Sunday, May 17, 2020

विज्ञान के इतिहास के झरोखे से

विज्ञान के इतिहास के झरोखे से।
विज्ञान के इतिहास में बहुत सी दिलचस्प बहसें दर्ज है । कुछ बहसें इसलिए महत्वपूर्ण है कि वे समकालीन प्रचलित मान्यताओं को नकारते हुए बनी हैं । कुछ बहसें इसलिए भी महत्वपूर्ण है कि ये लंबे समय तक उलझी रही बातों को लेकर रही हैं ।डार्विनवाद पर बहस इसका एक दिलचस्प उदाहरण है। यह बात सन 1860 जून 28 की है ।स्थान था ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय संग्रहालय वनस्पति शास्त्र विभाग, इंग्लैंड प्रोफेसर चार्ल्स डॉनबी ने एक पर्चा पढ़ा। On the final causes of the sexuality in plants ।Owen नाम के एक वैज्ञानिक ने इसका विरोध किया इस पर्चे में डार्विनवाद के हक में कुछ कहा गया था। प्रसिद्ध वैज्ञानिक हक्सले भी इसे सुन रहे थे।वे डार्विनवाद के प्रबल समर्थक थे। इनसे रुका नहीं गया । वे एकदम खड़े हुए । वातावरण गर्म था ।यह किसी तरह शांत हुआ। दो दिन बाद ही बड़ी बहस होनी थी। हक्सले इस बहस में नहीं आना चाहते थे ।प्रोफेसर रोबोट चैंबर्स जो विकासवाद के समर्थक थे के हस्तक्षेप से हक्सले ने आने का आग्रह स्वीकार किया। हक्सले ने मन बना लिया। 30 जून सन 1860 आगया। स्थान वही। लगभग एक सौ के आसपास वैज्ञानिक एवं बुद्धिजीवी एकत्र थे। सभा की अध्यक्षता कर रहे थे जॉन स्टीवंस हेंसलोट ।ये एक प्रसिद्ध वैज्ञानिक थे। इसमें 1 पर्चा पढ़ा गया। यह पढ़ा डॉ जॉन डब्लू ड्रेपर ने। इसमें विकासवाद की तरफदारी थी। पर्चा कुछ लंबा था और ज्यादा रोचक नहीं था। ये वैज्ञानिक न्यूयॉर्क से आए थे। पर्चा पढ़ा जाने पर बहस को आमंत्रित किया गया । इस सभा में एक व्यक्ति फिट्जरॉय भी बैठे हुए थे ।ये वही शख्स थे जिनके जलयान बीगल में रवाना होकर डार्विन ने अपनी खोज के लिए आंकड़े जुटाए थे ।लेकिन यह थे पक्के धार्मिक । ये अपने साथ बाइबल की भारी पुस्तक लेकर आए हुए थे। इन्होंने बाइबिल को सिर पर उठाया और चिल्लाए Believe in God rather than man ।एक महिला ब्रुएवेस्टर तो यह बहस सुनकर बेहोश हो गई जब उसे पता चला कि हम विकासवाद का परिणाम हैं ।इसे सम्मान पूर्वक बाहर ले जाया गया।
बहस में एक रोचक मोड़ आया। बिशप सैमुअल विलबरफोर्स खड़े हुए ।इनके पास गणित की ऊंची डिग्री थी। ये रॉयल सोसाइटी के फैलो पद पर थे ।अब तक की बहस विकासवाद के पक्ष में जा रही थी ।विज्ञान के इतिहास में यह दूसरा बड़ा अवसर था जब वेटिकन ईसाइयत खतरे में थी। पहली बार बड़ा खतरा गैलीलियो की ओर से प्रस्तुत किया गया था जब 17वीं सदी के चौथे दशक में उन्होंने ए डायलॉग बिटवीन द टू सिस्टम्स लिखी थी। गैलेलिओ को यह भुगतान भी पढ़ा था। वह क्षेत्र भौतिकी का था ।विलबेरफोर्स ने पूरी ताकत से बाइबल की मान्यताओं को बचाने का प्रयास किया। लेकिन उनके तर्क ज्यादा दमदार नहीं थे । अब वे ओछे स्तर पर उतर आए। इन्होंने हक्सले को मुखातिब होकर कहा, महाशय, वे बताएं कि वे अपने पूर्वजों की ओर से माता-पिता की ओर से आए हैं या बंदरों की ओर से। यह एक प्रकार से चरित्र हनन की कोशिश थी। इस बात पर सभा में अधिकांश की हंसी छूट गई थी ।विलबेरफोर्स की यह अंतिम दलील थी। हक्सले से भी रुका नहीं गया ।उन्होंने तुरंत उठ कर कहा ,मुझे बंदरों को अपना पूर्वज बनाने में कोई शर्म नहीं आएगी। मुझे शर्म तो तब आए जब मैं मूर्खों की तरह अनहोने पूर्वजों को अपना मानूँ। माहौल एकदम शांत हो गया। हक्सले बहस जीत चुके थे विलबरफोर्स की आधा घंटे की बहस कोई काम नहीं आई।
मुख्यतः यह बहस विज्ञान एवं धर्म के बीच नहीं थी । यह बहस विज्ञान एवं दर्शन के बीच थी। डार्विन की पुस्तक को छपे अभी केवल सात ही महीने हुए थे। 2 जुलाई को हूकर ने डार्विन को पत्र लिखकर बहस के बारे में बताया ।हुकर भी इस बहस में एक प्रतिनिधि थे। यह बहस कई वर्षों तक छपी नहीं ।डार्विन खुद बीमार थे । वे तो बहस में उपस्थित भी नहीं हो पाए थे। लगभग 20 वर्ष बाद हक्सले के पुत्र लियोनार्ड और डार्विन के पुत्र फ्रेनसिस ने सामग्री इकट्ठा कर इस बहस को लिखा । जब डार्विन को बहस के बारे में हूकर ने समाचार दिया था तो डार्विन के शब्द थे , मुझे विश्वास है यदि मैं बहस में उपस्थित होता तो शायद ऐसा नहीं कर पाता। उन्होंने धन्यवाद दिया। उनका इशारा हक्सले की ओर था। यह कहावत चरितार्थ हुई, Intellectual Honesty always beat pride everytime ।

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