Friday, November 26, 2010

मेरा कस्सूर

मेरा कसूर
हमने दोनो ने मिलकर सोचा

जिन्दगी का सफ़र तय करेंगे

बहुत सुन्दर सपने संजोये थे
प्रेम का पता नहीं ये हरयाणा
क्यों पुश्तैनी दुश्मन बन गया
यह सब मालूम था हमको पर

प्यार की राहों पर बढ़ते गए

मेरे परिवार वाले खुश नहीं थेa

क्यों मुझे पता नहीं चला है

न तो मैंने एक गोत्र में की है
न ही एक गाँव में शादी मेरी
न ही दूसरी जात में की मैंने

तो भी सब के मुंह आज तक

फुले हुए हैं हम दोनों से देखो

प्यार किया समझा फिर शादी

ससुराल वाले भी खुश नहीं हैं

शायद मन पसंद गुलाम नहीं

मिल सकी जो रोजाना उनके

पैर छूती पैर की जूती बनकर

सुघड़ सी बहु का ख़िताब लेती

दहेज़ ढेर सारा लाकर देती ना

प्यार का खुमार काम हुआ अब

जनाब की मांगें एकतरफा बढ़ी

मैं सोचती हूँ नितांत अकेली अब

क्या हमारा समाज दो प्रेमियों के
रहने के लायक बन पाया यहाँ \

चाहे कुछ हो हम लोड उठाएंगे

मगर घुटने नहीं टिकाएंगे यारो

वो सुबह कभी तो आयेगी की
इंतजार में ये संघर्ष जारी रखेंगे
झेलेंगे इस बर्बर समाज के सभी
नुकीले जहरीले तीर छाती पर ही
जिद हमारी शायद यही है कसूर

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