Sunday, May 17, 2020

कट्टरपंथ का बोलबाला

कट्टरपंथ का बोलबाला
आजकल हिन्दू कट्टरपंथ अर मुस्लिम कट्टरपंथ अपने-अपने ढंग तै लोगां ताहिं पहोंचण लागरया सै अर बहोतै गैर वैज्ञानिक ढंग तै तथ्यां नै मरोड़-तरोड़ कै लोगां की भावनावां तै सोचे-समझे ढंग तै खिलवाड़ करया जाण लागरया सै। 1983 मैं बनी गोपाल सिंह की रिपोर्ट आज 2006 मैं भी प्रासंगिक लागै सै क्योंकि ये तथ्य आज बी कमोबेश उसे एसे सैं। खास बात या सै अक ये तथ्य खुद मैं बहोत चौंकावण आले सैं अर ‘तुष्टीकरण’ जिसे जुमल्यां का अर इसके मांह कै ढाये गये सवालां का जवाब बी इनके मांह कै अपने आप बोलता दिखाई दे सै। नमूने के तौर पै लिये गये जिल्यां में जेड़ै मुस्लिम आबादी 17.32 प्रतिशत सै, उसकी तुलना मैं ‘प्राथमिक’ स्कूल के स्तर पै या न्यों कहवै अक कक्षा एक तै आठमी कक्षा ताहिं मुसलमानां का पंजीकरण कुल पंजीकरण का 12.39 प्रतिशत सै। इसे ढाल एक तै पांचवीं तक शिक्षा अधूरी छोड़कै जावण आले मुसलमान विद्यार्थियां की दर अर सामान्य समुदायां की दर बराबरै सी थी। उत्तर प्रदेश के च्यार जिल्या - हमीरपुर, नैनीताल, रामपुर अर सहारनपुर मैं शिक्षा अधूरी छोड़ण आले सामान्य बालकां की दर 78 प्रतिशत थी अर मुसलमान बालकां की दर 90 प्रतिशत थी। उदाहरण के राज्यां मैं 11.28 प्रतिशत की मुसलमान जनसंख्या के मुकाबले मैं कक्षा 10 मैं शामिल हुए मुसलमान विद्यार्थी 4 प्रतिशत थे। माध्यमिक स्कूल स्तर अर्थात् कक्षा 9 तै 12 पै मुसलमान विद्यार्थियां का पंजीकरण उनकी संख्या 18.56 प्रतिशत की तुलना में 10.56 प्रतिशत था। उच्च माध्यमिक स्तर अर्थात् कक्षा 12 पर बोर्ड की परीक्षा मैं शामिल हुए मुसलमान विद्यार्थी कुल संख्या का 2.49 प्रतिशत थे।
सर्वेक्षित राज्यां मैं उनकी जनसंख्या 10.3 प्रतिशत तै यो बहोत थोड़ा था। सामान्य उत्तीर्णता प्रतिशत 60.76 की तुलना मैं इन परीक्षावां मैं उत्तीर्ण मुसलमान विद्यार्थियां का प्रतिशत 50.74 था। इसे ढालां एमबीबीएस के स्तर पै 8 राज्यां तै संबंधित 12 विश्वविद्यालयां तै प्राप्त सूचनावां तै मालूम पाटी अक इस परीक्षा में शामिल मुस्लिम विद्यार्थियां का प्रतिशत कुल विद्यार्थियां का 3.44 था जो उनकी जनसंख्या 9.55 प्रतिशत की तुलना मैं काफी कम था। इसे ढालां देखैं तो 1971 तै लेकै 1979 ताहिं आईपीएस की भर्ती मैं अर्थात् नौ साल मैं तै केवल पांच सालां मैं ए आईपीएस भर्ती मैं मुसलमानां का प्रतिनिधित्व था। उनकी 11.20 प्रतिशत जनसंख्या की तुलना मैं यो 2 प्रतिशत का आंकड़ा काफी अपर्याप्त औसत कहया जा सकै सै। और बी घणे ए आंकड़े इस रिपोर्ट मैं अलग-अलग क्षेत्रां के बारे मैं दिये गये सैं। आड़ै या बात बहोत जरूरी सै अक हम अपने विवेक अर तर्क का इस्तेमाल करकै ए किसे बात का आकलन करां ना कि भावनावां पै बहकै। हिन्दू-मुस्लिम के कृत्रिम बंटवारे म्हारे बीच मैं खड़े कर दिये गये इन धार्मिक कट्टरपंथियां द्वारा बरना कोए भी मनुष्य का बच्चा भाषा, धर्म, जाति, रंग अथवा धन के आधार पै किसे भी जाति अर कै धर्म तै जन्म तैए संबंध कोन्या राखता। वो केवल मनुष्य के बच्चे के रूप मैं ए पैदा होवै सै। बच्चों के मन मैं विचार जातपात के बड़े बडेरयां द्वारा अपने विश्व दृष्टिकोण के हिसाब तै भरे जावैं सैं। एक नये बच्चे नै जाट, ब्राह्मण, हरिजन कै पंजाबी, बंगाली, हिन्दू, ईसाई कह देना गल्त बात सै।
भाषावां का ज्ञान बी बालक अपने बड्यां धोरै ए सीखै सै। प्राकृतिक तौर पर तो वो मनुष्य का ए बालक होवै सै। एक ईसाई के बालक नै जै कोए पंजाबी हिन्दू गोद लेले पैदा होन्ते की साथ तो बड्डा हौके वा बालक पंजाबी हिन्दू बन ज्यागा। जै उस ताहिं पंजाब के पूर्वजां की कुर्बानियां के बारे मैं बताया जावै तो वो पंजाबी भाषा अर हिन्दू धर्म की रक्षा की खातर जीवन बलिदान करण नै तैयार हो ज्यागा जबकि उसके मां-बाप ईसाई थे अर उनकी भाषा अलग थी। सवाल यू सै अक म्हारी सामाजिक चेतना का विकास किसे ढाल का होसै अर क्यूकर होसै? हिन्दू कट्टरपंथ नै मुसलमानां के बारे मैं कुछ मिथ्या धारणाएं फैलाई ज्यूकर मुसलमान राजाओं नै हिन्दुआं का अपमान करण की खातर मंदिर तोड़े, भारत मैं इस्लाम का प्रचार तलवार के दम पै करया। ये च्यार-च्यार शादी करकै बीस-बीस बालक पैदा करैं सैं। ये बहोत खूंखार हों सैं। इस इस्लाम करकै ए दुनिया मैं आतंकवाद फैलण लागरया सै। इनमैं घणी सी सच्चाई कोन्या। फेर ये बात सुणकै मुस्लिम कट्टरपंथियां नै बी मौका पा ज्या सै मुसलमानां की भावना भड़कावण का। सोमनाथ का मंदिर तोड़ण मोहम्मद गजनवी गजना शहर तै आया था। राह मैं बहुत सारे हिन्दू मंदिर पड़े होंगे। उसनै ये सब मंदिर क्यों ना तोड़े? राह मैं बामियान की विशाल बुद्ध की मूर्तियां भी देखी होंगी, उनकै हाथ क्यों नहीं लाया? सोमनाथ मंदिर क्यों चुन्या? राह मैं मुल्तान की जामा मस्जिद भी टूटी थी दो मुसलमानां की लड़ाई मैं। एक गजनवी था। करीब 200 करोड़ के हीरे-जवाहरात लूटे सोमनाथ मंदिर मैं अर यों कहकै अक मुसलमान धर्म मैं मूर्ति पूजा को मान्यता नहीं अर मंदिर तोड़ दिया। जै इस्लाम इतना प्यारा था तो मस्जिद क्यों तोड़ी गजनवी नै? उसकी फौज मैं एक तिहाई हिन्दू क्यों थे? 12 सिपहसलारां मां तै 5 हिन्दू थे तिलक, सौंधी, हरजान, राणहिंद आदि मंदिर की लूट पाछै उड़े एक हिन्दू राजा की नियुक्ति करी गजनवी नै। क्यों अर कैसे की साथ जै आकलन करया जावै तो वो सही तसवीर खींच दे सै अक धार्मिक कट्टरवाद चाहे हिन्दू धर्म का सै अर चाहे मुस्लिम धर्म का सै या मानवता विरोधी सै। कोई धर्म हमनै माणस मारना नहीं सिखाता फेर बी सांप्रदायिक दंग्या मैं सबतै फालतू माणस मारे जावैं सैं। क्यों? सोचो मेरे बीरा आखिर या मारकाट क्यों ?
ranbir dahiya

विज्ञान के इतिहास के झरोखे से

विज्ञान के इतिहास के झरोखे से।
विज्ञान के इतिहास में बहुत सी दिलचस्प बहसें दर्ज है । कुछ बहसें इसलिए महत्वपूर्ण है कि वे समकालीन प्रचलित मान्यताओं को नकारते हुए बनी हैं । कुछ बहसें इसलिए भी महत्वपूर्ण है कि ये लंबे समय तक उलझी रही बातों को लेकर रही हैं ।डार्विनवाद पर बहस इसका एक दिलचस्प उदाहरण है। यह बात सन 1860 जून 28 की है ।स्थान था ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय संग्रहालय वनस्पति शास्त्र विभाग, इंग्लैंड प्रोफेसर चार्ल्स डॉनबी ने एक पर्चा पढ़ा। On the final causes of the sexuality in plants ।Owen नाम के एक वैज्ञानिक ने इसका विरोध किया इस पर्चे में डार्विनवाद के हक में कुछ कहा गया था। प्रसिद्ध वैज्ञानिक हक्सले भी इसे सुन रहे थे।वे डार्विनवाद के प्रबल समर्थक थे। इनसे रुका नहीं गया । वे एकदम खड़े हुए । वातावरण गर्म था ।यह किसी तरह शांत हुआ। दो दिन बाद ही बड़ी बहस होनी थी। हक्सले इस बहस में नहीं आना चाहते थे ।प्रोफेसर रोबोट चैंबर्स जो विकासवाद के समर्थक थे के हस्तक्षेप से हक्सले ने आने का आग्रह स्वीकार किया। हक्सले ने मन बना लिया। 30 जून सन 1860 आगया। स्थान वही। लगभग एक सौ के आसपास वैज्ञानिक एवं बुद्धिजीवी एकत्र थे। सभा की अध्यक्षता कर रहे थे जॉन स्टीवंस हेंसलोट ।ये एक प्रसिद्ध वैज्ञानिक थे। इसमें 1 पर्चा पढ़ा गया। यह पढ़ा डॉ जॉन डब्लू ड्रेपर ने। इसमें विकासवाद की तरफदारी थी। पर्चा कुछ लंबा था और ज्यादा रोचक नहीं था। ये वैज्ञानिक न्यूयॉर्क से आए थे। पर्चा पढ़ा जाने पर बहस को आमंत्रित किया गया । इस सभा में एक व्यक्ति फिट्जरॉय भी बैठे हुए थे ।ये वही शख्स थे जिनके जलयान बीगल में रवाना होकर डार्विन ने अपनी खोज के लिए आंकड़े जुटाए थे ।लेकिन यह थे पक्के धार्मिक । ये अपने साथ बाइबल की भारी पुस्तक लेकर आए हुए थे। इन्होंने बाइबिल को सिर पर उठाया और चिल्लाए Believe in God rather than man ।एक महिला ब्रुएवेस्टर तो यह बहस सुनकर बेहोश हो गई जब उसे पता चला कि हम विकासवाद का परिणाम हैं ।इसे सम्मान पूर्वक बाहर ले जाया गया।
बहस में एक रोचक मोड़ आया। बिशप सैमुअल विलबरफोर्स खड़े हुए ।इनके पास गणित की ऊंची डिग्री थी। ये रॉयल सोसाइटी के फैलो पद पर थे ।अब तक की बहस विकासवाद के पक्ष में जा रही थी ।विज्ञान के इतिहास में यह दूसरा बड़ा अवसर था जब वेटिकन ईसाइयत खतरे में थी। पहली बार बड़ा खतरा गैलीलियो की ओर से प्रस्तुत किया गया था जब 17वीं सदी के चौथे दशक में उन्होंने ए डायलॉग बिटवीन द टू सिस्टम्स लिखी थी। गैलेलिओ को यह भुगतान भी पढ़ा था। वह क्षेत्र भौतिकी का था ।विलबेरफोर्स ने पूरी ताकत से बाइबल की मान्यताओं को बचाने का प्रयास किया। लेकिन उनके तर्क ज्यादा दमदार नहीं थे । अब वे ओछे स्तर पर उतर आए। इन्होंने हक्सले को मुखातिब होकर कहा, महाशय, वे बताएं कि वे अपने पूर्वजों की ओर से माता-पिता की ओर से आए हैं या बंदरों की ओर से। यह एक प्रकार से चरित्र हनन की कोशिश थी। इस बात पर सभा में अधिकांश की हंसी छूट गई थी ।विलबेरफोर्स की यह अंतिम दलील थी। हक्सले से भी रुका नहीं गया ।उन्होंने तुरंत उठ कर कहा ,मुझे बंदरों को अपना पूर्वज बनाने में कोई शर्म नहीं आएगी। मुझे शर्म तो तब आए जब मैं मूर्खों की तरह अनहोने पूर्वजों को अपना मानूँ। माहौल एकदम शांत हो गया। हक्सले बहस जीत चुके थे विलबरफोर्स की आधा घंटे की बहस कोई काम नहीं आई।
मुख्यतः यह बहस विज्ञान एवं धर्म के बीच नहीं थी । यह बहस विज्ञान एवं दर्शन के बीच थी। डार्विन की पुस्तक को छपे अभी केवल सात ही महीने हुए थे। 2 जुलाई को हूकर ने डार्विन को पत्र लिखकर बहस के बारे में बताया ।हुकर भी इस बहस में एक प्रतिनिधि थे। यह बहस कई वर्षों तक छपी नहीं ।डार्विन खुद बीमार थे । वे तो बहस में उपस्थित भी नहीं हो पाए थे। लगभग 20 वर्ष बाद हक्सले के पुत्र लियोनार्ड और डार्विन के पुत्र फ्रेनसिस ने सामग्री इकट्ठा कर इस बहस को लिखा । जब डार्विन को बहस के बारे में हूकर ने समाचार दिया था तो डार्विन के शब्द थे , मुझे विश्वास है यदि मैं बहस में उपस्थित होता तो शायद ऐसा नहीं कर पाता। उन्होंने धन्यवाद दिया। उनका इशारा हक्सले की ओर था। यह कहावत चरितार्थ हुई, Intellectual Honesty always beat pride everytime ।

विवेक पर विवेकहीनता का हमला

विवेक पर विवेकहीनता का हमला
तर्क, युक्ति, विवेक, अनुसंधान, प्रयोग और परीक्षण के बिना विज्ञान का विकास नहीं हो सकता। शुरू से ही विज्ञान अपने इन पुख्ता आधारां पर खड़ा होके आगै बढ़ा है। इनके आधार पर वैज्ञानिकां में ये मानकर चलने का नैतिक बल और साहस आता है कि वे अब तक सही समझे जाने वाले सिद्धान्तों को चुनौती दे पाएं और नये सिद्धान्त प्रतिपादित कर पाएं अर इस बात के लिए तैयार रहैं कि इन्हींआधारों पर उनके सिद्धांतों को भी चुनौती दी जा सकती है और नये सिद्धांत उसके सिद्धांतों को गल्त साबित कर सकते हैं पर आज के दिन ये बात देख कर हैरानी होती है कि खुद विज्ञान के क्षेत्र में विज्ञान के इन आधारों को नष्ट करने का काम बेशर्मी के साथ किया जा रहा है । इससे भी ज्यादा हैरानी की बात यह है कि ये काम विज्ञान के विरोधी तो करें सो करें बल्कि वैज्ञानिक कहे और माने जाने वाले लोग भी ये काम करण मंडरे हैं और बड़े पैमाने पर कर रहे हैं । अगर एक हरफी बात करनी हो तो यो इस विवेक पर विवेकहीनता का हमला कहा जा सकता है । और ये हमला इतना जबरदस्त है कि विज्ञान विवेक की दिशा में आगे जन सापेक्ष लक्ष्यों की तरफ बढने की बजाय उससे पीछे को हटता हुया दिखाई दे रहा है। सोचने की बात है कि ऐसा क्यूं हो रहा है और इसके संसार और मानवता पर कितने बुरे असर पड़ रहे हैं और आगे और भी ज्यादा पड़ेंगे। पर सोचने की फुरसत किसे है ? अगर कोए सोचना समझना चाहता है तो उसके लिए पढने के वास्ते एक आच्छी किताब है ‘साइंस एंड दि रिट्रिट फ्रॉम रीजन’ जो मर्लिन प्रैस लन्दन से 1995 में छपी है। यह किताब लंदन के दो लेखकों जॉन गिलैट अर मनजीत कुमार ने मिलकर लिखी है । जॉन गिलैट गणितज्ञ हैं और मनजीत कुमार भौतिकी और दर्शन के विद्वान हैं ।
पहले विज्ञान की प्रगति को समाज की प्रगति की नींव मान्या जाया करता । साथ में ये विचार कि मानवता को विज्ञान के द्वारा पूर्णतर बनाया जा सकता है, प्रगति का आधार था। यो विचार सबसे पहले अठारवीं सदी में एक फ्रांस के गणितज्ञ और दार्शनिक कोंदोर्से ने अपनी किताब ‘मानव मस्तिष्क की प्रगति की एक ऐतिहासिक झांकी’ (1794) मैं व्यक्त किया था। फेर ब्रूनो नै जिन्दा जलावण वाले हरेक युग मैं हुए हैं और आज भी हैं । एक अंग्रेज पादरी था माल्थस जिसको फांचर ठोक कहदें तो गलत बात नहीं उसने कोंदोर्से के विचार का विरोध किया ‘ऐस्से ऑन दि प्रिंसीपल ऑफ पापुलेशन’ (1798) मैं अपनी किताब छपवा करके । इसके बावजूद पीछे सी तक कोंदोर्से का सिद्धांत काम किया करता । उस बख्त लोगां के दिल में ये आस थी ये विश्वास था कि विज्ञान के दम पर समाज की प्रगति, मानवता की प्रगति बहोत आगे तक की जा सकती है। उनको उम्मीद थी कि वैज्ञानिक प्रगति के साथ-साथ सामाजिक प्रगति भी हो सकती है और होएगी और आम आदमी की जिन्दगी मैं खुशहाली आएगी। हरित क्रांति के दौर मैं हरियाणा के लोगों ने भी खूब सपने देखे थे। पर कितने लोगां के सपने पूरे हुए और कितनों के सपने टूट कर चूर-चूर हो गए ? वैज्ञानिक प्रगति से आर्थिक विकास तो हुया फेर सामाजिक विकास पिछड़ता चला गया। आम आदमी के मन मैं विज्ञान के प्रति मोह भंग के हालात पैदा होगए । क्यों? सोचने की बात है ।
भारत मैं भी विकास का यही मॉडल तबाही मचावण लागरया है। भारत को महाशक्ति बणाण के सपने देखैं हैं फेर 80 प्रतिशत जनता का गला घोंट के महाशक्ति बण बी जायेगा तो क्या फायदा? एक बार फिर विवेक पर विवेकहीनता की जीत का मौका आ जायेगा । भारत बहोत बड़ी आबादी वाला देश है इस कारण यहाँ कुशल श्रमवाली, कम पूंजी वाली और म्हारे प्राकृतिक संसाधनां को नुकसान ना पहोंचाने वाली प्रौद्योगिकी को प्राथमिकता मिलनी चाहिए। फेर इसकी जगह हम कैपिटल इंटेंसिव प्रौद्योगिकी अपनाने से एक तरफ तो हम अपने देश के बहोत से श्रमिकों को बेरोजगार बनाते हैं और दूसरी तरफ नई प्रौद्योगिकी बाहर से लाने पर अपनी औकात से फालतू खर्च करके कर्ज के शिकंजे मैं फंस ज्यावां सां और फेर विश्व बैंक, अन्तरराष्ट्रीय मुद्रा कोष और विश्व व्यापार संगठन बरगी संस्थावां की उन शर्तां को माणण नै लाचार हो ज्यावां सां। ये शर्त म्हारे देश की अर्थव्यवस्था के प्रतिकूल ही रही हैं । यह बात साफ है कि अगर हम ज्यादा श्रम आली और स्थानीय ज्ञान प्रणालियां पर आधारित प्रौद्योगिकी को विकसित करांगे तो हमारे काम से रोजगार बधैंगे, जनता के जीवन में खुशहाली आएगी । जनता हमको अपना मित्र और हितचिंतक मानेगी और एक बेहतर जीवन दृष्टि अपना कर अज्ञान और अंधविश्वास फैलाने वाली अवैज्ञानिक ताकतों के खिलाफ लड़ने में सक्षम हो सकेगी। बिल्कुल अनपढ़ अर गरीब किसान भी जानता है कि अपने खेत मैं उसनै जो फसल पैदा करनी है वह खाद बीज पानी वगैरह के साथ ही हो सकती है। या फसल ना तै हिन्दुत्व, भारतीयता और या सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के नारयां तै पैदा होगी और ना किन्हीं अंधविश्वासों अर कर्म काण्डों से । जब हटकै विवेक अपनी जगह बनायेगा तभी जनपक्षीय विज्ञान का विकास होगा। और फिर जिससे समाज में आम जनता का विकास होगा। काम आसान नहीं। फेर मुश्किल भी नहीं अगर जनता की समझ में आ जाये तो। समझल्यो तावले से मेरे बीरा। मनै बेरा सै विवेक खत्म करने को अन्धविश्वास फैलाये जा रहे हैं । बचियो!!!
ranbir dahiya

क्या कसूर किया था गैलीलियो ने?

क्या कसूर किया था गैलीलियो ने?
विज्ञान का हर विद्यार्थ गैलेलियो के नाम से परिचित है ।ये एक प्रसिद्ध खगोलविद थे। इन्होंने दूरदर्शी बनाया था। खगोल पिंडों का अवलोकन किया था । गति के नियमों पर काम किया था। पीसा की झुकी हुई मीनार का प्रसिद्ध प्रयोग इनके खाते में दर्ज है । ये कॉपरनिकस के सिद्धांत के समर्थक थे ।अपने अवलोकनों के द्वारा इन्होंने सूर्य केंद्रिक प्रणाली को स्थायित्व दिया था । ये चर्च की नजरों में चढ़े। इन्हें सजा मिली ।अपनी जिंदगी के अंतिम दिनों ये परेशान रहे। आखिरी यह मामला क्या था? यह थी उनकी एक पुस्तक जो उनके जी का जंजाल बनी।
गैलीलियो से पहले ज्ञान की दुनिया में अरस्तु का बोलबाला था। ब्रह्मांड की भू केंद्रित प्रणाली को मान्यता थी। धर्म ग्रंथों ने इस पर मोहर लगा रखी थी। कॉपरनिकस ने सूर्य केंद्रित प्रणाली की अवधारणा रख दी थी। प्रयोग होने अभी बाकी थे। ब्रूनो ने इसका बहुत प्रचार किया था इन्हें जान से हाथ धोना पड़ा था । गैलीलियो ने बात को आगे बढ़ाया। चेतावनी भी मिली। लेकिन ये संभल कर चल रहे थे। इनके दिमाग में बहुत दूर की सोच थी। चर्च भी चौकन्ना था। इनकी हर बात पर उसकी नजर थी। जब गैलीलियो की उम्र बढ़ने लगी तो इन्होंने अपने काम को अंजाम देना चाहा। इन्होंने एक पुस्तक लिखने की सोची। सन 1630 में यह पुस्तक पूरी हुई ।पुस्तक का नाम था डॉयलॉग कंसर्निंग दी टू चीफ वर्ल्ड सिस्टम्स । यह दो मुख्य प्रणालियां थी ब्रह्मांड का टॉलमी मॉडल और दूसरा था कॉपरनिकस का मॉडल। यह पुस्तक दार्शनिक बहस का एक बहुत सुंदर उदाहरण है। गैलीलियो इन दिनों फ्लोरेंस में रहते थे। किताब को छपवाने के लिए रोम की अनुमति अनिवार्य थी ।पुस्तक की पांडुलिपि रोम भेज दी गई। उत्तर में चेतावनी आई। गैलीलियो बहुत प्रतिष्ठित व्यक्ति थे राजघरानों में इनके परिचय थे गैलीलियो ने पोप अर्बन अष्टम से मिलने का मन बनाया । ये उनके मित्र भी थे। इन्हीं की अनुमति से पुस्तक छप सकती थी। पोप अर्बन अष्टम ने कुछ अच्छी सलाह दी। साथ में खबरदार भी किया। इस खबरदारी में दोस्ती का कम ख्याल रखा गया था। तय हुआ की पुस्तक फ्लोरेंस में छपे ।पुस्तक की भूमिका में टॉलमी मॉडल का समर्थन किया जाए और गैलीलियो स्वीकार करें कि यह उनके अनुमान है। आखिर सन 1632 में यह पुस्तक छप गई। जैसे ही पुस्तक बाहर आई चर्च की निगाहों में चढ़ी। गैलेलियो ने पुस्तक के अंदर सामग्री से कोई समझौता नहीं किया था। पोप ने एक स्पेशल कमीशन गठित किया। गैलीलियो को रोम बुलाया गया ।यह बात अगले वर्ष सन 1633 की थी। गैलीलियो से पहला ही प्रश्न यह किया गया , आपको पहले चेतावनी दे दी गई थी फिर आपने यह हिम्मत कैसे की? गैलेलियो ने अपने बचाव में एक पत्र पेश किया ।यह पत्र पुराना लिखा हुआ था। यह एक पूर्व पोप बैलारमाईन जो उस समय जीवित नहीं थे का लिखा हुआ था। इसमें यही लिखा हुआ था की गैलेलियो को कॉपरनिकस का समर्थन करने के लिए केवल धिक्कारा जाता है सजा की कोई बात नहीं थी ।रोम इससे संतुष्ट नहीं हुआ। गैलीलियो को कारावास की सजा सुनाई गई। लेकिन यह कारावास आसान शर्तों पर था ।पहले उन्हें एक दूतावास में रखा गया बाद में इन्हें घर में नजरबंद की इजाजत मिल गई ।अंतिम दिनों में इनकी देखभाल इनकी बेटी मारिया का लेस्टा ने की ।
अब बात आती है कि इस पुस्तक में था क्या। इस पुस्तक में 3 पात्रों के बीच वार्तालाप है। यह वार्तालाप 4 दिन चलता है एक पात्र का नाम है सालवीयती। यह एक बुद्धिजीवी है। यह गैलीलियो का पक्ष रखते हैं। यह एक प्रकार से गैलीलियो ने अपना नाम बदल कर रखा है। दूसरे पात्र का नाम है सैग्रेडो ।यह शहर का एक धनी व्यक्ति है ।यह किसी का पक्ष नहीं लेता। यह सच्चाई जानना चाहता है। बहस में बहुत कम भाग लेता है ।कभी-कभी स्पष्टता के लिए बाकी दोनों पात्रों से कुछ पूछ लेता है ।यह एक वास्तविक पात्र है ।तीसरे पात्र का नाम है सिंपलिसीओ। यह एक काल्पनिक पात्र है ।यह अरस्तु के मत की पक्षधरता करता है। सालवीएटी और सिंपलसीओ के बीच में दो मुख्य मुद्दों पर सवाल-जवाब चलते हैं ।सैग्रेडो इन दोनों को सुनता है और समझना चाहता है। ब्रह्मांड में पिंडों की स्थिति पर सवाल होते हैं ।सिंपली सीओ टालमी और अरस्तु के उदाहरण तर्क के रूप में रखता है। इसी प्रश्न के उत्तर में साल वीटी कहता है इन पिंडों की स्थिति दूरदर्शी के द्वारा देखी जा सकती है। गति के प्रश्नों पर सिंपलीसीओ कहता है ईश्वर की मर्जी है वह इस ब्रह्मांड को कैसे भी चलाएं। यह हमें वैसे ही दिखाई देंगी जैसा वह हमें दिखाना चाहेगा ।सालवीयती का कहना था कि इन्हें समझा जा सकता है ।सिम्पलीसियो फिर प्रश्न करता है कि क्या पूर्व में व्यक्ति कम ज्ञानी थे ।उसका इशारा अरस्तु की ओर था। सालवीयती ने फिर उत्तर दिया, उस समय लोगों के पास ऐसे साधन उपकरण या यंत्र नहीं हो सके थे ।इस समय की सुविधाएं उस समय नहीं हो सकती थी। सैग्रेडो दोनों की पूरी बहस को सुनकर सालवीएटी के पक्ष में जाकर खड़ा हो जाता है ।बहस यहां समाप्त हो जाती है ।
गैलेलिओ ने इस पुस्तक में दो तीन महत्वपूर्ण सिद्धांतों को रखने की कोशिश की है। प्रथम है, इस पृथ्वी पर हम चाहे कैसे भी कितने भी प्रयोग कर ले यह यथार्थ की सापेक्ष व्याख्या ही करेंगे। दूसरा था, सहज ज्ञान से अनुमान लगाए गए उत्तरों की अपेक्षा प्रयोगों एवं अवलोकनों द्वारा प्राप्त किए गए उत्तर अपेक्षाकृत ज्यादा सही होते हैं। अंत में सिंपलीसीओ को एक प्रश्न के उत्तर में - तो फिर अथॉरिटी क्या है ? सालवियती दोनों को संबोधित करते हुए कहता है mind ,senses and observations ।

साइंस सबकी सै

साइंस सबकी सै
म्हारी साइंस, थारी साइंस, पूर्वी साइंस, पश्चिमी साइंस, कई तरां की साइंस की बात चालती रही सैं अर आगै बी चालती रहवैंगी। फेर थोड़ा सा दिमाग खुरचने तै समझ मैं आवै सै अक साइंस सबकी सै। ‘साइंस इज यूनिवर्सल’। इसनै देशां की अर इलाक्यां की सीमावां मैं बान्ध कै देखना सही कोन्या। मैं यू सवाल पूछना चाहता हूं कि या जो घड़ी हाथ पर बान्ध कै घूमण लागरया सै बेरा सै इसकी खोज किसनै करी थी अर कौनसे देश मैं हुई थी? ईब आल्ले दिवाल्ले क्यों देखण लागग्या बता? इसकी खोज इटली में हुई अर इसे करकै फेर इंग्लैंड नै अंगड़ाई ली अर सब पिछाड़ दिये। म्हारा सारा कच्चा माल सस्ते दामां पै लगे समुन्द्री जहाजां मैं भर भर के नै। ये परम्परावां आले बहोत चिल्लाये थे उड़ै बी फेर उड़ै का समाज म्हारे की ढालां बोतडू समाज नहीं था। लालू जी नै अर ममताजी नै जितनी भाप के इंजन की रेल चलवाई सैं ये सारे बन्द करवाद्यो। ये तो बदेशी धरती पै उपजी सैं अर पाश्चात्य संस्कृति का खेल सै इनमैं। खुर्दबीन की खोज का बेरा सै कित हुई थी? गेर रै गेर पता गेर। इस रणबीर की बातां मैं मत आ जाईयो। खाप के पंचातियां की बस मानते जाईयो क्योंकि वे दिमाग तै सोच्चण आली बातै कोन्या कहते। खैर! खुर्दबीन की खोज नहीं होत्ती तो म्हारा आगे का विकास रुक जाता। नीदरलैंड जगहां सै जित इस खुर्दबीन की खोज हुई बताई सै। या बी म्हारे प्यारे देश भारत की खोज कोन्या। ये जितने माइक्रोस्कोप सै लैबां मैं सबनै ठाकै बाहर फैंक दयो म्हारे खापी भाइयो। फेर इननै बाहर फैंकण का के मतलब सै, इसका बी अन्दाजा होगा ना आपां नै? बैरोमीटर तै टॉरिसलो नै मौसमी खबरां के बारे मैं जानने का रास्ता साफ करया। कैहद्यो कोन्या चाहन्दा यू बैरोमीटर हमनै। टैलीग्राफ की खोज नै फ्रांस की शान बढ़ाई सै। बेरा सै अक नहीं? नहीं बेरा तो ईब तो बेरा पाटग्या। करवादे ये सारे तारघर बन्द। फ्रांस तै म्हारा के लेना-देना? इटली के पी टैरी नै टाइपराइटर का मॉडल बणा दिखाया सै। करवाद्यो टाइपराइटर आल्यां की दुकान बन्द। माचिस की खोज बी बदेशां मैं हुई बताई। मत ल्याओ अपने घर मैं माचिस। करवाद्यो माचिस बनाने के कारखाने बन्द। साईकिल के बनाने आले का नाम मैकलिन गया बताया तो यो नाम बी पश्चिमी कल्चर का सै, इस करकै साइकिल का बहिष्कार बी करो। आवै सै किमै समझ मैं अक न्योंए बैंडण लागरया सूं? फैक्स मशीन 1843 मैं तैयार होगी थी कित ईजाद हुई न्यों तो मनै बी कोन्या बेरा पर इतना पक्का सै अक भारत देश महान मैं तो इसकी खोज नहीं हुई। ये जो भारतीय संस्कृति की जफ्फी पायें हांडैं सैं इनके हरेक के घर मैं फैक्स मशीन धरी पाज्यागी। ये म्हारे कई बाबू जी सैं जो बड्डे धर्म प्रचारक माने जाते हैं। ये भी तड़के तै लेकै सांझ ताहीं साइंस ने गाल बके जावैं सैं। अतिभौतिकवाद नै न्यों कर दिया अर न्यों कर दिया। अर हम भी सैड़ देसी उनकी हां मैं हां मिलाद्यां सां। ये जो साइंस नै कोसैं सैं पाणी पी पी कै, येहे विज्ञान का सबतै फालतू इस्तेमाल खुद करैं सैं। म्हारे भारत के वातावरण मैं सही के सैं अर गल्त के सै इस पर बातचीत अर बहस के तरीके तो काढ़ने पड़ैंगे। एक सिविक समाज, एक सभ्य समाज का निर्माण भारत मैं अर खासकर हरियाणा मैं या बख्त की मांग सै अर इसमैं वैज्ञानिक दृष्टिकोण की विवेक की अर तर्क की अहम भूमिका रहेंगी। आई किमै समझ मैं?

मानसिक गतिविधि एवं चेतना की सामान्य संकल्पना।

वेद प्रिय
यह लेख थोड़ा बड़ा है इसलिए यह किश्तों में दिया जा रहा है। यह एक प्रकार से भावानुवाद है।
किश्त 1
मानसिक गतिविधि एवं चेतना की सामान्य संकल्पना।
मनुष्य को मिले तमाम उपहारों में से सबसे अद्भुत उपहार जो उसे मिला है वह है विवेक। इसी के सहारे मनुष्य सुदूर भूत में झांकने की कोशिश करता है तो कभी भविष्य में देखना चाहता है। इसी से यह अनजाने क्षेत्रों में प्रवेश करता है ।इसी से वह सपनों और कल्पनाओं का संसार बुनता है । इसी से वह व्यवहारिक व सैद्धांतिक समस्याओं के सृजनात्मक हल खोजता है। इसी से वह सर्वाधिक साहसिक योजनाओं को आत्मसात करता है। चेतना मनुष्य की सर्वोच्च स्तर की मानसिक गतिविधि है। यह दर्शन ,मनोविज्ञान व समाजशास्त्र की मूल संकल्पनाओं में से एक है। इस गतिविधि की मूल प्रकृति इस बात में निहित है की यथार्थ का प्रतिबिंब तथा संवेदनाएं, मानसिक प्रतिबिंबों , संकल्पनाओं व विचारों के रूप में इसकी निर्माणकारी सृजनात्मकता के द्वारा ही किसी व्यक्ति या समाज समूह के व्यवहारिक कार्यों का पता चलता है तथा इसके उद्देश्य व रुझान लक्षित होते हैं ।
प्राचीन काल से मानव इतिहास के सुंदरतम मस्तिष्कों ने अस्तित्व के महानतम रहस्य को खोजना चाहा है। मनुष्य की अध्यात्मिक दुनिया की प्रकृति क्या है? विज्ञान, दर्शन, कला ,साहित्य सभी ने मिलकर चेतना के इस रहस्य की हकीकत को जानने के प्रयास किए हैं। दर्शन के आरंभ में मनोविज्ञान ,चेतन -अचेतन में तथा विचार व पदार्थ में कोई अंतर नहीं करता था ।सचेतन कार्य के मूल को लोगोंस logos से कहा गया। जिसका अर्थ एक विचार, वस्तुओं का सार तथा अस्तित्व का तर्क बताया गया। मनुष्य के विवेक का मूल्य इस बात से निर्धारित होता था कि यह लोगोस के साथ किस दर्जे तक संगति में है ।यह वस्तुनिष्ठ सार्वभौमिक क्रम माना गया। मनोवैज्ञानिक प्रक्रिया की पहचान वायु व कणों की गति आदि पदार्थ के रूप में की गई ।
सबसे पहले कुतर्कियों नेऔर बाद में सुकरात ने मनुष्य में निहित प्रक्रियाओं में चेतन व पदार्थी घटनाओं की सीमा रेखा को पहचाना। इन्होंने इस बात पर बल दिया कि सचेतन कार्यों तथा वस्तुओं के पदार्थी अस्तित्व में क्या अद्वितीयता है ।प्लेटो ने सर्वप्रथम चेतना के वस्तुनिष्ठ सार को विचारों की विशिष्ट दुनिया के रूप में उठाया। इनके अनुसार चेतना, विचार व सौंदर्य का विशुद्ध क्षेत्र है जो किसी भी पदार्थ से बिल्कुल भिन्न है । जिस प्रकार इस पूरे ब्रह्मांड को चलाने के लिए एक निराकार कारण है जो शक्ति व सामंजस्य का स्रोत है इसी प्रकार हर व्यक्ति में मस्तिष्क है जो हमारे व्यवहार के संचालन के सक्रिय सिद्धांत के रूप में कार्य करता है। विज्ञान की उपलब्धियों ने विशेषकर औषधि क्षेत्र ने इस दार्शनिक दृष्टिकोण को गढ़ने में भूमिका अदा की है कि चेतना विशेष रूप में मानसिक गतिविधि का उच्च रूप है ।इसी ने चेतना को मनुष्य की स्वयं की मानसिक, भावनात्मक तथा इच्छाशक्ति का ज्ञान प्राप्त करने तक के लिए सीमित कर दिया व अन्य मानसिक घटनाक्रम से अलग कर दिया ।
प्राचीन दर्शन में चेतना विवेक से नजदीक से जुड़ी हुई मानी गई। इसे ब्रह्मांडीय समझा जाता था तथा सार्वभौमिक नियम के समान इसे यथार्थ विश्व का सामान्य करण माना गया।
मध्ययुग में चेतना की विवेचना लोकोत्तर नियम ईश्वर से की गई जिसका अस्तित्व प्रकृति से पूर्व था और जिसने शून्य से प्रकृति को पैदा किया ।विवेक को ईश्वरीय गुण माना गया जो सर्वकालिक दैवीय कारण की ज्वाला की एक छोटी सी चमक के रूप में मनुष्य को मिला है। ईसायत में इसकी आत्मा की स्वतःसुफूर्त गतिविधि के रूप में संकल्पना हुई। जिसमें चेतना भी शामिल है। सेंट ऑगस्टिन के अनुसार समस्त ज्ञान आत्मा में रहता है ,जो जीती है और ईश्वर में विलीन हो जाती है। इस ज्ञान की सच्चाई की जड़े आंतरिक अनुभवों में जमी हैं ।आत्मा अंदर की ओर मुड़ती है और वहीं से संपूर्ण विश्वसनीय बोधन क्षमता हासिल करती है ।।समय के साथ साथ आंतरिक अनुभवों की संकल्पना इस तथाकथित चेतना के आत्म विश्लेषी संकल्पना का आधार बनी ।थॉमस एक्विनास के अनुसार आंतरिक अनुभव के द्वारा ही हम स्वयं के बारे में गहन जानकारी पा सकते हैं और सचेतन कारण के द्वारा सर्वोच्च सत्ता के साथ संप्रेषण कर सकते है।अचेतन आत्मा पौधों और पशुओं के लिए सुरक्षित है।संवेदना से शुरू होकर मनुष्य के सभी मानसिक क्रियाकलाप इस चेतना के गुणधर्म माने गए हैं ।इस प्रकार आंतरिक की संकल्पना चेतना के विशेष कार्य के साथ जुड़ गई। बाहरी वस्तुओं से अलग के संदर्भ में यह बात व्यक्त की गई। मध्यकाल में जो भी पदार्थवादी परंपरा चल रही थी उसे अरब दुनिया के विचारकों ने विकसित किया।इनमें विशेषकर इबने इंशा थे। यूरोप में पहली बार Duns Scotus ने सिद्धांत दिया कि पदार्थ भी सोच सकता है ।
आधुनिक समय में दर्शन में चेतना की समस्या पर सर्वाधिक प्रभाव देकार्त ने डाला ।इन्होंने स्वचेतना में इस कार्य की प्रधानता जताई कि यह एक व्यक्ति की स्वयं की आंतरिक दुनिया का मन है जो बाहरी विश्व से अलग है। उन्होंने कहा कि आत्मा सोचने का कार्य करती है तथा शरीर चलने का कार्य करता है ।बाद में आने वाले सिद्धांतों पर इसका गहरा असर हुआ ।इससे इस बात की पहचान हुई कि चेतना मानसिक अवस्था के ज्ञान प्राप्त करने की योग्यता है। देकार्त की प्रतिक्रिया स्वरूप फ्रांसीसी भौतिकवादी लेबनीज का अचेतन मानसिक गतिविधि का सिद्धांत सामने आया। इसे ला मैत्री और कैबेनिस ने आगे बढ़ाया। इन्होंने शरीरक्रिया विज्ञान और औषधि को आधार बनाकर इसे मस्तिष्क के एक विशेष प्रकार्य के रूप में विकसित किया ।चेतना को उन बातों से अलग किया कि यह वह प्रकृति का स्वयं का ज्ञान प्राप्त करने का कार्य करती है ।
चेतना के उद्भव एवं संरचना पर नई विवेचनाएँ नवयुग में जर्मन क्लासिकल आदर्शवादियों द्वारा दी गई ।इनमें उसकी गतिविधियां इसकी ऐतिहासिकता, संवेदनात्मक द्वंद्व ,तार्किकता, व्यक्ति एवं समूह आदि के विभिन्न स्तर उजागर हुए। इनकी मनोवैज्ञानिक आत्म विश्लेषी आलोचना में उन्होंने सिद्ध किया कि एक व्यक्ति की भावनाएं प्रबोधन और उसकी चेतना का सार उनके संज्ञान के रूपों पर निर्भर करता है न की स्वयं उन पर ।यह कांट का अनुभव्यतीत आत्मबोध का सिद्धांत सामने आया ।हेगेल ने चेतना की ऐतिहासिक प्रकृति का अनुमान लगाया और चेतना को समझने के लिए ऐतिहासिकता का सिद्धांत दिया।वे इस अनुमान की ओर बढ़े कि किसी व्यक्ति की चेतना अर्थात व्यक्तिगत आत्मा आवश्यक रूप में वस्तु के साथ जुड़ी है जो कि उसके सामाजिक जीवन के ऐतिहासिक रूप से निर्धारित होती है। इसकी आदर्शवादी विवेचना वस्तुनिष्ठ आत्मा के जीते जागते रूप में की जा सकती है।
चेतना का सकारात्मक ज्ञान मस्तिष्कक्रिया विज्ञान के विकास के साथ समृद्ध हुआ। इसमें विशेषकर सखनोव वे उसके शिष्यों के मस्तिष्क के प्रतिवर्ती क्रियाओं के सिद्धांत आते हैं। द्वंद्वात्मक भौतिकवाद ने यह सिद्ध किया कि मनुष्य में चेतना यथार्थ के साथ अंतः क्रियाओं के फलस्वरूप पैदा होती है, कार्य करती है और विकसित होती है। इनका आधार उनकी वस्तुनिष्ठ संवेदनात्मक गतिविधियां तथा सामाजिक ऐतिहासिक व्यवहार है ।क्योंकि यह अपने सार में वस्तुनिष्ठ जगत को प्रतिबिंबित करती है इसलिए चेतना प्राकृतिक एवं सामाजिक यथार्थ से निर्धारित होती है। वस्तुएं उनके गुण एवं उनके संबंध चेतना में प्रतिबिंब आदर्श रूप में विद्यमान होते हैं ।।
शताब्दियों तक आदर्शवादी एवं पदार्थवादी स्कूल चेतना के सार को लेकर आमने-सामने रहे ,जिस प्रकार अस्तित्व के सवाल को लेकर रहे हैं। आदर्शवादी चेतना की जड़ें मनुष्य की आत्मा की गहराइयों में देखते हैं ।यथार्थ विश्व के साथ उसके संबंधों को वे स्वतंत्र मानते हैं ।अस्तित्व के सार को यदि मानते भी हैं तो अमर मानते हैं ।यथार्थ के किसी भी घटनाक्रम से यह अकथनीय मानी गई है ।प्रकृति में जो कुछ भी हो रहा है वह सब इसकी व्याख्या है चाहे वह समाज का इतिहास हो या प्रत्येक व्यक्ति का व्यवहार हो ।
आदर्शवादी इस प्रकार कारण एवं विश्व के बीच एक खाई बनाते हैं। दूसरी ओर भौतिकवादी इन दोनों के बीच एकता तलाशते हैं और पदार्थ से अध्यात्म की ओर परिणाम देखते हैं। भौतिकवाद में आत्मा की विवेचना के आधार की पहचान मानव मस्तिष्क के प्रकार्य के रूप में है।।इनका आधार वे प्रतिबिंब है जो विश्व की सृजनात्मकता के बदलाव के कारण बने हैं ।ऐतिहासिक भौतिकवाद सिद्धांत यह स्थापित करता है की सामाजिक जीवन के घटनाक्रमों से अलग करके चेतना का विश्लेषण करना असंभव है। आरंभ से ही चेतना एक सामाजिक उत्पाद रही है और जब तक मनुष्य रहेंगे यह रहेगी। मानव मस्तिष्क मानव इतिहास में पैदा की गई क्षमताओं को गले लगाता है ।शिक्षा, प्रशिक्षण और सामाजिक प्रभाव को आत्मसात करते हुए समस्त विश्व की संस्कृति का प्रदर्शन इसमें शामिल है ।मस्तिष्क चेतना का अंग केवल तभी बनता है जब कोई व्यक्ति सामाजिक जीवन में प्रवेश करता है तथा ऐतिहासिकता के फलस्वरूप विकसित संस्कृति के रूपों को आत्मसात करता है। चेतना का प्रमुख उद्देश्य विश्व का सच्चा उन्मुखीकरण करना है जिसके द्वारा वह इसे जानने की योग्यता प्राप्त करें तथा विवेक द्वारा इस में परिवर्तन करें। जब हम कहते हैं कि कोई व्यक्ति किसी बारे में सचेत है तो इसका अभिप्राय होता है कि अमुक बात उसके प्रबोधन में है या वह उसे समझता है ।वह इसके अनुसार समझते हुए संभव कार्य करता है तथा समाज एवं स्वयं के प्रति परिणामों के लिए जिम्मेवार होता है।। जारी
किश्त दो
मानव चेतना उच्चतम रूप की मानसिक गतिविधि है। मानसिक गतिविधि से हमारा अभिप्राय है सभी चेतन अचेतन सभी प्रकार की मानसिक अबस्थाएँ व मनुष्य के गुणों की प्रक्रिया। इसमें मुख्यतः संज्ञान जीवन, के आंतरिक रूप, व्यक्तित्व एवं चरित्र के गुण मानसिकता आदि शामिल है ।मानसिक गतिविधि समस्त पशु जगत का गुणधर्म है। चेतना जबकि उच्चतम स्तर की मानसिक गतिविधि है जो मनुष्यों में ही निहित है ।लेकिन यह हर समय हर स्तर की नहीं होती। यह नवजात शिशु में नहीं होती। कई प्रकार के मानसिक रोगियों में नहीं होती। यह सुप्त अवस्था या कोमा के व्यक्तियों में नहीं होती। यहां तक कि सभी विचलित एवं स्वस्थ व्यक्तियों में सभी प्रकार की मानसिक क्रियाएं उनकी चेतना का हिस्सा नहीं बनती। इनके कार्यों का अधिकतर भाग चेतना की सीमा से बाहर गठित होता है जोकि मस्तिष्क के अवचेतन हिस्से में आता है ।चेतन गतिविधियों का सार कई प्रकार की कलाकृतियो भाषा व अन्य संकेत द्वारा रिकॉर्ड होता है। इसी से उनके अस्तित्व को आदर्श रूप मिलता है ।यही ज्ञान कहलाता है। और यही ऐतिहासिक स्मृति होती है। चेतना का एक पहलू मूल्य मीमांसिय भी है अर्थात मूल्य निर्धारण। इसके द्वारा चेतना अपना चुनाव व्यक्त करती है। इसमें एक व्यक्ति समाज द्वारा विकसित किए गए दार्शनिक, वैज्ञानिक, राजनीतिक, बौद्धिक नैतिक ,सौंदर्य बोध व धार्मिक आदि मूल्यों की ओर उन्मुख होता है। मनुष्य इन मूल्यों से अपने संबंध जोड़ता है और अपनी स्वचेतना का निर्माण करता है।इनका उद्भव समाज से होता है ।इस प्रकार एक व्यक्ति का अपना ज्ञान दूसरे व्यक्तियों के सिद्धांतों से उन्मुख होता है ।यह कार्य संप्रेषण की प्रक्रिया से संपन्न होता है ।इस प्रकार यह शब्द चेतना सामूहिक रूप से प्राप्त ज्ञान बन जाता है। यह चेतना की संवाद प्रक्रिया कहलाती है।
चेतना के विभिन्न स्तरों का अस्तित्व विज्ञान व कला के लिए शोध का क्षेत्र बन जाता है ।दर्शन का मुख्य प्रश्न है चेतना और अस्तित्व का रिश्ता क्या है? चेतना एक प्रकार पदार्थ के उच्चतम स्तर का गुण है जिसका अस्तित्व सचेत प्रबोधन है ।अर्थात इसे वस्तुनिष्ठ विश्व का विषयनिष्ट या व्यक्तिगत प्रतिबिंब कह सकते हैं। ज्ञान मीमांसिय फलक पर इसे आदर्शवाद से अलग भौतिक या दोनों की एकता कह सकते हैं।
समाजशास्त्रीय दृष्टि से चेतना प्राथमिक रूप में एक सामाजिक चेतना समझी जा सकती है जो प्रत्येक व्यक्ति के जीवन का इतिहास है। विभिन्न सामाजिक समूह ,वर्गो तथा राष्ट्रों के विचारों व हितों का प्रतिबिंब है। क्योंकि यह एक प्रकार का प्रतिबिंब है सो यह अलग-अलग रूप ले लेता है।
मनोविज्ञान में चेतना एक व्यक्ति का उच्चतम मानसिक संगठन है। जब यह अपने परिवेश से अलग होता है तो इस यथार्थ को मानसिक प्रतिबिंब के रूप में प्रगट करता है ,जो उसके लिए लक्ष्य निर्धारित कार्यों के नियंत्रक बन जाते हैं ।चेतना एक बहुत ही संश्लिष्ट प्रणाली है जिसमें निरंतर विभिन्न प्रकार के तत्व अलग-अलग स्तर पर अन्तःक्रिया करते रहते हैं । इस प्रणाली का अपना नाभिक है ,संज्ञान की प्रक्रिया है जो प्राथमिक संवेदनोंऔर प्रबोधनों से उच्चतम विवेक तक पहुंचती है। इसमें भावनात्मक परिष्करण है और मनुष्य की इच्छा शक्ति शामिल है ।संवेदन एवं प्रबोधन चेतना के फौरी बनने वाले भाव है या रूप है। यह एक प्रकार की नींव के ब्लॉक हैं जिनसे विभिन्न प्रकार के संश्लिष्ट बौद्धिक प्रदर्शन ,कल्पना, अंतः प्रज्ञा ,तार्किक एवं कलात्मक सोच बनती है।
स्मृति तंत्र के बिना चेतना न तो पैदा हो सकती है और न ही कार्य कर सकती है ।इसका अर्थ है भावों और संकल्पणात्मक प्रतिबिंब को रिकॉर्ड करने की क्षमता तथा इन्हें संरक्षित करने और उन्हें पुनः पेश करने की योग्यता। चेतना यथार्थ को आदर्श रूप में उन्हें पेश नहीं करती। आंतरिक मानसिक एवं व्यवहारिक कार्यों पर नियंत्रित करती है। यह ध्यान व इच्छा को भी प्रदर्शित करती है ।ध्यान व इच्छा लक्ष्य निर्धारण में चेतना के महत्वपूर्ण तथ्य है। यथार्थ में शामिल करने से पूर्व हर व्यक्ति आदर्शवादी कल्पना करता है।
मनुष्य के सम्वेग एवं भावनाएं चेतना की दुनिया की मौलिक परते हैं ।दुनिया के प्रतिबिंब में एक व्यक्ति इसके साथ अपने संबंधों के प्रभाव को अनुभव करता है तथा दूसरे व्यक्तियों के साथ अपने संबंध बनाता है। भावनाओं की भागीदारी के बिना हमारी चेतना में कुछ नहीं घटता। जिन व्यक्तियों मे भावनाओं की गहनता होती है वे इसे पूर्णता एवं सूक्ष्मता में ग्रहण कर लेते हैं।
दिमाग के सचेत और अचेत घटनाक्रम :
मानसिक प्रक्रियाओं का ताना-बाना कई प्रकार के रंगीन धागों से बुना हुआ होता है इसमें सृजनात्मक प्रेरणा की सर्वोच्च स्पष्टता से लेकर आर्धसुप्त दिमाग का धुंधलापन शामिल है। इसमें अचेतन का पूर्ण अंधकार भी शामिल है जो कि एक मनुष्य के मानसिक जीवन का अधिकांश भाग है ।उदाहरण के लिए हमारे लिए यह एहसास करना कठिन है कि हमारी कार्यों के परिणाम क्या हो सकते हैं। हमारी चेतना सभी बाहरी प्रभावों को केंद्रित नहीं कर सकती ।हमारे बहुत से कार्य ऑटोमेटिक या अपनी आदतों स्वरूप हो जाते हैं ।कुछ महत्वपूर्ण अपवाद मानसिक गतिविधियों के अलावा प्राथमिक स्तर पर मनुष्य एक सचेत प्राणी है। स्वीकार्य मूल्यों तथा नैतिक व अन्य सामाजिक मानकों के आधार पर मनुष्य के कार्य सर्वोच्च स्तर पर सचेतन रूप से संचालित होते हैं ।इससे यह धारणा बनती है कि ये मानक किसी व्यक्ति के जीवन से अभिन्न रूप से जुड़े हुए हैं ।ये उसकी आस्था व्यवस्था का हिस्सा बन जाते हैं और यही स्पष्ट तौर पर किसी व्यक्ति के कार्यों के लक्ष्य व संभव परिणामों का अनुभव कराते हैं ।सचेतन की धारणा यही है कि यह मनुष्य को अपने व्यवहार का विश्लेषण करने की योग्यता देते हैं ।इससे मनुष्य समाज में अन्य नैतिक मानकों के हिसाब से अपने उद्देश्यों के मुताबिक अधिकतम विवेकपूर्ण साधनों को चुन सकता है। क्योंकि चेतना की बुनावट बहुत ही व्यवस्थित एवं जटिल है। सो स्पष्टता के स्तर पर इसके अनेक सापेक्षिक विशिष्टता के स्तर है। नियमानुसार ये स्तर एक स्वस्थ मनुष्य द्वारा खुद डायग्नोज किए जाते हैं ।यह डायग्नोज इस बात पर निर्भर करता है कि परिवेश के प्रति व्यक्ति का उन्मुखीकरण किस दर्जे का है ।इस परिवेश में समय स्थान घटनाओं के तर्क उसके आसपास के व्यक्ति तथा स्वयं खुद के साथ अपने विचारों के साथ भावनाओं के साथ तथा अपने क्रियाकलापों के साथ किस प्रकार का उन्मुखीकरण है। चेतना के निम्न स्तर पर हम कुछ विचारों पर टिके रहकर इधर-उधर झूलते रहते हैं, जबकि वे काफी परिचित होते हैं। हम अवांछित मानसिक लक्ष्य तक चले जाते हैं ।हम अपने कार्यों के साथ संगति नहीं बैठा पाते। मानसिक क्रम बिगड़ जाता है और विचारों के सूत्र खो जाते हैं। कोई भी व्यक्ति चेतना के विभिन्न स्तरों की स्पष्टता देख सकता है इसमें सुस्पष्ट अर्ध सुप्त, वस्तुओं का सामान्य प्रबोधन आदि है। इन्हीं मानसिक अवस्थाओं से एक व्यक्ति अपना साफ विजन, अंतः प्रज्ञा की दृष्टि व वस्तुओं के सार ग्रहण करता है। उच्चतम स्तर पर चेतना सुपर चेतना कहलाती है ।यह विशेष प्रेरित व उत्पादक प्रक्रियाओं से ग्रहण होती है ।यह तब बनती है जब कोई नया विचार बड़े पैमाने पर अधिक स्पष्टता के साथ चेतना में केंद्रित होता है ।
चेतना के अचेतन मानसिक घटनाक्रम के साथ विभिन्न प्रकार के जटिल संबंध होते हैं। उनकी अपनी बनावट होती है जिनके सूत्र आपस में जुड़े होते हैं व एक दूसरे को प्रभावित करते हैं। हम उनसे सचेत होते हैं जो हम पर प्रभाव डालते हैं। लेकिन सभी संवेदन निश्चित ही हमारी चेतना के तथ्य बनते हैं। इनमें से अधिकांश सीमा रेखा पर या इससे भी परे होते हैं ।हमारे अधिकतर किए गए मौलिक कार्य चेतना द्वारा निर्धारित होते हैं बाद में वे यांत्रिक हो जाते हैं। सचेत गतिविधि तभी संभव है जब हमारी गतिविधि के अधिकतर तत्व ऑटोमेटिकली संपन्न होते हैं। बच्चे के विकास के साथ ही बहुत से कार्य धीरे धीरे ऑटोमेटिक बनते हैं ।चेतना को उनकी चिंता नहीं रहती और इसे आराम मिल जाता है ।अनुकूलन शीलता का धन्यवाद है।। अचेतन इस प्रकार शरीर की गतिविधियों पर नियंत्रण रख लेता है। इस प्रकार जलन पैदा करने वाले कारक जो विवेकशील व्यवहार के साथ दखल करते हैं अब स्वस्थ व्यक्ति की चेतना के साथ नहीं उलझते। दूसरी तरफ अवचेतन की ओर से हुए आक्रमण का सामना करते हुए चेतना कभी-कभी इन अनचाहे मेहमान उसे बुरी तरह लड़ती है। चेतना कई बार यह लड़ाई हार जाती है ।जुनूनी या सनकी प्रकार के मानसिक विकारों में इस प्रकार होता है ।यह खतरनाक अवस्था होती है। इससे जीतना कठिन होता है इससे अप्रेरित भाव पैदा होता है।इन गतिविधियों में आदते यांत्रिक हो जाती हैं।हम इस सिद्धांत पर आ जाते है किमेरे सोचने का ये मतलब नहीं था ,कि मेरे साथ ऐसा हो जाएगा । विरोधाभास यह है कि चेतना एक रूप में मानसिक गतिविधि के अचेतन रूप में शामिल है ।हर घटनाक्रम पर यह नजर नहीं रख सकती। मस्तिष्क के अंधेरे अवकाश में यह केवल इनमें से कुछ सामान्य तस्वीरें ही उठा सकती है। आदतों अनुसार किए कार्यों पर यह किसी भी क्षण नियंत्रण कर सकता है। इनकी गति कम या अधिक कर सकता है यहां तक कि इन्हें बंद कर सकता है।
मिलन की शक्तिशाली स्वाभाविक इच्छा से प्रेरित बुलबुल पूरी रात पूरे जोश में गाती है । लेकिन यह अद्भुत पक्षी नहीं जानता कि इस प्रकार शानदार गाने से कुछ और भी व्यक्त होता है क्या । वास्तव में यह इस बात की अभिव्यक्ति है कि किस प्रकार अपनी प्रजाति बनाए रखी जाए और आगे बढ़ाई जाए ।हम में से प्रत्येक व्यक्ति हमारे सामान्य प्रयत्नों में कभी न कभी इस छोटे भूरे जीव से मिलते जुलते होते हैं । क्या हम हमेशा अनुभव करते हैं कि हमारे गानों के संदेश के क्या उत्तर मिले हैं । हमेशा नहीं।
मनुष्य की सचेत गतिविधि नहीं होती है जो लक्ष्य अनुसार योजनाबद्ध तरीके से किये गए कार्यों के परिणाम में मौजूद होती है । लक्ष्य की प्राप्ति हेतु कार्यों के क्या परिणाम निकलते हैं यह नहीं भी समझ में आ सकता। व्यक्ति के कार्यों के परिणाम उनसे भिन्न भी हो सकते हैं जो उन्होंने पहले इरादे किए थे।वे बाहरी तत्वों के प्रभाव से मिलते हैं। कई बार वे इनसे भिन्न भी होते हैं कि व्यक्तियों ने कुछ और ही सोचा था। उदाहरण के लिए फ्रांसीसी बुर्जुआ क्रांति के आदर्शवादियों रूसो व अन्य के सपने थे कि अब विवेक, भ्रातृ भाव व न्याय का प्रशासन होगा जनता। जनता व राजनीतिक पार्टियां इन्हीं सिद्धांतों के नाम पर लड़ी थी ।काम बड़ा था। उद्देश्य नेक थे ।लेकिन विवेकशील राज्य मिलने की बजाय फ्रांस को नेपोलियन की तानाशाही मिली ।
इतिहास में शीर्ष में तथा व्यक्ति के जीवन में बहुत कुछ विवेकपूर्ण और अविवेकपूर्ण होता है ।सचेतन खुद को अत्याधिक विभिन्न रूपों में व्यक्त करता है ।इनमें अनुभवों के रूप में संग्रहित सूचनाएं व्यक्ति की स्मृति में दर्ज मानव जाति की सामाजिक स्मृति और अनंत प्रकार के भ्रामक रास्तों के अनुसार स्वभाविकताएँ हो सकती हैं । विज्ञान ,विशेष रूप से मनोविज्ञान औषधी व समाजशास्त्र के इतिहास में समाज तथा व्यक्ति के जीवन में, अचेतन की समस्या पर अत्यधिक ध्यान दिया गया है । फ्राइड तो विशेष रूप से इन्हीं समस्याओं से जुड़ा रहा । एक व्यवहारिक मनोचिकित्सक होने के नाते उन्होंने कामुकता के क्षेत्र में अचेतन में असामान्य प्रकटीकरण देखें। फ्राइड के अनुसार मनुष्य में सिद्धांत से चेतन व आचेतन के बीच एक मौलिक नित्य है ।अचेतन का चित्रांकन एक धूर्त औरत के रूप में किया गया है जो मोह कर किसी व्यक्ति को झांसे में जकड़ लेती है और उसे इस प्रकार भटका देती है कि शत्रु विरोध भी नहीं कर पाता। फ्रायड के ये निष्कर्ष मानसिक बीमारी की अवस्था में रोगियों के व्यवहार पर व्यक्तिगत अवलोकन है। स्वस्थ व्यक्तियों पर विवेक की नियामक शक्ति के सिद्धांत प्रभावी होते हैं। मानव इतिहास की सामान्य हरकतों का इतिहास का यही मूलभूत सिद्धांत है । मनोविक्षुब्धता, सामाजिक मूर्खता जो फांसीवाद से बनी जैसी घटनाओं के फलस्वरूप बनी सामाजिक विकास की अस्थाई विकृतियां है ।भले ही वे खतरनाक तो है।
जारी
किश्त 3
मानसिक गतिविधि व चेतना का उद्भव एवं विकास :
आधुनिक व्यक्ति की चेतना मानव इतिहास की उपज है। यह शताब्दियों की असंख्य पीढ़ियों की व्यवहारिक एवं संज्ञान क्रियाओं का कुल जोड़ है। इसके सार को समझने के लिए हमें यह जानना होगा कि यह कैसे अस्तित्व में आई है ।चेतना का केवल सामाजिक इतिहास ही नहीं है अपितु इसका इतिहास पूर्व प्राकृतिक इतिहास भी है ।जीव विज्ञान की दृष्टि से पशु जगत में मानसिक विकास इसकी एक पूर्व शर्त है ।विवेकशील मनुष्य तक बनने की परिस्थितियों में आने में लगभग 2 करोड वर्ष का समय लगा है। इस विकास के बिना चेतना का होना किसी चमत्कार से कम नहीं होता ।पशु जगत में सभी पदार्थों में निहित प्रतिबिंब उनके गुण के बिना भी मानसिक गतिविधियों का होना किसी चमत्कार से कम नहीं था।
सभी रूपों में विविधता से प्रतिबिंब की प्रक्रिया सरलतम यांत्रिक अंकन से लेकर बुद्धिमानों की शक्ति की छाप तक इस यथार्थ विश्व की विभिन्न प्रणालियों में होने वाली अंतर क्रियाएं हैं ।इस अंतर क्रिया का परिणाम परस्पर प्रतिबिंब होता है। ऐसा होने में इसमें कुछ यांत्रिक विकृतियां आ जाती हैं। साधारण मामलों में आंतरिक अवस्थाओं और संबंधों में आपस में पुनर व्यवस्था घटती है ।ऐसा आंतरिक अवस्थाओं और गति की अवस्थाओं में ऊर्जा के परस्पर बदलाव से और सूचनाओं में फेरबदल से होता है । प्रतिबिंब वह प्रक्रिया है जिसके परिणाम स्वरूप प्रतिबिंबित होने वाली वस्तु के गुणों की सूचनाओं में पुनर उत्पादन होता है । क्योंकि विश्व में प्रत्येक वस्तु तुरंत अनंत क्रियाओं के माध्यम से निकलती है इसलिए हर वस्तु हर दूसरी वस्तु की सूचनाओं को ग्रहण करती है। इन संबंधों के बारे में प्राचीन दार्शनिक कहावत चरितार्थ होती है कि यही सर्वे सर्वा है। यह कथन एक सार्वभौमिक क्षेत्र की धारणा है। लेकिन इसका अर्थ क्या है? इसका अर्थ है कि संबंधों का एक सार्वभौमिक रूप है ,एक सार्वभौमिक अंतर्संबंध है ,यही ब्रह्मांड की एकता है । इस ब्रह्मांड की हर वस्तु हर दूसरी वस्तु को याद रखती है। इससे निष्कर्ष निकलता है कि प्रतिबिंब का सिद्धांत पदार्थ का एक सार्वभौमिक गुण है ।लाक्षणिक रूप में हम कह सकते हैं, ब्रह्मांड के क्षेत्र में हर बिंदु इस ब्रह्मांड का सजीव दर्पण है।
जीवित प्राणियों का परिवेश के साथ अंतर संबंधों का मुख्य पहलू यह है कि परिवेश के बारे में महत्वपूर्ण सूचनाएं प्राप्त करने की क्षमता होना। यह योग्यता और इन सूचनाओं को उद्देश्य हेतु प्रयोग करने की योग्यता होना, उनके व्यवहारिक कार्यों के लिए महत्वपूर्ण बनना। प्रत्येक जीवित वस्तु अपने मौलिक गुणों के अनुसार श्रेणी गत की जा सकती है ।जो जीव जितने ज्यादा जटिल रूप में विकसित हुए हैं उतने ही ज्यादा विविध सूचनाएं रखते हैं। जीवित वस्तुओं में अनुकूलनशीलता की विशेष गतिविधि है ।इसका अर्थ है कि वह जीव परिवेश के साथ उच्च श्रेणी की अंतः क्रिया करता है। इसे यूं भी कह सकते हैं कि उसका व्यवहार मस्तिष्क द्वारा संचालित है ।यह गतिविधि उस जीव को जीव वैज्ञानिक दृष्टि से महत्वपूर्ण सूचनाओं की पहचान कराती है ।यह उसके व्यवहार का माध्यम बनती है तथा भावी अनुमान लगाती है। केवल यही नहीं की क्या ग्रहण करना है अपितु यह भी किस से बचाव करना है भी इसमें शामिल है । यह संभव है कि जिन स्तनधारियों में तंत्रिका तंत्र नहीं है उनमें भी मानसिक गतिविधि के सिद्धांत प्रकट हुए हो। इसमें भी कोई शक नहीं है कि मानसिक गतिविधि बाद में मस्तिष्क का प्रकार्य बनी हो। एक पशु अपने अंगों द्वारा प्राप्त सूचनाओं के आधार पर अपना व्यवहार संचालित करता है। यह अंग विकास की प्रक्रिया के तहत परिवेश की वस्तुओं व प्रक्रियाओं के साथ सूचनाएं प्राप्त करते हुए विकसित हुए हैं। मानसिक गतिविधि संवेदन है व प्रबोधन के रूप में एक प्रकार की दोहरी सूचना है। ये सूचनाएं बाहरी वस्तुओं के संबंधों व गुणों के साथ वैसे ही संबंध बनाती है जो उस विशेष जीव के जीवन के लिए महत्वपूर्ण होते हैं ।
मानसिक गतिविधि के विकास की प्रक्रिया गुणात्मक रूप में नए आकार लेती है। इस प्रक्रिया की महत्वपूर्ण बात यह है कि इससे एक पशु के जीवन में नए प्रकार के व्यवहारिक रूपों का जन्म होता है। यह स्वाभाविक रूप में सीखने वह नकल करने की संकल्पना से जुड़े हुआ हैं। स्वाभाविक रूप में यह उद्देश्य पूर्ण व लक्ष्यसाध्यअनुकूलन गतिविधि है। इसमें यथार्थ का सीधा प्रतिबिंब है ।यह वैज्ञानिक जरूरतों से उत्तेजित व एकत्र की हुई अनुकूलनता है ।सहज ज्ञान द्वारा निर्धारित व्यवहार के बारे में महत्वपूर्ण बात यह है कि इन्हें बिना बहुत ज्यादा ध्यान से समझे एक पशु वस्तुनिष्ठ रूप में बुद्धिमानी के कार्य कर लेता है। विकास की दृष्टि से सहज ज्ञान कार्य के प्रकार का एक स्वाभाविक गुण है। इसमें किसी प्रजाति की पिछली पीढ़ियों के अनुभवों की सूचनाएं होती है। मनुष्य की प्रजाति में उसकी जैव वैज्ञानिक जरूरत है। ये अनुभव उस प्रजाति के लिए लाभप्रद होते हैं ।ये उस जीव केआकार में शरीरकार्य विज्ञान की दृष्टि से कुछ निश्चित कलात्मक तरीके से दर्ज हो जाते हैं और उसकी मानसिक गतिविधि को आकार दे देते हैं ।
सामान्य समझ के स्तर पर परियों की कथाएं एवं मिथकों में पशुओं को विवेक की दृष्टि से हमेशा से ही हमारे छोटे भाइयों के रूप में पेश किया गया है । उनमें यह सब गुण जैसे चालाक होना ,नकलची होना ,चेतन युक्त आत्मा युक्त व सौंदर्यबोध की समझ होना आदि के गुण जो मनुष्य में होते हैं माने गए हैं। हम सभी ने अतिरिक्त बुद्धिमान कुत्तों के बारे में सुना होगा जिन्होंने अपने मालिक मनुष्यों की जान बचाई है ,उनकी श्रद्धा पूर्वक सेवा की है ।आपने ऐसे घोड़ों के बारे में सुना है जिन्होंने अपने सवारों की बर्फीले तूफानों से निकलने में मदद की है और रास्ता दिखलाया है आदि आदि। वैज्ञानिक स्तर पर कई वर्षों से वैज्ञानिक ऐसी प्रजातियों के जीव जैसे डॉल्फिन, लंगूर आदि की मानसिक गतिविधियों एवं व्यवहार पर अध्ययन में रुचि दिखा रहे हैं।ये ऐसे जीव है जिनमें अवलोकन करने ,नकल करने की अद्भुत क्षमता है। हाल ही में एक अंतरराष्ट्रीय कॉन्फ्रेंस में एक सवाल पर बहस हो रही थी कि क्या पशुओं में भी चेतना होती है। क्या पशु भी सोचते हैं ? इस प्रश्न पर अधिकांश प्रतिनिधियों का उत्तर था नहीं ।बहुत बहस के बाद प्रस्ताव इस रूप में पारित किया गया की विज्ञान के पास इसे मानने या न मानने के अभी काफी तथ्य नहीं है कि क्या पशु सोचने की योग्यता रखते हैं।
सोचने का अर्थ है विभिन्न दर्जे की समस्याओं को हल करना। प्रयोगों वह अवलोकनों ने यह सिद्ध कर दिया है कि उच्च प्राणियों में अपेक्षाकृत साधारण समस्याओं को हल करने की योग्यता होती है जबकि वे एक। विशेष स्थिति से आगे नहीं जा सकते। वे चालाकी से अपना लक्ष्य ढूंढते हैं। वे महत्वपूर्ण जैव वैज्ञानिक आकार ग्रहण कर लेते हैं। खोज की ओर बढ़ते हैं ।भोजन के लिए आकार में सुधार कर लेते हैं और पत्थर से अखरोट तोड़ सकते हैं आदि-आदि
।बंदर कुछ नया करने में रुचि लेते हैं ।संक्षेप में उच्च पशुओं में प्राथमिक स्तर की बुद्धि होती है लेकिन चेतना की संकल्पना के लिए हम बहुत विस्तृत अर्थ देते हैं जो केवल मनुष्य में होती है। यदि पशुओं में भी कुछ होती है तो इसे हम जरूर वैज्ञानिक पूर्व शर्त कहते हैं ।
आरंभ से ही चेतना एक सामाजिक उत्पाद रही है और यह तब तक सामाजिक उत्पाद रहेगी जब तक मनुष्य रहेंगे। पशुओं में यह मानसिक गतिविधि उनके जैव वैज्ञानिक नियमों और कानूनों से चलती है ।मनुष्य की चेतना सृजनात्मक ज्ञान प्राप्त करती है और इस विश्व का व्यवहारिक रूपांतरण करती है।
मनुष्य जाति एवं मानव चेतना का विकास उपलब्ध वस्तुओं को एकत्र कर श्रम की प्रक्रिया से मानव निर्मित औजारों के द्वारा अपने अस्तित्व के लिए जरूरी साधनों का उत्पादन करने की संक्रमण क्रिया से जुड़ा हुआ है। जीवन से जैविक समुदाय बनने की प्रक्रिया में श्रम आवश्यक है। सामाजिक रूप में आने के लिए भाषा जरूरी है।
श्रम के विकास के साथ-साथ चेतना विकसित होती है ।यह श्रम में ही निहित होती है जो मानवीय प्रकृति को पैदा करती है ।इसे ही हम सांस्कृतिक विश्व कहते हैं। इसलिए चेतना की पहेली के उत्तर में दो ही शब्द कहे जा सकते हैं वे हैं श्रम एवं संप्रेषण। पत्थर की कुल्हाड़ी को धार लगाने व भाषा के संप्रेषण के साथ साथ ही मनुष्य ने अपनी बुद्धि को तेज किया है। यह श्रम ही था जिसके आधार पर संबंध बने हैं और और यह भाषा थी जिसके आधार पर भंगिमाएं बनी है ।इन्हीं के आधार पर ध्वनियां, लिखाई ,पेंटिंग ,संगतराशी और संगीत बना है ।इन्हीं के आधार पर हमारे समीप पूर्ववर्तियों ने चेतना का विकास किया है। इन्हीं से विशेष चेतना युक्त व्यक्ति बने। इन्हीं से सामाजिक चेतना का उदय हुआ । इन्हीं को वैज्ञानिकों की मौलिकताएं , कला ,नैतिकता के नियम विभिन्न प्रकार की जादुई मिथकों की धार्मिक एवं कर्मकांडीय धारणा बनी। इन सभी से इतिहास में अधिक समृद्ध प्रकार की सामाजिक चेतना ,दर्शन, विज्ञान ,कला, नैतिकता, राजनीतिक विचार एवं कानून विकसित हुए। विश्व में एकेश्वरवदी धर्म पैदा हुए। ये सभी रूप मनुष्य की विकसित सामाजिक चेतना के या तो सही या रूपांतरित रूप है। ये रूप उनके पदार्थीय बौद्धिक उत्पादन की उपज है ।इन्हीं से विभिन्न सामाजिक समूहों के आदर्श एवं आकांक्षाएं तथा एक मानव जाति की धारणा बनी ।संस्कृति की ताकत एक बर्फ के गोले की तरह बढ़ती है। इसकी संरचना जटिल है ।इसके सामान्य जन चेतना से लेकर उच्च स्तर के सैद्धांतिक विचारों तक अनेक स्तर है ।
यद्यपि यह सापेक्ष रूप में स्वतंत्र है ।सामाजिक चेतना समाज के जीवन पर फीडबैक प्रभाव डालती है।
जारी

किश्त 4
व्यक्तिगत चेतना एवं सामाजिक चेतना के बीच निरंतर अंतर क्रियाएं होती है। जिस प्रकार समाज केवल उन लोगों का समूह नहीं होता जिनसे वह बना होता है इसी प्रकार सामाजिक चेतना भी सभी व्यक्तियों की चेतना का कुल जोड़ नहीं है। जिस प्रकार सामान्य इच्छा का अर्थ हर व्यक्ति की इच्छा नहीं है इसी प्रकार सामाजिक चेतना समाज के हर सदस्य की चेतना नहीं है। सामाजिक चेतना गुणात्मक रूप में एक विशेष बौद्धिक प्रणाली है जिसका स्वतंत्र अस्तित्व है। ऐतिहासिक रूप में विकसित चेतना के मानक व्यक्तियों की व्यक्तिगत धारणा बन जाती है ।ये मानक उनके लिए नैतिक नियम, सौंदर्य बोध, भावनाओं एवं विचारों के स्रोत बन जाते हैं। व्यक्तिगत विचार या आस्था होती है ,इसी की मेहरबानी से फिर वे रचनात्मक कार्य करते हैं, और फिर भी सामाजिक मूल्य ग्रहण कर लेते हैं। इनका अपना सामाजिक महत्व होता है, बाद में ये सामाजिक चेतना के सामान्य समुद्र में विलीन हो जाते हैं। महत्वपूर्ण विचार इसी प्रकार शब्दों और कार्यों में दर्ज होते हैं। यही कारण है कि ये विचार उन व्यक्तियों के साथ मर नहीं जाते। इसके विपरीत ऐसा होता है कि ये विचार उनकी मृत्यु के बाद उनका असाधारण भाग्य बन जाते हैं और तब साहसिक काम शुरू होते हैं ।यह महान ऐतिहासिक व्यक्तित्व ही होते हैं जो नए रुझानों के वृक्ष लगाते हैं जिनके परिणाम भविष्य में निकलते हैं और इनकी घनी छाया कई पीढ़ियों तक सभी लोगों एवं मानवता की सेवा करती है।
व्यक्तिगत चेतना का भाग्य उस व्यक्ति विशेष से भिन्न होता है जिसकी वह चेतना होती है । यह उच्चतम मानसिक कार्य के रूप में प्रगट होती है । यह व्यक्ति के जीवन कार्यों में अपना विशेष महत्व रखती है। इसकी विशेषता उसकी शिक्षा ,राजनीति ,धार्मिक, नैतिक वैज्ञानिक, दार्शनिक एवं अन्य सामाजिक प्रभाव में दिखाई देती है ।यह सभी बातें एक व्यक्ति के आत्मिक विश्व को समृद्ध करती है ।जैसे ही बच्चा इस विश्व में पदार्पण करता है सोचना शुरु कर देता है। वह सौंदर्य बोध का आनंद उठाता है ।वह नैतिक आवेग अनुभव करता है। संस्कृति में शामिल रहते हुए ज्ञान प्राप्त करने की इच्छा रखता है। वह उन मानकों से परिचित होता है जिनकी जड़ें मानव जाति के पूर्व इतिहास में दर्ज होती है ।एक व्यक्ति उसी सीमा तक अपने व्यक्तित्व को बढ़ा सकता है जिस सीमा तक वह इस धरोहर को आगे बढ़ाता है और कमांड करता है ।वह अपने द्वारा बनाए गए पदार्थों के उत्पाद और बौद्धिक कार्यों को समझते हुए उन सबके बीच संबंधों से परिचित होता है। फिर वह अपने आप को समझता है ,इसे हम कह सकते हैं कि वह स्वचेतना ग्रहण करता है।
आरंभ से ही चेतना दो विभिन्न दिशाओं में विकसित हुई है ।एक है संज्ञानात्मक तथा दूसरी है रचनात्मक- सृजनात्मक। यह दोनों मिलकर ही सामाजिक आवश्यकता उसके उद्भव एवं विकास का कारण बनते हैं। चेतना का रचनात्मक सृजनात्मक पक्ष बिना संज्ञानात्मक पक्ष के अस्तित्व नहीं ले सकता। अकेली संज्ञानात्मकता भी मानव विकास के लिए किसी व्यक्ति को आवश्यक प्रेरणा कभी नहीं दे सकती। चेतना कभी सुविधा या केवल चिंतन का कार्य नहीं रहा है। आदर्शवादियों के स्पष्टीकरण कि चेतना निरंतर मनुष्य की आस्था की गहराइयों से निकलती है ,को नकारते हुए विज्ञान पदार्थवादी अधिभूत्वाद पर जो चेतना को व्यवहारिकता से अलग कर केवल चिंतन मनन समझता है पर करारी चोट करते हैं ।जब हम चेतना की सक्रियता की बात कहते हैं तो इसका अर्थ चेतना का अपना चुनाव करने की योग्यता है कि वह अपने लिए क्या उद्देश्य निर्धारित करती है। यह किस पर है नए विचार पैदा करती है किस तरह की सृजनात्मक कल्पनाएं रचती है और व्यवहारिक कार्यों का कैसे मार्गदर्शन करती है ।यह लक्ष्य निर्धारण का कार्य ही यथार्थ विश्व के साथ इसके संबंधों का अलगाव बिंदु है। चेतना के उदय होने और विकास के ऐतिहासिक महत्व का कारण जिसके द्वारा ही मनुष्य अपने आसपास के विश्व की सही तस्वीर ले पाता जिसके द्वारा वह भविष्य को समझ सकता था ताकि उसके आधार पर वह इस विश्व को बदल सके यह सब इन्हीं व्यवहारिक कार्यों से ही हो पाया है। इस बदलाव के मूल में यही बात रही है कि मनुष्य ने व्यक्ति व समाज के हित में विश्व बदलाव के लिए लक्ष्य निर्धारण जैसी सृजनात्मक गतिविधियां की है। चेतना केवल वस्तुनिष्ठ यथार्थ का चिंतन मनन के रूप में प्रतिबिंब नहीं है अपितु यह इसे एक रूप में निर्मित करता है। जब कोई व्यक्ति यथार्थ से संतुष्ट नहीं होता है तो वह इसे अपने श्रम व अन्य सामाजिक कार्यों के रूपों से बदलने के लिए चलता है।
आत्मचेतना:
एक व्यक्ति इस विश्व में अपने प्रति इस के दृष्टिकोण से सचेत है इसलिए वह स्वयं से भी परिचित है। इसी स्तर से वस्तुनिष्ठ एवं विषयनिष्ठ की अविभाज्य एकता दिखाई देनी शुरू हो जाती है। एकता जा यह द्वंद्व ही वास्तव में स्वचेतना का शानदार उजाला है। अस्तित्व की सामाजिक शर्तों की स्वीकार्य मांग का उत्तर ही स्वचेतना है। शुरू से ही यह आवश्यक रहा है कि एक मनुष्य अपने कार्यों, शब्दों ,विचारों और भावनाओं का निश्चित सामाजिक मानदंडों के आधार पर आकलन करें । न केवल अपने आसपास के विश्व को समझें अपितु स्वयं को भी समझे। जैसे चेतना पूर्ण होती है ,स्वचेतना भी श्रम एवं मेलजोल से ढली है ।अपने सभी प्रकार के कार्यों में मनुष्य निरंतर बाहरी विश्व के साथ मुखातिब होता रहता है, इसी के साथ स्वयंसेवी मुखातिब होता है। इस प्रकार वह अपने ही विचारों व मूल्यांकनों का निशाना बन जाता है ।मनुष्य एक परावर्तन करने वाला प्राणी है। वह निरंतर अपने कार्यों ,विचारों ,आदर्शों, भावनाओं अपनी नैतिक छवि, सौंदर्य बोध की रुचियां, सामाजिक राजनीतिक समस्याओं और विश्व में हर किसी के साथ अपने संबंधों के बारे में सोचता रहता है। मनुष्य में यह योग्यता है कि वह इन सभी को एक पक्षधरता में देखता है। दार्शनिक भाव से एक स्वचेतन व्यक्ति वह है जो जीवन में अपने स्थान के बारे में पूरी तरह वाकिफ है ।इस तरह करते हुए वह निश्चित ही कुछ बड़े हुए स्थानों को छोड़ता जाता है ।अपने अस्तित्व को सीमित रखते हुए घटना के बहाव में से गुजर जाता है। उसका व्यक्तित्व प्रतिवर्ती क्रिया के आयाम से वंचित नहीं रहता। यही एक अनिवार्य विशेषाधिकार है जो मनुष्य को पशुओं से अलग करता है। पशुओं को इस बात का श्रेय जाता है कि वे भी कुछ जानते हैं ।वे भी अपने आसपास घटित होने वाली घटनाओं से प्राथमिक स्तर की सूचनाएं लेते हैं। लेकिन मनुष्यों की तरह उन्हें स्वयं का ज्ञान नहीं होता ।मनुष्य ज्ञान के वास्तविक कार्य को जानते हैं और वे यह भी जानते हैं कि वे इसे जानते हैं। इसे यूं भी कह सकते हैं कि मनुष्य भी ज्ञान का एक विषय है और जानने वाला भी है। वह यह भी जानता है कि वह क्या जानता है। एक मनुष्य केवल यही नहीं समझता कि वह किस बात का ज्ञान रखता है अपितु वह अपने ज्ञान से बाहर भी कुछ जानता है कि यह अज्ञात का समुद्र अनन्त फैला हुआ है।
क्या एक व्यक्ति बिना स्वचेतना के चेतना रख सकता है ? जाहिर तौर पर नहीं। ऐतिहासिक एवं ज्ञान मीमांसा दृष्टि दोनों से यह एक साथ आकार लेती है। ये दोनों अभिन्न है लेकिन आंतरिक दृष्टि से इनमें गुणात्मक अंतर है। शरीरक्रिया विज्ञान एवं मनोविज्ञान की दृष्टि से स्वचेतना का तंत्र ज्यादा जटिल दिखाई देगा ।यह ज्यादा सूक्ष्म एवं सम्मानित होगा। स्वचेतना केवल मात्र आंतरिक चेतना नहीं है। यह कभी प्रत्यक्ष नहीं घटती। यह हमेशा अपने से बाहर की अन्य वस्तुओं की जानकारी के माध्यम से बनती है ।एक व्यक्ति स्वयं को उसी सीमा तक जान सकता है जिस सीमा तक वह इस विश्व को जान सकता है। इस प्रकार स्पष्ट रूप से स्वचेतना की एक दोहरी छवि है ।इसके अंदर बाहरी वस्तुएं तथा स्वयम कर्ता दोनों है। यह एक प्रकार का अंदरूनी प्रकाश है जिससे स्वयम एवं अन्य वस्तुएं दोनों चमकती है। हर सोचने वाला व्यक्ति इस बात को समझता है कि जिस वस्तु पर विचार किया जा रहा है और सोचने जे इस कार्य को अलग नहीं किया जा सकता। एक व्यक्ति के प्रतिबिंबन में प्रायः तीन पहलू होते हैं।एक स्वयं का व्यक्तित्व दूसरा वस्तु, स्वयं के रूप में उसका अहम और वस्तुनिष्ठ यथार्थ। इस वस्तुनिष्ठ यथार्थ में अन्य व्यक्ति भी शामिल होते हैं ।स्वचेतना उस समय जन्म लेती है जब चेतना का विषय और जानने वाला स्वयम को एक वस्तु में बदल लेता है। जैसे ही स्वचेतना पैदा होती है व्यक्ति स्वयं से परिचित हो जाता है ।यह तब होता है जब मनुष्य इस विश्व में अपने अस्तित्व से अवगत होता है। अपने कार्यों ,अपनी इच्छाओं, जीव के रूप में अपनी स्थिति, शारीरिक आराम व तकलीफ आदि से अवगत होता है। इस प्रकार वह सुप्त अवस्था एवं जागृत अवस्था के बीच अंतर करने में सक्षम हो जाता है ।जैसे ही वह जागृत होता है उसे स्वयं की कुछ निश्चित इच्छाएं अनुभव होनी शुरू हो जाती है ।उसे विश्व में अपने अस्तित्व का आभास होने लगता है। जब वह आंखें खोलता है तो इस विश्व का नजारा करता है। इसकी ध्वनियां सुनता है, वह अपने शरीर और बाहर की वस्तुओं से अवगत होता है ।वह अपने परिवेश और इसके साथ अपने जैविक रिश्ते दोनों के अंतर को महसूस करता है।
जारी है


किश्त 5
स्वचेतना केवल आत्मप्रशंसा का मनन या कुछ और नहीं ह स्वयम का कुछ ज्ञान हुए बिना एक व्यक्ति घटनाओं की इस वार्ड में अपनी जगह नहीं पा सकता। इसके लिए यह जानना आवश्यक है कि वह कितना समर्थ है और वह अपने इरादों में कहां तक पहुंच सकता है।
स्वचेतना के स्तर अत्यधिक भिन्नता लिए हो सकते हैं। यह एक व्यक्ति की ऐतिहासिक भूमिका में गहन समझ की अस्पष्टता से लेकर लोगों के भाग्य के प्रति पवित्र कर्तव्य तक हो सकती है। उच्चतम स्तर की चेतना में एक व्यक्ति विश्व इतिहास के साथ अपने संबंधों को पूरी तरह महत्व देता है, अपने लोगों के इतिहास को समझता है। जो कुछ उसने किया है उनमें बुने सूत्रों को समझता है तथा भूत एवं भविष्य को समझता है ।केवल परिष्कृत चेतना के धनी प्रकृति के व्यक्ति ही भविष्य एवं वर्तमान से आगे चलते हैं। हम जानते हैं कि केवल विशेष प्रतिभाशाली व्यक्तित्व ही एक विशेष प्रकार की विवेकशीलता की तीव्रता से स्व का प्रबोधन कर सकते हैं। ऐसा वे प्राय अपनी जवानी के दिनों से ही करते हैं। अपने स्वयं का ज्ञान एक प्रकार से आंतरिक रहस्योद्घाटन जैसा होता है ऐसी न रुकने वाली क्रिया की तीव्रता केवल जीनियस व्यक्तियों की चेतना की एक विशेषता है ।यह इस बात से भी जुड़ी हुई है कि ऐसा व्यक्ति विशेष सामाजिक महत्त्व के विविध प्रबोधन करते हैं और इसके फलस्वरूप मानवता के प्रति अपना दायित्व पूरा करते हैं।
प्रत्येक व्यक्ति में कुछ क्षण ऐसे आते हैं जब उनकी चेतना बहुत तीक्ष्ण हो जाती है और ऐसे भी क्षण आते हैं जब यह पूरी तरह धीमी होती है ।ऐसा तभी होता है जब वह किसी बाहरी वस्तु में पूरी तरह डूब कर खुद को भूल जाता है ।चेतना एक क्षेत्र में केंद्रित हो जाती है जैसी वह थी। इसका विपरीत भी घटित हो सकता है। सतही तौर पर झलक मारने पर यह खुद में पूरी तरह डूबना है। यह कभी-कभी पीड़ादायक भी हो सकता है और इसके विनाशकारी प्रभाव भी हो सकते हैं। उदाहरण के लिए जब कोई व्यक्ति बीमार होता है और जब इस बीमारी से उसके नाक में दम आ जाता है तो वह महसूस करता है कि अब वह जिए भी तो किस लिए। वह पूरी दुनिया को अपनी बीमारी के प्रिज्म में से देखता है ऐसे मामलों में वह निश्चित ही व्याकुल हो जाता है सराय व्यक्तियों की स्वचेतना दो छोरों के बीच संतुलन बनाती है। एक ही समय पर विचारों को जोड़ना और अलग करना कठिन होता है। सोचते समय इन विचारों का अवलोकन करना कठिन होता है। जब एक व्यक्ति अपने एवं दूसरों के दृष्टिकोण से अपने विचारों और खुद को अवबोधन की वस्तु नहीं बनाता है, वह खुद पर नियंत्रण नहीं रख सकता। खुद पर नियंत्रण रखने की क्षमता में वह ठोस व्यक्तिगत भिन्नताएं अनुभव कर सकता है। कुछ व्यक्ति कठिन एवं कभी-कभी खतरनाक हालातों में खुद में घुट कर रह जाते हैं ,जबकि कुछ लोग ऐसे होते हैं जो थोड़ा सा भी उकसाने पर अपनी पकड़ ढीली कर देते हैं ।कुछ व्यक्ति ऐसे भी होते हैं जो सामान्य हालतों की अपेक्षा खतरनाक हालातों में ज्यादा प्रभावशाली ढंग से काम करते हैं
विश्व के किसी भी कार्य से अवगत होने में स्वचेतना की मार्ग दर्शक शक्ति एवं नियंत्रण शामिल है इससे कोई भी व्यक्ति स्वतंत्र नहीं है चाहे वह किसी भी वस्तु का गहराई से अध्ययन कर रहा हो ।पूरी तरह स्वविस्मृति की स्थिति स्व नियंत्रण को खोना और अपनी मानसिक प्रक्रियाओं को निर्देश देना कभी नहीं होता। प्राय अत्यधिक संत्रास या पागलपन में ही ऐसा होता है। सामान्य फलक पर नियम यही है कि स्थिर स्व नियंत्रण रहता है।
स्वचेतना के स्तर बदल सकते हैं। बाहरी वस्तुओं से निर्देशित विचारों के बहाव पर सामान्य क्षणिक नियंत्रण से लेकर गहन स्व ध्यान की अवस्था तक जहां चेतना में अहम् कोई विषय नहीं होता ,जब जोर केवल शरीर एवं मस्तिष्क की आंतरिक स्थिति पर होता है, ये स्तर बदलते हैं ।
खुद में ध्यान की एकाग्रता एक स्तर तक होती है ।यह एक स्थाई सामंजस्य बनाने की महत्वपूर्ण आवश्यकता से निर्देशित होती है। जरूरत से ज्यादा खुद पर ध्यान एकाग्रता उन्मुखीकरण की समस्या पैदा कर सकती है। इससे व्यवहारिक एवं सैद्धांतिक कार्यों में प्रभावकरिता कम हो जाती है। इससे मनुष्य आत्म संतुष्टि तक गिर जाता है वह स्वपोषित विशेषताओं के स्वार्थ तक उन्मुख हो जाता है ।खुद को जानने की मांग का अर्थ व्यक्ति के व्यक्तित्व की सुविधाएं नहीं है। यह कमजोरी की ओर झुकाव के अवसर भी हो सकते हैं ।इसमें स्वयम में श्रेष्ठ एवं सारत्व को जानने का आग्रह होता है।
स्वचेतना का एक महत्वपूर्ण तत्व स्वयं से, समाज की मांग से, अवगत होना है, अपनी सामाजिक जिम्मेदारी से अवगत होना है, जीवन के उद्देश्य से अवगत होना है ,व्यक्ति को जो काम सौंपा गया उस जिम्मेवारी से अवगत होना है ,समाज के प्रति, वर्ग के प्रति, राष्ट्र के प्रति देश के प्रति, और अंत में संपूर्ण मानव जाति के प्रति अपनी जिम्मेवारी से अवगत होना है ।यह स्वचेतना ही है जो मनुष्य को अपने कार्यों व्यवहारों एवं सिद्धांतों यथार्थ का काल्पनिक को आलोचनात्मक दृष्टि से देखने योग्य बनाती है। यह अपने आंतरिक विश्व तथा जो कुछ उसके चारों और हो रहा है के बीच अंतर करने, इसका विश्लेषण करने, इनमें भेद करने व तुलना करने की इजाजत देती है ।इस तरह से वह बाहर का अध्ययन कर खुद निर्णय पर पहुंचता है और यहां तक की निंदा भी करता है ।स्वचेतना शिक्षा एवं स्वशिक्षा की एक महत्वपूर्ण शर्त है। एक व्यक्ति को अपने तुच्छ अहंकार ,निष्क्रिय चिंतन तथा स्वचेतना के गहन चिंतन इसके सूक्ष्म सूत्रों व नैतिक सिद्धांतों के बीच अंतर करना होता है ।इसी से जाहिर होता है कि एक व्यक्ति का जीवन में क्या स्थान है उसके कार्यों के क्या उद्देश्य हैं और सामान्यतः विश्व में उसका क्या स्थान है। अहंकार पूर्ण प्रतिबिंब व आत्मावलोकन हर चीज को व्यक्ति के साथ जोड़ सकते हैं ।अहंकारी ध्यानाकर्षण को पोषित करता है। वह इस प्रकार जीवन तथा हितकर क्रियाओं की प्रक्रियाओं में रुकावट व अवरोध बनता है ।ऐसा व्यक्ति खुद के साथ या दूसरों के साथ कोई भलाई नहीं कर सकता। क्योंकि एक व्यक्ति जो दूसरों के साथ भला हो सकता है वही खुद के साथ भला हो सकता है ।अहंकारी स्वचेतना की अतिवृद्धि उसकी सेहत को खराब कर सकती है ।क्योंकि ये बीमारी के लक्षण है ।दूसरी ओर ऐसी घटना जो विवेकपूर्ण आत्मा लोचना करती है अपने कार्यों के उद्देश्यों को स्पष्ट करती है। इससे उस व्यक्ति के दिमाग में यह बात भर जाती है कि दूसरे व्यक्ति व समाज उसे चाहता है और इसी से सच्चा सुख मिलता है। आत्मा लोचना सर्वोच्च विकसित स्व चेतना की निशानी है। लिओ टॉलस्टॉय अपने जीवन में पीछे झांकते हुए यह नोट करते हैं कि उन्होंने अपने अहम के बारे में प्रत्येक बात का विश्लेषण करना शुरू कर दिया था ।और उन्होंने निर्दयता पूर्ण हर उस चीज को उखाड़ फेंका जिसे वह काल्पनिक या जीवन में अपने उद्देश्य के लिए बेकार समझते थे ।।उनको प्राय ऐसा लगता था कि यह बात उसका सब कुछ तबाह कर देगी ।लेकिन उन्होंने लिखा मैं बूढ़ा हो रहा हूं फिर भी मेरे जीवन में बहुत कुछ बचा हुआ है जो अन्य लोगों की तुलना में काफी ठीक है जो मेरी उम्र के हैं ।ये लोग उन सब वस्तुओं में विश्वास करते थे जिन्हें में नष्ट कर रहा था। आवेगहीन असामाजिकता से हटकर इस प्रकार की विवेकपूर्ण आत्मालोचना एक व्यक्ति को स्थायित्व देती है। उसके माननीय व्यक्तित्व की निष्ठा को मजबूत बनाती है ।यही बात सामाजिक समूहों यहां तक कि राष्ट्रों को भी मजबूत बनाती है।
चेतना केवल व्यक्तिगत फलक पर होने वाली मानसिक प्रक्रिया नहीं है अपितु सामाजिक चेतना के स्तर पर भी बनती है। यह किसी भी प्रकार का ज्ञान चाहे वह वैज्ञानिक हो, कलात्मक हो, तकनीकी सृजनात्मक, हो राजनीतिक गतिविधि हो, किसी विशेष सैद्धांतिक शोध की वस्तु बन जाते हैं ।जब कुछ सामाजिक समूह आत्मबोध से ऊपर उठकर जीवन में इतिहास में अपना स्थान देखते हैं इस समय उनके हित व आदर्श समाज में मानवता के लिए दायित्व बोध वह संभावनाएं बन जाते हैं ।जब कोई राष्ट्र इस स्तर की स्वचेतना तक उठ जाता है तो वह एक साहसिक चमत्कार होता है ।उदाहरण के लिए रूसी लोगों को तातार मंगोलों के अपने देश पर 300 वर्षों के आक्रमण के सामाजिक एवं मनोवैज्ञानिक परिणामों से उबरने के लिए तथा कुलकाओं की ऐतिहासिक लड़ाई जीतने के लिए अपनी शक्ति को पहचाना। इतिहास में ऐसे अनेक उदाहरण है। यही बात रूसी लोगों के साथ उस समय हुई जब नेपोलियन एवं नाजियों ने उन पर हमला किया। विश्व के सभी लोग ऐसी ही सामाजिक स्वचेतना का उत्थान अनुभव करते हैं जब उन्हें आंतरिक या बाहरी दवाओं से जूझना पड़ता है या उस समय जब उन्हें राष्ट्रीय आंदोलन या सामाजिक क्रांति के लिए लड़ना होता है । सामाजिक चेतना सामाजिक पैमाने पर या तीव्रता की दृष्टि से समान नहीं होती। इसकी अशांत लहरें ऐतिहासिक बिंदुओं पर अधिकतम ऊंचाई पर होती है। यह उन लोगों की चेतना भी बन जाती है और छोटे समूह के लोगों को भी गले लगाती है। यह जीने का विशेष विश्व दृष्टिकोण होता है।यह वर्गीय या राष्ट्रीय चेतना होती है यह समस्त मानव जाति के लिए स्वचेतना होती है विशेषकर आज के दिन जब पूरी दुनिया का अस्तित्व परमाणु की तलवार के खतरे पर है ।सामाजिक स्वचेतना का कोर दर्शन है, जो एक दर्पण की तरह है जो सभी तरह की सामाजिक स्वचेतना वह सामाजिक मनोविज्ञान को प्रतिबिंबित करता है इसे अर्थ प्रदान करता है तथा इसका मूल्यांकन करता है ।
समाप्त ।