Tuesday, February 7, 2023

सविता रानी

 *आधुनिक सोच का नाटक बनाम तथाकथित आधुनिक व्यवस्था*


हरियाणा ज्ञान-विज्ञान समिति के साथ मैंने नाटक करने की शुरुआत की थी। पिछले दिनों जो बहुत ज़्यादा चल रहा था दिमाग में, वह था गैरबराबरी और उसके साथ जो दूसरी चीज़ आ रही थी वह थी - आधुनिक नाटक बनाम आधुनिक व्यवस्था।


देखने में यह लग सकता है कि आधुनिक नाटक और आधुनिक व्यवस्था में क्या विरोधाभास हो सकता है, दोनों आधुनिक हैं, एक साथ ही हैं तो विरोधाभास कैसे हो सकता है। मुझे भी ये पहली बार ही दिमाग में आया कि आधुनिक शब्द केवल आधुनिक हो यह ज़रूरी नहीं है। आधुनकि सोच अगर है तो वह आधुनिक होती है, लाज़िमी है। इसलिए अगर कहें *"आधुनिक व्यवस्था"* और हम मान लें कि यह आधुनिक है, यह काफ़ी भ्रमित करने वाली चीज़ है। 


इसी को सोचते हुए मैं इस विचार पर पहुंची कि आधुनिक व्यवस्था आधुनिक कतई नहीं है। इसमें आधुनिक शब्द केवल छौंक में जीरे का इस्तेमाल होने जैसा है कि थोड़ा-सा दिखाई दे, उसका स्वाद आए, खुशबू आए ताकि आपको लगे कि हां बहुत ही अच्छा खाना है। तो आधुनिक शब्द केवल वही काम करता है आधुनिक व्यवस्था में। जबकि आधुनिक व्यवस्था का जो आधार है वह कतई आधुनिक नहीं है, मतलब आधुनिक सोच पर आधारित नहीं है। ऐसा इसलिए क्यूंकि  आधुनिक सोच वैज्ञानिक सोच है जिसने गैरबराबरी को  चिह्नित करने का बड़ा काम किया है जो कि एक radical thought है। आधुनिक सोच व्यक्ति चेतना से सामूहिक चेतना और सामूहिक चेतना से सामाजिक चेतना की ओर ले जाती है और उसकी प्रक्रिया बहुत ज़्यादा समय की मांग करती है। आज़ादी की लड़ाई के दौरान हम ब्रिटिश सम्राज्यवाद के खिलाफ़ जिस प्रक्रिया का हिस्सा बने वह इस आधुनिक सोच का हिस्सा थी, सामाजिक चेतना का हिस्सा थी जिसमें गैरबराबरी को चिह्नित करते हुए उसको सामाजिक अन्याय की तरह देख पाने की क्षमता थी। पर जब हमने वह लड़ाई जीत ली तब हमने जो व्यवस्था बनाई उसने उस सामाजिक चेतना को बहुत ज़्यादा समय नहीं दिया, मतलब जिस चीज़ को सिर्फ़ चिह्नित करने में सदियां लग गईं उसको बदलने के लिए हमें कम से कम एक सदी का समय तो चाहिए ही था। लेकिन ऐसा हुआ नहीं और 1947 के बाद जो व्यवस्था बनी उसका आधार गैरबराबरी और hierarchy (ऊंचे और नीचे की व्यवस्था) बने रहे। उदाहरण के तौर पर (इसको व्यक्तिगत तौर पर बिल्कुल न लें) नौकरियों का विभाजन फ़र्स्ट क्लास, सैकंड क्लास, थर्ड क्लास और फो फोर फ़ोर्थ क्लास में हो गया। एक तरीके से वर्ण व्यवस्था को एक अलग तरीके से नए खोल में ही पेश किया गया जो सबको तार्किक लगा, न्यायोचित लगा और स्वीकार हुआ (प्रतियोगिता के नाम पर कि आप मुकाबला कीजिए और पद/स्थान हासिल कीजिए)। 


सामाजिक चेतना के दायरे को बड़ा करने में शिक्षा एक महत्त्वपूर्ण टूल हो सकती थी ताकि वह हर व्यक्ति की चेतना का हिस्सा बने और सब "एक बराबर" की व्यवस्था को समझने, पढ़ने के साथ-साथ उसको अमल करने में भी समर्थ हों। लेकिन जो व्यवस्था असल में बनी वह कहने भर को आधुनिक थी। वह गैरबराबरी को बढ़ावा देने वाली ही रही और उसमें शिक्षा, विज्ञान, तकनीक और कला (संगीत, नाटक कोई भी) का इस्तेमाल केवल अपने लाभ के लिए किया गया। एक अर्थशास्त्री हैं अमित भादुरी जो सुविधाभोगी वर्ग को rich minority कहते हैं, तो हुआ यह कि सब तरह के लाभ rich minority (अल्पसंख्यक अमीरों) को मिलते रहे थे, हैं और रहेंगे। और जो poor majority (बहुसंख्यक गरीब) यानी, आधे से ज़्यादा आबादी वह इन लाभों का न कभी हिस्सा थी, न है और न बन पाएगी, अगर हम इसी आधुनिक व्यवस्था को जारी रखते हैं।


आधुनिक व्यवस्था आधुनिक नाटक का इस्तेमाल भी करती है और आधुनिक नाटक ऐसे में व्यवस्था के साथ खड़ा हो जाता है, उसका प्रतिरोध करने की बजाय। आधुनिक व्यवस्था ने तीन काम किए हैं जो मुख्य धारा के मानक मान लिए गए हैं - विकास, जीवन स्तर और एस्थेटिक्स। इन मानकों के आधार पर ही तय होता है कि अगर आपके पास ये हैं तो आप आधुनिक हैं। और इन तीनों में जो समानता है वह है चीज़ों को बड़े स्केल पर दिखाना जैसे बड़ी-बड़ी इमारतें (जैसे 300 मंज़िला इमारत) और फ्लाईओवर । इसका अर्थ है कि जो आपको काल्पनिक जैसा लगे, असंभव लगे, उसको विकास का मानक बना दिया गया है। इसमें चमक-धमक है। मतलब उसमें ऑर्गनिसिटी नहीं है, स्वत: स्फूर्तता बिल्कुल नहीं है और यह कृत्रिम या अवास्तविक चीज़ आपको एक ज़रूरी हिस्सा लगने लगता है अपनी रोज़मर्रा की ज़िंदगी का। इसके लिए आधुनिक व्यवस्था ने काफ़ी चालाकी से एक क्रेडिट सिस्टम बना दिया जो कि immediate loan system है, EMI, जिसमें आप बड़ी से बड़ी चीज़ का दाम छोटी-छोटी किस्तों में चुकाते रहिए। मतलब आपके आने वाले बीस-पच्चीस साल उन चीज़ों की किस्त चुकाने के लिए हैं। बीस-पच्चीस साल के लिए इस आधुनिक व्यवस्था ने आपको ठिकाने लगा दिया और आपको एक तरीके से अपना गुलाम बना लिया, ऐसा कहा जा सकता है। मध्य वर्ग इस समय क्रेडिट सिस्टम और ईएमआई का गुलाम है। और एक बड़ा तबका जिनके पास अपना कुछ नहीं है, जो हर रोज़ काम के आधार पर अपना गुज़र-बसर करता है, वह इसी चिंता में लगा रहे, कुछ सोच-समझ न पाए। कुल मिलाकर सोचने-समझने की शक्ति को सीमित कर दे, उसको छोटा कर दे। यह कतई आधुनिकता नहीं है।


दूसरी गलती जो होती है कि आधुनिक को हम केवल आज से देखते हैं लेकिन जो भी चीज़ भूत, वर्तमान और भविष्य को अलग-अलग करके देखे वह आधुनिक नहीं हो सकती। क्यूंकि आधुनिक सोच वैज्ञानिक दृष्टिकोण पर आधारित है जिसका मतलब है भूत, वर्तमान और भविष्य को अलग-अलग न करके देखने की बजाय उनको एक समीकरण में देखना। आधुनिकता भूतकाल की समीक्षा करते हुए, वर्तमान में उस पर काम करते हुए और भविष्य की कल्पना में भी उसका विश्लेषण आज ही करते हुए भविष्य को स्थापित करने की कोशिश करती है। मुझे लगता है कि आधुनिक सोच आधुनिक व्यवस्था के बिल्कुल विपरीत है। बड़े स्केल पर चीज़ें देखने की बजाय छोटे या यूं कहे साधारण अथवा सूक्ष्म स्केल पर देखने की कोशिश होती है, अर्थात् बहुत मिनिमल होगा, ऑर्गेनिक होगा, इवोल्व होगा, थोपा हुआ नहीं होगा। इस आधुनिक व्यवस्था ने एक काम और किया है, वह है विज्ञान, तकनीक और शिक्षा आदि सबका इस्तेमाल काफ़ी अच्छे ढंग से और चालाकी से कर लिया। अब अगर में यह बोल रही हूं तो किसी को लग सकता है कि मैं विज्ञान के खिलाफ़ हूं। लेकिन मुझे लगता है कि वैज्ञानिक सोच और तकनीकी सोच में यकीन रखना अलग बात है तथा विज्ञान और तकनीक का इस्तेमाल व्यवस्था के लिए करना एवं उसमें यकीन रखना अलग बात है। मैं व्यवस्था के लिए उसके इस्तेमाल में यकीन नहीं रखती। मैं एक किताब पढ़ रही थी जो कि इम्यून सिस्टम पर आधारित थी और उसमें vaccine पर जो बहस या कंट्रोवर्सीज़ हैं, वे भी है। चिकनपॉक्स का वैक्सीन कैसे तैयार हुआ, उस पर एक छोटा सा brief था उसमें। सबसे पहले यह इस्तेमाल की गई थी एक्सपेरिमेंट के तौर पर - जानवरों और गुलामों पर। यहां एक सवाल उठता है कि कौन तय करता है कि इंसान की ज़िंदगी ज़्यादा मूल्यवान है किसी भी दूसरी प्रजाति से (मतलब जानवरों से)। और इंसानों में भी categories बना दी गईं कि जो गुलाम है, गरीब है, जिसके पास कुछ नहीं है, उस पर एक्सपेरिमेंट होगा क्यूंकि उसकी ज़िंदगी महत्त्वपूर्ण नहीं है, ऊंची जाति के लोगों, राजा और अमीर लोगों के मुकाबले।


तो एक्सपेरिमेंट होगा गरीब पर और उसका फ़ायदा मिलेगा अमीर को। इस समय जब हम कोरोना की वेक्सीन को लेकर चिंतित हैं, पूरी दुनिया की आधे से ज़्यादा आबादी इलाज का खर्च न उठा पाने की वजह से, भूख से, प्यास से मर जाती है उस पर पूरी दुनिया ने कभी इतनी चिंता प्रदर्शित नहीं की जो इस समय की। मुझे यह सवाल बहुत महत्त्वपूर्ण लगता है क्यूंकि यह सवाल व्यवस्था और उसकी गैर-बराबरी पर है।


*अगर इस सवाल पर पूरी दुनिया एक साथ आए तो हम आधुनिक की श्रेणी में आते हैं वरना हम बर्बर ही हैं और इसीलिए आज भी पितृसत्ता, लिंग-भेद, जाति-भेद, नस्ल-भेद हमारे अंदर भरे बैठे हैं।*


जिसको हम आधुनिक व्यवस्था मानते हैं उसमें कुछ चुनिंदा लोगों को ही फ़ायदा मिलता रहा है। इतने सारे आंकड़े हैं जो दिखाते हैं कि गैर-बराबरी आपकी कल्पना से भी बहुत अधिक बढ़ी है। मैं यहां पर वे आंकड़े नहीं रखना चाहती क्यूंकि जो आदमी देख और समझ सकता है उसे आंकड़ों की मदद की ज़रूरत नहीं और जो नहीं देखना-समझना चाहता उसे आप जितने मर्ज़ी आंकड़े दिखा लें, वह नहीं मानेगा और आधुनिक व्यवस्था का अंध भक्त बना रहेगा। और इसी तरह आधुनिक नाटक को भी रीडिफ़ाइन या पुनर्परिभाषित करने की ज़रूरत है। आधुनिक सोच का नाटक तथाकथित आधुनिक व्यवस्था के प्रतिरोध में खड़ा होता है क्यूंकि यह सामाजिक चेतना से सरोकार रखता है। एक अभिनेत्री के तौर पर मेरा पहला नाटक था - एक नई शुरुआत। यह नाटक आधुनिक सोच का नाटक है और इसलिए आधुनिक है। यह नाटक एक कार्यशाला में   विचार-विमर्श करते हुए  मिलकर लिखा गया, इंप्रोवाइज़ और evolve हुआ जिसमें गैर-बराबरी का प्रतिरोध दर्ज किया गया और यह नाटक हरियाणा के लगभग हर ज़िले, गांव, नुक्कड़ पर खेला गया। इस नाटक के अनुभव अभी भी ज़िंदा हैं और ऐसा इसलिए है कि उस नाटक ने चेतना पैदा की और नाटक की अवधारणा और नाटक के लिए एक नज़रिया दिया। इसलिए 'एक नई शुरुआत' बहुत स्पेशल है। 


मुझे लगता है कि इस समय एक रंगकर्मी सिर्फ़ रंगकर्मी नहीं है बल्कि एक आर्टिस्ट का artist-cum-historian, artist-cum-scientist, artist-cum-activist, यानी सब कुछ कर पाने के लिए तत्पर व्यक्ति, होना ज़रूरी है।  अगर आपके लिए आधुनिक नाटक आधुनिक सोच का नाटक है तो यह हमेशा गैर-बराबरी पर आधारित व्यवस्था के प्रतिरोध की आवाज़ होगा, चाहे व्यवस्था किसी भी रूप में अपना नाम बदल कर आए।  


‌ - सविता रानी

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