Monday, July 21, 2014

नुक्कड़ पर प्रतिरोधी नाटक

नुक्कड़ पर प्रतिरोधी नाटक

डा.सुभाष चन्द्र, हिन्दी-विभाग
कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय, कुरुक्षेत्र


नुक्कड़ नाटक आज जीवन्त विधा के रूप में समाज में विस्तार पा रहा है। जन-सामान्य की समस्याओं व संघर्षों की अभिव्यक्ति के लिए छोटे-बड़े शहरों में अनेक नुक्कड़-नाटक मण्डलियां कार्य कर रही हैं। दिल्ली में ‘जन नाट्य मंच’, ‘निशान्त नाट्य मंच’, ‘दिशाःजन सांस्कृतिक मंच’, ‘एक्ट वन’, चण्डीगढ में ‘जनवादी रंगमंच’, बीकानेर में ‘रंग भारती’, आगरा में ‘रंगकर्मी’, रायपुर में ‘हस्ताक्षर’, ‘अंवतिका’, ‘रचना’, ‘सिलसिला’, जबलपुर में ‘विवेचना’, पटना में ‘जन नाट्य संघ’, ‘अनागत’, ‘सर्जना’, ‘जनवादी कला एवं विचार मंच’,‘कला संगम’ तथा रांची में ‘रंगमंच’1 आदि अनेक नाटक मण्डलियां नुक्कड़ नाटकों के माध्यम से जनता की समस्याओं को अभिव्यक्त कर रही हैं और उनको दूर करने के लिए जन-संघर्ष को दिशा भी दे रहीं हैं और मजबूती भी प्रदान कर रही हैं। यह कहना अतिश्योक्ति नहीं होगा कि नुक्कड़ नाटक भी एक आन्दोलन की तरह से विस्तार पा रहा है। नुक्कड़ नाटक का कितना महत्व एवं विस्तार का अनुमान इस तथ्य से सहज ही लगाया है कि आन्ध्रप्रदेश में ‘प्रजा नाट्य मण्ड़ली’की ग्यारह सौ से अधिक ईकाइयां हैं जिसमें लगभग सत्रह हजार से अधिक कलाकार शामिल हैं। हरियाणा जैसे राज्य में जहां न तो नाटकों की कोई समृद्ध परम्परा रही है और न ही जन-आन्दोलन ही इतने प्रखर रहे हैं वहां भी विभिन्न शहरों में ‘जन नाटय मंच’, ‘जतन नाटक मंच’ ‘शहीद उधम सिंह नाटक मंच’ आदि नुक्कड़ नाटक के समूह लगभग हर जिले में मौजूद हैं। जो ‘हरियाणा ज्ञान-विज्ञान समिति’के मार्गदर्शन में नव-जागरण के लिए नाटकों का बहुत सराहनीय ढंग से प्रयोग कर रहे हैं। हरियाणा में,नुक्कड़ नाटकों में स्थानीय समस्याओं और उनके लिए किए जा रहे संघर्षों की अभिव्यक्ति के लिए काम करने वाले कलाकारों की संख्या भी पांच सौ से कम नहीं है।
यद्यपि भारत में चालीस के दशक में जब साम्राज्यवादी अंग्रेजों की लूट और शोषण से मुक्ति पाने का संघर्ष निर्णायक दौर में पहुंचा तो ‘इप्टा’के क्रान्तिकारी आन्दोलन के माध्यम से नुक्कड़ नाटक का जन्म हुआ। बलराज साहनी, राजेन्द्र सिंह बेदी, ख्वाजा अहमद अब्बास, कैफी आजमी जैसे जनता के प्रति प्रतिब कलाकार इसमें जुड़े। हालांकि यह आन्दोलन बम्बई और कलकत्ता जैसे बड़े शहरों तक ही सीमित था, लेकिन यह तो बिना किसी हिचक के कहा जा सकता है कि नुक्कड़ नाटक तो जनवादी मूल्यों और विचारधारा का बच्चा है। स्वतन्त्रता के बाद ज्यों-ज्यों जन-आन्दोलनों का विस्तार हुआ त्यों-त्यों नुक्कड़ नाटक की मण्डलियां भी एक शहर से दूसरे शहर में पनपती गई।
असल में नुक्कड़ नाटक का जन्म व उभार पूरी दुनिया में समाज में जनवादी-आन्दोलनों के साथ एक राजनीतिक जरूरत के तहत हुआ है। यदि विश्व में नुक्कड़ नाटक के जन्म पर नजर डालें तो पता चलेगा कि रूस में समाजवादी स्थापना के बाद सांस्कृतिक-आन्दोलन के लिए रंगमंच के प्रयोग के दौरान और द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान नाजीवाद और फासीवाद के विरूद्ध सेना को तैयार करने के लिए इसका प्रयोग किया गया। चीन में क्रांति के लिए किसानों को तैयार करने के लिए तीसरे दशक में इसका जन्म हुआ तो स्पेन में गृहयुद्ध के दौरान, वियतनाम में जापानी, फ्रांसीसी और अमेरिकी हमलावरों के विरूद्ध युद्ध के दौरान, क्यूबा में क्रांन्ति के तुरन्त बाद और पूरे लैटिन अमेरिका व अफ्रीका में राष्ट्रीय मुक्ति-संग्राम के दौरान और अमेरिका में मैक्सिकी,खेत मजदूरों और नीग्रो के बीच संघर्ष और संगठन के साधन के रूप में लोकप्रिय हुआ।2
भारत में यद्यपि रामलीला व रासलीला आदि की लोक-प्रस्तुतियों में नाटक के इस रूप के पैदा होने की संभावना मौजूद थी,परम्परागत तौर पर इस तरह के प्रहसन या तो राजाओं की खिल्ली उड़ाकर उनके प्रति अपने रोष को जताने का माध्यम थी या फिर धार्मिक भूख को शान्त करने का जरिया। इन दो तत्त्वों की अधिकता के कारण यह एक मनोरंजन प्रधान विधा ही बनकर रही,इसमें कोई विशेष गुणात्मक परिवर्तन नहीं हुआ। इसलिए भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने अंग्रेजी शासन की पोल खोलने की सोची तो उनको यह सशक्त माध्यम तो नजर आया,पर वे इसकी सीमा को नहीं लांघ सके। उनके नाटकों के कथ्य बेशक अंग्रेजी शासन की नीतियों के बारे में जनता को आगाह करते थे,लेकिन उनमें हास्य की अधिकता होने के कारण वे मनोरंजन करने तक ही सीमित रहे और अंग्रेजी शासन की असलियत बताने और उसके विरूद्ध आन्दोलनकारी चेतना निर्माण करने में आंशिक रूप से ही सफल हुए। राजनीतिक स्पष्टता और जनता के प्रति नाटककार की प्रतिबद्धता के कारण नुक्कड़ नाटक की जिस तरह की पहचान बनी उस दृष्टि से भारतेन्दु के नाटकों को नुक्कड़ नाटकों की श्रेणी में तो बेशक नहीं रखा जा सकता। लेकिन यह भी सच है कि जब कलाकारों ने अपना सामाजिक दायित्व निभाने के लिए नुक्कड़ नाटक को चुना तो उनको नाटक के इस परम्परागत रूप ने बहुत मदद की,बल्कि यह भी कहा जा सकता है कि उन्होंने इस रूप की मनोरंजन-प्रधानता को दूर करके इसका राजनीतिक संस्कार किया। जनता तक पहुंच को देखते हुए कभी सरकारों ने भी अपने प्रचार के लिए इसका इस्तेमाल करना चाहा तो कभी प्रतिक्रियावादी ताकतों ने भी लेकिन नुक्कड़ नाटक के रूप में ही कुछ बात है कि वे अपने मकसद के लिए इसका प्रयोग नहीं कर सके। नुक्कड़ नाटक पूरी तरह जनता के जीवन की बेहतरी का साथी बना इसीलिए यह उसी तरह उपेक्षित भी रहा, जैसे कि जनता रही।
मध्यवर्ग की मानसिकता से ग्रस्त विद्वानों ने लम्बे समय तक नुक्कड़ नाटक को विधा के तौर पर स्वीकार नहीं किया और साहित्यिक हल्कों में इसके रूप पर चर्चा ही नहीं की। नुक्कड़ नाटक में शुरू से ही बड़े कलाकारों की समृद्ध परम्परा होते हुए भी इसके कलाकारों को असल में तो कलाकार का दर्जा ही नहीं मिला और यदि कलाकार माना भी तो दूसरे दर्जे का। उसकी जन पक्षधरता को तो सराहा, लेकिन कला-पक्ष की घोर उपेक्षा की गई। लेकिन नुक्कड़ नाटक के कलाकारों ने अपनी सामाजिक प्रतिबद्धता के ऐतिहासिक दायित्व को निभाते हुए अविस्मरणीय पहचान बनाई है। सफदर हाशमी तो अपने इस दायित्व के लिए शहीद ही हो गए,जबकि गुरशरण सिंह, माला हाशमी, शमशुल इस्लाम जैसे कलाकार लगातार जनवाद के आड़े आने वाली हर समस्या से अपने नाटकों के माध्यम से जूझ रहे हैं। जनवाद के प्रति यह गहरी निष्ठा ही है कि पंजाब में आतंकवाद के दौरान आतंकवादियों की धमकियों की परवाह न करते हुए गुरशरण सिंह ने पूरे पंजाब में इसके खिलाफ नाटक किए। साम्प्रदायिक दंगों के दौरान शान्ति के लिए तथा मेहनतकश जनता के संघर्षों में शामिल होने के लिए ये कलाकार अपना नाटक लेकर संघर्षरत जनता के बीच पहुंच जाते हैं फिर चाहे वह विश्वविद्यालय के शिक्षकों की हड़ताल हो या कारखानों में काम करने वाले दिहाड़ीदार मजदूरों की। इस दौरान इन कलाकारों को कई तरह के विरोध का सामना भी करना पड़ता है। कितनी ही ऐसी घटनाएं है जबकि नाटक करने से पहले ही पुलिस ने इन्हें गिरफ्तार कर लिया और कितनी ही बार नाटक के कलाकारों को पुलिस की लाठियां भी खानी पड़ी।
स्वतन्त्रता के बाद भारत के शासक वर्ग ने विकास का पूंजीवादी रास्ता अपनाया जो जनता की आकांक्षाएं पूरी नहीं कर पाया। मंहगाई, बेरोजगारी, भ्रष्टाचार जैसी समस्याएं विकराल रूप धारण करती गई और असमान विकास के चलते अलगाववाद, क्षेत्रवाद, जातिवाद जैसी समस्याओं ने जनता की एकता को तार-तार करना शुरू किया। इस स्थिति को देखते हुए जनता के संघर्षशील व जुझारू तबकों ने विरोध करना शुरू किया। किसानों, मजदूरों, स्त्रियों, विद्यार्थियों के छोटे-छोटे आन्दोलनों को नुक्कड़-नाटक ने इसे अभिव्यक्ति दी,जबकि महानगरों तक ही सीमित मुख्यधारा का नाटक जनता से नाता तोड़कर अभिजात्य वर्ग की रुचियों को ही अभिव्यक्त करता था। नाटक में नए-नए प्रयोग तो हो रहे थे लेकिन उनका लोगों से कोई संपर्क नहीं था। ऐसे वक्त में नुक्कड़ नाटक ने जनता की आकांक्षाओं और भावनाओं को अभिव्यक्ति दी।
समाज जब अमीर-गरीब, शोषक-शोषित दो श्रेणियों में बंटा है तो फिर यह भी सच है कि इसमें दो तरह की कलाएं हैं,और उसके दो तरह के मूल्य हैं। एक वे जो ‘कला को मात्र कला के रूप में ही स्थापित करते हैं’और दूसरे वे जो ‘कला को जीवन के लिए’और समाज को बेहतर बनाने में उसकी कुछ उपयोगिता को स्वीकार करते हैं। वर्ग-विभक्त समाज में कला-साहित्य की भूमिका भी वर्गीय होती है। रचना के मूल्य समाज के किस वर्ग के हित में खड़े होते हैं इसके आधार पर ही किसी रचना को जनवाद के पक्ष में या उसके विरोध में कहा जा सकता है। ‘अन्त्यज का हित ही किसी विचार या कार्य के सही, उचित, नैतिक और करणीय होने की कसौटी’ मानने का संदेश देता गांधी जी का जन्तर जनवाद की भी कसौटी कहा जा सकता है। जनवाद का सार ‘स्वतन्त्रता, समानता, भाईचारे’ में निहित है और इन मूल्यों को बढ़ावा देने वाली रचना को जनवाद को पोषित करने वाली श्रेणी में रखा जा सकता है।
किसी भी साहित्यिक रचना की विषयवस्तु अपने रूप का निर्माण स्वयं करती है,लेकिन रूप और विषयवस्तु का यह रिश्ता द्वन्द्वात्मक होता है जहां विषयवस्तु अपने रूप का निर्माण करता है वहीं रूप भी विषयवस्तु को प्रभावित करता है। नुक्कड़ नाटक असल में विषयवस्तु प्रधान विधा है। इसमें जोर ही इस बात पर है कि कलाकार के पास कहने के लिए कोई बात है, जिसे वह जनता तक ले जाना चाहता है। इसकी कथ्य-प्रधानता ने नाटक का भी जनवादीकरण किया है। सामूहिक तौर पर भी नाटक लिखे गए और सबसे बड़ी बात यह कि नाटक-विधा को भी उसके शास्त्रीय खोल से बाहर निकाल कर मुक्त कर दिया। नाटक में जिस तरह कथानक, पात्र-योजना, संवाद, देश-काल-स्थान की एकता, मंचीय-विधान पर बल दिया जाता था उसे नुक्कड़ नाटक ने एक झटके में तोड़ दिया। नुक्कड़ नाटक सार्सी के कथन कि ‘दर्शक के बिना नाटक नहीं’ तथा ब्रेख्त के सिद्धांत पर चलता है।3 नाटक का जनता से संपर्क एवं संबंध हो और बात जनता तक जाए इसीलिए नुक्कड़ नाटक का यह स्वरूप बना है कि कलाकार किसी बड़े ताम-झाम व नाट्य-सेट को लेकर नहीं चलते बल्कि कम से कम सामान के साथ और बिना किसी चमक-दमक के मंच पर होता है। क्योंकि भारी भरकम सामान को उठाना खर्चीला और असुविधाजनक काम तो है ही साथ ही इसमें दर्शक को अपने अन्दर उलझा लेने की गुंजाइश भी रहती है जिससे नाटक की बात दबने की संभावना बन सकती है। मंच के जो नाटक विभिन्न किस्म की साम्रगी प्रयोग करके चमत्कार पैदा करते हैं वे अपने कथ्य को संप्रेषित करने में पूरी तरह सफल ही होते हैं, ऐसा नहीं कहा जा सकता।
नुक्कड़ नाटक का उद्देश्य जनवाद के मूल्यों को प्रसारित करना है इसलिए वे दर्शक को जागरूक करते हैं। और उसे जागरूक करने के लिए वास्तविकता का आभास देने की आवश्यकता नहीं होती। सच्चाई का आभास देने वाली नाट्य टेकनीक में क्षतिपूर्ति की संभावना बनी रहती है। दर्शक को सहलाना, फुसलाना या मात्र सच्चाई बतलाना नुक्कड़ नाटक का उद्देश्य नहीं है,बल्कि उसे जागरूक करना है जो तभी संभव है कि जब दर्शक को हमेशा यह अहसास रहे कि वह एक नाटक देख रहा है। यद्यपि दर्शक की तरफ से तो कोई भी नाटक बेपरवाह नहीं हो सकता, लेकिन नुक्कड़ नाटक के केन्द्र में तो दर्शक ही है। इसीलिए वह यह इन्तजार नहीं कर सकता कि दर्शक उसके पास आयेगा बल्कि वह दर्शक के पास स्वयं ही जाता है। दर्शक तक पहुंचने और उसकी तकलीफ में शामिल होने की प्रबल आकांक्षा ही इसके जनवाद समर्थक कथ्य और रूप को एक विशेष शक्ल देती है। नुक्कड़ नाटक के लिए दर्शक मुख्य है इसलिए दर्शक की भाषा, उसकी मनोरंजन पद्धति, उसका कला बोध नाटक को प्रभावित करता है। वैसे तो नाटक एक ऐसी विधा है जो समसामयिक हुए बिना जिन्दा नहीं रह सकती,लेकिन नुक्कड़ नाटक की तो यह मूलभूत शर्त है। नुक्कड़ नाटक एक ज्वलंत समस्या पर केन्द्रित होकर ही कामयाब हो सकता है। जनता का कोई भी सवाल जो एकदम उठ खड़ा हुआ है वह नुक्कड़ नाटक का विषय बनता है।
नुक्कड़ नाटक की राजनीतिक प्रखरता एवं प्रतिबद्धता की वजह से इसे राजनीतिक प्रोपगण्डा का नाटक होने का आरोप बेशक लगाते रहे हैं,वैसे तो प्रत्येक युग में राजनीति समाज के केन्द्र में रही है और जनजीवन को नियंत्रित व संचालित करने वाली शक्ति रही है,लेकिन वर्तमान लोकतांत्रिक व्यवस्था में राजनीति समाज की चर्चा का केन्द्रीय सवाल है। कोई जागरूक रचनाकार और नागरिक राजनीति से अछूता नही रह सकता। मानव समाज के सामने प्रस्तुत अधिकांश समस्याएं राजनीति की देन हैं और निःसंदेह उनका समाधान भी राजनीति में ही है। कालजयी रचनाएं वही बन सकी हैं जिनमें तत्कालीन राजनीति के मुख्य सवालों व संघर्ष को उजागर करने की क्षमता थी। विमर्श के केन्द्र में सर्वाधिक रहने वाले महाकाव्य रामायण और महाभारत से यदि राजनीति निकाल दी जाए तो इनमें शायद ही कुछ मनुष्य के काम का बचे। भारत के स्वतंत्रता-आन्दोलन के दौरान वही रचनाएं लोकप्रिय हुई जिनमें तत्कालीन राजनीति को विषय बनाया।
वर्ग-विभक्त समाज में राजनीति के भी दो स्वरूप हैं एक शोषक वर्ग की राजनीति तो दूसरी शोषित-पीड़ित वर्ग की राजनीति। यह राजनीति बिल्कुल अलग-अलग और अछूती नहीं है बल्कि इनमें तीखी टकराहट भी है। शासक वर्ग जनता पर शासन करने के लिए उसकी एकता को तोड़ने के लिए उसमें कई तरह के भ्रम व मिथ्या चेतना का प्रचार-प्रसार करता है। उनमें जाति, धर्म, क्षेत्र, भाषा के नाम पर कई तरह की संकीर्णताएं पैदा करता है और एक समुदाय और वर्ग को दूसरे के विरूद्ध इस तरह प्रस्तुत करता है कि वे एक-दूसरे के शत्रु हों। जैसे बिल्लियों की लड़ाई में बन्दर सारे ठाठ लेता है वही शासक वर्ग करता है। जनता के जीवन की बेहतरी के लिए जरूरी है निरन्तर और जुझारू संघर्ष जो उसकी व्यापक एकता में ही संभव है। शासक वर्ग जनता के संगठन की शक्ति को पहचानता है,इसलिए इसे कमजोर करने के लिए भरपूर कोशिश करता है। नुक्कड़ नाटकों में जनता के भाईचारे को तोड़कर उसकी मुक्ति की लड़ाई को कमजोर करने वाली शासक वर्गीय राजनीति को मुख्य विषय बनाया गया है। शोषक शक्तियों ने साम्प्रदायिकता को जन-एकता को तोड़ने के लिए हथियार के तौर पर इस्तेमाल किया है। आजादी से पहले अंग्रेजों ने और आजादी के बाद अंग्रेजों के वारिसों ने इसको अपने आर्थिक व राजनीतिक हितों के लिए प्रयोग किया। साम्प्रदायिकता की राजनीति अन्ततः फासीवाद तक जाती है, जिसमें जनता के तमाम जनवादी अधिकारों का खात्मा हो जाता है। फासीवाद के विरूद्ध संघर्ष में नुक्कड़ नाटक हमेशा सशक्त माध्यम रहा है। जर्मनी के बर्टोल्ट ब्रेख्त ने फासीवाद के विरूद्ध संघर्ष में ही नाटक का नया शास्त्र तैयार किया। नुक्कड़ नाटकों में साम्प्रदायिकता के विभिन्न पक्षों को जनता के सामने उद्घाटित किया है। असगर वजाहत का ‘सबसे सस्ता गोश्त’स्वार्थी नेताओं की टुच्ची राजनीति को सामने रखता है जिनके लिए मात्र सत्ता में बने रहना ही चिन्ता का विषय है और इसके लिए वे किसी भी हद तक जा सकते हैं। इन्सान की जान की उनके लिए कोई कीमत नहीं है। कितनी विडम्बना है कि गाय या सुअर का मांस उनके लिए इतना महत्वपूर्ण है कि इसके लिए वे सर्वश्रेष्ठ प्राणी माने जाने वाले मनुष्य को मार सकते हैं वो भी धर्म के नाम पर। कितना हास्यास्पद है कि पशु की रक्षा के नाम पर मनुष्य की हत्या। जन नाट्य मंच का ‘हत्यारे’नाटक में साम्प्रदायिक दंगों के पीछे काम कर रहे आर्थिक स्वार्थ को दर्शाया गया है। औद्योगिक शहरों में छोटे कारीगरों के रोजगार को समाप्त करने के लिए बड़े उद्योगपति साम्प्रदायिक दंगें करवाते हैं। इस नाटक का उद्योगपति कहता है कि ‘‘चीजों को गौर से देखो। इन कारखानों के रहते हमारे माल की सेल कभी नहीं बढ़ सकती। जब तक बाजार में अलीगढ़ का ताला रहेगा, हमारी इंडस्ट्री पनप नहीं सकती।’’4 अलीगढ, मुरादाबाद, जबलपुर, आदि के दंगों के पीछे यही मुख्य कारण रहा है,धार्मिक भावनाओं को तो इसी के लिए भड़काया गया और उद्योगपतियों ने साम्प्रदायिक दंगें आयोजित करवाए। इससे उन्हें एक तो कुशल श्रमिक सस्ती दर पर मिल गए दूसरे बाजार पर उनका एकाधिकार हो गया। राजनीतिक नेता और पूंजीपतियों के अलावा साम्राज्यवादी शक्तियां भी कथित धार्मिक नेताओं से मिलकर दंगें करवाते हैं। सफदर हाशमी का नाटक ‘अपहरण भाईचारे का’ नाटक दंगों के पीछे की शक्तियों की पहचान करने को कहता है। मदारी-जमूरा के संवाद में जमूरा कहता है कि ‘‘तो मेहरबानों,कदरदानों,अपने दुश्मन को पहचानो। बता दो कि विदेशी पैसा कहां से आ के कहां जाता है,अमरीकन अंबैसी में रोज डिनर कौन खाता है,आग लगवाने वाले पोस्टर कौन छपवाता है, गली-मुहल्लों में त्रिशूल कौन बंटवाता है, अल्ला-ईश्वर के नाम पर सेनाएं कौन बनवाता है, कौन खालिस्तान का नारा लगवाता है।’’5 लोगों में साम्प्रदायिक उन्माद पैदा करने के लिए इतिहास के तथ्यों को तोड़-मरोड़कर इस तरह पेश किया जाता है मानों कि दो धार्मिक समुदाय हमेशा लड़ते रहे हैं और वे कभी साथ-साथ शान्तिपूर्ण ढंग से रहे ही नहीं। जबकि सच्चाई इसके विपरीत है विभिन्न समुदाय न केवल मिलकर रहे हैं बल्कि एक दूसरे से सीखते हुए साझी संस्कृति का निर्माण किया है। ‘मत बांटो इन्सान को’ नाटक इसकी ओर संकेत करता है। नुक्कड़ नाटकों में साम्प्रदायिक दंगों के दौरान हत्या, हिंसा और बर्बरता एवं अमानवीयता के भावुकतापूर्ण चित्र नहीं, बल्कि साम्प्रदायिकता की राजनीति के षडयन्त्रों को उद्घाटित करते हुए इसके वर्गीय स्वरूप को दर्शाया है। बिना धर्मनिरपेक्षता के लोकतांत्रिक व्यवस्था संभव ही नहीं है। साम्प्रदायिकता मूलतः जनविरोधी है और इसकी उत्पति ही अंग्रेजी-शासकों की ‘फूट डालो और राज करो’की नीति के तहत हुआ था। स्वयं को ‘सांस्कृतिक पुरूष’ और ‘शुद्ध संस्कार’ डालने और ‘चरित्र-निर्माण’ करने का ढोंग रचकर आम लोगों को धोखा देते हुए उनमें जो धर्मोंन्माद, रूढियों, अतीतमोह, दूसरे धर्म के लोगों के प्रति घृणा एवं अविश्वास पैदा करने वाले, मन्दिर-मस्जिद के नाम पर देश की शान्ति भंग करने वालों ने बेशक धार्मिक चोला व धार्मिक वाग्जाल अपना रखा हो, नुक्कड़ नाटक बताते हैं कि असल में न तो ये धार्मिक हैं और न ही देश-भक्त। बात भी सही है कि देश तो तभी तरक्की कर सकता है जब इसके निवासियों में आपसी प्रेम,सद्भाव, विश्वास और भाईचारे की भावना मजबूत हो। लेकिन यह इतिहास का तथ्य है कि शासक वर्ग अपना शासन कायम रखने के लिए साम, दाम, दण्ड, भेद की नीति अपनाते हैं और इसे वैध या स्वीकृति के लिए इस तरह पेश करते हैं मानो कि यह दैवीय-ईश्वरीय या प्राकृतिक व्यवस्था हो। चूंकि शासक वर्ग इस बात से भी भलीभांति परिचित है कि मात्र दमन-तंत्र से शासन नहीं किया जा सकता इसलिए वह अपने वर्गीय हितों को सबके हित के तौर पर प्रस्तुत करता है। पूंजीवादी राजनीति के दोगलेपन को प्रमुखता से विषय बनाया गया है। पूंजीवादी शासकों की विडम्बना यह है कि उन्हें स्वयं को दिखाना तो पड़ता है जनता के सबसे बड़े हितैषी। लेकिन वास्तव में वे करते हैं पूंजीप्रधान लोगों की सेवा। इसलिए उनकी राजनीति दो भागों में बंट जाती है। एक जनता को रिझाने के लिए उनकी लोकप्रिय मगर थोथी घोषणाएं दूसरी नीतियों के माध्यम से पूंजी को अधिकाधिक शोषण करने की छूट। नुक्कड़ नाटकों में सत्ता-लोलुप नेताओं,पूंजीपतियों,साम्राज्यवादी शक्तियों और कथित धार्मिक नेताओं के गठजोड़ को उद्घाटित किया गया है। पूंजीवादी राजनीतिक दल सत्ता प्राप्त करने के लिए धनी लोगों से ‘दान’ के रूप में भारी धन लेते हैं और सत्ता हासिल करने के बाद ऐसी नीतियों को लागू करते हैं जिससे जनता के हिस्सा इनकी तिजोरियों में स्वतः ही पहुंच जाता है। जनता के वोट प्राप्त करने के बाद सत्ता में आए कथित ‘जनसेवक’ जनता से दूरी कायम कर लेते हैं। नुक्कड़ नाटकों में राजनीति के दोनों रूपों को साथ-साथ रखते हुए इस राजनीति की असलियत दिखाई है। जनविरोधी राजनीति के रूप को ‘समरथ को नहीं दोष गुंसाई’, ‘काला कानून’, ‘कैसी जनता’ में प्रमुखता उठाया है।
जनता ने जो अधिकार संघर्ष करके प्राप्त किए हैं चाहे वह अभिव्यक्ति का अधिकार हो,शिक्षा का अधिकार हो,शासन सत्ताएं अपने हितों के लिए इनका हनन करती हैं तो जनवाद को स्थापित करने का संघर्ष भी कमजोर पड़ता है। आखिर तो इन अधिकारों के माध्यम से ही जनवाद की स्थापना हो सकती है। नुक्कड़ नाटकों में इसे विषय बनाया है। आपात काल के दौरान कलाकारों की अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता पर पाबन्दी लगी तो इसके विरोध में कई सशक्त नुक्कड़ नाटक आए। जब तत्कालीन तानाशाही शासकों ने घोषणा की कि वही राष्ट्र व देश है तो पूरे देश में इसका विरोध हुआ। शिवराम का नाटक ‘जनता पागल हो गई है’ में इस स्थिति की बहुत प्रभावी अभिव्यक्ति की और यह नाटक इतना लोकप्रिय हुआ कि इतने बरसों बाद भी जब किसी जगह इस तरह की स्थिति आती है तो थोड़ा-बहुत फेर बदल करके इसे प्रस्तुत किया जा सकता है।
जब तक समाज में बराबरी स्थापित नहीं होगी तब तक न तो जनवाद की कल्पना की जा सकती है और न ही शान्तिपूर्ण एवं समृद्ध समाज का ही निर्माण हो सकता है। फिर चाहे असमानता सामाजिक स्तर पर हो या लैंगिक आधार पर हो या फिर आर्थिक ही क्यों न हो। शोषण इस असमानता को बढावा देता है। इसलिए शोषण का विरोध किए बगैर जनवाद संभव नहीं है। नुक्कड़ नाटकों में शोषण के चित्र ही नहीं खींचे गए हैं बल्कि इनके कारण का खुलासा करते हुए इसके निदान की ओर भी संकेत किया गया है। नुक्कड़ नाटक में समस्या चाहे कोई भी उठाई गई हो लेकिन उसका समाधान व्यवस्था परिवर्तन में ही दिखाई देता है। ‘जंगीराम की हवेली’ नाटक में हवेली शोषणकारी व्यवस्था का प्रतीक है, जो इसमें रहने वाले अधिकांश लोगों को आश्रय नहीं दे सकती। हवेली का मालिक यानी शासक वर्ग जब जनता की आंकाक्षाओं पर खरा नहीं उतरता तो वे इसे गिराकर नई हवेली यानी नई व्यवस्था बनाने की बात करते हैं। मौजूदा शोषणकारी व्यवस्था का विध्वंस करके ही नई व्यवस्था का निर्माण संभव है। इस व्यवस्था में गरीबी,बेरोजगारी व मंहगाई का कोई समाधान नहीं है,बल्कि सच तो यह है कि ये इस व्यवस्था की अनिवार्य परिणतियां हैं। यदि लोग गरीब व बेरोजगार नहीं होंगें जो शासक वर्गों को सस्ते श्रमिक कहां से मिलेंगें और मंहगाई के बिना उनको अधिक लाभ कैसे मिलेगा।
पूंजी-प्रधान व्यवस्था का जनवाद के साथ मूल विरोध है। इसमें समस्त अधिकार वही भोग सकता है जिसके पास धन है,प्रकृति व समाज निर्मित समस्त नियामतें और सुविधाएं उसी के हिस्से में है जबकि अधिकांश लोगों के पास तो पेट भर गुजारा करने के लिए भी साधन नहीं हैं। ऐसा नहीं है कि पूंजीवादी-व्यवस्था में वस्तुओं की कमी है। वस्तुओं के गोदाम भरे पड़े हैं, लेकिन जनता की उन तक पहुंच नहीं है। अनाज का इतना उत्पादन होता है कि उसे रखने के लिए गोदाम कम पड़ गए हैं, लेकिन लोग भूख से मर रहे हैं। कपड़े की कोई कमी नहीं,मकान बनाने के लिए प्रयुक्त होने वाले सामान की कोई कमी नहीं। फिर भी लोग इनके लिए तरसते हैं। हां यह बात जरूर है कि इस व्यवस्था की अमानवीयता को छुपाने के लिए इसके अभाव में मरने वालों के लिए पूंजीपतियों के अखबार इनकी मौत को लू या सर्दी से होने वाली मौत बता देते हैं। नुक्कड़ नाटकों में वस्तुओं की जमाखोरी से कृत्रिम अभाव पैदा करके लाभ कमाने नहीं बल्कि लूट मचाने के लिए महाजनों द्वारा की गई कार्रवाइयों को दर्शाया है। यह उसी तरह का घृणित काम है जैसे कि अंग्रेजों द्वारा कृत्रिम अकाल पैदा करके लोगों को भूखे मरने के लिए छोड़ दिया जाता था। धन एकत्रित करने की हवस में खाद्य-पदार्थों में मिलावट करने जैसे अमानवीय कार्य में कुछ भी अनुचित नजर न आने वाले लोगों को वर्तमान व्यवस्था राजनीतिक प्रश्रय देती है। तमाम प्रशासनिक मशीनरी इसे अनदेखा करती है। ‘मशीन’, ‘गांव से शहर तक’, ‘राजा का बाजा’, ‘जंग के खतरे’आदि नुक्कड़ नाटकों में मौजूदा-व्यवस्था के राजनीतिक-अर्थशास्त्र को विश्लेषित करके समझाया है कि यह मूलतः जन विरोधी है।
भारतीय समाज में वर्चस्वी वर्गों की विचारधारा पितृसत्ता और वर्ण-व्यवस्था के माध्यम से लोगों के विचार व व्यवहार को नियंत्रित करती है। समाज की लगभग दो तिहाई आबादी के शोषण को यह विचारधारा वैध ठहरा देती है। स्त्रियों और दलितों को इन्सानी व बराबरी का दर्जा मिले बगैर जनवादी व न्यायपूर्ण समाज की कल्पना ही नहीं की जा सकती। स्त्री का आर्थिक व दैहिक शोषण तथा विकास के उचित अवसरों से वंचित करने के चित्र दर्शाये हैं और स्त्री का समाज के विकास में योगदान को प्रस्तुत किया है। नुक्कड़ नाटकों में स्त्री-शोषण के तीन रूपों को व्यक्त किया है। दलितों को सामाजिक तौर पर जो उत्पीड़न सहन करना पड़ता है तथा समाज की नफरत व घृणा का शिकार होना पड़ता है। यदि दलित इसका विरोध करें तो उनको इसकी सजा भुगतनी पड़ती है। प्रेमचन्द की कहानियों के आधार पर बने ‘सद्गति’ और ‘ठाकुर का कुंआ’ नाटक के अलावा भी कई महत्वपूर्ण नाटक आए हैं। समाज में बहुत से शोषित समुदाय एवं वर्ग हैं जिनको कि शोषण से मुक्ति चाहिए, लेकिन यह भी सच है कि शोषण से मुक्ति किसी को अकेले-अकेले नहीं मिलेगी। मुक्ति मिलेगी तो समस्त शोषित समाज को एक साथ। यह भी सही है कि मुक्ति तोहफे में नहीं बल्कि संघर्ष से मिलेगी। इसलिए मुक्तिकामी वर्गों और समुदायों में बृहत्तर भाईचारे व एकता निर्माण के लिए नुक्कड़ नाटक एक जोड़ने वाले विचार-सूत्र का काम करता है। जन नाटय मंच इस समझदारी से काम करता है कि ‘‘समाज का कोई भी शोषित तबका केवल अपनी समस्याओं को लेकर अलग-अलग संघर्ष कर सफल नहीं हो सकता। जनता के सभी शोषित तबकों को एक साथ मिलकर, संगठित होकर बढ़ते जुल्मो-सितम का मुकाबला करना होगा। गरीब औरतों,मरदों, किसानों, छात्रों, कर्मचारियों को भाईचारे की भावना के साथ मिलकर लड़ना होगा। जनवाद और प्रजातन्त्र की जड़ें मजबूत करनी होगी।’’6
शासक-वर्ग का शोषित पर दमन उसके पुलिस-तन्त्र की क्रूरता व बर्बर कार्रवाइयों सर्वाधिक प्रखर रूप में दिखाई देता है। कहने के लिए तो पुलिस कानून और व्यवस्था को बनाए रखने के लिए होती है, लेकिन असल में वह वर्चस्वशाली वर्ग के लोगों के हितों की रक्षा अधिक करती है। कानून तोड़ने वाले भ्रष्ट पूंजीपति, बदमाश और छुटभैये नेता तो पुलिस के साथ गलबहियां करते हैं और कानून तोड़ने से पीड़ित शोषित वर्ग पर उसके अत्याचार का डण्डा चलता है। पुलिस के इस वर्गीय चरित्र को ‘पुलिस-चरित्रम्’ व ‘इन्सपेक्टर मातादीन चांद पर’ नाटक में दर्शाया गया है।
आधुनिक समाज में जनवाद की अवधारणा ने कलाओं और साहित्य को प्रभावित किया है। जनवाद की चेतना शोषित-दलित-पीड़ित-वंचित वर्गों को शोषणपरक व्यवस्था से छुटकारा पाने के लिए संघर्ष की प्रेरणा देती है जो साहित्य के विभिन्न रूपों में व्यक्त हुई है। समाज में शासक वर्गों द्वारा फैलाई जा रही मिथ्या-चेतना को दूर करने व संघर्ष चेतना को प्रखर करने में नुक्कड़ नाटक अपनी भूमिका निभा रहा है। जनता के जनवादी संघर्षों के स्वरों ने जहां नुक्कड़ नाटक के विकास में योगदान दिया है वहीं नुक्कड़ नाटक ने भी जनवाद के पक्ष में उठे स्वरों की अभिव्यक्ति करके व इन्हें सूत्रबद्ध करके मजबूती प्रदान की।


संदर्भः
1. जयदेव तनेजा, हिन्दी रंगकर्मः दशा और दिशा, तक्षशिला प्रकाशन, दिल्ली, 1988, पृ.-143
2. सफदर हाशमी, सफदर (नुक्कड़ नाटक के आरम्भिक दस वर्ष) राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, 1989, पृ.- 43
3. सं. चन्द्रेश, नुक्कड़ नाटक, राधाकृष्ण प्रकाशन, नई दिल्ली, 1985, पृ.-13
4. जन नाटय मंच, चौक-चौक पर गली-गली में (भाग-2), सफदर हाशमी मैमोरियल ट्रस्ट,नई दिल्ली, 1991, पृ.-3
5. सफदर हाशमी, सफदर, पृ.-158
6. कथन (जुलाई-अगस्त)80, पृ.-53

No comments:

Post a Comment