Sunday, May 17, 2020

विवेक पर विवेकहीनता का हमला

विवेक पर विवेकहीनता का हमला
तर्क, युक्ति, विवेक, अनुसंधान, प्रयोग और परीक्षण के बिना विज्ञान का विकास नहीं हो सकता। शुरू से ही विज्ञान अपने इन पुख्ता आधारां पर खड़ा होके आगै बढ़ा है। इनके आधार पर वैज्ञानिकां में ये मानकर चलने का नैतिक बल और साहस आता है कि वे अब तक सही समझे जाने वाले सिद्धान्तों को चुनौती दे पाएं और नये सिद्धान्त प्रतिपादित कर पाएं अर इस बात के लिए तैयार रहैं कि इन्हींआधारों पर उनके सिद्धांतों को भी चुनौती दी जा सकती है और नये सिद्धांत उसके सिद्धांतों को गल्त साबित कर सकते हैं पर आज के दिन ये बात देख कर हैरानी होती है कि खुद विज्ञान के क्षेत्र में विज्ञान के इन आधारों को नष्ट करने का काम बेशर्मी के साथ किया जा रहा है । इससे भी ज्यादा हैरानी की बात यह है कि ये काम विज्ञान के विरोधी तो करें सो करें बल्कि वैज्ञानिक कहे और माने जाने वाले लोग भी ये काम करण मंडरे हैं और बड़े पैमाने पर कर रहे हैं । अगर एक हरफी बात करनी हो तो यो इस विवेक पर विवेकहीनता का हमला कहा जा सकता है । और ये हमला इतना जबरदस्त है कि विज्ञान विवेक की दिशा में आगे जन सापेक्ष लक्ष्यों की तरफ बढने की बजाय उससे पीछे को हटता हुया दिखाई दे रहा है। सोचने की बात है कि ऐसा क्यूं हो रहा है और इसके संसार और मानवता पर कितने बुरे असर पड़ रहे हैं और आगे और भी ज्यादा पड़ेंगे। पर सोचने की फुरसत किसे है ? अगर कोए सोचना समझना चाहता है तो उसके लिए पढने के वास्ते एक आच्छी किताब है ‘साइंस एंड दि रिट्रिट फ्रॉम रीजन’ जो मर्लिन प्रैस लन्दन से 1995 में छपी है। यह किताब लंदन के दो लेखकों जॉन गिलैट अर मनजीत कुमार ने मिलकर लिखी है । जॉन गिलैट गणितज्ञ हैं और मनजीत कुमार भौतिकी और दर्शन के विद्वान हैं ।
पहले विज्ञान की प्रगति को समाज की प्रगति की नींव मान्या जाया करता । साथ में ये विचार कि मानवता को विज्ञान के द्वारा पूर्णतर बनाया जा सकता है, प्रगति का आधार था। यो विचार सबसे पहले अठारवीं सदी में एक फ्रांस के गणितज्ञ और दार्शनिक कोंदोर्से ने अपनी किताब ‘मानव मस्तिष्क की प्रगति की एक ऐतिहासिक झांकी’ (1794) मैं व्यक्त किया था। फेर ब्रूनो नै जिन्दा जलावण वाले हरेक युग मैं हुए हैं और आज भी हैं । एक अंग्रेज पादरी था माल्थस जिसको फांचर ठोक कहदें तो गलत बात नहीं उसने कोंदोर्से के विचार का विरोध किया ‘ऐस्से ऑन दि प्रिंसीपल ऑफ पापुलेशन’ (1798) मैं अपनी किताब छपवा करके । इसके बावजूद पीछे सी तक कोंदोर्से का सिद्धांत काम किया करता । उस बख्त लोगां के दिल में ये आस थी ये विश्वास था कि विज्ञान के दम पर समाज की प्रगति, मानवता की प्रगति बहोत आगे तक की जा सकती है। उनको उम्मीद थी कि वैज्ञानिक प्रगति के साथ-साथ सामाजिक प्रगति भी हो सकती है और होएगी और आम आदमी की जिन्दगी मैं खुशहाली आएगी। हरित क्रांति के दौर मैं हरियाणा के लोगों ने भी खूब सपने देखे थे। पर कितने लोगां के सपने पूरे हुए और कितनों के सपने टूट कर चूर-चूर हो गए ? वैज्ञानिक प्रगति से आर्थिक विकास तो हुया फेर सामाजिक विकास पिछड़ता चला गया। आम आदमी के मन मैं विज्ञान के प्रति मोह भंग के हालात पैदा होगए । क्यों? सोचने की बात है ।
भारत मैं भी विकास का यही मॉडल तबाही मचावण लागरया है। भारत को महाशक्ति बणाण के सपने देखैं हैं फेर 80 प्रतिशत जनता का गला घोंट के महाशक्ति बण बी जायेगा तो क्या फायदा? एक बार फिर विवेक पर विवेकहीनता की जीत का मौका आ जायेगा । भारत बहोत बड़ी आबादी वाला देश है इस कारण यहाँ कुशल श्रमवाली, कम पूंजी वाली और म्हारे प्राकृतिक संसाधनां को नुकसान ना पहोंचाने वाली प्रौद्योगिकी को प्राथमिकता मिलनी चाहिए। फेर इसकी जगह हम कैपिटल इंटेंसिव प्रौद्योगिकी अपनाने से एक तरफ तो हम अपने देश के बहोत से श्रमिकों को बेरोजगार बनाते हैं और दूसरी तरफ नई प्रौद्योगिकी बाहर से लाने पर अपनी औकात से फालतू खर्च करके कर्ज के शिकंजे मैं फंस ज्यावां सां और फेर विश्व बैंक, अन्तरराष्ट्रीय मुद्रा कोष और विश्व व्यापार संगठन बरगी संस्थावां की उन शर्तां को माणण नै लाचार हो ज्यावां सां। ये शर्त म्हारे देश की अर्थव्यवस्था के प्रतिकूल ही रही हैं । यह बात साफ है कि अगर हम ज्यादा श्रम आली और स्थानीय ज्ञान प्रणालियां पर आधारित प्रौद्योगिकी को विकसित करांगे तो हमारे काम से रोजगार बधैंगे, जनता के जीवन में खुशहाली आएगी । जनता हमको अपना मित्र और हितचिंतक मानेगी और एक बेहतर जीवन दृष्टि अपना कर अज्ञान और अंधविश्वास फैलाने वाली अवैज्ञानिक ताकतों के खिलाफ लड़ने में सक्षम हो सकेगी। बिल्कुल अनपढ़ अर गरीब किसान भी जानता है कि अपने खेत मैं उसनै जो फसल पैदा करनी है वह खाद बीज पानी वगैरह के साथ ही हो सकती है। या फसल ना तै हिन्दुत्व, भारतीयता और या सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के नारयां तै पैदा होगी और ना किन्हीं अंधविश्वासों अर कर्म काण्डों से । जब हटकै विवेक अपनी जगह बनायेगा तभी जनपक्षीय विज्ञान का विकास होगा। और फिर जिससे समाज में आम जनता का विकास होगा। काम आसान नहीं। फेर मुश्किल भी नहीं अगर जनता की समझ में आ जाये तो। समझल्यो तावले से मेरे बीरा। मनै बेरा सै विवेक खत्म करने को अन्धविश्वास फैलाये जा रहे हैं । बचियो!!!
ranbir dahiya

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