अमनपसन्दी को जाना। इसीलिए उसने अपने बेटे हुमायूं को वसीयत में लिखा कि ''बेटा, इस हिन्दुस्तान में बहुत से धर्म हैं। यहां अपनी बादशाहत के लिए हम अल्लाह के शुक्रगुजार हैं। हमें अपने दिल से सभी तरह के भेदभाव को मिटा देना चाहिए और हरेक समुदाय को उसके रिवाजों के अनुसार न्याय देना चाहिए। इस देश के लोगों को जीतने लिए गौ-हत्या से बचो और प्रशासन में लोगों को शामिल करो। हमारे राज्य की सीमाओं में स्थित इबादत की जगहों और मंदिरों को नुक्सान न पहुंचाओ। शासन का ऐसा तरीका ढूंढो जिससे लोग हुकूमत से खुश हों और बादशाह से लोग खुश हों। इस्लाम अच्छे कार्यों द्वारा फैल सकता है, दहशत से नहीं। शिया और सुन्नी के भेदों की उपेक्षा करो क्योंकि यह इस्लाम की कमजोरी है। विभिन्न रिवाजों को अपनाने वाले लोगों को एकजुट करके रखो ताकि इस बादशाहत का कोई हिस्सा बीमार न हो।"8 (राष्ट्रीय संग्रहालय में रखे मूल का रूपान्तरण) बाबर की हुमायुं के नाम यह वसीयत भारत के राज्य की धर्मनिरपेक्ष परम्परा का ज्वलंत उदाहरण है।
बाबर के बाद उसका बेटा हुमायं भारत का शासक बना था। हुमायूं बहुत कम समय ही शासक रहा और उसका अधिकतर समय अपने राज्य को स्थापित करने में ही बीता, लेकिन उसके जीवन से जुड़ी हुई कुछ घटनाएं ऐसी हैं जो हमारी साझा संस्कृति एवं जीवन का महत्त्वपूर्ण हिस्सा बन गई हैं। हुमायूं की लड़ाई मुख्य रूप से शेरशाह सूरी से थी। हुमायूं शेरशाह के हमले से बचने के लिए भागा तो ब्रह्मजीत गौड़ उसका पीछा कर रहा था। उस समय अटेल के हिन्दू राजा वीरभान ने हुमायूं को नदी पार करवाकर उसकी जान बचाई थी।9
हुमायूं जब अमरकोट पहुंचा, तो वहां के राजपूतों व जाटों की सेना ने उसे भरपूर मदद पंहुचाई थी। हुमांयू जब अमरकोट पहुंचा तो उसकी बेगम हमीदा बानो गर्भवती थी और पूरे दिन से थी। इसलिए बेगम को उसने वहीं राजपूत स्त्रियों के पास छोड़ दिया। हुमायूं के जाने के तीन दिन बाद यहीं पर अकबर का जन्म हुआ था। अमरकोट के राजा ने हुमायूं की बेगम की अपनी बेटी की तरह देखभाल की थी। यह विशुद्घ मानवीय प्रेम था, जो एक इन्सान को दूसरे इन्सान से अपेक्षा है, यहां कोई धार्मिक विद्वेष नहीं था। हिन्दुओं में रक्षा-बन्धन का त्यौहार भाई बहन के प्रेम का प्रतीक है, इसमें भाई बहन की रक्षा का वचन देता है। रानी कर्णवती ने हुमायूं को राखी भेजी थी।
अकबर ने मुगल साम्राज्य की नींव को मजबूत किया। अकबर ने ऐसी नीतियां अपनायी जिससे हिन्दू और मुसलमान दोनों धर्मों के लोग सामाजिक स्तर पर एक-दूसरे के करीब आए। अकबर सभी धर्मों की शिक्षाओं का आदर करता था। उसने फतेहपुर सीकरी में इबादतखाना बनवाया था, जिसमें वह सभी धर्मों के महापुरुषों से उपदेश सुनता था सभी धर्मों की अच्छाइयों को जानने के लिए वह धर्म सभाएं बुलाता था। इबादत खाने में पहले शिया, सुन्नी और सूफी लोग ही धर्म-विवेचन करते थे बाद में अन्य धर्मों के विद्वान भी अपने धर्म का विवेचन करते थे। हिन्दू पंडितों के व्याख्यानों को सुनकर अकबर पुनर्जन्म के सिद्घान्त को मानने लगा और उसका यह विश्वास हो गया कि संसार के प्रत्येक धर्म में पुनर्जन्म के सिद्घान्त को किसी न किसी रूप में माना जाता है। हरिविजय सूरी, विजयसेन सूरि और भानुचन्द्र उपाध्याय उस समय के प्रसिद्घ जैन विद्वान थे। हरिविजय सूरि के सम्पर्क से अकबर ने विशेष दिनों पर जीवों का वध निषिद्घ कर दिया था और सिद्घान्त चन्द्र नामक जैन विद्वान से मिलने पर उसने जैनियों के लिए कई रियायतें जारी कर दी थीं और जैन तीर्थों पर कर लगाना बन्द कर दिया था। दस्तूर महदजी राणा पारसी विद्वान था। उससे पारसी धर्म का विवेचन सुनकर अकबर सूर्य और अग्नि की पूजा करने लगा। अकबर ने गोआ से ईसाई विद्वानों को आंमत्रित किया और उनके द्वारा ईसाई धर्मों के मूल सिद्घान्तों का परिचय प्राप्त किया। ईसाई विद्वानों में एक्वानिंवा और मोन्सिरेट विशेष उल्लेख के योग्य हैं। प्रत्येक धर्म की व्याख्या को अकबर ऐसी गम्भीरता से सुनता था कि व्याख्याताओं को यह भ्रम हुआ करता था कि उसने उसके धर्म को स्वीकार कर लिया। वास्तव में अकबर ने कोई धर्म स्वीकार नहीं किया। वह धर्मों में व्याप्त कट्टरता से परेशान था। धार्मिक कट्टरता को दूर करने के लिए अकबर ने 'दीन-ए-इलाहीÓ नामक नया धर्म चलाया। इसमें सभी धर्मों की शिक्षाओं को शामिल किया गया था। यह ऐसा धर्म था जिसमें कोई भी शामिल हो सकता था। यह मिला जुला धर्म था, जिसमें सभी मतों के विश्वासों को शामिल किया गया था।
अकबर के मन में असाम्प्रदायिक राज्य की अवधारणा पूर्णत: स्पष्ट थी। वह राज कार्यों में धर्म के आधार पर कोई भेदभाव नहीं करता था। इससे संबंधित पत्र परशिया के शाह अब्बास फवी को लिखा ''विभिन्न धार्मिक समुदाय हमें ईश्वर द्वारा सौंपे गये दैवी खजाने हैं और हमें उसी तरह से उनसे प्रेम करना चाहिए। यह हमारा दृढ़ विश्वास होना चाहिए कि प्रत्येक धर्म उनके आशीर्वाद से है और हमारा सच्चा प्रयत्न यह होना चाहिए कि सार्वलौकिक सहनशीलता के सदा हरे रहने वाले उद्यान से स्वर्गीय सुख का आनंद प्राप्त करें। सर्वशक्तिमान परमेश्वर सभी मनुष्यों पर बिना किसी भेदभाव के अपनी कृपा बरसाता है। राजाओं द्वारा जो ईश्वर की छाया है, यह सिद्घान्त कभी भी नहीं छोड़़ा जाना चाहिए।ÓÓ10
अकबर हिन्दू धर्म का अत्यधिक आदर करता था, इसके कई उदाहरण हैं। हिन्दू-प्रजा की धार्मिक भावनाओं का आदर करते हुए अकबर ने अपने शासन काल में 'गौ-हत्याÓ पर पाबंदी लगाई थी। हिन्दू गंगा को पवित्र नदी मानते हैं। अकबर गंगा नदी का ही पानी पीता था, वह अपने लिए हरिद्वार से पानीे मंगाता था। अकबर के समय में महाभारत, रामायण और योग वसिष्ठ आदि पुुस्तकों का अरबी-फारसी में अनुवाद हुआ। तुलसीदास, सूरदास, नाभा जी, केशव, नंददास आदि हिन्दी कवियों ने अकबर के समय में ही उत्कृष्ट साहित्य की रचना की। अबुल फजल ने महाभारत की प्रस्तावना लिखी और पंचतंत्र की कहानियों का अनुवाद किया। अबुल फजल नीतिशास्त्र रचयिताओं की श्रेणी में आते हैं। आइने अकबरी नामक उनकी पुस्तक का विषय अकबर का जीवन या इतिहास नहीं, बल्कि उसमें राजा के गुणों व कार्यों का निरूपण है। राजा के कर्तव्यों के बारे में अबुल फजल ने जो लिखा है उससे तत्कालीन मुगलशासन के स्वरूप को पहचाना जा सकता है। उन्होंने लिखा कि राजा को सभी मतभेदों से ऊपर रहना चाहिए और यह ध्यान देना चाहिए कि धार्मिक निर्णय कर्तव्य के मार्ग में बाधक न बनें, जिसके लिए प्रत्येक वर्ग और प्रत्येक समुदाय के प्रति ऋणी है। उसकी आत्मीयता पूर्ण सहायता से प्रत्येक को सुख और शांति प्राप्त होनी चाहिए जिससे ईश्वर की छाया द्वारा प्रदत्त लाभ सार्वलौकिक बने। 11
अकबर के नवरत्नों में हिन्दू और मुसलमान दोनों थे। बीरबल, टोडरमल, तानसेन, राजा मानसिंह नवरत्नों में थे। अकबर की सेना में बहुत संख्या में हिन्दू राजपूत थे, अकबर उन पर पूरा विश्वास करते थे, राजा मानसिंह अकबर की सेना के सेनापति थे।
मुगल सम्राट शाहजहां का सबसे बड़ा बेटा दारा शिकोह (1613--1658) अरबी, फारसी और संस्कृत का विद्वान था, जिसमें धार्मिक कट्टरता लेशमात्र भी नहीं थी। दारा शिकोह ने बनारस में संस्कृत के प्रकाण्ड पण्डितों की सहायता से उपनिषदों का अध्ययन किया। दारा शिकोह ने 'मजमा-उल-बहरीनÓ यानि दो महासागरों का मिलन नामक पुस्तक लिखी, जो हिन्दू धर्म और इस्लाम धर्म के मेल पर आधारित है। इस पुस्तक में लिखा कि बड़ी वेदना के साथ फकीर मुहम्मद दारा शिकोह कहता है कि हकीकतों की हकीकत जानने के बाद और सूफियों के आदर्शों की बारीकियों को समझने के बाद तथा इस अंतिम सत्य को प्राप्त कर लेने के बाद मुझे भारत के धार्मिक विचारकों के सिद्धांतों को जानने-समझने की जिज्ञासा हुई। भारत के विद्वानों के साथ निरंतर विचार-विमर्श और उनके सत्संग के बाद जिन्होंने धार्मिक विषयों में पूर्णता प्राप्त कर ली थी, धर्म की आत्मा तक जिनकी पहुंच हो गई थी और ईश्वर की सत्ता का रहस्य जान लिया था, मुझे दारा शिकोह शाब्दिक अंतर के अलावा सत्य से साक्षात्कार के उनके मार्ग में कोई विशेष अन्तर नहीं दिखाई दिया। इसलिए दोनों वादियों के विचारों को संगृहित करके और दोनों के नुक्तों को एकत्र करके, एक सत्य के जिज्ञासु के लिए जिनकी जानकारी बहुत जरूरी और उपयोगी है, मैने एक पुस्तक की रचना की और इसका नाम मजमा-उल-बहरीन रखा, क्योंकि ये दोनों समुदायों के ब्रह्मज्ञानियों के विचारों का सार-संग्रह है।12
उन्होंनेेेेेे दोनों धर्मों की तुलना की है और यह दर्शाने की कोशिश की है दोनों में काफी हद तक समानता है। 'तत्वों पर विमर्शÓ अध्याय (अनासीर) में वे कहते हैं कि 'पांच तत्व हैं और ये पाचों तत्व एक ही ईश्वर की रचना हैं--पहला, 'परम तत्वÓ (अंसूर-ए-आजम), जो मनुष्य की आस्था है , शर जिसे 'अरस-ए-अकबरÓ या 'महान आत्माÓ कहा जाता है दूसरा वायु, तीसरा अग्नि, चौैथा जल और पांचवां मिट्टी।ÓÓ और भारतीय भाषाओं में इसे पंचभूत कहा जाता है इनके नाम हैं, आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी । इस तरह दारा शिकोह ने दो धर्मों की अवधारणाओं और शब्दावली में तुलना की।13
दारा शिकोह ने संस्कृत और फारसी-अरबी के ग्रन्थों के अध्ययन और चिंतन-मनन के बाद यह निष्कर्ष दिया कि कुरान शरीफ में जो गुप्त सूचक का उल्लेख है वह उपनिषद ही है। 'सिर्रे-अकबरÓ की भूमिका में दारा ने स्वयं स्पष्ट किया कि उपनिषद के अध्ययन से 'अज्ञातÓ ज्ञात हो गया ओर 'न समझा हुआÓ समझा हुआ हो गया। इस पुस्तक की भूमिका में उसने लिखा कि कुरान शरीफ से पता चलता है कि फव इममन उम्मतिन इल्ला खला फीहा नजीरून।Ó(:24)Ó लकद अर्सलना रुसुलजना बिल्बय्यिनाति व अन्जलना मअहुल-किताब वल्मीजान (:24) यानि कोई जाति ऐसी नहीं है जो निग्र्रन्थ और निर्दूत हो। महान परमेश्वर किसी जाति को दंडित नहीं करता जब तक उस जाति में अपना दूत वह नियुक्त नहीं कर देता। और कोई जाति ऐसी नहीं है जिसमें उसका दूत नियुक्त न हो। वेद, यजुर्वेद, सामवेद, और अथर्ववेद का सार एक ही ईश्वर की भक्ति और साधना का निरूपण है। इस प्रकार दारा ने कुरान और वेद व उपनिषदों में समानता खोजी, दोनों के ज्ञान को ही ईश्वरीय ज्ञान माना और आदर किया।
दारा शिकोह हिन्दोस्तानी संस्कृति में इस तरह रच बस गए थे कि उनको हिन्दू व मुस्लिम में कोई अन्तर नजर नहीं आता था, इसका बहुत ही ज्वलंत उदाहरण है कि उनकी पुस्तक 'शिर्रे-अकबरÓ 'अेाम श्री गणेशाय नम:Ó से प्रारम्भ होती है। दारा ने अपने हाथ में एक अंगूठी पहन रखी थी जिस पर देवनागरी में 'प्रभुÓ अंकित था।14
दारा शिकोह अनेक तत्वज्ञानियों, ब्राह्मणों और संन्यासियों के पास गया। उसने धर्म के बाहरी आडम्बरों को परमात्मा की प्राप्ति बाधक माना,आन्तरिक शुद्घता पर जोर दिया। उन्होंनेेेेेे कहा कि:-
'बहिश्त आंजा कि मुल्ला-ए न बाशद
जि मुल्ला शोरो गोगा-ए न बाशदÓ
इसका अर्थ है कि स्वर्ग वहां है जहां मुल्ला नहीं होता, जहां मुल्ला का कोलाहल सुनाई नहीं पडता।
दारा शिकोह ने भारत के ज्ञान को महत्त्वपूर्ण माना व जरूरी समझा। इसका अरबी में अनुवाद किया और वहां के लोगों को इससे परिचित करवाया।
अंग्रेज इतिहासकारों ने व साम्प्रदायिक शक्तियों ने औरंगजेब को एक कट्टर, धर्मांंध मुसलमान के रूप में चित्रित किया है। उसे शुष्क हृदय बताते हुए कहा गया कि उसने अपने दरबार से संगीतकारों, कलाकारों, ज्योतिषियों और कवियों को निकाल दिया था।15 औरंगजेब न तो आदर्श मुसलमान था और न ही हिन्दू विरोधी था, न उसे किसी विशेष धर्म से लगाव था और न ही किसी धर्म से नफरत थी, वह सिर्फ एक शासक था अपनी राज गद्दी को सुरक्षित रखने के लिए तथा उसे विस्तार देने के लिए उसने हर काम किया, उसके शासन में जो भी बाधा बना उसने उसे उतनी ही मुस्तैदी से दूर किया, जितनी कि कोई भी राजा करता।
औरंगजेब एक शासक था, शासक का कोई धर्म नहीं होता, उसका धर्म केवल और केवल अपनी गद्दी होता है। वह वही फैसले लेता है जो उसके शासन सत्ता के अनुकूल हों। औरंगजेब शासकीय निर्णय लेते समय वह हिन्दू और मुसलमान में कोई भेद नहीं करता था।
जब शाहजहां सम्राट था और औरंगजेब के पास कुछ सूबों का शासन होता था, तो उसके पास जो हिन्दू अधिकारी थे उसने उनके लिए उसने समय समय पर उन्नति तथा वेतन वृद्घि के लिए शाहजहां से सिफारिश की और उनको जागीरें भी दीं।16
1--औरंगजेब ने सूबा एजलपुर की दीवानी के लिए रायकरण राजपूत की सिफारिश बादशाह से की, किन्तु बादशाह ने इसे अस्वीकार कर दिया। औरंगजेब इससे काफी निराश हुआ, परन्तु उसने बादशाह की अनदेखी करते हुए उसकी उन्नति की ।
2--नरसिंह दास ,जो असीरगढ के किले का किलेदार था, उसकी सेवाओं की प्रशंसा की और उसके वेतन में वृद्घि की सिफारिश बादशाह से की ।
3--औरंगजेब जब स्वयं शासक हुआ तो उसने हिन्दुओं को उच्च पदों पर नियुक्त किया और समय -समय पर उनकी पदोन्नति की। कुछ नाम ये हैं--राजा भीमसिंह, महाराणा जयसिंह का भाई, इन्द्रसिंह, (महाराणा जयसिंह का भाइ) राजा मानसिंह , राजा रूपसिंह का पुत्र इत्यादि ।
4--औरंगजेब के शासन काल में हिन्दू मनसबदारों (अफसर) की संख्या सबसे अधिक थी। अकबर के समय में हिन्दू मनसबदारों की संख्या केवल 32 थी, जहांगीर के समय में यह 56 हो गई। औरंगजेब के समय में यह बढकर 104 हो गई। इससे स्पष्ट है कि वह प्रशासनिक कार्यों में धर्म के आधार पर कोई भेदभाव नहीं करता था। यह भी ध्यान देने लायक तथ्य है कि औरंगजेब के शासन में कुल मनसबदारों का 34 प्रतिशत हिन्दू थे, जो कि इससे पहले अधिक से अधिक 22 प्रतिशत थे और अकबर के समय में ये 12 प्रतिशत थे।
5--औरंगजेब की सेना का सेनापति जयसिंह था, जो शिवाजी के विरुद्घ लड़ा था। औरंगजेब ने राजा जयसिह को मिजा की उपाधि दी थी। औरंगजेब की सेना में हिन्दू सैनिकों की संख्या मुसलमानों से कहीं अधिक थी। औरंगजेब और शिवाजी की लड़ाई कभी भी हिन्दू और मुसलमान की लड़ाई नहीं रही। यह मुगलों और मराठों की लड़ाई भी नहीं थी। बहुत से इज्जतदार मराठा सरदार हमेशा मुगलों की सेना में रहे। सिंद खेड के जाधव राव के अलावा कान्होजी शिर्के, नागोजी माने, आवाजी ढल, रामचंद्र और बहीर जी पंढेर आदि मराठा सरदार मुगलों के साथ रहे।
औरंगजेब ने राजनीतिक कारणों से न केवल मंदिरों का बल्कि मस्जिदों को भी गिरवाया।18 ध्यान देने की बात यह भी है कि औरगजेब ने राजनीतिक कारणों से मंदिरों को दान में जागीरें और जमीनें भी दीं।
औरगंजेब ने बनारस के गवर्नर के नाम एक फर्मान जारी किया था, जिस पर नजर डालने से दूसरे धर्मों के प्रति उसके रवैये का अनुमान सहज ही लगाया जा सकता है:
कई लोग गुमराही के रास्ते पर चलकर बनारस और उसके आस पड़ोस के कुछ मकानों में रहने वाले हिंदुओं के साथ अत्याचारपूर्ण व्यवहार करते हैं और उस क्षेत्र के मंदिरों के सेवक और पुजारी ब्राह्मणों की गतिविधियों में रोड़े अटकाते हैं। जबकि इन मंदिरों और पुजारियों का इन देवालयों से बहुत पुराना संबंध चला आ रहा है। वे लोग चाहते हैं कि इन्हें देवालयों की सेवा के कार्यों से वंचित कर दें, जो सेवा यह पुरोहित वर्ग एक लंबे समय से करता आ रहा है। इस क्रूरता के कारण यह वर्ग काफी परेशान हो गया है। लिहाजा यह हुक्म दिया जाता है कि इस नेक फर्मान के पंहुचने के बाद यह बात सुनिश्चित कर दी जाए कि कोई भी आदमी इस क्षेत्र के बसने वाले ब्राह्मणों और हिंदुओं की दुख-तकलीफ का कारण नहीं बनेगा ताकि वे लोग प्राचीन विधि-विधान के अनुसार अपनी जगहों और ओहदों पर रहकर माबदौलत की मजहबी जि़दगी के लिए दुआएं करें और हम्द-ए-इलाही में मशगूल रहें। इस बारे में जमा-दी-उल-सानिया, 1059 हिजरी में यह फर्मान लिखा गया।19क
औरगंजेब ने उज्जैन में महाकालेश्वर मंदिर, चित्रकूट में बालाजी मंदिर, गुवाहटी में उमानन्द मंदिर, शत्रुंजय में जैन मंदिर और उत्तरी भारत में फैले गुरुद्वारों को अनुदान दिए। अहमदाबाद के जैन मंदिर के न्यासियों के पास आज भी औरंगजेब का रूक्का है, जो उस समय एक जैन मुनि को दिया गया था। इस मंदिर के निर्माण का श्रेय औरंगजेब को ही है। इलाहाबाद नगरपालिका में सोमेश्वर नाथ महादेव मंदिर के लिए जागीर और नकद उपहार दिए और साथ में यह हिदायत दी कि 'यह जागीर देवता की पूजा और भोग के लिए दी जा रही हैÓ।18
गौर करने की बात है कि औरंगजेब ने जो मंदिर तोड़े या गिराये उनमें से अधिकतर उसके राज्य की सीमा से बाहर थे। उसके अपने राज्य की सीमा में तोड़े जाने वाले मंदिरों की संख्या बहुत कम है। यदि औरंगजेब धार्मिक नफरत के कारण मंदिर तोड़ता तो उसके लिए सबसे आसान बात तो यही थी कि वह अपने राज्य में बिना किसी रोक टोक के मंदिर तोड़ सकता था। इससे साफपता चलता है कि मंदिर तोडऩे का कारण धार्मिक तो कतई नहीं था, और यह राजनीतिक था ।
असल में, मध्यकाल में विशेष पूजा स्थल सत्ता का चिन्ह था। जब कोई राजा दूसरे राजा पर हमला करता था तो वह उसकी सत्ता के सारे चिन्हों को मिटा देना चाहता था। अधिकतर पूजा स्थलों के टूटने की यही वजह है।19
साम्प्रदायिक लोग औरंगजेब के बारे में कहते हैं कि उसने धार्मिक घृणा के कारण मंदिरों को गिराया, जबकि ऐतिहासिक तथ्य कुछ और ही सच्चाई बताते हैं। वाराणसी का विश्वनाथ मंदिर औरंगजेब ने क्यों गिराया इसके बारे में डा. पट्टाभि सीतारमैया ने दस्तावेजी साक्ष्य के आधार पर अपनी पुस्तक 'दि ्रफैदर्स एंड दि स्टोन्सÓ में इस तथ्य का वर्णन निम्न प्रकार से किया है:-
विश्वनाथ मंदिर के बारे में कहानी यह है कि एक बार जब औरंगजेब बंगाल जाने के लिए वाराणसी से गुजर रहा था तो उसके साथी हिन्दू राजाओं ने अनुरोध किया कि यदि वहां एक दिन विश्राम कर लिया जाए तो उनकी रानियां गंगा में स्नान करके भगवान विश्वनाथ के दर्शन कर सकती हैं। रानियों ने पालकियों में यात्रा की। उन्होंनेेेेेे गंगा में स्नान किया और पूजा के लिए विश्वनाथ मंदिर गर्इं। पूजा के बाद सभी रानियां वापस लौट आर्इं, लेकिन कच्छ की रानी वापस नहीं आई। पूरे मंदिर में तलाश की गई लेकिन रानी कहीं नहीं मिली। जब औरंगजेब को इसका पता चला तो वह आग बबूला हो गया। उसने रानी की खोज करने के लिए बड़े अधिकारियों को भेजा। अन्तत: उन्हें पता चला कि दीवार में जड़ी गणेश की मूर्ति को इधर उधर सरकाया जा सकता था। जब मूर्ति को हटाया गया तो उन्हें तहखाने जाने वाली सीढिय़ां मिलीं। वहां रानी को रोते हुए पाया उसकी इज्जत लूटी जा चुकी थी। तहखाना ठीक भगवान की मूर्ति के नीचे था। राजाओं ने इस जघन्य अपराध के लिए कड़ी सजा की मांग की। औरंगजेब ने आदेश दिया कि पवित्र स्थान को अपवित्र कर दिया गया है। भगवान विश्वनाथ को किसी दूसरे स्थान पर ले जाया जाए और महंत को गिरफ्तार करके सजा दी जाए।20
औरंगजेब बहुत सादा जीवन व्यतीत करता था वह अपने हाथों से टोपी सिलकर उसी की आमदनी से अपना खर्च चलाता था। वह मुख्यत: जौ की रोटी, शाक और मिठाई खाता था। 'रूक्कात-ए-आलमगीरÓ के नाम से औरंगजेब के पत्रों का संकलन हुआ है, जिसमें उसके व्यक्तित्व के दिलचस्प पहलुओं का पता चलता है। औरंगजेब भारतीय संस्कृति का प्रेमी था। उसने होली पर कविता लिखी, होली के त्यौहार को वह आदर की भावना से देखता था और होली खेलता था।21
अनगिन आनंद बसंत मुबारक, साहिनि साहि औरंगजेब जू
तुम ऐसे ही अनगिन बरस लौ, हम मंगल मुखिनि संग खेलो धमधार ।।
औरंगजेब कई भाषाओं का विद्वान था। अरबी, तुर्की के साथ हिन्दी भाषा का अच्छा ज्ञाता था। उसने हिन्दी में कविताएं भी लिखी हैं-
चरण धर- धर मेरे गृह लालन भए खाए आए मेरे।
तन के दुख सब दूर गए सुख आए मेरे नेरै।।
मृदंग बजावहु मंगल गाबहु भागन हो पाए
कर रही प्रथम ही जतन बहुतेरे।
साह औरंगजेब प्रीतम अब मैं धन जनम कर
मानत जब आखिन मन हेरे।
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पाक परवरदिगार, करीम रहीम बन्दे निवाज।
जित देखूं तू ही तू भर रहो, तेरी कुदरत को काउ न पावै राजौ नियाज
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आचार्य चतुरसेन ने औरंगजेब के साहित्य संरक्षण के बारे में लिखा है--''हिन्दी का वह प्रेमी था। उसने हिन्दी में काव्य रचना भी की तथा हिन्दी कवियों का सत्कार भी किया। वृंद कवि को औरंगजेब दस रुपया रोज देता था ।ÓÓ
शिवाजी की सेना में बहुत अधिक पठान मुसलमान थे। उनका व्यक्तिगत सचिव मौलवी हैदर अली खान था, जो कि औरंगजेब और मुगल अधिकारियों के साथ शिवाजी के गोपनीय पत्राचार को देखता था। शिवाजी का मुख्य तोपची भी इब्राहिम गर्दी खान था। शिवाजी के सेनापति दौलतखान और सिद्दीक मिसरी थे, दोनों मुसलमान थे। औरंगजेब ने जब शिवाजी को आगरा की जेल में कैद कर लिया था, तो उनको वहां से निकालने वाला व्यक्ति मदारी मेहतर नाम का मुसलमान था।22 हिन्दू और मुस्लिम राजा के बीच कलह था तो उसका कारण राजनीतिक था न कि धार्मिक। ''वे जब आगरा गए तो उनके साथ मदारी मेहतर नाम का मुसलमान युवक था। शिवाजी महाराज के अपने डेरे से निकल जाने के बाद अंत में वही उनके डेरे से बाहर निकला। अफजल खां से मिलने के समय महाराज के साथ इने गिने दस आदमियों में सिद्दी इब्राहीम था। महाराज का पहला सरनोबत अर्थात सेनापति नूरखां बेग था। ई. सन 1673 में जब बहलोलखां पर प्रतापराव गूजर ने हमला किया, उस समय सिद्दी हिलाल नामक सरदार अपने पांचों बेटों सहित बहलोल से लड़ रहा था। जंजिरे के सिद्दी को मार भगाने वाला दौलतखां महाराज के जहाजी बेड़े का सरदार था।ÓÓ23
शिवाजी दूसरे धर्म के लोगों का तथा दूसरे धर्म की शिक्षाओं, विश्वासों व पूजा पद्घतियों का सम्मान करते थे। शिवाजी ने अपने जगदीशपुर महल के सामने मस्जिद बनवाई थी, जिसमें वह हर रोज पूजा के लिए जाता था। शिवाजी दूसरे धर्मों के संतों और फकीरों का आदर करते थे। 'हजरत बाबा याकूत बहुत थोरवालेÓ को उन्होंनेेेेे जीवन पेंशन दे रखी थी। गुजरात के फादर एम्ब्रोस जिनका चर्च खतरे में था उनकी भी शिवाजी ने मदद की थी।
शिवाजी ने अपने सिपाहियों को सख्त आदेश दे रखे थे कि लड़ाई या लूट के माल में मस्जिद, कुरान और नारी का अपमान नहीं होना चाहिए।24 एक बार उन्होंनेेेेेे लूट के माल में कुरान की प्रति देखी तो वे अपने सिपाहियों पर नाराज हो गए। आखिरकार कुरान की प्रति उसके घर पहुंचा दी गई जिसके घर से लेकर आए थे। उनके मन में स्त्रियों के प्रति बहुत सम्मान था। एक बार उनके सिपाही कल्याण के सूबेदार का घर लूटकर, लूट के माल के साथ उसकी बेटी भी ले आए। शिवाजी को इस पर बहुत पछतावा हुआ और उस युवती को उन्होंने इज्जत के साथ डोली में बिठाकर उसके घर भेज दिया। जैसे एक भाई बहन की विदाई में उपहार देता है उसी तरह शिवाजी ने युवती को उपहार में दो गांव दिए।
शिवाजी ने समर्थ रामदास स्वामी को अपना गुरु धारण किया। स्वामी रामदास ने मराठी भाषा के प्रसिद्घ कवि व सूफी शेख मोहम्मद की भूरि-भूरि प्रशंसा करते हुए लिखा कि ''शेख मोहम्मद तुम महान हो। तुमने संसार के रहस्य को ऐसे ढंग से और ऐसी भाषा में उद्घाटित किया है जो कि सामान्य व्यक्ति की समझ से परे है। तुमने समस्त संसार की मूलभूत एकता और पहचान को सच्चे अर्थों में ग्रहण किया है। तुमने हमारे ऊपर अहसान किया है, हम आपके ऋणी हैं और इस ऋण को अपने शरीर और आत्मा को आपके चरणों में अर्पित करके भी नहीं चुका सकते। मैं आपके पैरों की पवित्र धूल अपने सिर पर लूं। शिवाजी के विचारों और जीवन पर ऐसे महान संत का प्रभाव था।
शिवाजी के पूर्वज सभी धर्मों के महान संतों का सम्मान करते थे। जिसका असर उनके जीवन पर था। प्रसिद्घ है कि शिवाजी के दादा की पत्नी मौलीजी ने महाराष्ट्र के खुलदाबाद के सूफी संत शाह शरीफजी से आशीर्वाद लिया और उनके आश्रम में रही। यह भी प्रसिद्घ है कि शिवाजी के दादा के कोई संतान नहीं थी, और शाह शरीफ जी के आशीर्वाद से उनको दो पुत्र हुए। कहा जाता है कि शाह शरीफ जी को सम्मान देने के लिए ही शिवाजी के पिता का नाम शाहजी रखा गया था।
सिक्ख धर्म के सिद्धांत व पूजा विधान साझी संस्कृति की अद्भुत मिसाल है। ''गुरु अर्जुन देव ने हरिमंदिर की नींव, जिसे बाद में स्वर्ण मंदिर कहा जाने लगा, लाहौर के एक मुसलमान फकीर मियां मीर के हाथों रखवाई।ÓÓ24क गुरु अर्जुनदेव ने सिक्खों की पवित्र-पुस्तक गुरु ग्रन्थ साहब का संकलन किया, जिसमें उन्होंने बिना किसी भेदभाव के हिंदू और मुस्लिम संतों की वाणी को स्थान दिया। ''गुरु ग्रंथ साहब में संकलित वाणी सिख गुरुओं की ही नहीं, बल्कि अन्य धर्मों, जाति आदि के 36 अन्य संत-फकीरों की रचनाएं भी संग्रहीत हैं। इनमें बंगाल के जयदेव, अवध के गुरुदास, महाराष्ट्र के नामदेव, त्रिलोचन व परमानंद, उत्तरप्रदेश के बेनी, रामानंद, पीपा, सेन, कबीर, रविदास और भीखन, राजस्थान के धन्ना और पंजाब के जिला मुलतान से फरीद जी हैं। इतना ही नहीं, इनमें से कुछेक तथाकथित नीच जाति के थे। कबीर एक जुलाहा थे, नामदेव दर्जी, सदना कसाई, सेन नाई तथा रविदास चमार थे। ग्रंथ साहेब के संकलनकत्र्ता ने जाति अथवा धर्म को रास्ते का रोड़ा नहीं बनने दिया। धन्ना एक जाट था। फरीद साहेब एक मुस्लिम फकीर थे तो भीका जी इस्लाम धर्म के विद्वान थे। जयदेव एक हिंदू रहस्यवादी कवि थे।
जिस समय एक सिक्ख गुरु ग्रंथ साहेब के सामने अपना सिर झुकाकर मार्गदर्शन की याचना करता है, वह सुप्रसिद्ध मुस्लिम सूफी संत फरीद और कृष्ण भक्त जयदेव के प्रति वैसी ही भक्ति भावना प्रकट कर रहा होता है।ÓÓ24ख
सिक्खों के दसवें गुरु गुरु गोबिन्द सिंह ने ही खालसा पंथ की नींव रखी। वे धार्मिक कट्टरता व अंधविश्वासों के विरुद्घ थे। सढौरा के सैयद बुधूशाह, जो अपने संत स्वभाव के कारण प्रसिद्घ थे, उन्होंनेेेेेे गुरु की सेवा के लिए पांच सौ पठानों को भी भेजा था, लेकिन वे धन के लालच में गुरु का साथ छोड़़ गए। जब बुधूशाह को इस बात का पता चला तो उन्हें बहुत दुख हुआ और अपने चार बेटों, एक भाई और सात सौ सिपाहियों के साथ गुरु की सेवा में हाजिर हो गया। भंगानी नामक स्थान पर पहाड़ी राजाओं औैर गुरु गोबिन्द सिंह के बीच घमासान युद्घ हुआ। इस लड़ाई में बुधूशाह के रिश्तेदारों ने और सैनिकों ने बड़ी वीरता का प्रदर्शन किया। गुरु के रिश्ते का भाई संगाशाह और पीर बुधूशाह के दो पुत्र मारे गए। गुरु ने अपनी कृतज्ञता प्रकट करने के लिए पीर बुधूशाह को कृपाण, कंघा, अपने कुछ टूटे हुए केश और पगड़ी भेंट की। नाभा में ये वस्तुएं आज भी पवित्र स्मृति चिन्हों के रूप में संजो कर रखी हुई हैं।
गुरु गोबिन्द सिंह के जीवन से जुड़ी हुई कुछ ऐसी घटनाएं हैं जो साझा संस्कृति की अद्भुत मिसाल हंै। चमकौर की घमासान लड़ाई के बाद गुरु की जान बचाने के लिए उनके बचे हुए पांच शिष्यों ने आदेश दिया कि वे वहां से चल जाएं। भारी मन से इस बात को स्वीकार किया गया और रोपड़ और लुधियाना के बीच माछीवाड़ा के जंगल में वे पहुंच गये। पैदल चलने के कारण गुरु के पैरों में छाले पड़ गए थे, और उनसे चला नहीं जा रहा था। यहां पहले से निर्धारित योजना के तहत उन्हें तीन सिक्ख मिले। जहां वे ठहरे थे वहां उनकी मुलाकात दो पठानों से हुई, उनमें से एक के घर वे रुके। मुगल सेना गुरु की तलाश में वहां पहुची, सेना ने पूरे घर की तलाशी ली, मगर गुरु को नहीं पा सकी। इन्होंने गुरु गोबिन्द सिंह को छिपा लिया था। वहां से सुरक्षित निकालने के लिए दो पठानों और तीन सिक्खों ने गुरु को चारपाई पर लिटाया और यह कहकर मुगल सेनाओं के बीच से निकाला कि यह हमारा पीर है, यह हाल ही में हज करके लौटे हैं और आज कल इनका व्रत चल रहा है।
गुरु गोबिन्द सिंह ने सभी धर्मों को समान समझा। वे धार्मिक आधार पर भेदभाव को अनुचित समझते थे। उन्होंनेेेेेे अपने अनुयायियों से कहा कि दूसरे धर्मोंं का आदर करो । सभी मनुष्यों को एक समान मानने के लिए कहा।
मानस की जाति सबै एक पहचानबो
गुरु गोबिन्द सिंह ने इशर््वर और अल्लाह में कोई अन्तर नहीं किया। उनका मानना है कि सभी धार्मिक ग्रन्थों में एक जैसी शिक्षाएं हैं चाहे वह कुरान हो जिसे मुसलमान पवित्र मानते हैं चाहे वह वेद या पुराण हों जिसे हिन्दू पूज्य मानते हैं। इनमें मूलभूत एकता है इनमें किसी प्रकार का भेद नहीं है। गुरु गोबिन्द सिंह ने धर्मों के बीच व्याप्त एकता के सुत्रों को ढूंढा। उनका मानना था कि गंगा को पूज्य मानने वाले लोगों और मक्का को पवित्र मानने वाले लोगों में कोई्र अन्तर नहीं है।

देहुरा मसीत सोइ,
पूजा और निमाज ओइ।
$$
करता करीम सोई
राजक रहीम ओई
दूसरो न भेद कोइ।
$$
पुरान और कुरान ओई।
$$
केते गंगबासी केते मदीना मका निवासी।
$$
बेद पुरान कतेब कुरान अभेद।
$$
हैदरअली के बाद टीपू सुल्तान मैसूर का शासक बना। टीपू सुल्तान ने अंग्रेजों से कड़ा संघर्ष किया। टीपू सुल्तान को अकबर के बाद सबसे उदार शासक माना जाता है, जिसने जनता में धार्मिक भेदभाव मिटाने के लिए कदम उठाए। उन्होंनेेेेेे दक्षिण भारत के बहुत से मंदिरों को जागीरें दान दे रखी थी, ताकि उनका रख रखाव और देखभाल एवं पूजा आदि ठीक ढंग से हो सके। एक बार मराठा सेना ने टीपू सुल्तान की राजधानी श्रीरंगपट्टनम को घेर लिया, परन्तु उनको हार का मुंह देखना पड़ा तो उन्होंनेेेेे वापस हटते हुए बस्तियों को तहस नहस किया और शहर के पास कावेरी नदी पर स्थित श्रीरंगपट्टनम के मंदिर को लूटा और उसको क्षति पहुचाई तो टीपू सुल्तान ने बिना किसी भेदभाव के उसकी मुरम्मत करवाई और उसका पुनर्निमाण करवाया।25
टीपू सुल्तान के मन में हिन्दू-धर्म के प्रति कितना आदर था तथा हिन्दुओं का टीपू सुल्तान पर कितना विश्वास था इसका अनुमान इस बात से ही लगाया जा सकता है कि वह जब भी किसी अभियान पर निकलता था तो वह श्रृंगेरी में स्थित हिन्दुओं के मठ के शंकराचार्य से आशीर्वाद लेकर निकलता था। उसने इस मठ में शारदा की मूर्ति के निर्माण के लिए धन दिया। श्री रंगनाथ का प्रसिद्घ मंदिर उनके महल से केवल 100 गज की दूरी पर था।
बहादुर शाह जफर अन्तिम मुगल सम्राट थे। 1857 भारत का पहला स्वतंत्रता संग्राम इनके नेतृत्व में लड़ा गया। इस लड़ाई में हिन्दू और मुसलमानों ने मिलकर भाग लिया। बहादुरशाह जफर ने अपने जीवन के आखिरी दम तक में भारत देश के प्रति वफादारी दिखाई। उन्होंनेेेेेे अपनी रचना में लिखा
गाजियों में बू रहेगी जब तलक ईमान की
तख्त लंदन तक चलेगी तेग हिन्दुस्तान की 26
वे भारत की मिट्टी से इतना प्यार करते थे कि जब 1857 के स्वतंत्रता संग्राम में अंग्रेजों ने उनके जवान बेटों के सिर काट कर उनके सामने पेश किए तो उन्होंनेेेेेे उफ् तक नहीं की। उनको इस देश से कितना प्यार था उसका अन्दाजा इन पंक्तियों से लगाया जा सकता है:--
कितना बदनसीब है जफर दफन के लिए
दो गज जमीं भी न मिली कूए यार में
बहादुरशाह जफर हिन्दुस्तान में दफन होना चाहते थे, लेकिन उन्हें यह भी नसीब नहीं हुआ। उनको रंगून जेल में भेज दिया गया था। बहादुर शाह जफर की रचनाओं में साम्प्रदायिक सद्भाव के दर्शन होते हैं। इनकी नजर में हिन्दू और मुसलमान में कोई भेद नहीं था। हिन्दुओं के त्यौहारों को उतने ही उल्लास के साथ मनाते थे, जितने कि मुसलमानों के त्यौहारों को। इन्होंने दशहरा, होली और दीपावली को उसी दृष्टि से देखा जिस दृष्टि से इनकी होली नामक कविता अत्यंत स्वाभाविक तथा मनमोहक है:--
क्यों मोपर रंग की मारी पिचकारी देखो कुंवर जी दूंगी गारी।
''अठारहवीं और उन्नीसवीं शताब्दी के साहित्य पर एक विहंगम दृष्टि डालने से भी यह सच्चाई सामने आ जाती है कि भारत में अंग्रेजी राज के कायम होने से पहले मुसलमानों और हिंदुओं के मधुर संबंध थे और भावनात्मक एकता अपने चरम बिन्दु पर पहुंच चुकी थी। उनके जीवन के हर क्षेत्र में आत्मीयता, एकता, समता और भाईचारे की भावना दिखाई देती है। दोनों के सामाजिक आदर्शों में समझौते का भाव पाया जाता है और विभिन्न धार्मिक आस्थाओं में एक ऐसा मेल-जोल नजर आता है जो विगत शताब्दियों की स्वस्थ और पवित्र परंपराओं का एक मिला जुला नतीजा था।
हिन्दुओं और मुसलमानों में एकता और समता पैदा करने के प्रयासों का परिणाम एक समन्वित संस्कृति के रूप में दिखाई दिया जो न तो विशुद्ध मुस्लिम संस्कृति थी और न उसे विशुद्ध हिन्दू संस्कृति ही कहा जा सकता है बल्कि यह मिली-जुली हिंदू-मुस्लिम संस्कृति थी। दोनों जातियों के जीवन के हर क्षेत्र में यह संस्कृति बहुत गहरे में प्रवेश कर गई थी। हिंदू और मुसलमान कवियों और लेखकों के लिखने और कहने का ढंग एक जैसा ही था। हिंदू रचनाकार अपनी कृतियों को उसी ढंग से शुरू करते थे जिस तरह मुसलमान।ÓÓ27

मुसलमान व हिन्दू कवियों के मिले-जुले स्वर को देखकर ही आधुुनिक हिन्दी साहित्य के जनक भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने लिखा है:
अलीखान पठान सुता सह ब्रज रसवारे।
सेख नबी रसखान मीर अहमद हरि प्यारे।।
निरमल दास कबीर ताज खां बेगम बारी।
तानसेन कृष्णदास बिजापुर नृपति दुलारी।
पिरजादी बीबी रास्तो पदरज नित सिर धरिए।
इन मुसलमान हरिजन पै कोटिन हिन्दुन वारिए।।

संदर्भ:
1- कुंवरपाल सिंह; भक्ति आन्दोलन:इतिहास और संस्कृति भक्ति आन्दोलन: प्रेरणा स्रोत एवं वैशिष्ट्य, वासुदेव सिंह का लेख; पृ.185
2- भारत में बाबर आया तो वह मुस्लिम शासक इब्राहिम लोधी से लड़ा, हुंमायू और शेरशाह सूरी के बीच घमासान लड़ाई हुई और दोनों मुसलमान थे। महाराणा प्रताप और अकबर की लड़ाई में अकबर का सेनापति हिन्दू राजपूत मानसिंह था, तो महाराणा प्रताप का सेनापति मुसलमान पठान हकीम सूर खान था। गुरु गोबिन्द सिंह की मुगल शासक औरंगजेब के साथ लड़ाई थी तो उनका कितने ही मुसलमानों ने साथ दिया था। शासकों की इन लड़ाइयों के कारण राजनीतिक थे, लेकिन अंग्रेजों ने इनको धार्मिक लड़ाइयों की तरह से प्रस्तुत किया।
3-यदि वह धार्मिक कारण से ऐसा करता तो उसके हजारों मील के सफर में सैंकड़ों मन्दिर आए, लेकिन उसने किसी को भी नहीं छुआ। गौर करने की बात यह है कि उसकी सेना में बहुत बड़ी संख्या हिन्दू सिपाहियों की थी, उसके बारह सेनापतियों में पांच हिन्दू थे।
4-जिन क्षेत्रों में मुस्लिम शासकों की राजधानी थी, वहां धर्मान्तरण कम हुआ आज भी दिल्ली व आगरा के आसपास मुसलमानों की संख्या दस प्रतिशत से ज्यादा नहीं है, लेकिन जो आज पाकिस्तान है वहां जनसंख्या का बहुत बड़ा हिस्सा मुसलमान बना था, जबकि मुस्लिम सत्ता का केन्द्र दिल्ली-आगरा रहा। विख्यात पाकिस्तानी इतिहासकार एस.एम. इकराम ने टिप्पणी की है: ''अगर मुसलमानों की आबादी के फैलाव के लिए मुसलमान सुल्तानों की ताकतें ज्यादा जिम्मेदार हैं तो फिर यह अपेक्षा बनती है कि मुसलमानों की अधिकतम आबादी, उन क्षेत्रों में होनी चाहिए, जो मुस्लिम राजनीतिक शक्ति के केन्द्र रहे हैं। लेकिन दरअसल ऐसा नहीं है। दिल्ली, लखनऊ, अहमदाबाद, अहमदनगर और बीजापुर, यहां तक कि मैसूर में भी, जहां कि कहा जाता है कि टीपू सुल्तान ने जबरन लोगों को इस्लाम में धर्मान्तरित करवाया, मुसलमानों का प्रतिशत बहुत कम है। राजकीय धर्मान्तरण के परिणामों को इसी तथ्य से नापा जा सकता है कि मैसूर राज्य में मुसलमान बमुश्किल पूरी आबादी पांच प्रतिशत हैं। दूसरी ओर, जबकि मालाबार में इस्लाम कभी भी राजनीतिक शक्ति नहीं रहा, लेकिन आज भी मुसलमान कुल आबादी के करीब तीस प्रतिशत हैं। उन दो प्रदेशों में जहां मुसलमानों की सघनतम आबादी है - यानी आधुनिक पूर्वी और पश्चिमी पाकिस्तान मेें - इस बात के साफ-स्पष्ट सबूत हैं कि धर्मान्तरण उन रहस्यवादी सूफी सन्तों की वजह से हुआ जो सल्तनत के दौरान हिन्दुस्तान आते रहे। पश्चिमी क्षेत्र में तेहरवीं सदी में यह प्रक्रिया उन हजारों धर्मवेत्ताओं, सन्तों, धर्म प्रचारकों की वजह से ज्यादा सुकर बनी जो मंगोलों के आतंक से पलायन कर भारत आए।ÓÓ
5- कुंवर पाल सिंह; पृ. 269 प्रो. नूरुल हसन का लेख भारतीय समाज में धार्मिक सहिष्णुता से
6-
7-डा. महीप सिंह; गुरुनानक; सरस्वती विहार,दिल्ली; 1989; पृ.39
8- डा. सुभाष चन्द्र; साझी संस्कृति; उदभावना प्रकाशन,दिल्ली;2003; पृ.़14
9-
10- एस.आबिद हुसैन; भारत की राष्टीय संस्कृति; पृृ. 81
11-एस आबिद हुसैन; भारत की राष्टीय संस्कृति; पृ. 81
12-मुहम्मद उमर; भारतीय संस्कृति का मुसलमानों पर प्रभाव; प्रकाशन विभाग, सूचना प्रसारण मंत्रालय, भारत सरकार; 1996; पृ. 15
13- असगर अली इंजीनियर; कम्युनलिज्म इन इण्डिया: ए हिस्टोरिकल एंड इम्पीरकल स्टडी; विकास पब्लिशिंग हाउस दिल्ली;1995; पृ. 19,
14- रामधारी सिंह दिनकर; संस्कृति के चार अध्याय; पृ. 346
15- हिन्दू साम्प्रदायिक शक्तियों ने औरंगजेब के बारे फैलाया कि वह हर रोज लाखों हिन्दुओं के जनेऊ काटकर दोपहर का खाना खाता था, उसने इस्लाम को प्रचारित करने के लिए तलवार का सहारा लिया, वह हिन्दू धर्म से इतनी नफरत करता था कि उसने हिन्दू धर्म को नष्ट करने के लिए मंदिरों को तोड़ा और मूर्तियों को नष्ट किया। दूसरी और मुस्लिम साम्प्रदायिक शक्तियों ने औरंगजेब को इस तरह से प्रस्तुत किया जैसे कि वह इस्लाम को प्रसारित करने के लिए अवतार हुआ हो और उसने सारे काम शरीयत के अनुसार किए। दोनों सम्प्रदायों की साम्प्रदायिक शक्तियों ने औरंगजेब के व्यक्तित्व को सही ढंग से प्रस्तुत नहीं किया बल्कि अपने राजनीतिक हितों के लिए उसे तोड़ा मरोड़ा । दोनों धर्मों की साम्प्रदायिक शक्तियों ने अपने राजनीतिक स्वार्थों के लिए औरंगजेब का इस्तेमाल किया। हिन्दू धर्म के साम्प्रदायिक तत्वों ने हिन्दुओं में मुसलमानों के प्रति घृणा पैदा करने के लिए इसका प्रयोग किया, तो मुसलमान साम्प्रदायिक शक्तियों ने इसके चरित्र को महिमा मंडित किया, उसे इस्लाम के संरक्षक के तौर पर प्रस्तुत करके उसे आदर्श मुस्लिम शासक ठहराया।
16- डॉ इकबाल; अहमद सांस्कृतिक एकता का गुलदस्ता; प्रकाशन विभाग, सूचना प्रसारण मंत्रालय, भारत सरकार,दिल्ली; 1993; पृ. 15
17 गोलकुण्डा के विख्यात तानाशाह ने राज्य की जनता से कर वसूल लिया, लेकिन उसने दिल्ली का हिस्सा नहीं दिया। उसने खजाने को धरती में गाड़ दिया और उस पर मस्जिद बना दी। जब औरंगजेब को इस बात का पता चला तो उसने मस्जिद को गिराने का हुक्म दिया।
18-असगर अली इंजीनियर; कम्युनलिज्म इन इण्डिया : ए हिस्टोरिकल एंड इम्पीरकल स्टडी; विकास पब्लिशिंग हाउस दिल्ली; 1995; पृ. 12
19- इतिहास में ऐसे उदाहरण भरे पड़े हैं, जिसमें हिन्दू राजाओं ने दूसरे राजा की सीमा में आने वाले मंदिरों को तोड़ा। परमार राजा हिन्दू धर्म से संबंधित थे, लेकिन उन्होंनेेेेेे जैन मंदिरों को तोड़ा। कश्मीर के राजा हर्षदेव ने मूर्तियों को मंदिरों से हटाया, उसने तो मूर्तियां हटाने के लिए 'देवोतपत्नायकÓ नामक अधिकारी नियुक्त कर दिया था। मराठों ने टीपू सुल्तान के राज्य में पडऩे वाले श्रीरंगपट्टनम के मंदिर को लूटा और नष्ट किया, और टीपू सुल्तान ने उसकी मुरम्मत करवाई। अंग्रेज शासकों ने भारत की जनता की एकता को तोडऩे के लिए इतिहास को इस ढंग से प्रस्तुत किया था और उन्हीं का सहयोग करने वाली तथा लोगों के भाईचारे व एकता को तोडऩे वाली साम्प्रदायिक शक्तियों ने हिन्दू व मुसलमानों में फूट डालने के लिए इसे प्रयोग किया, जबकि यह मध्यकाल के शासकों की सामान्य विशेषता है। सभी शासक चाहे वह हिन्दू था या मुसलमान पूजा स्थलों को तोड़ते थे।
19क- मुहम्मद उमर; भारतीय संस्कृति का मुसलमानों पर प्रभाव; प्रकाशन विभाग, सूचना प्रसारण मंत्रालय, भारत सरकार; 1996; पृ.10
20-असगर अली इंजीनियर; कम्युनलिज्म इन इण्डिया : ए हिस्टोरिकल एंड इम्पीरकल स्टडी; विकास पब्लिशिंग हाउस दिल्ली;1995; पृ.-14
21- डॉ इकबाल अहमद; सांस्कृतिक एकता का गुलदस्ता; प्रकाशन विभाग, सूचना प्रसारण मंत्रालय, भारत सरकार,दिल्ली;1993; पृ.16
22-गो.प.नेने;छत्रपति शिवाजी:कारागार से सिंहासन; राजपाल एण्ड संस,दिल्ली;1974; पृ.41
23-गो.प.नेने; छत्रपति शिवाजी:कारागार से सिंहासन; राजपाल एण्ड संस, दिल्ली; पृ.93
24-रामधारी सिंह दिनकर; संस्कृति के चार अध्याय; पृ.346
24क-कर्तार सिंह दुग्गल; धर्मनिरपेक्ष धर्म; नेशनल बुक ट्रस्ट, दिल्ली; 2006, पृ.15
24ख-कर्तार सिंह दुग्गल; धर्मनिरपेक्ष धर्म; नेशनल बुक ट्रस्ट, दिल्ली; 2006, पृ.39
25 डा. सुभाष चन्द्र; साझी संस्कृति; उदभावना प्रकाशन,दिल्ली;2003; पृ.़39
26 के.एल.जौहर; स्वतन्त्रता संग्राम के अमर शहीद; स्नेह प्रकाशन,नोयडा; पृ. 113
27-मुहम्मद उमर, भारतीय संस्कृति का मुसलमानों पर प्रभाव, प्रकाशन विभाग, सूचना प्रसारण मंत्रालय, भारत सरकार, 1996, पृ.13