Monday, February 13, 2023

आज का दौर

 दुनिया जलवायु परिवर्तन के संकट के सामने अपने अस्तित्व के मिटने के कगार पर है. वनस्पतियों और जीव जंतुओं की प्रजातियां सदा के लिए मिट जाने वाली हैं और मनुष्य को निगलने के लिए तबाही मूंह बाएं खड़ी है पर पूंजीवादी व्यवस्था साल दर साल इस संकट को देखते हुए भी पलटने को तैयार नहीं है. दुनिया में अनेक जगहों पर युद्ध जारी है और युद्ध का उद्योग फल फूल रहा है. मनुष्य को मनुष्य के खिलाफ खड़ा करने वाले घृणा, नफ़रत और फेक न्यूज़ का कारोबार भी चौतरफा विकसित हो रहा है. पूरी दुनिया के सामने फासीवाद का संकट खड़ा है. कई देशों में घनघोर दक्षिणपंथियों को चुनाव में हार भी मिली है पर युरोप के विकसित देशों सहित अनेक देशों में उनको सत्ता में जीत भी मिल रही है.


देश के भीतर फासीवाद को आदर्श मानने वाले संघ के नेतृत्व में सरकार अपने सबसे ताकतवर और उग्र रूप में जनतंत्र और धर्मनिरपेक्षता और विविधता में एकता की संस्कृति को हर रोज कुचलने का काम कर रही है. संविधान और संवैधानिक मूल्यों को सोचे समझे ढंग से दरकिनार कर मनुस्मृति को लागू करने पर आमादा है. संवैधानिक संस्थाओं को नाकारा कर असंवैधानिक तौर तरीकों का बेखौफ ढंग से इस्तेमाल किया जा रहा है. अल्पसंख्यकों, दलितों, आदिवासियों और महिलाओं के जनतांत्रिक अधिकारों हर रोज़ और हर स्तर पर छीना जा रहा है. सार्वजनिक क्षेत्र को ओने पोने दामों पर अपने चहेते क्रोनी पूंजीपतियों को सोंपा जा रहा है और अर्थव्यवस्था चौपट हो रही है. शिक्षा में आमूलचूल परिवर्तन करके भी यही सब करने की कोशिश हो रही है. बेरोजगारी का आलम ये है कि सबसे युवा आबादी वाले देश में पिछले 46 सालों की सबसे ज्यादा बेरोजगारी है. अपराध, नशे और सांप्रदायिक दंगों के लिए ये बड़ी अनुकूल माहौल है.

हरियाणा में आधुनिक जनतांत्रिक और धर्मनिरपेक्ष सांस्कृतिक परंपरा बहुत मजबूत नहीं रही, लेकिन जैसी भी रही है उसको आगे बढ़ाने का काम ज्यादा नहीं हुआ. आजादी के आंदोलन के दौरान जाफर जटली, हाली पानीपती, बाबू बालमुकुंद गुप्त जोहराबाई अंबालेवाली, अमीर खां साहब, इकबाल बानो, ख्वाजा अहमद अब्बास, पं मनीराम, पं जसराज जैसे बहुत जाने माने लेखक, संगीतकार, गायक और फिल्मकार हुए हैं. नाम तो और भी हैं, पर यहाँ सिर्फ इशारा करने की कोशिश है. अधिकतर के बारे में हम कम जानते हैं, या बहुत कम जानते हैं. रागनी और सांग के मामले एक हद तक आगे बढ़े, लेकिन पं लखमीचंद के अलावा ज्यादा उम्दा सांगियों को ना पूरा पहचाना गया और ना ही आगे बढ़ाया गया. हर इलाके में महिलाओं के अलग-अलग गीतों में, उनके नाचने में भी एक धारा प्रवाहित हो रही है. इसमें मौजूद रंगों को, भावनाओं को कम ही देखा गया है. अगर हम और पीछे से बात शुरू करें तो कबीर यहां पधारे थे, शेख फरीद यहाँ मौजूद थे, कलंदर बू अली शाह की निशानी पानीपत में आज भी कायम है, शेख चेहली का मकबरा कुरूक्षेत्र में अब भी है, हम और भी महत्वपूर्ण सुफियों और भक्त कवियों का जिक्र कर सकते हैं.

जिस समय जनवादी सांस्कृतिक मंच और जनवादी लेखक संघ की स्थापना हुई तो एक महत्वपूर्ण काम की शुरुआत हुई. लेखन, रचना प्रक्रिया, और लेखन जगत के बारे में विचार विमर्श, और बहस मुबाहिसा शुरू हुआ. विचार मंचों के माध्यम से सामाजिक, सांस्कृतिक और आर्थिक मसलों पर चर्चा, सेमिनार हुए और कार्यशालाएं आयोजित की गयी. जतन पत्रिका ने एक मंच उपलब्ध कराया और हमारे राज्य सम्मेलनों ने व्यापक बुद्धिजीवियों को भी जोड़ने का अवसर दिया. जन नाट्य मंच, दिल्ली की टीम नाटक करने के लिए हरियाणा आने लगी और हरियाणा के युथ फेस्टिवल में जन नाट्य मंच के नाटक खेले जाने लगे. पंजाब से लगते हरियाणा में पंजाबी के नाटकों, गीत-संगीत का बोलबाला रहा. हमारे दक्षिणी हरियाणा में और खासतौर पर मेवात के इलाके में बात की परंपरा आज भी मौजूद है. जिसमें गायन और कथा का मिश्रण रहता है. एक इलाके में बृज भाषा का सुंदर समावेश देखने को मिलता है. राजस्थान से लगते इलाकों में राजस्थानी लोक गीत संगीत का असर आज भी है. यमुना के किनारे के क्षेत्रों में हिंदी, हरियाणवी और पंजाबी के प्रभाव को देखा जा सकता है. इस तरह से सांग और रागनी के साथ अनेक मिलीजुली परंपराएं कायम रही हैं. लेकिन ये सुनाई और दिखाई कम देतीं हैं.
आजादी के समय हुए विभाजन में जितनी भारी हिंसा लूटपाट मुस्लिम आबादी पर की गयी, इसने एक ऐसी जमीन तैयार की है कि किसी भी अच्छे खासे भले दिखने वाले व्यक्ति में भी मुस्लिम विरोध मिल जाता है. बड़ी संख्या में दूख - तकलीफ झेलते हुए पाकिस्तान से आए शरणार्थियों ने भी यहां के सामाजिक - सांस्कृतिक वातावरण को बनाने का काम किया है. जिसे हम हरियाणा कहते और समझते हैं, वो हरियाणवी, हिंदी, पंजाबी, बृज, राजस्थानी, झंगी, मुलतानी आदि के मेलजोल का ही परिणाम है.
विभाजन की त्रासदी ने सिर्फ 1947 में ही तबाही नहीं मचाई, बल्कि आज भी हम हरियाणा के मिलेजुले पन को स्वीकार नहीं कर पाते हैं और अपनी शानदार विरासत को बड़ी ही आसानी से भुला बैठे हैं. वरना क्या 1857 में पहले स्वतंत्रता संग्राम में आम मुसलमानों और दलितों की शहादतों को क्या यूंही भुलाया जा सकता है? देश में लड़कियों का पहला स्कूल 1848 में पूणे में जोतिबा और सावित्रीबाई फूले ने बनाया, और क्या हम जानते हैं कि 1890 में पानीपत में लड़कियों का पहला स्कूल बना? हम उसके बनने के संघर्ष और कामयाबी को कितना कम जानते हैं. 1947 की विभाजन की त्रासदी आज भी बहुत महीन ढंग से जारी है. संघ के नेतृत्व में अब ये काम बहुत सोचे समझे ढंग से किया जा रहा है. हमने अपनी साझे संघर्षों और साझी संस्कृति को भुला दिया. ( 2007 में हमारे नाटक "जंगे आजादी 1857" को करते हमने पाया कि उस एतिहासिक विस्मृति को जगाया जा सकता है.)
दलितों की स्थिति
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महिलाओं की स्थिति
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बेकवर्ड क्लास की स्थिति
हम दलितों के बारे में सचेत ढंग से बात तो करने लगे हैं और हमदर्दी के साथ सोचते और खड़े भी होतें हैं, लेकिन योजनाबद्ध ढंग से उनमें नेतृत्व विकास से और निर्णय लेने के मंचों में उनकी भागीदारी और संसाधनों के लगाने में पक्षधरता की कमी बनी हुई है. एक और चिंता की बात यह है कि हम बेकवर्ड क्लास के बारे में लगभग कोई बात नहीं करते हैं. हरियाणा की आबादी में उनका हिस्सा 35 फीसद के आसपास है, फिर भी नहीं कर पाए हैं. हरियाणा में कहीं-कहीं उनके पास जमीनें है खेती भी करते हैं, लेकिन मुख्य तौर पर ये कारीगर जातियां ही रही हैं. एक समय में बहुत सीधे रूप से खेती के सहायक कामों की जिम्मेदारी इन्हीं पर थी. और फसल के समय  ही उनका हिस्सा मिलता था. पर मशीनीकरण के साथ और खेती में मशीनों के आने के बाद ये संबंध बदल गए. आपातकाल के आसपास देश में बेकवर्ड जातियों की राजनीति भी उभरी, और उनमें महत्वाकांक्षा जन्मीं कि वो भी तथाकथित ऊंची जातियों में शामिल हो सकती हैं. मंडल कमीशन को लागू करने के साथ ही आरक्षण विरोधी आंदोलन ने विस्तार पाया और एक आकलन ये भी रहा है कि मंडल का मुकाबला करने के लिए कमंडल लाया गया, यानि राममंदिर का आंदोलन चलाया गया. धरातल के स्तर पर बेकवर्ड क्लास की सामाजिक रूप से उत्थान की इच्छा को राममंदिर के निर्माण की ओर मोड़ दिया गया. और आज मोदी को बेकवर्ड क्लास के रूप में प्रोजेक्ट करते हुए भारी समर्थन जुटा लिया गया है. हरियाणा में जाट आरक्षण के समय की हिंसा में भी बेकवर्ड क्लास को कंसोलीडेट करने का काम किया गया है. किसान आंदोलन के समय हमने देखा कि बेकवर्ड क्लास के लोग किसानों के सड़क पर आ जाने से खुश थे और मोदी को धन्यवाद दे रहे थे कि जाटों को सड़कों पर ला दिया.
इन कारीगर जातियों को खुद को मजदूर वर्ग के साथ जोड़ने की  अपार संभावनाएं मौजूद हैं. खासतौर पर भक्ति काल के कवियों और समाज सुधारकों के सीखते हुये और आज के समय के नागरिक जीवन के सवालों के साथ जोड़ते हुए ये काम किया जा सकता है. वरना मध्य जातियां अभी तक तो संघ के साथ खड़े होने में ही अपना उद्धार देख रहीं हैं.

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