Saturday, November 6, 2010

MUSTANDA

अवसरवादी मुस्टंडा
एक नन्हा सा अवसरवादी मुस्टंडा
जो मेरे जन्म के वक्त
किसी काली सुरंग से
भित्तर घुस आया था
जवान हो गया है
एक जहरीले नाग की तरह |
जब वह मचलता है
तो फुंफकारता है
उस की चिरी हुयी जीभ
मेरे नथुनों में लपलपाती है
मेरा साँस लेना दूभर हो जाता है
और एक कंपकंपी दौड़ जाती है
मेरे जिस्म के रोयें रोयें में |

जब वह सड़क पर आते हुए
आदमीनुमा हड्डियों के ढांचे को देखता है
जिसे लीर लीर हुए कपड़ों ने
कुछ छिपा रखा है , कुछ दिखा रखा है
तब इस मुस्टंडे के माथे पर
बाल पड़ जाते हैं
और वह दनदना उठता है
किसी बावर्दी थानेदार की भांति
जिसे मुफ्त की शराब ने गरमा रखा हो
उसे सख्त नफरत है छोटे छोटे लोगों से
क्योंकि इन लोगों को
सिवाय भीड़ बनने के
और कोई काम नहीं
कभी बन जाते हैं ये खाली बोतलें
कहीं हो जाते हैं ये खालीं कनस्तर
राशन की बोरियों के आगे
कभी उबलने लगते हैं नारे बनकर
फैकटरी के गाते के सामने |
कभी लम्बी लाईन बन जाते हैं बीमारी की या बेकारी की
अब तो ये दिल्ली के बोट कलब पे भी मंडराने लागे हैं
कभी मजदूर बनकर
कभी किसान होकर
और आपस में
मांगों के बोझ से झुके कन्धे अड़ा कर
ट्रेफिक ब्लाक कर देते हैं
वहां उनकी जीभें उग आती हैं
पेड़ों की टहनियों की तरह
और नारे पक्षी बनकर
सभी और फडफड़ाने लगते हैं
लेकिन कितना खुशकिस्मत है वह गोल गुम्बद
जो इस भीड़ से कम से कम
एक किलोमीटर दूर रहता है
मेरी आँखों में
हालाँकि मैंने उन पर
इम्पोरटिड अमरीकन रंगीन चश्मा भी चढ़ा रखा है
भीड़ का कोई न कोई टुकड़ा
फंसा ही रहता है |
इच्छा रहती है इस मुस्टंडे की
गहरी छन् जाये किसी आला अफसर से
रिश्ता जुड़ जाये किसी बड़े दफ्तर से
या चिपक जाये फिर
किसी चलते पूर्जे मिनिस्टर से
जो उसके बेटे को
किसी ओहदे पर बिठा सकते हैं
या लगा सकते हैं किसी अच्छे विभाग में इंस्पैक्टर
यहाँ तनखा मामूली होते हुए भी
कोठियां खड़ी होती हैं
और बैंक बैलैंस बढ़ता है

लेकिन अब यह मुस्टंडा
कुछ डरने लगा है
क्योंकि उसकी नस्ल के
और बहुत मुस्टंडे चक्कर लगाने लागे हैं
कोठियों दफ्तरों और रेस्ट हाउसों के |
उनकी पतंगें आपस ही में
उलझने लगी हैं
हर एक ने अपनी अपनी डोरी को
तेज शीशे वाला माँझा बना लिया है
ये डोरें आपस में ही कटती हैं |
एक पतंग सरसराती है
तो दूसरी दर्जनों गिरती हैं |
इसीलिए यह मुस्टंडा
भीड़ की तरफ भी देखता है
डरा डरा सा
क़ि क्या होगा तब
जब बड़ों ने धक्का दे दिया
और भीड़ ने भी पनाह न दी |
महावीर शर्मा
प्रयास पत्रिका
जन --- फरवरी 1983

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